Wednesday, 5 December 2018


---यादों के समुद्र में डूबती -उछलती ,यादों के जंगल को खंगालती ,अंधेरों को देखने की कोशिश में अंतर्मन को सूर्य की किरन बनाती ,घने जंगल में फैले झंखाड़ों को साफ़ करती -- ---पुराने से स्नेह लेने की बारी ----
=============
" बैठे ठाले का फितूर ,बेमतलब की बकवास "
(जिन्दगी की बाराखड़ी)
********************************
इश्क पुराने रेख्तों से ------
दिन प्रति दिन ,साल दर साल शरीर का क्षरण होता ही रहता है। प्रकृति की अपनी बराखडी है अपना रूप बदलती है वो ऋतुचक्र के साथ नयी पुरानी हो जाती है पर शरीर एक बार बूढ़ा हुआ तो सोच के माध्यम से ही पीछे जा सकता है और जाता भी है! तरो -ताजा होने को - सुहानी यादों में डुबकी ले - सद्ध्य: स्नाता की मानिंद तरो -ताजा हो जाता है। लम्बी यात्राओं के बाद जब थकान मन मस्तिष्क को शिथिल कर देती है तो पुरानी रचनाओं से स्नेह लेना उनके निकट जाना पुन: सृजन सा ही सुखद अहसास देता है ,उस वक्त के अहसासों का मानसिक मंचन और परिचालन, लिखने की भूख को शांत करने का मेरा प्रिय शगल होता है।तख्ती में लिखी बचपन की बराखडी की तरह अक्षर-अक्षर संग वो ही अहसास वो ही संवेदनाएं उछलकूद करने लगती हैं और कहने लगती है 'योग क्षेम वहाम्यहम् ' तू आ तो मेरे पास। शब्द शाखों के कानों में झूमर से डोलने लगते हैं और मैं खो जाती हूँ यादों में। …
बरसों ये सूरज चाँद सितारे जुगनू मेरे साथ जले ,चमके जगमगाये टिमटिमाये आज भी सबकुछ वैसा ही है प्रकृति उतनी ही हसीन है ,बस सांझ ढलने पे अपनी पोटली बांधने और चलने की तैयारी मैंने शुरू कर दी है | कितना कुछ है इस पोटली में शायद कुछ व्यक्त से अव्यक्त में भी साथ जाए अनन्त की यात्रा में |नदी, पहाड़, झरने ,जंगल, बाग़, बगीचे तितली, फूल, भंवरे, परिंदे और सागर; आज भी मन में वही तरंग जगाते हैं ,ताली बजाके उछलने का मन आज भी होता है कोई पागल समझे तो ये उसकी समझ का दोष है शायद हर उम्र में एक बच्चा तो इन्सान के भीतर रहता ही है जो बंधन में नहीं रहना चाहता है मन के किसी कोने से बाहर आने की कोशिश में रहता है और नकारने पे हमें खींच के बचपन की यादों के बागीचे में सैर करने को मजबूर कर देता है | 'ॐ नम: सिद्धम् ' के साथ स्लेट या पुती हुई तख्ती पे आड़ी तिरछी रेखायें खींचते हुये कब बच्चा बाराखड़ी और पहाड़ों के फेर में पड़ जाता है उसे पता भी नहीं चलता |और बस यहीं से ९९ के फेर में पड़ने का सिलसिला प्रारम्भ |
हाँ ! ये जिन्दगी भी तो बाराखड़ी की तरह ही है ;अ से प्रारम्भ होके सभी स्वरों को साथ लेते हुए व्यंजन और व्यंजनाओं में डूबती उतरती नैया की मानिंद ज्ञ तक का लम्बा रास्ता तय करती है | फुर्सत के क्षणों में चिंतन जब बीते हुए पलों में गोता लगाता है तो सारी यादें ,सारे बीते पल स्वरों और व्यंजनों की तरह उछल-कूद करने लगते हैं मन की कापी के पन्ने पे, कभी सपाट और कभी करीने से खींची गयी लाइनों पे चलते से -अलग -अलग रंगों की स्याही से लिखी इबारत , हर पल ,हर घटना ,हर मूड का अपना सुलेख ! कहीं मोती से उकेरे गये अक्षर हैं मानो मानसरोवर में राजहंस तैर रहे हों और कहीं लिखाई आकाश में बिखरे बादलों की मानिंद -जहाँ किसी भी अक्षर का कोई आकार ही नहीं है -अपना ही लेख पढना समझना कुछ दिनों बाद मुश्किल |
जिन्दगी की बाराखड़ी के रस्ते में शायद पूर्ण विराम नहीं है अव्यक्त से व्यक्त और अनन्त की यात्रा कभी प्रकाश तो कभी अंधकार -चरेवेति-चरेवेति एक राह से दूसरी राह एक चोले से दूसरा चोला --
'' वासांसि जीर्णानि यथा विहाय ,नवानि गृह्णाति नरोपराणी '' की निरंतरता | हाँ ! हलन्त् तो हम इसे बना ही लेते हैं ,जहाँ से आगे न बढ़ना हो ,किसी का साथ छोड़ना हो ,कहीं से मोड़ मुड़ना हो तो हलन्त् हमें खूबसूरत अंत सिखाता है ठीक वैसे ही जैसे सृज् धातु से सृष्टि बनी पर वहां भी अव्यक्त से व्यक्त की यात्रा है, निरंतर; पूर्ण विराम के स्थान पे हलन्त् ही है और मेरे जीवन को तो हलन्त् ने ही पकड़ रखा है ,आधी-अधूरी ख़ुशी ,पूर्ण निष्ठा और समर्पण के पश्चात भी कार्य न होना, सफल असफलताओं का अम्बार , ढेरों पूर्ण विराम थे जीवन के जो मैंने हलन्त् की खूबसूरती के साथ स्वीकार कर लिए ;जीवन का ककहरा सीखते हुए कैसे जिन्दगी कभी मूर्ध्यन्य हो गयी कभी तालव्य की तरह गोल-गोल घूमने लगी पर "ॐ तत्सत् " के साथ अपनाने से किसी भी परिस्थिति में मिठास कम नहीं हुई |आधे को हलन्त् की खूबसूरती देके पूरे का अहसास और फिर चल पड़ना दूसरी राह् ठीक वैसे ही जैसे अनजाने में तत्सम -तदभव् शब्दों में य र ल व् श स ष ह के साथ अनुस्वार के स्थान पर चन्द्रबिन्दु का प्रयोग वर्तनी की अशुद्धि है पर अर्थ स्पष्ट है | ऐसा नहीं है कि जीवन में हमेशा अनुस्वार की खूबसूरत सी बिंदी या चन्द्रबिन्दु का ताज नहीं रहा ( माँ होने पे तो ये साथ -साथ ही चलता है ) अपितु असंख्यों बार तो विसर्ग ने भी जीवन के सुलेख में जुडके उसे खूबसूरत अर्थ दिया है पर इसका आभास होने में समय लग गया | दुःख में विसर्ग : ने जुड़ के उसे कितने सुन्दर शब्द में ढाल दिया यदि दुःख में विसर्ग न होता तो दुख नग्नता का आभास देता | ये विसर्ग यदि समझ में आ जाए तो दुःख के पल सिमट जाते हैं मन के किसी कोने में विसर्ग की खूबसूरती लिए हुए वरना तो अनुस्वार कब खिसक के नीचे आ जाए और नुक्ता . बनके तालव्य को गले में जाने को मजबूर कर दे भान ही न हो |
बच्चे को बाराखड़ी और वो भी ॐ नम: सिद्धम् के साथ सिखाना ,सुलेख लिखना ,स्लेट पे बाराखड़ी लिखना फिर मिटाना फिर लिखना ,फिर तख्ती पे अभ्यास वो भी तख्ती की रंगाई पूताई के साथ फिर कलम की कत बना के सुंदर अक्षरों को उकेरने की प्रेरणा शायद जीवन रूपी रंगमंच की घटनाओं का रिहर्सल ही होता है |संयम ,,धैर्य ख़ुशी ,खोना- पाना ,दुःख -सुख सारे रसों से बालपन में ही परिचय ताकि सनद रहे |
यूँ ही बैठे ठाले अ से ज्ञ तक घूम आयी और एक बार बाराखड़ी फिर से लिख ली फिर से तख्ती पोती ,कलम में कत बनाई ,होल्डर की निब घिसी और सुलेख के बाद अब बाग़ में तितली के पीछे या सुंदर पक्षियों का कलरव - सागर किनारे दिल ये पुकारे ,आज भी अहसास वही हैं बस बड़प्पन का मुल्लमा उतारने की देर है और फिर तो --- दिल तो बच्चा है जी || ....आभा ...

