"अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि धूपदानविधे: फलम् |
धूपांश्च विविधान् साधुनसाधूँश्च निबोध मे।| "
ये श्लोक महाभारत में भीष्म ने युधिष्ठर से कहा पर-" हाँ जी " आज मैं इसी धूप प्रकरण को सुनाने का क्षुद्र प्रयास कर रही हूँ। काम की जानकारी न हो पर खोजी प्रवृति के लिये एक छोटा सा ग्रास [गफ़्फ़ा -निवाला ]तो है ही ---
तो मेहरबानों ,कद्रदानों बतकही ये है कि धूप आप सभी ने कभी न कभी जलाई ही होगी। शायद सभी धर्मों में जलाई जाती है सो सेक्युलर भी है पर बांटने वाली सेक्युलर नहीं बाँधने वाली सेक्युलर।
--"निर्यासा: सारिणश्चैव कृत्रिमाश्चैव ते त्रय: |
इष्टोsनिष्टो भवेद् गन्धस्तन्मे विस्तरशः श्रृणु।।"
------धूप जो हम प्रतिदिन प्रात:सांय संध्या करते हुए देवता को अर्पण करते हैं वो मुख्यत: तीन प्रकार की होती हैं। निर्यास , सारी और कृत्रिम।
वृक्षों के रस [गोंद ] को "निर्यास" कहते हैं। इनसे बनी धूप देवताओं और दैत्यों दोनों को अतिप्रिय है।
गुग्गुल धूप श्रेष्ठतम घूप की श्रेणी में आता है । गुग्गुल commiphora mukul का वृक्ष भारत में ही होता है पर हमारी मेहरबानियों से ये विलुप्ति के कगार आ गया है।
शाल्लकी नामक वृक्ष से निकले गोंद से बनी धूप उत्तम होती है इसे लोबान के नाम से जाना जाता है।
शाल्लकी [Boswellia serrata ] का गोंद ,लोबान ,कुंदर मुकुंद कहलाता है।
कुछ काष्ठ होते हैं जिन्हें जलाने से सुगंध आती है जैसे ,चंदन ,अगर तगर इन्हें "सारी "कहते हैं। इनसे बनी धूप अगरबत्ती यक्ष ,राक्षस और नागों को प्रिय है।
शाल्की ,गुग्गल आदि का गोंद ,सुगंधित काष्ठचूर्ण ,घी और शक़्कर मिश्रित करके जो धूप बनाई जाती है वो "कृत्रिम " धूप है जो मनुष्यों के उपयोग में आती है।
"देवदानवभूतानां सध्यस्तुष्टिकर: स्मृत:|
येअन्ये वैहारिकास्तत्र मानुषाणमिति स्मृता:|| "
-------धूप देव- दानव ,भूत -गंधर्व ,यक्ष-राक्षस ,सभी को तत्काल संतोष प्रदान करने वाली होती है।
शल्लकी ,गूगल अगर तगर जैसे वृक्षों का आयुर्वेद में बहुत महत्व है ,बहुत से रोगों की दवायें बनती हैं। पर धूप अगरबत्ती यदि शुद्ध हों तो ये तनाव, सरदर्द डिप्रेशन दूर करने में बहुत कारगर हैं।
तो ये था धूप पुराण --महाभारत के सौजन्य से। चाहें तो इन सभी वृक्ष -पादपों के विषय में नेट से जानकारी लीजिये और नमन करिये अपने पूर्वजों को जिन्होंने प्रकृति का इतना सूक्ष्म अध्ययन किया ,उपभोग भी किया और संरक्षण भी किया पर आज हम जो अपने को अत्याधुनिक कहते हैं प्रकृति के विनाश का ही कारण बन रहे हैं।
यदि आसपास ये वृक्ष हों तो उस स्थान का भूजल भी औषधीय गुणों से युक्त होता है ,परन्तु आज हमारे आसपास गंदे नाले ,कूड़े के ढेर हैं। हम आधुनिक ,विद्वान ,उच्च-शिक्षित हैं -आभा -
