बैठे ठाले की बकबक -गीता संग ''जो भिड़ा तेरे ''=====
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''जो भिड़ा तेरे नैनों से टांका तो आशिक सरंडर हुआ।
तूने शरमा के विंडो से झाँका तो आशिक सरंडर हुआ।।''
=====और सूर्यदेव ने निशा की काली चादर में छोटी सी विंडो बना झाँका तो प्राची में सिंदूर बिखर-बिखर गया। मानो निशा ने उषा के स्वागत हेतु मुट्ठी में भर के सिंदूर आसमान में उछाल दिया हो या निशा- उषा सूर्य से मिलने पे गुलाल से होली खेल रही हों।
सूर्य से नयन मिलाने की हिम्मत किसकी ? जपा कुसुम संकाशं -से जल अर्पित कर उसके समक्ष नतमस्तक होना यही उसको आभार प्रकट करने का साधन है। प्रत्यक्ष देवता !जिसके ; होने से ये पृथ्वी है।
-अब प्रश्न ये है कि इस गीत का सूर्योदय से क्या संबंध -कहां का ईंट कहां का रोड़ा --संबंध स्थापित करना पड़ा ,मेरी मजबूरी ही समझें इसे -क्यों मैं बताती हूँ -आजकल बिजली की आँख-मिचौली रहती है।कभी -कभार प्रतिदिन ऐसा समय आता है जब आपका किसी कार्य में मन नहीं लगता अकेलापन सालने [सालन से -सालना ]लगता है तो बुद्धू बक्से [idiot box ]--यानी टीवी की हलचल से थोड़ा माहौल को बदलने की साजिशें रचनी पड़ती हैं ,अब इस बक्से में अक्सर काँव-काँव या साजिशें रचते फूहड़ सीरियल --ऊपर से बिजली महारानी के नखरे -कुछ देखने की कोशिश करो तो कट-कट-कट-कट पावर कट और घूम फिर के टाटास्काई के ऐड --तो बस मैं टीवी चला के अन्य कार्य करने लगती हूँ बस हलचल होती रहती है क्या आ रहा है इसपे ध्यान नहीं रहता --और अक्सर टाटास्काई के ऐड ही चलते रहते हैं। कल रात भी यही हुआ -बहुत देर तक यही ऐड चलते रहे और उनमे बार बार ये गाना --''जब भिड़ा तेरे नैनों से टांका तो आशिक सरंडर हुआ'' --चलता रहा। अब गाना ऐसा दिमाग में चढ़ा कि नींद में भी और जब भी नींद खुले यहां तक की सुबह उठने पे और तो और पूजा में भगवान को पिठाईं लगा रही हूँ , सूर्य को जल चढ़ा रही हूँ और मन में चल रहा है --''जब भिड़ा तेरे नैनों से टांका ''--अब बताइये फेसबुक में लिखना भी तो सरंडर ही हुआ न --तो यहां लिख मारा गाने को --
अभी एक बात और====
गीता को मैं क्यूँ अपना सच्चा साथी मानती हूँ --क्यूंकि वो मेरे सामने मेरे मन में चलती दुविधा का समाधान प्रत्यक्ष कर देती है ---बस प्रतिदिन के पाठ में जो श्लोक थे उन्होंने पूजा के वक्त मन में ''भिड़ा तेरे ''आने के अपराधबोध [गिल्टी] से मुक्त कर दिया ---
''न मां कर्म लिम्पन्ति न में कर्मफले स्पृहा ''
''किं कर्म किमकर्मेति कवयोSप्यत्र मोहिता:''
''कर्मण्यकर्म य:पश्येदकर्मणि च कर्म य:
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त:कृत्स्नकर्मकृत् ''
''यञं यज्ञेनैवोपजुह्यति ''=========
कन्हैया कह रहे हैं --सुन पुत्री !कर्म फल में मेरी स्पृहा नहीं है इसलिए मुझे कर्म लिपायमान नहीं करते बस तेरी सच्ची श्रद्धा ,और प्रकृति के प्रति प्यार यही मुझे चाहिये।
तू जो मन में ये गाना आने से अपराधी महसूस [guilt ] कर रही है तो सुन -इसे आने दे ,दूर करने की कोशिश में ये और जम के बैठ जाएगा तेरे मस्तिष्क में ,पूजा कर्म या और कोई भी कर्म ,स्वात्विक बुद्धि और मन से किया जाये ,जिसमे किसी की भी हानि न हो वो सभी मेरे लिए ही होते हैं कर्म क्या है और अकर्म क्या इसमें तो विद्वान भी मोहित हैं तू तो कर्मों के तत्व को देख सो गाना चलने दे -''जो भिड़ा तेरे नैनों से टांका ''और मैंने सूर्य कन्हैया ,सभी के समक्ष सरंडर कर दिया -तेरी माया तू ही जाने।
वैसे भी भगवान कह रहे हैं कर्मों को प्रकृति के लिए समर्पित करते हुये कर्म को न देख उसका होना न देख बस चरैवेति चरैवेति ---कर्म किये जा --फल देखना मेरा काम है। बुद्धिमान मनुष्य मन की पवित्रता और कर्म में लिपायमान न होके ही कर्म करते हैं -[तो क्या मैं भी अपने को बुद्धि मान बनाने की कोशिश में हूँ -नहीं कदापि नहीं मैं तो बस ईश्वर का सानिध्य चाहती हूँ ] जो कर्म किसी कामना से किया जाता है वो उस कामना तक ही पहुंचता है -पर मुझ तक पहुंचने के लिए निस्पृह होना ही होगा --तो फिर मैं गाने लगी ''जो भिड़ा तेरे नैनो से टांका'' --
''ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।।''
गाने वाला भी ब्रह्म ,सुनने वाला भी ब्रह्म ,गाना भी ब्रह्म तो ब्रह्म में ब्रह्म विलीन हो गया और ''जो भिड़ा तेरे नैनों से टांका ''--
परमात्म रूपी अग्नि में यज्ञ द्वारा यज्ञ को यज्ञ में ही समर्पित कर -यहां पे लिख दिया अब देखिये कितनी देर में ये गाना मन से निकलता है -----
एक बात और आप सभी के साथ होता होगा ये कभी न कभी --कहीं भी मन अटक जाता है --तो मेरे अनुभव को अपनाइये मन को अटकने दीजिये --यदि गीता पढ़ते-गुनते हैं तो मन फ़ालतू की बकवास से स्वयं ही बाहर निकल आएगा ----
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