Monday, 26 November 2018

"विरह का जलजात जीवन "
+++++++++++++++++
चिर वेदना की गर्म स्याही
वाष्प बन ऊपर उठी जब
मन  के अंगने  में -घिराये
कज्जल सघन जलधर  दुःखों के
सह न पाते भार जब दृग
अश्रु बन मधुमरंद के कन
बरसें  बनायें मन को   सरोवर -
नीलम से झलमल जल में जिसके
विरह के  जलजात खिलते
 विगलित दुःखों का सार लेके
गुंजरित होती हवाएं
मन भ्रमर बन नृत्य करता
नियति का वंदन नमन कर
जीवन ये जीने को मचलता -
है यही सबकी कहानी
कुछ की नई कुछ की पुरानी।।आभा।।

Wednesday, 7 November 2018

गोवर्धन पूजा .अन्नकूट यानि जड़ता पर बुद्धि की विजय ,संवेदन-हीनता पर भावनाओं की विजय ,सामाजिक दायित्व निभाने की पराकाष्ठा ,दीन दुखियों और सताए हुए लोगों को शरणागती में लेने का पर्व ,प्रजा की सुरक्षा और सुलभता के लिए राजा के कर्तव्यों की बानगी ।
संतति को गोवंश का महत्व ,संवर्धन और संरक्षण की जानकारी देने का दिन। 
गोवंश के अनादर और कुछ ही स्थानों में सिमित होजाने पे जमीन के बंजर होने की प्रक्रिया के शुरू होने की चेतावनी पे ध्यान देने का दिन। 
आज के इस पर्व को सार्थक बनाने के लिए हम भी कृष्ण की मानिंद संकल्पित होवें की अपने राष्ट्र से पूर्वाग्रहों और जड़ -बुद्धियों को उखाड़ फेंकेंगे ।देश का नेता पढ़ा-लिखा बुद्धिमान और चरित्रवान ही होगा जब देश में प्रत्येक कार्य के लिए शिक्षित होना आवश्यक है तो ग्राम-पंचायत से लेकर प्रधान-मंत्री और यहाँ तक की राष्ट्रपती तक की कुर्सी अनपढ़ लोगों के पास क्यूँ ।यही आज का संकल्प होना चाहिए की हम वोट  देंगे तो एक ऐसे व्यक्ति को जो उस पद की प्रतिष्ठा के अनुरूप हो ।स्वास्थ्य मंत्री ,शिक्षा मंत्री विदेश मंत्री ,सब की शिक्षा अपने अपने पदों के अनु रूप होनी चाहिए तब ही देश में फैली अराजकता और
संवेदन हीनता से मुक्ति मिल सकती है आप सब को गोवर्धन पूजा की शुभकामनायें 
आज की गोवर्धन पूजा ,दिल्ली का गोवर्धन ,भलस्वा ,गाजीपुर लैंडफिल साइट --और गोधन ,हर मोड़ पे हमारे इकट्ठे किये कूड़े के ढेर पे पॉलीथिन खाके बीमार होती या मरती गायें ---कान्हा अब तुम्हारा युग नही है ,छपन्न भोग केवल मठों में बनते हैं , चौराहों पे भूखे बच्चे बिलखते हैं --कैसे मनाएं गोवर्धन --हम लालची ,रूढ़िवादी ,और प्रपंची हो गए हैं ---प्रकृति का विनाश हमारा भी विनाश है --हम समझ ही नही पा रहे ---नेति नेति की अवधारणा वाली हिन्दू संस्कृति ,और समाज के लिए हानिकारक संस्कारों को समय -समय पे छोड़ने वाला हमारा धर्म अब रूढ़ियों ,प्रतिस्पर्धा और फूहड़ दिखावे में फंस गया है ----
----सुधार आवश्यक है ,ये हम ही करेंगे ,देश हमारा है ,हम प्रगतिशील हैं ,लचीली सोच है ,इसीलिये हम सनातन कहलाते हैं -सनातन वो जो देश काल और परिस्थिति के अनुसार अपने को बदलने की हिम्मत रखता है ---
पटाखे तो कम ही जलाओ भाई --गैस चैंबर बन गयी है फिजां --इसके लिए हमे चेतना ही होगा ---
शुभकामनायें ......................आभा


'बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जित: ।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत ॥ ''
जीवात्मा आप ही आप का शत्रु है और आप ही आपका मित्र। और कोई हमारा शत्रु या मित्र हो ही नही सकता। इन्द्रियां अपने काबू में हैं तो आप आपने मित्र और नही तो शत्रु।
---शुभ धनतेरस में गीता का श्लोक क्यूँ !
जी --दीवाली का समय कचर-बचर खा लो  और शरीर ने विद्रोह कर दे  ,पर जीभ न माने न मानेगी  ; यानी इन्द्रियों से कंट्रोल गया - फिर थोड़ा और स्वाद --अब एसिड --नींद नही ,हलक में ऊँगली डाल के सारा खट्टा पानी बाहर निकालने की नौबत और फिर क्या कहते हैं वो --कचर-बचर की धमकी  ''दांत खट्टे कर दूंगा '' पर हम भी डटे रहते हैं मैदान में अबके आईयो बट्टा मारूँ वाली मुद्रा में --भई त्यौहारी सीजन है - खाएंगे भी नही ,पर जब पंसेरी लगी तो चारों खाने चित --अब दांत खट्टे ,कुछ खाने लायक नही-- करवाचौथ से जो त्यौहारी सीजन शुरू होता है कितना ही रोक लो गरिष्ठ हो ही जाता है और ऊपर से घर में रखे पकवान मिठाइयां ,चॉकलेट फल आँखों में टमकते रहते हैं -चखने का लालच देते हुए --बस तो आने वाली स्थिति क्या होगी उसकी  कल्पना करते हुए गीता का उपर्युक्त श्लोक उतर आया मन के एक कोने में एवं  मुस्कुराने लगा --बिटिया 
'' हैका पढाई बल गीता अर अफ्फु चली रीत्ता ''--
लालच बुरी बला है -- अपनी शत्रु खुद ही न बनना --
गीता पढ़ती है तो  अमल कर -सावधान रहना -तभी फायदा है --वरना तो उन्नीस का पहाड़ा है जब जरूरत हो गुणा किया ( किताब खोली ) और श्लोक हाजिर।
गीता जीवन के हर पल के लिये सूत्र देती है ,पर कहाँ समझ पाते हैं हम ,

इंसान हैं न अर्जुन की तरह अपने को भूले हुए --
कचर-बचर खाना है तो खाओ ,अपने शत्रु अपने आप होना क्या होता है मालूम चल जाएगा ----
शुभधनतेरस -------

धन को भी बर्बाद मत करना ,अपनी कमाई है बाजार को मत सौंपो ,वक्त बेवक्त काम आएगी।
पर सौंपते तो हैं ही हम बाजार को -मैं भी सौंप आयी --घर आके कुछ अनमना सा लगना शुरू हुआ तो दिल को तस्सल्ली दी -अरे वर्ष भर का त्यौहार है ---फिर जो चला गया उसे भूल जा -
पिछले वर्ष की लड़ियाँ लगा लो --पर आधी तो फ्यूज हो गयीं --
 मिटटी के दियों की खरीदारी वो भी एक- दो- तीन कई महिलाओं से ताकि सभी की थोड़ा-थोड़ा बिक्री हो जाए -कुछ साधारण कुछ रंगों वाले -
रंगोली के रंग लेके बैठा मरियल सा परिवार -पिछले वर्ष के रंग थे -फिर भी खरीद लिए -इनकी भी तो दीवाली है -
'दशरथ पुत्र जन्म सुनि काना | मानहुं ब्रह्मानंद सामना ||
परमानंद पूरिमन राजा | कहा बोलाई बजावहु बाजा |
दशरथ ने राम को पालिया है , वो परमआनंद में हैं | ब्रह्म को पाने से अधिक आनंद और क्या हो सकता है !
 ''त्रिभुवन तीन काल जग मांही | भूरि भाग दशरथ सम नाही ||''
और अब तो स्वयं ब्रह्मानंद का अनुभव पर फिर भी दशरथ बाजा बजाने वालों को बुला कर आनंद करना चाहते हैं ,क्यूँ ! क्यूंकि वो निज आनंद की अनुभूति को सबसे बांटना चाहते हैं | सामूहिकता की भावना ,अकेला मैं ही क्यूँ खुश होऊं ,सभी मेर संग संग उमंगें आनंद में | य
ही असली उल्लास है ,असली पर्व है ,यही "धनतेरस" है , 
मिट्टी के दीयों , हटड़ी-कुजे ,कंदील ,खील -बताशे ,मिठाई ,कपड़े ,
 सबसे अहं सफाई ,अर्थात समाज के प्रत्येक अंग को काम और प्रत्येक की कमाई |
 निरोगी काया ,स्वस्थ मन और स्वच्छ वातावरण ये तीनों धन तेरस के सूत्र हैं |
मोघाशा ,मोघकर्म ,मोघज्ञान के साथ- साथ विचेतनता की प्रवृतियों की भी सफाई हो ----
-धनतेरस सभी को शुभ -मंगलमय हो .
कुछ दिए उन शहीदों के नाम भी  हों जिनके घर अमावस गहरा गयी है----उनके घरों में समृद्धि आये --
सभी को धनतेरस की शुभकामनायें--आभा।।

