" लघु दीपक "
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स्नेह जला के जलता है जो ,
वो लघु दीपक मैं बन जाऊं |
शलभ समीप नहीं पर आये ,
ऐसी कोई जुगत भिड़ाऊं |
स्मृतियों के बहते समीर में ,
मेरी इस जीवन संध्या में ,
सुख अधिक या दुःख अधिक ,
महत्वहीन ये बातें हैं |
पतझड़ सी सूनी डाली है ,
नीरव संध्या आने को है |
कर विस्मृत बीती बातों को ,
स्नेह जला कर जलता है जो ,
वो लघु दीपक मैं बन जाऊं ,
शलभ समीप नहीं पर आये ,
ऐसी कोई जुगत भिड़ाऊं |
श्वास दग्ध पर आह न निकले ,
दूर क्षितिज पर मिटता कुमकुम |
तम जीवन को घेरा चाहे,
पर तारों में छवि तुम्हारी ,
दीपक बन आती जीवन में ,
स्नेह जला कर जलता है जो ,
उससे ही मैं बल पाऊं |
शलभ समीप नहीं पर आये ,
ऐसी कोई जुगत भिडाऊं |
गोधूली की धूमिल बेला ये ,
बीते जीवन की वो घड़ियाँ ,
तकली की फिरकन सी घूम रही हैं ,
मेरे सूने से मन प्रांगण में |
इस नीरव निविड़ निशा में ,
जुगनू बन आती झिलमिल यादों को ,
कर दूँ तेरे चरणों में अर्पण |
स्नेह जलाकर जलने वाली ,
दीपक की बाती सा सुख पाऊं ,
शलभ समीप नहीं पर आये ,
ऐसी कोई जुगत भिडाऊं |
इस अर्पण तर्पण में ,
मन का उत्सर्ग छलकता है ,
देकर फिर कुछ न लेने का ,
शुभ संकल्प झलकता है ,
जीवन संध्या की इस बेला में ,
नयनो में यादों के सपने तिरते रहते ,
जागी आँखों के ये सपने ,
बीती घड़ियों की ये यादें ,
चक्षु कहाँ से उर को देखें .
अश्रु बहें तो तन मन भीजे ,
हर कण को छू पुलकित करदूं
मिलन उत्सव पल -पल मनाऊं |
स्नेह जला कर जलता है जो ,
वो लघु दीपक मैं बन जाऊं ,
शलभ समीप नहीं पर आये ,
ऐसी कोई जुगत भिडाऊं |.........आभा ....
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स्नेह जला के जलता है जो ,
वो लघु दीपक मैं बन जाऊं |
शलभ समीप नहीं पर आये ,
ऐसी कोई जुगत भिड़ाऊं |
स्मृतियों के बहते समीर में ,
मेरी इस जीवन संध्या में ,
सुख अधिक या दुःख अधिक ,
महत्वहीन ये बातें हैं |
पतझड़ सी सूनी डाली है ,
नीरव संध्या आने को है |
कर विस्मृत बीती बातों को ,
स्नेह जला कर जलता है जो ,
वो लघु दीपक मैं बन जाऊं ,
शलभ समीप नहीं पर आये ,
ऐसी कोई जुगत भिड़ाऊं |
श्वास दग्ध पर आह न निकले ,
दूर क्षितिज पर मिटता कुमकुम |
तम जीवन को घेरा चाहे,
पर तारों में छवि तुम्हारी ,
दीपक बन आती जीवन में ,
स्नेह जला कर जलता है जो ,
उससे ही मैं बल पाऊं |
शलभ समीप नहीं पर आये ,
ऐसी कोई जुगत भिडाऊं |
गोधूली की धूमिल बेला ये ,
बीते जीवन की वो घड़ियाँ ,
तकली की फिरकन सी घूम रही हैं ,
मेरे सूने से मन प्रांगण में |
इस नीरव निविड़ निशा में ,
जुगनू बन आती झिलमिल यादों को ,
कर दूँ तेरे चरणों में अर्पण |
स्नेह जलाकर जलने वाली ,
दीपक की बाती सा सुख पाऊं ,
शलभ समीप नहीं पर आये ,
ऐसी कोई जुगत भिडाऊं |
इस अर्पण तर्पण में ,
मन का उत्सर्ग छलकता है ,
देकर फिर कुछ न लेने का ,
शुभ संकल्प झलकता है ,
जीवन संध्या की इस बेला में ,
नयनो में यादों के सपने तिरते रहते ,
जागी आँखों के ये सपने ,
बीती घड़ियों की ये यादें ,
चक्षु कहाँ से उर को देखें .
अश्रु बहें तो तन मन भीजे ,
हर कण को छू पुलकित करदूं
मिलन उत्सव पल -पल मनाऊं |
स्नेह जला कर जलता है जो ,
वो लघु दीपक मैं बन जाऊं ,
शलभ समीप नहीं पर आये ,
ऐसी कोई जुगत भिडाऊं |.........आभा ....