Wednesday, 18 December 2013


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''दिवस का अवसान समीप था ''
*********************** फुर्सत के कुछ क्षण मिल जाएँ तो दिमाग जिन्दगी का गुणा भाग करने लगता है और भागती दौड़ती जिन्दगी में अंत में अपने को रीता पा के सोचता है कहाँ गलती हो गयी |ऐसे ही फुर्सत के क्षणों में अवसान की अवधारणा |
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      दिवस का अवसान समीप था .गगन था कुछ लोहित हो चला |प्रकृति हमसे प्रतिदिन  संवाद करती है , वो कहती है !उदय तो विस्मयकारी .रोमांचक और खूबसूरत होता ही है -अवसान और भी सुहावना और स्नेहिल होना चाहिए | पर कहाँ समझ पाता है इन्सान प्रकृति की इस सीख को जब तक कोई चोट न मिले |
   लम्बी राहें,ढेरसी मंजिलें ,मान -सम्मान ,धन ,पद ,प्रतिष्ठा पता नहीं क्या -क्या चाहिए हमें और क्यूँ चाहिए ? सडकों पे भागती दौड़ती जिन्दगी ,वाहनों का जाल, ( आज कल महानगरों में रहने वालों का एक चौथाई समय तो सड़कों और वाहनों में ही गुजरता है )और   जीवन जीने की हडबडी में__ जीने की अभिलाषा ,मन मुताबिक़ जीवन जीने की तमन्ना अक्सर हाशिये में लिखे नोट्स की तरह ही हमारे साथ-साथ चलती है जो  पहला मौक़ा मिलने पे मछली की तरह सांस लेने ऊपर चली आती है | ऐसे ही लेखनी हाथ में आते ही  अक्षरों की बूंदा-बांदी होने लगती है और तमन्नाएं वाक्यों का झरना बन तेजी से  बनती बिगड़ती पानी की बूंदों की मानिंद  आकार  लेने लगती हैं | मन के उद्गारों को कैनवास पे उतारना  भी शायद सांस लेने की ही प्रक्रिया है मेरे लिए | घर -परिवार -समाज में  जीवन के  चंद  लम्हें प्रकृति के सानिध्य में ,अपने आपके साथ ,अपने अंतर्मन में उतरने की कोशिश |डूबते सूर्य की रोमांचकारी सुनहली लालिमा और सागर का विस्तार ,अनंत की राह की ओर बढ़ते कदमो को महसूस करने को बाध्य करती है . रात्रि के आगोश में अपनी थकन उतारने जाता सूर्य मानो कहता है अवसान दिवस का हो या जीवन का  खूबसूरत और  नर्म- नाजुक ही होना चाहिए | जीवन का अवसान ! ये भी तो आत्मा के सांस लेने की ही प्रक्रिया है |जीवन की आपाधापी में आत्मा की बचपन से बड़े होने तक की अनथक यात्रा |जिसमे शायद आज ही स्पष्ट है | यदि भविष्य का ज्ञान हो जाये तो जीवन का स्वरूप क्या होगा इसकी कल्पना भी कठिन है |साथ ही यदि भूत को साथ लेके चलें तो राहकी थकन ही पैरों की जंजीर बन जाए | बंद राहें और मंजिलों की अस्पष्टता ही शायद जीवन को गति देती हैं | वरना तो ; जीवन आज के सिवा कुछ भी नहीं | पिछ्ला कैनवास धुंधला है , विस्तार इतना है कि याद करने के लिए एक समय में एक छोटी सी जगह की धूल साफ़ करके बस उस समय की घटनाओं में ही जा सकते हैं |पिछले पूरे जीवन को एक साथ यादों में जीना कठिन ही नहीं असम्भव भी है |भविष्य के लिए तैयार कैनवास पे आप रेखाएं ही खींच सकते हैं ,उसका स्वरूप तो अविगत ही है |आज बस आज;अब और ये पल ;यही जीता है मनुष्य और इसके लिए कितनी जद्दोजहद ,कितने रिश्ते नाते ,कहीं दोस्ती ,कहीं दुश्मनी | हम जैसे आये थे संसार में उससे अलग कुछ और ही हो जाते हैं |अपनों को खोने के बाद इस संसार की असारता और अवसान की खूबसूरती का भान हुआ है मुझे भी | प्रकृति का ये सन्देशपहुँचने लगा है पूरी शिद्दत से |जो अवचेतन में था वो जागरूक होने लगा है | तब से कोशिश है अपने को पुन: पाने की |  ये भी भान हुआ कि इन्सान जीता तो एक जगह में है पर मरने के बाद वह हर परिचित (दोस्त या दुश्मन )के भीतर अपनी जगह बना लेता है ,उसका होना धुंधला पड़ जाता है पर उसका न होना उजला हो जाता है ,अहसासों में बस जाता है वह, मानो पास ही बैठा है यहीं कहीं ,हम सबके साथ ,एक जैसा नहीं पर अलग- अलग सबके मन में उनके ख्यालों के अनुरूप | इन्सान अपनी मृत्यु के बाद दो बार मुक्त होता है --पहली बार अपनों से और दूसरी बार अपने से पर इस मुक्त होने की प्रक्रिया में वो जो  यादें छोड़ जाता है वे सदैव के लिए अपनों के स्मृतिपटल पे चित्रित हो जाती हैं | कोशिश है क्यूँ न सबको खूबसूरत यादें दी जाएँ ,ताकि अवसान की बेला में मैं भी डूबते सूरज की इन  स्वर्णिम किरणों की मानिंद ही अनंत के इस सागर की लहरों से टकरा कर इतनी ही नर्म नाजुक सुन्दरता से अभिसारित हो अपने प्रभु की शरण में जाऊं | मीरा की तरह निश्छल और धवल ताकि आत्मा को सांस लेने में घुटन न महसूस हो |........................................आभा .......

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