Tuesday, 23 October 2018

दशहरे के बहाने ----
हा हा हा हा हा हा ---जला आये मुझको ,बेटे भुलावे में हो। बच्चू मैं तो पुतलों से निकल तुम्हारे सर पे आ बैठा था ,ढोल नगाड़े डीजे के शोर से तुम सभी का सर भारी था तो मैंने तुम्हें अहसास ही न होने दिया- की ये भार मेरा भी है--। अरे मेरे ग्रेट -ग्रेट -ग्रेट -ग्रेट ---ग्रैंड सनों [मैं तुम्हारा पूर्वज ही तो हूँ न ] तुम्हें पता है---रामजी कौन हैं -नहीं न मैं बताता हूँ -------रामजी हमारी आत्मा हैं ,और उस आत्मा का हृदय है जगद्जननी माँ सीता ,स्नेह करुणा और ममता की मूर्ति।और मैं रावण हूँ अहंकार ! जब ये सर चढ़के बोलता है न तो आत्मा से हृदय को छीन लेता है मानव हृदयहीन हो जाता है।
ये जो आजकल तुम सबने लिखना शुरू किया है न ,रावण विद्वान था ,चरित्रवान था ---राम तेरे राज्य का रावण आज के आदमी से अच्छा था ,बेटेजी ; मुझे बताओ तो 125 करोड़ के देश में एक करोड़ ने भी रामायण पढ़ी हैं ? पढ़ते तो मालूम चलता न, कि मैं अहंकारी था ,लंगोट का कच्चा था ,अपनी पुत्रवधू रम्भा पे कुदृष्टि डाली थी ,उसी का श्राप था जिससे डर के मैंने किसी स्त्री को उसकी आज्ञा के बिना अपने महल में लाना और उसे छूना बंद कर दिया था [सो मैं कायर और डरपोक भी था ] वो अलग बात है कि अधिकाँश स्त्रियों को मैं डरा धमका के बस में कर लेता था ,पर सीता तो शक्ति थीं ,उन्हें कौन डरा सकता था।
विद्वान की जहां तक बात है तो जो व्यक्ति अपने आराध्य देवाधिदेव शिव के भी आराध्य प्रभु राम को न पहचान पाया वो क्या विद्वान ! और विडंबना देखो तुम सब की ,जिस विभीषण ने आत्मसाक्षात्कार से रामजी को पहचान लिया और कुल की रक्षा की उसे तुम सब घरका भेदी कहते हो ,अरे मेरे अहंकार ने तो कुल के विनाश की तैयारी कर दी थी ,वोतो विभीषण के कारण कुछ बंधु-बांधव बच गए और कुल की स्त्रियों की भी रक्षा हो सकी।
मैं देख रहा हूँ , आजकल राम तो केवल वाल्मीकि या तुलसी के द्वारा रचा गया एक चरित्र मात्र रह गया है ,जिसके जन्म स्थान को भी प्रमाण की दरकार है और रावण सजीव होके अपने दस ही नहीं सहस्त्र सिरों के साथ समाज में घूम रहा है ,उसपर भी तुम लोग बड़े जोर शोर से कहते हो ,रावण दहन --बुराई पर अच्छाई की जीत ,बेटे है कहां अच्छाई ?
मुझे अपने विषय में बहुत कुछ कहना है ,पर आज नहीं ,आज राम लखन सीता की बात।
तो मैं कह रहा था -राम हमारी आत्मा है चेतनतत्व ;जिसके होने से हम हैं। सिया हमारा हृदय है ,स्नेह ,करुणा ममता की नदी जो हमें ये अनुभव करवाती हैं कि हम चेतन हैं। रावण अहंकार है जो जो हमारी आत्मा से हृदय को चुरा के उसे जड़ बना देता है। लक्ष्मण हमारी सजगता है ,जो अहंकार को दूर रखती है ,हमें विनम्र और गतिशील बनाये रखती है। हनुमान हमारी बुद्धि हैं जो हमें ,शक्ति ,साहस ,शौर्य सुमति ,सिद्धि और निधियां देते हैं। भरत धर्म हैं ,धैर्य हैं ,विनय हैं ,प्रेमी हैं और मानव की चेतनता की रीढ़ हैं ,जिनको सहारा देने को शत्रुहंता शत्रुघ्न सदैव ततपर रहते है।
तो आज मैं रावण ,दशानन ये घोषणा करता हूँ कि ---''इस ब्रह्माण्ड में जब तक सीताराम रहेंगे ,लाख पुतले फूँको ,रावण भी रहेगा। ----मैं राम के होने से हूँ पर राम में नहीं हूँ ; यही मेरा दुर्भाग्य है ''-----रामदरबार हमारा ये शरीर ही है ,इसमें हम रावण को सर पे बिठा दें और राम की चेतना को जड़ के दें यही समझ बुद्धि है ---तो बेटे रावणी प्रवृतियों को जलाओ ,न की मेरा पुतला फूँको ---पुतला तो तुम अपने विरोधियों का भी फूँकते हो जुलूस निकालके और ट्रैफिक जाम करके ---तो क्या विरोधी जल जाता है।
रावण को महिमामंडित मत करो , तो अब मैं चलता हूँ ,अगले वर्ष फिर आऊंगा मुझे पूरा विशवास है तुम मुझे यहीं पे मिलोगे मेरा पुतला फूँकते हुए --जयश्री राम --हैप्पी दशहरा। और अभी दशानन पटाखों की आवाज से उड़ते कबूतरों संग मेरे घर में घुस आया ,आज भी वैसा ही था जिसे देख रामजी भी कह उठे आह कितना सुंदर व्यक्तित्व ,इसे देख तो इसे मारने की इच्छा ही न हो। हैं शायद अहंकार इतना ही प्यारा होता है जब सर चढ़ जाता है --बस कुछ गप्पें मारी हमने ,रावण ने हलुवा खाया और चलता बना दूसे वर्ष आने को कह के ------
-----पिछले वर्ष आया था  दशानन   चलते फिरते -इस वर्ष भी आया    पर जरा देर से --मैं खड़ी थी बालकनी में --राम-राम के बाद मैंने पूछा इतने दिनों बाद कैसे दशानन --वो बोले अरे पुत्री अमृतसर में अटक गया था -इतने लोगों को मरते देखा तो बहुत दुःख हुआ वहीं बैठ गया --अट्टहास करना भी भूल गया --सभी पुतला जला रहे थे और मैं  अट्टहास कर घूम रहा था इधर उधर शहर में गाँवों में गलियों में -पर  अमृतसर की ट्रेजडी  देखी तो  -बहुत दुःख हुआ  --साथ ही रामजी की अपने से तुलना से भी बहुत क्रोधित हूँ  -
--मैंने थोड़ा शांत करने को दही लड्डू खिलाया -दशहरे में पूजन का गन्ने का प्रसाद  भी रखा था पूजा में उसकी गँडेरियों का खूब स्वाद लिया रावण ने --- बोलने लगा  पुत्री मुझे तो रामजी ने सद्गति दे दी थी मैं तो अब उन्ही के लोक में रहता हूँ बस दशहरे पे ही घूमने यहां चला आता हूँ --हर युग में धोबी होते हैं पर  कलयुग में तो बहुत से  हो गए हैं --अपने को --अलग सा दिखाने के लिए राम जी को न मानने का सरेआम उद्घोष भी कर रहे हैं --कुछ तो विभीषण को भी राक्षस बता रहे है -पर हम राक्षस कुल के नहीं थे -हमारे कृत्य राक्षसों वाले थे --मैंने अपने जैसी लोगों की भीड़ इकट्ठी कर ली थी -कुछ ख़ुशी से कुछ डर  से मेरे साथ जुड़े थे और लोग हमें राक्षस कहने लगे -मेरी माँ भी दैत्य कुल की थीं न कि राक्षसी --वरना तो हम ब्राह्मण ही थे सिंहली ब्राह्मण --पर --चलो जिसकी जैसी परवरिश उसकी वैसी सोच --सभी का राम जी भला  करें --तुम सभी को दीपावली की सहस्त्रों शुभकामनायें -चलो अब दीपावली की तैयारियां करो ------------------------------------------------------ ये कह के रावण आशीषें बरसता चला गया दूसरे वर्ष फिर से आने का  ,और अपने विषय में ढेर सी जानकारियां देने का वादा करके -
बताया तो इस वर्ष भी बहुत कुछ लिखूंगी किसी दूसरे दिन।।आभा।।

