बैठे ठाले ''मन से वार्तालाप'' --
योगरतो वा भोगरतो वा सङ्गरतो व संगविहीन:| --
यस्य ब्रह्मणि रमते चित्तं नन्दति नन्दति नन्दति एव।| --और वो आनंद वो परमात्मा मुझमे ही है -आज बैठे ठाले -के अंतर्गत -'मुझमें रह के मुझी से अपनी ये खोज कैसी करा रहे हो। ==================
विगत की पोटली को कंधों में लादे आगे बढ़ने की कला का नाम ही जीवन है ,''मेरी दृष्टि में।''
हम पोटली को कितना भारी कर लेते हैं ,समय -समय पे कुछ निकाल फेंकने की कला भी जानते हैं या नहीं ये सब हमें संस्कारों में मिलता है वो संस्कार जो कब आके हमारे भीतर रंजित हो गये अपनी गहरी जड़ों के साथ ! और हमें भान भी नहीं हुआ।
ये संस्कार और कुछ नहीं हमारा व्यक्तित्व ही हैं। माँ-पिता ,गुरु ,मित्र ,आसपास रहने वाले बुजुर्ग , यहां तक कि हमउम्र भाई-बहन सखा सहोदर ,सभी का कुछ न कुछ कोई न कोई रंग हमारे पास होता ही है।
जब हम संस्कार देने की उम्र में आते हैं -{ [ ( जैसे कि बुजुर्गियत आने पे हमे महसूस होने लगता है और सीखें बरसने लगती हैं आशीर्वचनों सी हमारे मुंह से ) ] } तो अचानक अपने मुंह से निकलने वाली ध्वनि ----माता-पिता, सास श्वसुर या अन्य किसी शख्स की जिसके व्यक्तित्व ने कभी हमे छुआ हो --की लगने लगती है।
मन -मंथन की इस प्रक्रिया में मुझे लगता है ,संस्कार देने नहीं पड़ते जीने होते हैं ,जो हम जियेंगे वही पीढ़ियों को चला जाएगा -
तो मेरा मानना है -संस्कार तो हम दे चुके अपनी पीढ़ी को पालते -पालते अब तो बस टीमटाम बाकी है ,ऐसे ही जैसे हमें मिलगये बिन- मांगे और बिना किसी संघर्ष के।
वो बातें जिन्हें कभी महत्व नहीं दिया ,सुन के अनसुना कर दिया आज मुझे अपने अंदर तक आरोपित ,बद्धमूल हुई दिखाई देती हैं ,कभी मैं माँ की तरह बोलने लगती हूँ , कभी पिताजी की तरह तो कभी श्वसुरजी की तरह ---
मेरी अपनी सोच ? कुछ तो होगी ही।
जब भी आँख बंद कर -शांत बैठ -अपनी विचारप्रक्रिया का निरीक्षण किया तो पाया- 'मैंने ' -घर ,समाज ,प्रकृति (वृक्ष,फूल,पत्ते नदियां बादल,स्थान-विशेष,जानवर ) सभी से कुछ न कुछ उधार लिया है साथ ही कुछ ऐसा है जो अनोखा भी है सबसे अलग -शायद पूर्व जन्मों के व्यक्तित्व की पोटली भी लाद लायी हूँ अपने कन्धों पे।
महत्वाकांक्षाएं भी हमें विगत के संस्कारों से दूर नहीं कर सकतीं। कर्मठ होना और अतिमहत्वाकांक्षा में लालची हो जाना ये भी विगत के संस्कारों का ही रूप है।
बस यूँ ही ध्यान में सोच रही थी कि ध्यान क्या है ? शायद अपने को जानने समझने की कोशिश ही ध्यान है ,जब तक अपना स्वरूप ही समझ न आये उस सर्वव्यापी परमात्मा के स्वरूप को कैसे समझ पाएंगे। तो फिर ध्यान का क्या अर्थ ?
