Sunday, 29 December 2013

            "जाने वाला पल आने वाला है "
"मैं समय हूँ ! चरैवेति -चरैवेति यही है  मेरी पहचान |  आज  वर्ष २०१३ ",तुम्हारे अनुसार" ;मेरी गति में लीन होने को है और २०१४ दहलीज पे  दस्तक दे रहा है | सच कहूँ ! मैं तो इस सब से परे सदैव एक सा ही हूँ ,स्वतंत्र होते हुए भी, नियमों के कठोर बन्धनों में बंधा हुआ ,अनुशासित शिशु सा. अपने कर्म को करता हुआ, न कभी आता हूँ न ही कहीं जाता हूँ ! सदैव बस गतिशील रहता हूँ | " यदि मैंने अपने अनुशासन से या बंधन से मुक्त होने की सोची भी तो ब्रह्मांड में उथल-पुथल हो जाएगी | नियम और बन्धनों में रहते हुए कैसे स्वतंत्र रहना है ,ये मैं प्रतिपल मानव को सिखा रहा हूँ |पर आज मानव; प्रकृति -प्रदत्त नियमों और सदियों से चले आ रहे सामाजिक बन्धनों को "अपनी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के लिए" तोड़ने को ही समय की मांग कहता है | सहस्त्रों वर्षों से चली आ रही  कुटुम्ब की परिभाषा ही बदलने लगी है | हमारी सनातन संस्कृति की विरासत है - कुटुम्ब या परिवार .जहाँ प्यार -तकरार मनुहार -वैमनस्य -लड़ाई -झगड़े सबकुछ होते हुए भी- सामाजिक सुरक्षा है | अपनेपन का भाव है | किन्ही परिस्थितियों में जैसे -नाखून के बढने पे उसे काटा तो जा सकता है पर जड़ से नहीं उखाड़ा जा सकता -ये भावना सदैव रहती ही है | मानव आज मर्यादा में बंध कर रहने को अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता हा हनन समझने लगा है पर वो ये नहीं देख पा रहा वो कितनी भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता ले ले रहना उसे समाज में ही है  | परिवार में नहीं तो किसी और के साथ | और वहां भी कुछ तो बंधन होंगे ही, जो; संस्कारहीन होंगे जो; अशांति और विक्षेप का कारण होंगे |मैं समय हूँ! मानव को मर्यादा में रहना सिखाता ही रहूँगा चाहे कोई भी काल-परिस्थिति या युग हो क्यूंकि मर्यादा की सीमा रेखा लांघना कभी भी उन्नति का साधन , कारक या कारण  नहीं हो सकता | रामायण में समुद्र प्रभू से कहता है _______"प्रभु भल किन्ही मोहि सिख दीन्ही ,मरजादा पुनि तुम्हरी किन्ही ||   ______________________कि मैं तुम्हें राह देने को सूख नहीं रहा हूँ तो प्रभु ये भी तुम्हारी दी हुई ही मर्यादा है .यदि मैं सूख जाऊं या कहीं और बहने लगूं तो जल थल दोनों में हाहाकार मच जायेगा |
परिवार एक समयातीत सामाजिक संस्था है जिसमे प्रत्येक व्यक्ति साथ रहते हुए भी अपनी स्वतंत्र सत्ता रखता है |मैं समय हूँ ! मैंने सदियों से इस संस्था को अपने आंचल में पल्लवित -पुष्पित होते देखा है |आज भी इस नए कलेंडर वर्ष के समापन में मैं ऐसी ही कामना करता हूँ कि -भटके हुओं को राह मिले क्यूंकि अनुशासन हीन चंचल मन जिन अनुभवों को ग्रहण करता है ,वे अनुभव खंड रूप में होते हैं | इस प्रकार मन बाह्य जगत के अपूर्ण अनुभवों के उत्पादन में ही व्यग्र और व्यस्त रहता है |
             समय के साथ कलेंडर के पन्ने पलटते -पलटते कब ३६५ दिन व्यतीत हो गए पता ही नहीं चलता | अब २०१३ " कलैंडर वर्ष "के समापन का फिर से शोर है |अतीत के कार्य -कलापों का  स्मरण ,कुछ को पारितोषिक तो  कुछ को उपालंभ ,कुछ आहें -कराहें ,तो कहीं वाह -वाही भी | कहीं हरित दुर्बा की दूर तक प्रसारित धरणी तो कहीं काँटों से भरी झाड़ियाँ | और इसी सब में हम करने लगते हैं मूल्यांकन अपने पुराने संकल्पों का वो संकल्प जो पिछले वर्ष की पूर्व संध्या पे लिए थे |कहीं संतोष तो कहीं पछतावा ,साथ ही गढने लगते हैं नए संकल्पों की रूपरेखा और अपने लिए निर्मित करते हैं एक ऊँची कसौटी जो पुन:दूसरे वर्ष के समापन में पछतावे का कारण होगी |