Friday, 19 October 2018

आज राम ने रावण मारा तभी दशहरा आया प्यारा*
***************************************
     विजयादशमी मेला ,विजय पर्व |देवी द्वारा  दस भयंकर दैत्यों यथा -मधु-कैटभ ,महिषासुर ,चंड -मुंड ,रक्तबीज ,धूम्रलोचन ,चिक्षुर,और शुम्भ -निशुम्भ के साथ अन्य सैकड़ों असुरो से  धरा को भय मुक्त करने के उपलक्ष में देवी के विजय स्तवन का पर्व | मर्यादा पुरुषोतम श्री राम की दशानन रावण पे विजय , असुरों का संहार ,सीता -राम का मिलन , और वनवास की अवधि समाप्त होने पे राजा राम के राज्याभिषेक की तैयारियों के लिए व्यस्त होने का  पर्व |.हवाओं में उत्साह तिर रहा है  |ऊर्जा का अजस्त्र प्रवाह बह रहा है जगह -जगह |एक पखवाड़े से  कई स्थानों पे मंचित होने वाली  रामलीलाओं के समापन का पर्व भी है दशहरा | रामलीलायें जो हमारी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक चेतना का प्रतीक हैं  और सदियों से हमारी पीढ़ियों  को रामचरित की भक्ति गंगा में अवगाहन करवा रही हैं |
   यह जग विदित है  की रावण परम शिव-भक्त ,महा तपस्वी ,तन्त्र -मन्त्र का ज्ञाता था  | मानस में  बालकाण्ड से ही राम के साथ -साथ रावण का भी नाम आ जाता है -
''-द्वार पाल हरी के प्रिय दोउ ,जय अरु विजय जान सब कोऊ''
इन दोनों को ही सनकादिक मुनि के शाप के कारण तीन कल्पों में राक्षस बनना पड़ा और हर कल्प में प्रभु ने इनका उद्धार करने को अवतार लिया |  रावण और कुम्भकर्ण के रूप में इन्होने त्रेता युग में जन्म लिया | सीता साक्षात् श्रीजी हैं जिन्हें रावणसंहिता में उसने अपनी ईष्टदेवी बताया है | पर राक्षसी बुद्धि के कारण प्रभु से बैर लेना पड़ा -अरन्यकांड  में इसका प्रमाण मिलता है जब खर -दूषणके मरण पे रावण सोच रहा है -
   खर दूषण मोहि सम बलवन्ता | तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता ||
    सुर रंजन भंजन महि भारा | जौ भगवंत लीन्ह अवतारा ||
   तौं मैं जाई बैरु हठी करऊं | प्रभु सर  बान तजें भव तरहूँ ||
  होइहिं भजन न तामस देहा |मन क्रम बचन मंत्र दृढ़ एहा ||
         सो स्पष्ट है की अपने और अपनी राक्षस जाति के उद्धार हेतु ही रावण ने प्रभु से बैर लिया | और सबसे निकृष्ट कोटि का कार्य किया जिसकी सजा मृत्यु ही थी  | रावण के हृदय में श्रीजी का वास है ये लंका कांड के इस दोहे से प्रमाण होता है -
 कह त्रिजटा सुनु राजकुमारी |उर सर लागत मरही सुरारी ||
 प्रभु तातें उर हतइ न तेही|एहि के हृदय बसत वैदेही  ||
क्या कोई व्यभिचारी किसी स्त्री को इस तरह हृदय में धारण कर सकता है कि अपनी मृत्यु  को सामने देख भी  उसके ध्यान से विचलित न हो ,कदापि नहीं | सो रामायण में तुलसी ने इस बात का सत्यापन किया है कि सीताहरण में  रावण का   हेतु  अपने और अपनी जाति के उद्धार का था  | रामचन्द्रजी ने भी सभी राक्षसों को मुक्ति दी और परमपद दिया वो पद जो देवताओं को भी दुर्लभ है | इसका भी प्रमाण गोस्वामीजी देते हैं लंकाकांड में --युद्ध समाप्ति के पश्चात जब इंद्र प्रभु से प्रार्थना कर रहा है की उसे भी कोई काम दें तो प्रभु कहते हैं की सब वानर, रीछ और  सेना के लोगों पर अमृत वर्षा करो क्यूंकि उन्होंने मेरे हेतु प्राण त्यागे हैं  राक्षसों को मैंने अपनी शरण में लेलिया है और मोक्षदे दिया है-
सुधा वृष्टि भै दुहु दल ऊपर |जिए भालू कपि नहीं रजनीचर | |
रामाकार भये तिन्ह के मन | मुक्त भये छूटे भव बंधन ||
      आज हम रावण का पुतला जला के खुश होलेते हैं की हमने बुराई पे विजय प्राप्त करली |
 पहले  रावण मरण के साथ -साथ  रामलीला  का समापन मंच पे ही हो जाता था और दूसरे दिन राज्याभिषेक हो जाता था | पर अब रावण का पुतला किसी बड़े मैदान में फूंका जाता है | बड़ी -बड़ी शख्शियत ,नेता और उद्योगपतियों के हाथों से करवाया जाता है शर संधान ,बड़े गर्व के साथ अग्निबाण छोड़े जाते हैं भ्रष्टाचारी ,चोर लुटेरों ,बहुरूपियों और दुराचारियों द्वारा    बुराई के मर जाने  का उद्घोष होता है | जाहिर है उपभोगतावाद और बाजारवाद हावी हो गया है पर्व में | और ये अपना रूतबा दिखने का भी जरिया बन गया है |जो कलाकार पूरी रामलीला में राम के चरित को साकार करता हुआ लोगों को रोने हंसने और आनन्दित करने का कार्य  करता है ,उससे पुतला दहन न करवाके समिति वाले किसी पैसे,पद और प्रतिष्ठा वाले से शर संधान करवाते हैं ताकि अगले साल भी समिति के लिए ,जगह और धन का जुगाड़ हो जाए ,''सर्वे गुणाकांचनमाश्रीयंति ''
     अब समय आ गया है ये सोचने का कि  रावण के पुतले को जलानेका अधिकार  है क्या हमको ? पद प्रतिष्ठा और पैसे के बल पे क्या हम राम बन गये? क्यूंकि रावण जैसे  शिवभक्त ,परमज्ञानी और अपनी मृत्यु के हेतु परम दुराचारी का कुकृत्य करने वाले को तो  कोई राम ही मार सकता है | और अब तो   रावण  की राक्षसी प्रवृतियों वाले ही लोग हैं चहुँ ओर तो फिर रावण ही रावण को मार रहा है | साल दर साल हम पुतला दहन करते हैं और समाज में भ्रष्टाचार रूपी दानव अपने पाँव फैलाता ही जा रहा है |  एक और सोचने की बात है -रावण की राक्षसी बुद्धि थी पर वो   ब्राह्मण कुल का था ,
ऋषि पुलत्स्य और  भारद्वाज के कुल का -ऋषि विश्श्र्वा का पुत्र----
रावण के राक्षस बनने की एक और कहानी  भी है ---
ब्राह्मण पिता और दैत्य माँ का पुत्र -ऋषि भारद्वाज ,पुलत्स्य का नाती पोता -
महर्षि विश्रवा  का पुत्र --
महर्षि विश्रवा की दो पत्नियां थीं देववर्णी और कैकसी
जब दूसरी माँ के पुत्र ब्राह्मण ही थे तो कैकसी के पुत्र राक्षस कैसे हो गए -कथा यूँ है ----
एक बार नारद मुनि रावण के पास आये ,रावण ने उनका बहुत सत्कार किया ,नारद बहुत प्रसन्न हुए और रावण से बोले -तुम तो विश्व के सबसे  शक्तिशाली योद्धा हो न   रावण ने कहा हाँ ऋषिवर इसने कोई शक नहीं है 
नारद जी बोले ---मैंने सुना है शिवशंकर महादेव जी  से बलवान  होने का वरदान मिला हुआ है  --
 रावण बोला --  हाँ आपने सही सुना   है ---
 नारद ने पूछा  --कितना बल है ?  
रावण बोला ---- यह तो नहीं कह सकता पर गर   मैं चाहूँ तो पृथ्वी को हिला  सकता हूँ----
नारद जी बोले ---रावण तब तो तुम्हें समय - समय पे अपने बल की परीक्षा लेनी चाहिए   , अपने बल का पता तो होना ही चाहिये। 
रावण को नारद जी की बात  ठीक लगी वो  बोला महर्षि मैं  शंकरजी  को माँ पार्वती संग  कैलाश पर्वत सहित उठा  के लंका में ही ले आता हूँ ये परीक्षा कैसी रहेगी --- मुझे पता चला जायेगा कि मेरे अंदर कितना बल है----- 
नारद जी ने कहा वाह ! ये तो बहुत सही रहेगा तुम ये ही करो  फिर नारद जी रावण को छुसका के  चले गये ----
बस फिर क्या था  --रावण ने  बल और भक्ति  के अहंकार में   कैलाश समेत महादेवजी को लंका  ले जाने का प्रयास किया। --जैसे ही उसने कैलाश पर्वत को अपने हाथों में ऊठाया तो वो हिलने लगा और माँ पार्वती  अपनी जगह से फिसलने लगीं -- साथ ही नंदी सहित सभी पर्वत वासियों में हाहाकार मच गया -गौरा  चिल्लायीं  ओह शंकर ये कैसा आतप है  --- प्रभु  ये कैलाश क्यों हिल  रहा है ---
शंकर बोले --- रावण हमें लंका ले जाने की कोशिश कर रहा है  । 
 रावण ने  कैलाश पर्वत को अपने हाथों में उठाया तो उसे  अभिमान हो   गया कि अगर वो देवाधिदेव महादेव  सहित कैलाश पर्वत को ऊठा सकता है तो  उसके लिये कुछ भी  असम्भव  नहीं -
अब रावण ने कदम बढ़ाया -वो डगमगाया और गौरा   एक बार फिर गिर  गई ----नंदी और शिवजी के गण भी गिर गए ---माँ जगद्जननी पार्वती को क्रोध आ गया उन्होंने रावण को श्राप दे दिया कि  
"अरे अभिमानी रावण तेरा अहंकार पर्वत से भी ऊँचा हो गया है मना करने पे भी नहीं मानता न किसी की असुविधा दुःख को देखता है ,मैं पहले भी तेरे अहंकार और मानवता को दुःखी करने  के किस्से सुन चुकी हूँ --ये तो राक्षसी कृत्य है ---जा  आज से तू राक्षसों में गिना जाएगा क्यूंकि , तेरी प्रकृति राक्षसों की जैसी हो गई है। रावण ने माँ के शब्दों की अवहेलना कर दी  --- तब भगवान शिव ने अपना भार बढाना शुरु किया-- अब रावण थकने लगा वो पर्वत को हिला नहीं पा रहा था -- रावण ने कैलाश पर्वत को धीरे से उसी जगह पर रखना शुरु किया ---- भार से उसका एक हाथ दब गया ----- वो दर्द से व्याकुल हो चीखने लगा -- उसकी चीख तीनों लोकों में  सुनाई दी ,वो  कुछ देर तक मूर्छित  भी हो गया  और समझ गया शिव कुपित हो गए है --------- होश आने पर उसने भगवान महादेव की  स्तुती षिक स्तोत्र से की ---
 ”जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्य  लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम् " 
भोलेनाथ  तो भोले ही ठहरे उन्होंने  स्तुति से प्रसन्न होके उससे कहा -----आज मैंने तेरी स्तुति से प्रसन्न होक तांडव को आनंद पूर्वक किया अन्यथा तो मैं क्रोध में ही तांडव करता हूँ  --तुम्हारी स्तुति से मैं प्रसन्न हुआ ---------------
 भगवान शिव ने रावण को प्रसन्न  होके चंद्रहास नामक तलवार दी, जिसके हाथ में रहने पर उसे तीन लोक में कोई भी युद्ध  में नहीं हरा सकता था. 
तो माँ पार्वती के शाप के बाद ही रावण की गिनती राक्षसों  में होने लगी थी -वरना वो ब्राह्मण ही था। 
इसीलिए विभीषण को राक्षस कहना उचित नहीं होगा मेरी दृष्टि में --रावण के बच्चों को राक्षस कह सकते हैं और उसके द्वारा पल्ल्वित पोषित संस्कृति को राक्षसी संस्कृति कह सकते हैं पर उसके भाई  जो सात्विक थे उन्हें राक्षस नहीं कह सकते -
वो तो रावण के राज में ऐसे रहते थे ,
"जिमि दसनन मंह जीभ बिचारी  "-----
अत: मनुष्य की प्रवृतियां ही उसे देव -दानव -मनुष्य या राक्षस बनाती हैं--