ध्यान का अर्थ है -शांत बैठना।शांत बैठने पे मैंने पाया कि विचारों की प्रक्रिया धीमी हो जाती है। बस यही समय है जब हम अपने विचारों का विश्लेषण कर अपने को जान सकते हैं। विचारों के परीक्षण से अपने व्यक्तित्व का भी निरीक्षण हो जाता है,हम पाते हैं क़ि विचारों के अंधड़ एकाएक शिथिल हो रहे हैं और उनके बीच से उबरते अक्स हमें अचम्भित करते चलते हैं ; हम स्तब्ध हो जाते हैं ,अपना स्वरूप पा के।
कभी- कभी संस्कारों की चिंता छोड़ हमें शांत भी बैठना चाहिये ,भले ही ये परिवारजनों के लिये कुतूहल का विषय हो -पर स्वयं के लिये आवश्यक है।
देना -पाना तो चल ही रहा है , खोजने की प्रक्रिया भी सतत चलनी चाहिये ,अंत में आनंद तो उस अनदेखे को पाने में ही है जिसे पाने हेतु जीव -पुनरपिजन्मं -पुनरपिमरणं पुनरपिजननी जठरेशयनमं की कष्टपूर्ण प्रक्रिया से बारम्बार गुजरता है। --
असल में जीव के संस्कार तो परमात्मा को पाने की राह में किये जाने वाले कर्म ही हैं। बस भटकाव है। जिसने इस भटकाव को देख लिया वो चौराहे से सही राह पे मुड़ जाता है ,अन्यथा तो वही गोलगोल घूमते हुए उसी जगह पे आ खड़े होता है।
इस राह को पाने का सुगम मार्ग आदिशंकराचार्य ने सुझाया था -
प्राणायामं प्रत्याहारं ,नित्यानित्य विवेक विचारं।
जाप्यसमेत समाधि विधानं कुर्ववधानं महदवधानं।।
--और शायद ये योग -प्राणायाम ही -----विश्व में फैली अराजकता ,आतंकवाद ,महत्वाकांक्षाओं के दंश से उपजे भ्रष्टाचार -लोभ -लालच के संस्कारों के उन्मूलन का एक मात्र आयुध है।
अपने को देखना यही ध्यान है,यहीं से रूपांतरण की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। इसकेलिये किसी विशेष उम्र या समय की आवश्यकता नहीं है। जब भी मन शांत हो अपने विचारों का परीक्षण निरीक्षण और घटना घट जायेगी बहुत कुछ टूटेगा और कुछ बन भी जायेगा-आभा -.
योगरतो वा भोगरतो वा सङ्गरतो व संगविहीन:| --
यस्य ब्रह्मणि रमते चित्तं नन्दति नन्दति नन्दति एव।| --और वो आनंद वो परमात्मा मुझमे ही है -आज बैठे ठाले -के अंतर्गत -'मुझमें रह के मुझी से अपनी ये खोज कैसी करा रहे हो। ==================
विगत की पोटली को कंधों में लादे आगे बढ़ने की कला का नाम ही जीवन है ,''मेरी दृष्टि में।''
हम पोटली को कितना भारी कर लेते हैं ,समय -समय पे कुछ निकाल फेंकने की कला भी जानते हैं या नहीं ये सब हमें संस्कारों में मिलता है वो संस्कार जो कब आके हमारे भीतर रंजित हो गये अपनी गहरी जड़ों के साथ ! और हमें भान भी नहीं हुआ।
ये संस्कार और कुछ नहीं हमारा व्यक्तित्व ही हैं। माँ-पिता ,गुरु ,मित्र ,आसपास रहने वाले बुजुर्ग , यहां तक कि हमउम्र भाई-बहन सखा सहोदर ,सभी का कुछ न कुछ कोई न कोई रंग हमारे पास होता ही है।
जब हम संस्कार देने की उम्र में आते हैं -{ [ ( जैसे कि बुजुर्गियत आने पे हमे महसूस होने लगता है और सीखें बरसने लगती हैं आशीर्वचनों सी हमारे मुंह से ) ] } तो अचानक अपने मुंह से निकलने वाली ध्वनि ----माता-पिता, सास श्वसुर या अन्य किसी शख्स की जिसके व्यक्तित्व ने कभी हमे छुआ हो --की लगने लगती है।
मन -मंथन की इस प्रक्रिया में मुझे लगता है ,संस्कार देने नहीं पड़ते जीने होते हैं ,जो हम जियेंगे वही पीढ़ियों को चला जाएगा -