धूपांश्च विविधान् साधुनसाधूँश्च निबोध मे।| "
ये श्लोक महाभारत में भीष्म ने युधिष्ठर से कहा पर-" हाँ जी " आज मैं इसी धूप प्रकरण को सुनाने का क्षुद्र प्रयास कर रही हूँ। काम की जानकारी न हो पर खोजी प्रवृति के लिये एक छोटा सा ग्रास [गफ़्फ़ा -निवाला ]तो है ही ---
तो मेहरबानों ,कद्रदानों बतकही ये है कि धूप आप सभी ने कभी न कभी जलाई ही होगी। शायद सभी धर्मों में जलाई जाती है सो सेक्युलर भी है पर बांटने वाली सेक्युलर नहीं बाँधने वाली सेक्युलर।
--"निर्यासा: सारिणश्चैव कृत्रिमाश्चैव ते त्रय: |
इष्टोsनिष्टो भवेद् गन्धस्तन्मे विस्तरशः श्रृणु।।"
------धूप जो हम प्रतिदिन प्रात:सांय संध्या करते हुए देवता को अर्पण करते हैं वो मुख्यत: तीन प्रकार की होती हैं। निर्यास , सारी और कृत्रिम।
वृक्षों के रस [गोंद ] को "निर्यास" कहते हैं। इनसे बनी धूप देवताओं और दैत्यों दोनों को अतिप्रिय है।
गुग्गुल धूप श्रेष्ठतम घूप की श्रेणी में आता है । गुग्गुल commiphora mukul का वृक्ष भारत में ही होता है पर हमारी मेहरबानियों से ये विलुप्ति के कगार आ गया है।
शाल्लकी नामक वृक्ष से निकले गोंद से बनी धूप उत्तम होती है इसे लोबान के नाम से जाना जाता है।
शाल्लकी [Boswellia serrata ] का गोंद ,लोबान ,कुंदर मुकुंद कहलाता है।
कुछ काष्ठ होते हैं जिन्हें जलाने से सुगंध आती है जैसे ,चंदन ,अगर तगर इन्हें "सारी "कहते हैं। इनसे बनी धूप अगरबत्ती यक्ष ,राक्षस और नागों को प्रिय है।
शाल्की ,गुग्गल आदि का गोंद ,सुगंधित काष्ठचूर्ण ,घी और शक़्कर मिश्रित करके जो धूप बनाई जाती है वो "कृत्रिम " धूप है जो मनुष्यों के उपयोग में आती है।
"देवदानवभूतानां सध्यस्तुष्टिकर: स्मृत:|
येअन्ये वैहारिकास्तत्र मानुषाणमिति स्मृता:|| "
-------धूप देव- दानव ,भूत -गंधर्व ,यक्ष-राक्षस ,सभी को तत्काल संतोष प्रदान करने वाली होती है।
शल्लकी ,गूगल अगर तगर जैसे वृक्षों का आयुर्वेद में बहुत महत्व है ,बहुत से रोगों की दवायें बनती हैं। पर धूप अगरबत्ती यदि शुद्ध हों तो ये तनाव, सरदर्द डिप्रेशन दूर करने में बहुत कारगर हैं।
तो ये था धूप पुराण --महाभारत के सौजन्य से। चाहें तो इन सभी वृक्ष -पादपों के विषय में नेट से जानकारी लीजिये और नमन करिये अपने पूर्वजों को जिन्होंने प्रकृति का इतना सूक्ष्म अध्ययन किया ,उपभोग भी किया और संरक्षण भी किया पर आज हम जो अपने को अत्याधुनिक कहते हैं प्रकृति के विनाश का ही कारण बन रहे हैं।
यदि आसपास ये वृक्ष हों तो उस स्थान का भूजल भी औषधीय गुणों से युक्त होता है ,परन्तु आज हमारे आसपास गंदे नाले ,कूड़े के ढेर हैं। हम आधुनिक ,विद्वान ,उच्च-शिक्षित हैं -आभा -
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