इसीलिये - राम ने भी ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त होने को अग्नि होत्र किया था -----जबकि हम लोग हर वर्ष ये पाप देश के ऊपर चढ़ा देते हैं और देश को सूतक में छोड़ देते हैं |
दशहरे के त्यौहार को हम हर्ष उल्लास के साथ मनाएं | पूजा करें झांकियां निकालें ,आतिश बजी करें ,मेले लगायें पर पुतला दहन न करें | आज राम तो कोई हो ही नहीं सकता है ,रावण बनना भी संभव नहीं है |  बस राम चरित को समझने और आत्मसाध करने का प्रयत्न करें |  भरत से भाई बनने की कोशिश करे | लक्ष्मण से सेवक बनें और शत्रुघ्न से आज्ञाकारी बनें | रामलीला के हरेक पात्र को समझें
|'' होगा वही जो राम रचि राखा | को करी तर्क बढ़ा वहीं साखा''
से मतलब कर्महीन होने का न  लगायें  वरन  उसे ''कर्मण्ये वाधिकारस्ते माँ फलेषुकदाचिन '
'के अर्थ में ले के   सुफल के लिए कर्म करें पर फल ईश्वर आधीन है ये मान के चिंता न करें |अस्तेय-अपरिग्रह को अपनाएँ तभी सच्चे अर्थों में दशहरा होगा ,खुशियाँ आयेंगी दीपावली के रूप में ....
आप सब को दशहरे ,विजयादशमी की शुभकामनायें 'देश समृद्ध हो भ्रष्टाचार,दुराचार ,झूठ फरेब ,और भय मुक्त होकर  मेरा देशरामराज्य की ओर  अग्रसित हो यही माँ दुर्गा और सीता-रामजी से प्रार्थना है ---------------आभा ------ 

Friday, 14 September 2018

हिंदी दिवस ---ठीक भी है --= बच्चों की भाषा तो अंग्रेजी हो चुकी है ,तो हिंदी को हम बूढों ने ही संभाला हुआ है हममें भी कुछ लोग अपने को इलीटवर्ग का दिखाने के लिये अंग्रेजी में ही लिखना पसंद करते हैं - साल में एक बार ही दिवस आये -वो भी हिंदी दिवस; चलो आता तो है ---याद तो आती है हिंदी की ----वरना तो सुबह कुत्ता घुमाती महिला आपको भी कुत्ता घुमाते हुए देख के अंग्रेजी ही बोलना पसंद करती है -----मैं तो थोड़ी देर बाद पूछ लेती हूँ आपका जन्म यू एस में हुआ था क्या ! ''upset emoticon'' ,,क्यूँ ? बहना मुझे हिंदी आती है ------ 
भार्तेंदुहरिश्चन्द्र के कुछ दोहे हिंदी दिवस को सप्रेम भेंट ------
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल ।
अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन
पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन ।--------
क्या शुभकामना दूँ हिंदी दिवस की ,आज आजादी के ६५ वर्षों के बाद हिंदी बुढ़िया विधवा माँ की तरह हो गयी है ,जिसके माथे पे चमकने वाली बिंदी अब कहाँ है ये भी उसके बच्चों को नहीं मालूम --
मैंने अभी पढ़ा --"आज हीदीं दिवस है ,मूझे र्गव् है अपनी भासा पे दोसतों अपना र्काय हीदीं में करने कि कीरप्या करे। "---सर पकड़ के बैठ गयी ,ये है आज की हिंदी --कुछ और बानगी आपके लिए ----
'' शांतिपुरण धरना तब ---------------- परवधान ''
'' नही आ सकते ओ अपने स्थर पे विरोध करे,''
वेतन बृद्धि ''
ओर एक धांसू हिंदी दिवस --''Our country name is HIDUSTAN so HINDI IS our language So we likely celebrate HINDI DAY.''-----
----ये सब महानुभाव या तो शिक्षक हैं या पत्रकार हैं --वो लोग जो इस तरह वर्तनी की अशुद्धि कर ही नहीं सकते ,उनके कांधों पे तो भाषा को शुद्ध लिखने का दारोमदार है। मुझे याद है बचपन में हम लोग पत्रकारों और गुरुओं के आलेखों से ही अपने संदेह दूर करते थे।
------क्या शुभकामना दूँ हिंदी दिवस की ---अपने ही देश में अपनी भाषा का दिवस ,ये हमारे मुहं पे हरवर्ष पड़ने वाला एक जोरदार थप्पड़ ,रैपट ,तमाचा सब कुछ है।
१४ सितम्बर १९४९ को हिंदी को संघ की राजभाषा घोषित किया गया ,तब से आज तक १४ सितम्बर को हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है ....आर्टिकल३४३ में लिखा है की संघ की राजभाषा हिंदी होगी -और लिपि देवनागरी होगी ...परन्तु बाद में इसके साथ जोड़ दिया गया की संविधान के लागू होने के समयसे १५ वर्ष की अवधि तक संघ के प्रयोजन के लिए अंग्रेजी का प्रयोग होता रहेगा ...और हिंदी को मिला १५ वर्ष का बनवास ...फिर पं.नेहरु ने १९६३ में इसमें संशोधन किया कि जब तक एक भी राज्य हिंदी का विरोध करेगा -----हिंदी -----राष्ट्र -भाषा नहीं होगी ...तब से ----.कतिपय क्षेत्रीय ,प्रांतीय और चुनावी स्वार्थों के आड़े आने से हिंदी तो बनवास में ही पड़ी है , विरोध और पक्ष नाम के दो पाटों में पिस रही है..............हाँ साल भर हिंदी की अनिवार्यता और भाषा को सशक्त करने के जो विचार सरकारी गेहूं की मानिंद गोदामों में पड़े -पड़े सड़ने की कगार पे आ जाते हैं वो हिंदी दिवस के सहारे कुछ नेपथ्य में चले गए ,कुछ बूढ़ों ,कुछ नये -नए ध्याड़ी के पार्टी कार्यकर्ताओं या कुछ थके हारे मुरझाये अलसाये व्यक्तियों के कंधे रूपी भैंसा  -गाडियों या जुगाड़ों में बैठ के सभागारों ,मंचो ,गोष्ठियों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में या यूँ कहिये एक  सप्ताह तक चलने वाले मेले में आ बैठते हैं .....................हिंदी दिवस सर्दियों के शुरू होने का अहसास  ले के आता है....जगह -जगह धुनिया अपनी धुनकी को ले के हिंदी को धुनने लगते हैं और सारा वातावरण धुनकी के चारों और फैले रूई के फाहों की मानिंद हिंदी मय हो जाता है ..चारों ओर  हिंदी अपनी लिपि में शब्द -शब्द बिखरी नजर आती है -वो अक्षरों की गर्माहट ,वो रुई जिसे हवा भर के लिहाफ बनाके हम ओढ लेंगे तथा रख देंगे फिर दूसरे मौसम के लिए सहेज के ताकि विचार खराब न हों .....................................................
असल में हिंदी को राष्ट्र भाषा बनाना तो सरकारों की इच्छा -शक्ति पे ही निर्भर करता है और सरकारें हिंदुस्तान में अब केवल वो ही काम करती है जिससे उनका वोट -बैंक सुरक्षित रहे .....राष्ट्रवाद की जगह अब क्षेत्र वाद ने ले ली है ..........दक्षिण के प्रांत, बंगाल और सुदूर पूर्व में तो हिंदी का विरोध चरम पे है .........पर एक राष्ट्र की अपनी भाषा होना उसके सम्मान और गौरव का प्रतीक होता है ....विदेशों में जब ये पूछा जाता है हम हिन्दुस्थानियों से, कि, हमारी राष्ट्रीय-भाषा क्या है तो हम हडबडा जाते हैं ........
. आज तो इंटरनेट पे भी हिंदी -भाषियों का कब्जा होता जा रहा है ....हिंदुस्तान नेट के लिए सबसे बड़ा बाजार है ,...हिंदी की ताकत का अनुभव फेसबुक और मोबाइल कंपनियों ने भी किया .
..ऐसे में हिंदी को राष्ट्र भाषा का दर्जा तो देना ही पड़ेगा .......हर भाषा के ज्ञान के साथ अपनी भाषा की उन्नति ....जब तक सरकारों में नैतिक साहस नहीं है इस काम को अंजाम देने का, हम लोगों का यह कर्तव्य बन जाता है कि मातृभूमी की मातृभाषा को अपनाए .....इसीसे हमारी संस्कृति पुष्पित और पल्लवित होगी .............अंग्रेजी में पारंगत हों हम सब  और अंग्रेजों को भी मात दें पर किसी को यह कहने का अवसर न मिले की हमारे देश की कौन सी भाषा है ?अपनी भाषा पे हमारा पूर्ण अधिकार हो ...........मैकाले का मानना था कि जब तक संस्कृति और भाषा के स्तर पे गुलाम नहीं बनाया जाएगा भारत को पूर्णत: गुलाम बनाना असंभव है ,उसकी सोच थी ,भारत को अंग्रेजी के माध्यम से सही और व्यापक अर्थों में गुलाम बनाया जा सकता है .......हमने अंग्रेजी को आत्मसाध किया ,अपने जीवन में उतारा.अब समय है हिंदी को बुलंदियों पे ले जाने का ताकि कोई मैकाले इस भूल में न रहे की कोई भी भाषा हिन्दू संस्कृति को मिटानेका काम कर सकती है ....अपितु , यहाँ तो उलटा होगा हम अपनी भाषा की उन्नति के साथ -साथ दूसरे की भी घोट के पी जायेंगे और अंग्रेजियत पे भी हमारा ही परचम लहराएगा ......... हिंदी दिवस १४ सितम्बर पे हिन्दी की उन्नती की आकांक्षा करती हूँ ....मेरे लिए हिंदी साधन और साध्य दोनों है और अंग्रेजी एक सटीक औजार .........हिंदी और हिंदी के चाहने वालों को मेरी शुभकामनायें .........अभी देखा ,सड़कों में गद्दे रजाई बनाने वाले बैठ गए है ,धुनकी की तान में रुई उड़ रही है क ख ग ,बोलती हुई ---मेरी चाहना --fb में लिखो तो एकबार पढ़ भी लो --केवल माफ़ी तब ही है यदि बूढ़े हो और आँख पे मोटा चश्मा है ,अक्षर रगबग हो जाते हैं -----माँ को श्रीविहीन करके उसका मजाक न बनाओ ---सिंदूर की बिंदी नहीं तो चंदन घिस के टीका लग सकता है। आभा।।