तो मेरा मानना है -संस्कार तो हम दे चुके अपनी पीढ़ी को पालते -पालते अब तो बस टीमटाम बाकी है ,ऐसे ही जैसे हमें मिलगये बिन- मांगे और बिना किसी संघर्ष के।
वो बातें जिन्हें कभी महत्व नहीं दिया ,सुन के अनसुना कर दिया आज मुझे अपने अंदर तक आरोपित ,बद्धमूल हुई दिखाई देती हैं ,कभी मैं माँ की तरह बोलने लगती हूँ , कभी पिताजी की तरह तो कभी श्वसुरजी की तरह ---
मेरी अपनी सोच ? कुछ तो होगी ही।
जब भी आँख बंद कर -शांत बैठ -अपनी विचारप्रक्रिया का निरीक्षण किया तो पाया- 'मैंने ' -घर ,समाज ,प्रकृति (वृक्ष,फूल,पत्ते नदियां बादल,स्थान-विशेष,जानवर ) सभी से कुछ न कुछ उधार लिया है साथ ही कुछ ऐसा है जो अनोखा भी है सबसे अलग -शायद पूर्व जन्मों के व्यक्तित्व की पोटली भी लाद लायी हूँ अपने कन्धों पे।
महत्वाकांक्षाएं भी हमें विगत के संस्कारों से दूर नहीं कर सकतीं। कर्मठ होना और अतिमहत्वाकांक्षा में लालची हो जाना ये भी विगत के संस्कारों का ही रूप है।
बस यूँ ही ध्यान में सोच रही थी कि ध्यान क्या है ? शायद अपने को जानने समझने की कोशिश ही ध्यान है ,जब तक अपना स्वरूप ही समझ न आये उस सर्वव्यापी परमात्मा के स्वरूप को कैसे समझ पाएंगे। तो फिर ध्यान का क्या अर्थ ?
ध्यान का अर्थ है -शांत बैठना।शांत बैठने पे मैंने पाया कि विचारों की प्रक्रिया धीमी हो जाती है। बस यही समय है जब हम अपने विचारों का विश्लेषण कर अपने को जान सकते हैं। विचारों के परीक्षण से अपने व्यक्तित्व का भी निरीक्षण हो जाता है,हम पाते हैं क़ि विचारों के अंधड़ एकाएक शिथिल हो रहे हैं और उनके बीच से उबरते अक्स हमें अचम्भित करते चलते हैं ; हम स्तब्ध हो जाते हैं ,अपना स्वरूप पा के।
कभी- कभी संस्कारों की चिंता छोड़ हमें शांत भी बैठना चाहिये ,भले ही ये परिवारजनों के लिये कुतूहल का विषय हो -पर स्वयं के लिये आवश्यक है।
देना -पाना तो चल ही रहा है , खोजने की प्रक्रिया भी सतत चलनी चाहिये ,अंत में आनंद तो उस अनदेखे को पाने में ही है जिसे पाने हेतु जीव -पुनरपिजन्मं -पुनरपिमरणं पुनरपिजननी जठरेशयनमं की कष्टपूर्ण प्रक्रिया से बारम्बार गुजरता है। --
असल में जीव के संस्कार तो परमात्मा को पाने की राह में किये जाने वाले कर्म ही हैं। बस भटकाव है। जिसने इस भटकाव को देख लिया वो चौराहे से सही राह पे मुड़ जाता है ,अन्यथा तो वही गोलगोल घूमते हुए उसी जगह पे आ खड़े होता है।
इस राह को पाने का सुगम मार्ग आदिशंकराचार्य ने सुझाया था -
प्राणायामं प्रत्याहारं ,नित्यानित्य विवेक विचारं।
जाप्यसमेत समाधि विधानं कुर्ववधानं महदवधानं।।
--और शायद ये योग -प्राणायाम ही -----विश्व में फैली अराजकता ,आतंकवाद ,महत्वाकांक्षाओं के दंश से उपजे भ्रष्टाचार -लोभ -लालच के संस्कारों के उन्मूलन का एक मात्र आयुध है।
अपने को देखना यही ध्यान है,यहीं से रूपांतरण की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। इसकेलिये किसी विशेष उम्र या समय की आवश्यकता नहीं है। जब भी मन शांत हो अपने विचारों का परीक्षण निरीक्षण और घटना घट जायेगी बहुत कुछ टूटेगा और कुछ बन भी जायेगा-आभा -.
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