Tuesday, 14 January 2014

''मकर संक्रांति यानि उल्लसित बचपन                      की यादें ''
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मकरैणी कौतीक ऐगे ऐ ददाजी ,
थरथराणी ,माघ लैगे ऐ ददाजी |
ए नातणी ;मिन भी त बाजार जैण
बीड़ी- तमाखू -लूण -गुड़ मोल लैण |
ए ददाजी म्यर जुगा तैं क्या ज लाला ,
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लाल मुख को बान्दरो कु पोतु लौलू  ,
तैय दगड़ी नातिणी कु ब्यो करालू |
                   या फिर ;
ऐ भिना कस के जान द्वारह्टा,
ऐ साली हीटू-हीटू द्वारह्टा |
नथुली ,कंकण कुछ भी नी छ  ,
कस के जाण द्वारहटा ,
मैं सुनार म गढ़ाव्लू  द्वारह्टा |
             या फिर
रासु तांडू खूब लागि,तू कई न आईथी रे ,
घुंडू मथ कु घघरू थयो ,
 मै तइन आई थी वै|
तेरी गैल्याणी सभी आयीं ,.
तू कई न आई थी रे ,
मेरा माथा मथ बेडू नी थई ,
मैं तईन  आई थी वै |
       माघ मेले में   इस तरह की  रंग -मंचीय ,सांस्कृतिक प्रस्तुतियों और नाच -गानों का मंचीकरण ,उसके लिए कई दिनों की रिहर्सल , मेले की रंगीनी का उत्साह- ये था मकरसंक्रांति का अर्थ हमारे लिए बचपन में | एक पखवाड़े तक उन्मुक्त गगन के पंछियों की तरह रामलीला मैदान में लगने वाले मेले में घूमना और अपनी वर्ष भर की बचत को खर्च करके खुश होना- ये था मकरसंक्रांति का अर्थ बचपन में | सुदूर ऊपर के गाँव से उतर के आतीं ,कम्बल ,नथुली बुलाकी और मुरुखुली पहने ,बूढी -प्रौढ़ और तरुण , लड़बड़ी बांदों के, सौन्दर्य और सोने की  चमक से चमत्कृत होता मन , ये स्त्रियाँ दो बार ही ऊपर के गाँवों से नीचे उतरती थीं एक माघ मेले में और एक रामलीला में | सोने से लदी हुई ये रूपसियाँ जब बुलाक पकड़ के चाय सुड़कती थीं या गाजर का हलुवा और गुलाबजामुन खाती थी तो उनको देखने का  रोमांच ही अलग था | आज तो एक चेन पहनके घूमना भी मुश्किल है | मेले में तरह -तरह के स्टाल ,तम्बोला, जल परी,रंग बिरंगी चूड़ियाँ,रेशमी स्कार्फ ,एक से एक गहने ( जो साल भर हमें सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए चाहिए होते थे) ,हौल्टीकल्चर के स्टाल में चटनी मुरब्बा और अमरूद की कैंडी बनाना सीखना ,आर्मी और माउंटेनेरिंग के स्टाल ..सब ही हर वर्ष नए और ताजा ही लगते थे |
और सबसे अधिक ख़ुशी मिलती थी बड़ी वाली चरखी पे बैठ के जहाँ अक्सर मजबूती की परख होती थी |
        वो माँ -पिताजी के साथ ब्रह्म मुहूर्त में ही मणि -कर्णिका घाट पे जाके मुहं अँधेरे गंगा स्नान और लौटते हुए पैरों के सुन्न पड़ जाने का अहसास आज भी जेहन में ज्यूँ का त्यूं है मानो अभी ही स्नान से लौटे हों  | दूर -दूर से गंगा स्नान को आये लोग मानो -आस्तिकता और आध्यात्मिकता का समुद्र हिलोरें लेता हो , उसपर मंत्रोचारण यानी लहर -लहर चेतना का संचार |
         मकर संक्रांति का पुण्य पर्व काल और माघ मेले  का आनंद जो गंगा किनारे पहाड़ो पे रहते हुए लिया वो अविस्मरणीय है |  मकर संक्रांति ईश्वर को आभार प्रकट करने का दिन है ,गेहूं पे दाने आने प्रारम्भ हो जाते है और  चटख हरी रेश्मी साड़ी में सरसों के बेलबूटे और शनई के फूलों का गोटा किनारी झलमलाना शुरू हो जाता है |शरद ऋतू क्षीण होने लगती है ,और किसान थोड़ा आराम के मूड में होता है |लोहड़ी ,लाल -लोही ,खिचड़ी संक्रांत ,पोंगल ,बीहू ,उत्त्तरायिणी ,घुघूती ,या सबरी माला की तीर्थ यात्रा का अंतिम दिन{ जब सुदूर पर्वतों में दिव्य -ज्योति,एक दिव्य आभा --मकर ज्योति दिखाई देती है }  कुछ भी नाम हो ;आकाश में उड़ती असंख्यों रंग -बिरंगी  पतंगों की मानिंद  अपनी सारी रंगीन तमन्नाओं को पंख लगाके, डोर से बांध के , आकाश में छोड़ देने का उत्सव है मकर संक्रांति |
   वर्ष १९६४ की वह मकर संक्रांती जब हम गंगा स्नान की तैयारी कर के सोये और सुबह घर में चहल-पहल से पता चला की हमें तो संक्रांति का एक अनमोल उपहार मिला है हमारा छोटा भाई !  कभी न भूलने वाला उल्लास बन गयी |आज सोचती हूँ की मेरी माँ कितनी जीवट वाली महिला थी की वो गंगा स्नान की तैयारी कर रही थी ऐसे समय में भी ! आस्था और भक्ती की पराकाष्ठा |
      सब को शुभ हो मकर संक्रांति का ये शुभऔर पावन  पर्व ,    .................आभा ......




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