Wednesday, 15 August 2018



घोर अंधकार ''में दिव्य प्रकाश के रूप में कृष्ण अवतरित होते हैं ,मानव मन में भी और सृष्टि के लिए भी।
---हे कृष्ण मेरे मन में भी अवतरित होओ ! मैं भी संधि काल में प्रवेश कर चुकी हूँ। निशीथ काल वय के दो भागों का संधि काल है ,मोह -अज्ञान के अन्धकार ने घेर लिया है ,तुम मन के कृष्ण पक्ष में दिव्य प्रकाश बन के उतरो ! अष्टमी तिथि भी पक्ष का संधि काल ,भाद्रपद --भद्र --कल्याणकारी -- वर्षा जल या नयनों का जल ,जंगल बाहर भीतर ऊगा ही देती है वर्षा ---इस अज्ञान रूपी सघन वन को काटने को मेरे मन में उतरो कान्हा --सोलह कलाओं से युक्त चन्द्रमा से उदित होओ मेरे मन में और मुझे बांसुरी बन जाने दो -तुम्हारे प्रेम में पगी ,तुम्हारा ही गान गाती हुई योग माया की तरह तुम पे मर मिटने को आतुर --मैं भी कृष्ण हो जाऊं ---
और नन्द के आनन्द भयो --जै कन्हैया लाल की ---कृष्ण का अवतरण हुआ है --कोई साधारण घटना नही है ,काराग्रह से लेकर ,वसुदेव के ,बन्धन खुलने ,द्वारपालों के सोने ,यमुना के बढ़ने ,,शेष नाग के छतरी बनने ,और योगमाया के कंस के हाथ से फिसलने ---हर पल में ,हर घटना का एक मन्तव्य ,एक उद्देश्य ,एक रहस्य ---कृष्ण होने का रहस्य ---और गोपियाँ तो भोली हैं ,,नन्द बाबा के घर पहुंच गयीं आशीष देने ---
'' ता आशीष:प्रयुज्जानाश्चिरं पाहीति बालके।
हरिद्राचूर्णतैलाद्भदी: सिंचनत्यौ जनमुजज्गु:''------भगवन इस बालक की रक्षा करो ये चिरंजीवी हो ,,कह के हल्दी तेल युक्त जल छिड़क रही हैं ---भगवान को आशीष दे रही हैं।
---और मेरा भी आशीष लो प्रभु --आरती गायी है शंख घण्टे के साथ वो तुम्हारे सारे आरत हर ले ,तुम्हारे ऊपर से उतारी आरती ---तुम्हारी किरणों को छू हम तक पहुंची है ,हम भी धन्य हुए ---आशीष दो हम सभी कृष्ण बनें ,,मन वचन कर्म से ---
--हाथी घोड़ा पालकी ,जै कन्हैया लाल की ,हाथी दीने ,घोड़े दीने और दीनी पालकी ,नन्द के आनन्द भयो जै कन्हैया लाल की ---सबही के जीवन में कृष्ण अवतरित हों ---जन्माष्टमी की मंगलकामना ---- आभा।।
वटस्य पत्रस्य पुटे शयानम, बालं
मुकुन्दम सिरसा नमामि...।