      आज प्राणी  की सबसे बड़ी विडम्बना है कि वह  जीवन के एक ही पक्ष को विकसित करने में अपनी सारी उर्जा लगादेता है |समत्व नहीं है किसी के भी जीवन में |जो व्यक्ति शारीरिक बल से सम्पन्न हैं वो अध्यात्म को नहीं अपनाना चाहते ,जो प्रतिष्ठित हैं और समाज को दिशा देने की क्षमता रखते हैं वो संवेदनाशून्य हैं |कुछ बुद्धिमान लोग हैं पर वे अस्वस्थ रहते हैं |कुछ ऐसे भी हैं जो अध्यात्मिक और शारीरिक तौर पे विकसित हैं पर व्यवहार शून्य हैं | इस तरह से हम देखते है की आज हमारे चारों ओर सर्वांगीण विकसित मनुष्य नहीं हैं  |आज हम जिस युग में निवास करते है वो भौतिक कोलाहल से पूरित अशांत और दिशाहीन है |मानव चेतना को जागृत कर सके , समाज में और देश में चेतना का संचार कर सके ऐसा कोई भी व्यक्ति हमारे आस-पास दिखाई नहीं देता .तो हमारे लिए ये ही अपेक्षित है की हम बीते हुए समय में जा के ,अपने ही सद ग्रंथो को प्रयोगशाला बनाएं और उनसे प्रेरणा लें | नये वर्ष की इस पूर्व संध्या पे एक संकल्प लें कि प्रतिदिन गीता केतीन श्लोक और रामायण के ५ दोहे अवश्य पढ़ेंगे अर्थ सहित , अकेले या परिवार के साथ | हम सभी इस संसार में अर्जुन की भांति सतत युद्ध करते हैं | हमारा युद्ध जीवन की विषमताओं में समता स्थापित करने का होता है |हमारा उद्द्येश्य जीवन की विविधताओं में समत्व स्थापित करना है |और गीता हमें समत्व ही सिखाती है |योग शब्द को गीता ने मन की समता से जोड़ा है |केवल बाहरी क्रियाओं से नहीं मन से भी निष्ठावान बनाती है गीता  |"योगस्थ: कुरू कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय |
सिद्धयसिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ||"
योग में स्थित हुआ, कर्म को कर | गीता का योग कोई हिमालय में करने वाला योग नहीं है ये तो धरातल में रहकर प्रतिदिन के क्रिया -कलापों में करने वाला योग है | एक जागरूक चेतना जो सतत जागरूक है | तब भी जब आप प्रगाढ़ निद्रा में हैं ________सोचिये ! हम गहरी नींद में है ,अचानक कोई आवाज सुनके या अलार्म सुनके जाग गये ----जब हम नींद में थे तो किसने सुनी ये आवाज ? ये हमारी अंत:चेतना ही है जो सतत जागरूक है |उस सतत जागरूक प्रेरणा को धन्यवाद देना हमारा कर्तव्य है ,कुछ क्षण देखें हम उस चेतना को अपने उत्थान के लिए |ये चेतना बिजली की तरह है, जो उर्जा है ,प्रकाश है ,और हमारी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति करती है तो  जिसे येन -केन -प्रकारेण अपनी आवश्यकता की पूर्ति हेतु हम अपने घर में ले ही आते हैं|हमें बिजली की आवश्यकता है, बिजली को हमारी नहीं ,वो तो है ही अपने अस्तित्व को धारण किये हुए कई रूपों में व्याप्त |वैसे ही ये जागरूक चेतना (परमात्मा) हमारी आवश्यकता है |परमात्मा (चेतन तत्व) तो विराजमान है ही सम्पूर्ण ब्रह्मांड में |परमात्मा का ध्यान हमारी आवश्यकता है ,भौतिक-आध्यात्मिक और व्यवहारिक तीनो गुणों के समत्व विकास के लिये |आज हम इस समय के इस पल में ये संकल्प लें कि हम कुछ पल अवश्य निकालेंगे परमात्मा के लिए | वो कुछ क्षण ही हमें परमात्मा का लाडला बना देंगे | ये ही तो गीता की दिव्यता है कि वो माँ के सामान है |कुछ पल के साथ में ही वो हमें अपना लेती है और प्रसन्न होकर अपनी दिव्यता से हमें   उपकृत करती है ,जैसे बच्चा किसी भी आयु का हो ,माँ को ये पूछ ले की कैसी है ?तो माँ तृप्त हो जाती है |...ऐसे  ही गीता की शरण में आने पे आपके सारे योग क्षेम को वहन करने का भार परमात्मा ले लेते है -----------_________-सर्व धर्मान्परित्यज्य  मामेकं शरणम व्रज|
                                                अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि माँ शुच ||
प्रभु कहते हैं तू शोक मत कर !  मैं हूँ न तेरे साथ | तू अपने को पूरी तरह से विसर्जित कर दे |
यह आत्म -परमात्म -सम्मेलन व्यक्ति और समष्टि का योग और जीवन का अन्तिम उद्देश्य है |
    मैं समय हूँ ! मैंने  गीता के इस समत्व भाव  को और वैराग्य दर्शन को अपनी आँखों से देखा है | अत: आज मेरा यह निर्णय है  कि व्यक्ति और समष्टि के सम्पूर्ण और सर्वांगीण विकास के लिए गीता का अध्ययन ही एक मात्र साधन है | और यही  आश्वासन होना चाहिए हमारा जाते हुए वर्ष को कि तू जो हमे ये नया वर्ष उपहार में दे रहा है इसे हम गीता का उपहार देंगे |____________आभा _____________

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