Monday, 13 August 2018

  ---- 13 अगस्त 2014 को लिखा आलेख  --आज फिर <><><>---
13 के अंक को खतरनाक क्यों कहते हैं ये समझ आया ------:-) मैं पड़ोसिन जैसी खतरनाक सुंदरियों पे लिखने का साहस जो कर बैठी ---आज भी तेरा वो ही तेरह ,मेरी बहना ,तू मेरी है मेरी ही रहना -- और आज एक बार फिर ----............................................
 अब तो बार- बार बदलता पड़ोस और पड़ोसन  ---मिलती हूँ नई पड़ोसनों से कब कहां  यहाँ क्या और कैसी मिलेगी यही धुक -धुक --अब अजय नही हैं तो सभी की नसीहत --यही है जिन्दगी ,जीना तो है ही ,भूलना पड़ेगा ,भूल कहाँ पाते हैं ,बस समय काटना है -जैसे जुमले तो कहेंगी ही सभी ---
{(पड़ोसन)}
******
***एक बेहद जरुरी ,व्यर्थ सी चर्चा | पड़ोसन; पती की भाभीजी -पत्नीकी मुंहबोली बहन ( कभी छोटी, कभी बड़ी ) | पड़ोसन ; गोलगप्पे के खट्टे -मीठे पानी के चटकारे सी कभी तीखी ,कभी मीठी महसूस होती हुई |पड़ोसन ;जो घर की बगिया से बेधडक हरी सब्जी तोड़ले और आपके पती भी इस कार्य में उसका योगदान दे के अपने के खुशनसीब समझें | पड़ोसन ; कभी जी को जलाती कभी खुश करती हुई सी बिलकुल सोलह साल की उम्र की भांति जो अपनी होते हुए भी कभी अपनी नहीं होती पर सब से प्रिय होती है | पड़ोसन ;दरवाजों और खिडकियों के पीछे से झांकता एक पवित्र और आवश्यक रिश्ता |
***पड़ोसन ;पत्नी द्वारा एप्रूवड वो सुन्दरी जिसके आने से घर की नैतिक ईंटें खिसक जायेंगी ये डर किसी पत्नी को नहीं होता |
***कान से समाचार जानने की कस्बाई संस्कृति अब समाप्त हो चुकी है अब तो टीवी है सोसियल मीडिया है पर फिर भी पड़ोसन ने इस संस्कृति को गंवई-गाँव से लेकर शहरों और महानगरों की बड़ी सोसाइटियों में भी सहेज के रखा है | पड़ोसन ;जो चौबीस घंटे में किसी भी समय आपके घर की घंटी बजा सकती है और यदि दरवाजा उढ़का हुआ है तो धडल्ले से खोल के भीतर आ सकती है |मेरी पड़ोसनें ,मेरी सखी से अधिक मेरे पती की भाभीजी रही हैं | अपने घर परिवार की अन्तरंग बातें और समस्याओं के समाधान सब अपने इस देवर से ही मिलते थे इनको ,मैं तो केवल चाय पिलाने तक ही सिमित थी |वैसे हमारे घरो की ये पुरानी परम्परा और संस्कार हैं की पड़ोसन को पूरा सम्मान देना है | पड़ोसनों की उम्र या रूप रंग नहीं देखे जाते ,इनके तो कानों और इनके शब्दों से ही इनकी पहचान होती है | जितने बड़े और स्वस्थ कान होंगे उतनी ही खबरें झरेंगी मुंह से |मेरी एक पड़ोसन तो बहुत ही निराली थीं ---कुछ ऊंचा सुनती थीं - मध्यम स्वर में बोलती थीं पर जाने कैसे जमाने भर के घरों की अन्तरंग बातें उन्हें मालूम होती थीं | मुझे बहुत -बहुत गर्व रहा कि मैं उनकी पड़ोसन रही |
***पर कुछ पड़ोसनें मेरी तरह की भी होती हैं जिन्हें किसी के घर की अन्तरंग बातों में कोई- कोई रूचि नहीं होती ,किसी के घर में घुसने की आदत नहीं होती ,जिन्हें किसी की बातें सुनके भी उनके बीच में छिपा अर्थ समझ नहीं आता और जिनके लिए इशारे तो काला अक्षर भैंस बराबर होती हैं | ऐसी पड़ोसन की कहीं कोई पूछ नहीं होती ,जो कोई चुगली ,छुईं न खाती हो ,गप्पी -झप्पी न हो ,तो उसके घर कोई भी पड़ोसन क्यूँ आये ? आएगी जी ,हर पड़ोसन आएगी ! बस हमें कुछ आकर्षण पैदा करना पड़ेगा ,सिलाई ,कढ़ाई,बिनाई ,पाक-कला ,व्रत- त्यौहार ,और गाने बजाने नाचने के गुर सीखने और सिखाने के लिए तैयार रहना पड़ेगा |नये नये मौसमी और ट्रेडीशनल व्यंजनों से पड़ोसिनों का स्वागत करना पड़ेगा |कुछ धार्मिक ,दार्शनिक और साहित्यिक बातें जो आपको हटके बनायें , सबसे बड़ी ट्रिक -हम जैसे नीरस लोगों को सबकी मदद के लिये हर वक्त तैयार रहना पड़ेगा , पड़ोसन बहनें किसी भी पार्टी या उत्सव के लिए हमारी नयी वाली साडी और ज्वैलरी मांगे तो ख़ुशी -ख़ुशी देने को तैयार रहना पड़ेगा ; तभी, मेरी जैसी नीरस पड़ोसिनों को भी चटखारे वाली पड़ोसिनें मिलेंगी | अन्यथा महानगरों की चाल में तो आप निपट अकेले हो जायेंगे ,कौन पूछेगा आपको | तो ये शब्द जो पड़ोसन कहलाता है बहुत ही सुंदर और उपयोगी रिश्ता है |पर यदि कालचक्र उल्टा घूमे और आपकी ग्रह-चाल ख़राब हो इस रिश्ते के कोप से अपने को बचाना बहुत मुश्किल होता है |आपको अपनी सारी समझदारी उड़ेल देनी पड़ती है वरना तो इस रिश्ते के पास आपके सारे राज होते हैं --- मेरा तो मानना है - पड़ोसन को अपनी प्रिय सखी मानें ,उससे सारी खबरें बड़े मनोयोग से सुनें पर उन्हें पचा जाएँ , अपने कोई भी राज या कमजोरी अपनी इस सखी के हाथ न लगने दें ,वरना तो महिमा घटी समुद्र की रावण बस्यो पडोस !आपको पता है श्रवण -मनन और निविध्यासन द्वारा साक्षात्कार का सामर्थ्य प्राप्त होता है पड़ोसिनों को | ये खबरनवीस आसपास की खबरों का संकलन और संचालन करते -करतेभावातीत अवस्था में रहा करती हैं | अपने स्व को भूल के ,खबरों का अहर्निश जाप करते हुए मधुमय आनन्द को प्राप्त रहती हैं हर वक्त | ऐसी पड़ोसनों को साधने का एक ही गुर ,लो प्रोफाइल , कभी भी उन्हें ये न महसूस होने दो कि तुम उनसे बीस हो हमेशा सोलह ,बारह या दस पे ही दिखाओ अपने को, चाहे- स्त्री सुलभ डाह आपको कितना ही कष्ट क्यूँ न दे ,जरा सी चूक हुई ,सावधानी हटी और दुर्घटना घटी | असल में समय पे तो पडोसी ही काम आता है ,वास्तव में दान ,पुन्य ,यश ,नाम धन सब फीका है एक अच्छी पड़ोसन के आगे | पर पड़ोसन से अपनी रक्षा भी जरुरी है |वो बेचारी आपसे प्रेम करती है ( चाहे दिखावेका ) और खबरची का रोल बड़ी पवित्रता से निभाती है |वह माया का ही एक रूप है ,निर्गुण फांस लिए कर डोले ,बोले मधुरी बानी | कितने मकान बदलने ,कई सोसाइटियों में रिहायश पे कई विभिन्नताओं के मध्य एक ही समानता रही- मिलती जुलती पड़ोसनें |कमोबेश एक जैसे स्वरूप वाली ,समता और न्याय का निरूपण करती सी | जीवन क्षण भंगुर है पर उसमें एक अदद पड़ोसन की सख्त जरूरत है ,तो आज ही खटखटाइये अपने पड़ोस का दरवाजा और जान - पहचान बढाइये अपनी पड़ोसन से |वरना तो आज रिश्ते सड़ी सुपारी की मानिंद हो गये हैं जरा सा सरौता लगा नहीं और कट के गिर पड़े | ***आभा ***

Wednesday, 8 August 2018


बाट निहारूं
==========
मिलें अवनि- अम्बर जहाँ पर ,
क्या ! वहीं रहते हो मुरारी ?
अवनि-अम्बर मिल रहे हैं
निशब्द मेरे मन गगन में
स्वर्ण होते मन क्षितिज में
बाट तकती हूँ तुम्हारी !
सामने अम्बुद ये गहरा
सुप्त सुधियों की ये लहरें
आ तीर पर , कानों में कहतीं
ज्वाल मैं , तू अम्बु शीतल।
उर गुहा में आ बसी थी -
पीड़ा की जो छोटी सी बस्ती
मूंगे का पर्वत बन खड़ी है
पाषाणों का तीरथ बन अड़ी है आज अस्थिर मन गगन है
चाहता तुझसे मिलन है !
कर्म -भूमि ,पुण्य -भूमि
उसपार ही तो मिल सकेगी ;
तैर कर जाना है मुझको
बिन डांड और पतवार के ही
अक्षि का निक्षेप जीवन
तू कूल में देता दिखाई
कर्म के पथ व्योम पर
नक्षत्र यों बिखरे पड़े हैं ,
रोकने मुझको खड़े हैं
मोह के बंधन ये सारे
आज अर्जुन मैं बनी हूँ ,
कृष्ण बन जाओ मुरारी।
आज थामो बांह मेरी ,
संग हो लूँ मैं तुम्हारे
किस तरह सूनी हैं राहें ,
मेघ बन कर मैं खड़ी हूँ
राह कोई सूझती ना
मन मरुत भी पथ न पाता
घिर गयी हूँ मैं तिमिर में
हारना ना चाहती हूँ -
मरूकणों के तप्त पथ पर
वेदना बन गल रही हूँ।
चेतना थकने लगी अब
अश्रु ना श्रृंगार करते -
ये भेद भी- " मैं " जानती हूँ
"कि "
अवनि अम्बर के मिलन पर
सज चुका है रथ तुम्हारा।
स्वर्ण दिखता है गगन में !
क्या ! आ रहे हो तुम मुरारी ?
नील अम्बर में पीताम्बर
अब सुशोभित हो रहा है ,
गूंजने तो अब ! लगी है
कानो में बंसीधुन तुम्हारी !
उषा- निशा का रूप धर
आरती बन के खड़ी है
मुखर मन को तुम करो अब
युग युग का संचित नेह दे दो
लय ताल वाला नृत्य दे दो
अक्षि को इक झलक देदो
अब तो आ जाओ मुरारी
बाट तकती हूँ तिहारी ! ।।आभा

Monday, 6 August 2018



Memories के अंतर्गत -----"खालीदिमाग और थका हुआ शरीर दोनों ही शैतान के घर" ---2014 के खाली दिमाग की बुढभस एक बारफिर आ गयी सामने थकन का शैतानी जामा उतारने ------- ये बकवास भी यूँ ही नही लिखी जाती दिमाग खाली शून्य वाला जहाँ हवा भी न हो --होना चाहिए .............
Word of the day ''TARADIDDLE''....
.Work of the day ''TARADIDDLE''....
Poem of the day ''TARADIDDLE''..
.Twinkle -twinkle little star 

,how do I reach you ,you seem so far ,
tsk tsk tsk ,ha ha ha ,
gappi can reach every where ,
झूठ के पाँव नहीं होते 
झूठे को शर्म नहीं आती ,
hunger is an infidel ,
you are correct but the goat is mine ..
.either left -right -left-left ,
right -left ,right- right .
It may be an empty talk or nonsense but aren't we jokers ,
are we really serious as a nation ,
ladies & gentlemen I may sound a foolish ,a brainless 
.I am sure my brain is a solution to be titrated 
alas! 
a short circuting &'' TARADIDDLE ''..
So The Word of the day is ''=========='' 
समझने वाले समझ गये
जो ना समझे वो === है। 
दिमागी फितूर इसे ही कहते हैं ,
हालाँकि भूसे में भी सुई ढूंढ़ ही लेगा 
यदि हीरो हिंदी सिनेमा का हो तो। 
बेवकूफी भी दिमाग से ही निकलती है ,
नदी सी बहती है झरने सी झरती है ,
हिंदी चीनी भाई -भाई ,
इंग्लिश ने सब खाई मलाई ,
मुसलमान तो इस देश का ही है 
बाबर तो इस्लाम को लाया था भाई। 
जग हंसाई ,जग-हंसाई। 
पृथिव्याम त्रीणि रत्नानि जलमन्न्म सुभाषितं। 
मूढ़े पाषणखंडेषु रत्नसंज्ञा प्रदीयते।।
Taradiddleeeeeeie ---,3,4,faaaiiiiiivvvvv.(5 ) .... आभा।।...........टांय टां टां-टांय टां टां रोज करती  हूँ प्रभो --अब मुझे वरदान दो ---  ..........

Sunday, 29 July 2018

---ऐसी ही बारिश और बालकनी में खड़ी थी --- बरामदे में बारिश में बैठे चाय की चुस्कियों की याद आना स्वाभाविक ही होता है ---आज फिर वही मंजर --  ---
-----------वो बतकहियां हमारी ---------
आम से जीवन की बतकहियां ,किसी ख़ास से अपने को जोड़ती हुई ,वो ख़ास हमारा हीरो था ,उसकी कई किताबें हमने साथ बैठ के पढ़ीं --बस यूँ ही भावुकता भरे कुछ क्षण -----जो बस मेरे लिए खास हैं ---
==================================
अक्सर बरामदे में शाम की चाय पे जीवन क्या है ?कैसा है ?क्यों है ?पे चर्चा होती जब मेरी और अजय की तो अंत में टकराहट पे आके रूकती। वो कहते आभा आदमी कितना सुखी है ये मत देखो उसे मौत कैसी मिलती है ये देखो। जीवन भर सुखों के झूले पे झूलता रहे , अंतिम समय बिस्तर पे पड़ जाए , बैड - सोल हो जाएँ ,त्रिशंकु बनके लटक जाए मौत और जिंदगी के बीच में या फिर मिनटों में बैठे-बैठे प्राण पखेरू उड़ जाएँ। यदि काम करते हुए आदमी जाए तो उससे सुखी कोई नहीं ,और मैं टकरा जाती ,आपको तो मौत के क्षण ही दिखाई देते हैं जीवन की सफलता या सुख को परिभाषित करने के लिए । ये भी कोई बात हुई ;जीवन भर जो सफल सुखी और संपन्न रहा है ,वो तो सुखी ही कहलायेगा न। पर अजय ये कभी मानने को ही तैयार नहीं होते थे ,उनका कहना था एक व्यक्ति यदि जिंदगी भर जूझ रहा है ,बीमार भी है पर फिर भी कर्मठ है ,कर्मठ संतानें देता है राष्ट्र को और अंत में चैन से प्राण निकल जाते हैं तो उससे बढ़कर भाग्यवान कोई नहीं। लेकिन साथ ही ये भी ,ऐसा उस ही व्यक्ति के साथ होगा जिसके मन में किसी के लिए कलुष न हो ,जिसने मानवता के लिए अधिक नहीं तो कुछ तो किया हो ,जिसमे इतना साहस हो कि उसे पता है कि फलां शख्स मुझसे हद दर्जे हा द्वेष रखता है , पर उससे मिलके माफ़ी मांग सके कि कही मेरी ही तो कोई गलती तो नहीं थी और साथ ही सबको माफ़ करने की कूवत रखता हो ,जिसे लोभ न हो --वही फटाफट मृत्यु पाता है।
मुझे लगता ये इंसान किस मिट्टी का बना है ,झूठ ,धोखा ,फरेब ,निंदा सबकुछ पचा जाता है ,किसी के लिए मन में कोई द्वेष ही नहीं और सभी चालबाजों और धोखेबाजों को भी ख़ुशी बाँट रहा है। क्यों दूर कर रहे हो नकारात्मकता ,आपने क्या ठेका लिया है ,बिना बात में उस लफंगे लम्पट से माफ़ी मान ली ,जब कोई आपने कुछ किया नहीं ,कोई दोष नहीं तो किस बात की माफ़ी ?
सीधे इतने कि खुद बीमार हैं पर किसी का फोन आ जाए मेरी माँ बीमार है ,बीबी को बच्चा होना है ,तो चल देंगे उठ के ,खुद की तबियत ठीक नहीं है ,पर कोई बड़ी उम्र साथी अकेला है [अक्सर इस उम्र में कोई न कोई अकेला होता है और बच्चे भी जीविकोपार्जन के लिए चले जाते हैं ]तो चलदेंगे उसकी खैर-खबर लेने --चलो उसे थोड़ी देर की ही ख़ुशी दे आते हैं और ये तब जब उस आदमी ने हमेशा डिपार्टमेंट में अजय की काट करी हो ,अरे उसका उसके साथ मेरा मेरे साथ। मैं अक्सर किलसती भी थी ,देखो इतना सीधा सरल होना भी अच्छा नहीं होता ,लोग तुम्हारी राह में दोस्त बनके रोड़ा अटकाते हैं ,पर वो कभी नहीं माने ,कहते मेरा भाग्य थोड़े ही कोई छीन लेगा।
कुछ दिनों से अजय ने जिन भी लोगों के लिए वो सुनते थे कि वो मुझ से कुछ द्वेष रखते हैं ,उनसे फोन पे बात शुरू की ,मेरे पूछने पे बोले संवाद बहुत बड़ी शह है ,वो मेरे लिये कलुष लिए बैठा है ,मुझे पता चला तो मैं क्यों न अपने लिए उसकी नकारात्मकता मिटाऊं। और धीरे -धीरे सभी से उन्होंने संवाद किया ,किसी को चाय पे बुलाया ,किसी को खाने पे। मैंने इसे गंभीरता से लिया ही नहीं। जब काम ज्यादा बढ़ गया तो रोकने की कोशिश भी की ; क्यों कर रहे हो ? कुछ लोग ऐसे जो जॉब शुरू होने से लेकर अब तक जान के पीछे पड़े थे [और मैं तो आज भी उनका चेहरा नहीं देखना चाहती ]सभी से रिश्ते सहज और सौहार्दयपूर्ण कर लिये ---मैं समझ ही न पायी कि आत्मा निर्मल होना चाहती है और -------------------
''एक सुबह ,६ बजे --ताजा गुड बनवाया था ,वो गुड की चाय कभी नहीं पीते थे पर जुकाम था तो मैंने अदरख गुड की चाय बनाई --आज उठने में देर हो गयी कहके चाय के लिए उठाया तो एक सिप लेके बोले थोड़ा कमजोरी हो रही है ,कुछ देर और सो जाऊं और बस कहते कहते रामजी की चिड़िया रामजी के पास। ''------------
अजय के जाने के कुछ समय बाद जब होश आया तो पता चला सही में भाग्यशाली वही है जिसको अपने जाने का अहसास भी न हो ,पल भर में उड़ जाए ,चेहरे पे भी न शिकन न डर। --जब जरा मनन करने लगी तो पाया ,पिताजी ,माँ ,श्वसुरजी --मेरे आगे ये सभी शख्श ऐसे रहे जो चेतनावस्था में चलते-फिरते चले गए --और ये सब वही लोग थे जो सीधे ,सच्चे और सरलमना थे।
अभी कलाम सर का जाना देखा तो ये सारी बतकहियां चलचित्र की भांति घूम गयी आँखों के आगे ,मानो अभी की ही बात हो ,एक सीधे ,सच्चे सरल ,आदमी का जाना क्या होता है --पल भर में कार्य करते हुए प्राण पखेरू उड़ गए ---सही में यही व्यक्ति भाग्यशाली होता है। अजय तुम ठीक कहते थे।
काश मैं भी इतनी ही सहज हो पाऊं। कोशिश तो कर रही हूँ पर अभी ऐंठ है कहीं मन में ,कुछ गांठें हैं जो खुलती नहीं ,,कुछ लोग जिन्होंने तुम्हें धोखा दिया मेरी माफ़ी की जद में नहीं आते --शायद मैं उतनी सरलमना नहीं हूँ और कोई बिरला ही हो सकता है ऐसा।
''मैं रोती नहीं वारती मानस मोती हूँ ''---जाने वाले अब हमारे दिलों में हैं अपनी राह पे चलने को प्रेरित करते हुए ----