"Absurdity -निरर्थक -बेतुका -बेढंगा "
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क्षण- क्षण बदलती जिन्दगी के परिवेश और उससे प्रभावित मन:स्थिति के माहौल में कृतियों का परायण करते समय रचना भी अपना रंग बदलने लगती है |अक्सर पुराने समय में विचरण करने के लिए उस वक्त में लिखी चंद कृतियों और कुछ चित्रों के पास आकर उनसे स्नेह लेने से अच्छा कोई उपाय नहीं होता है | उन्ही पुराने गलियारों में घूमते हुए अपनी एक बेतुकी रचना से साक्षात्कार हुआ | सखियों के साथ कविता लिखने का जुनून और सीखने की प्रक्रिया के लिए प्रतियोगिता का लौलीपॉप ! यही करती थी हम सखियाँ | एक ही विषय या प्रसंग पे सबही को लिखना होता था और अच्छे बुरे का निर्णय भी हमारा आंतरिक लोकपाल ही करता था | ऐसा ही एक प्रसंग लिया गया शब्दकोष से एक शब्द लेकर उसी पे कुछ पंक्तियाँ लिखनी ! और तब बनी एक बेतुकी रचना | ब्लॉग में लिखने से पूर्व मन में ख्याल आया इसे कुछ ठीक करूँ पर फिर सोचा ये उस अल्हड़पन की रचना है जब हमारी सोच का दायरा घर ,पढाई , सखियों के चारो ओर ही घूमता था ,थोडा सा भी बदलाव इसके बेढंगेपन के प्रति घोर अन्याय हो जाता ---------------
शब्द -------फ ---------
फुलकारी जो कढ़ी है माँ के दुशाले में ,
फुलवारी सी महक रही है ओ ! मेरी सखी |
फुरेरी बहुत है मेरे फुरेरू में ,
फुंकनी से फूंक के ,फुटके तले ,चीड़ के छिलके को दूँ सांस |
फुकैया नहीं हूँ ,मतलब की बस करूँ हूँ बात ,
फंटूश कैसा भी हो ,लूँ पल भर में साध |
फिकरा वो उछालूं हवा में ,
फिरकी से सब घूम जाएँ |
फूजला सब साफ़ कर दिया माँ मैंने रसोई से ,
फीका नहीं था खाना ,नमक ठीक था दाल में |
फरफरा रही है जो ये चुनर तेरी सहेली ,अरे! ये क्या ?
फुचड़ा निकल रहा है इस चुनर से क्यूँ ?
फुट्टैल है ये क्यूँ आंचल से विलग हुआ ,
फुंदने बना लेंगे अब इन रेशों से हम |
फुदकी सिखा रही है ---
फुदकना चुरुगनको ,
फुद्कें इधर -उधर हम सखियाँ भी संग -संग यूँ ही |
फीस दी है आज क्लास में मास्टरजी को --(हमारे समय में फीस मास्टर जी को ही दी जाती थी )
फ्री नहीं है सरकारी स्कूल में भी पढाई भई |
फुट नोट देख के ,कापी में तू मेरी ,
फुल्ल-फुल्ल खिल रही है --
फूल गुलाब सी सखी |
फुटहेरा खाते हुए कल शाम रामलीला मैदान में ,
फिल्म शहीद देखी,जो बहुत अच्छी रही
फिकर नहीं है मुझे ,क्यूँ ?
फिरके उसने मुझे देखा ;
फंतासी में होगा ,दीवाना हुआ है |
फिरोजा देख के होता है कुछ दिल में ,
फिरोजी ही भाता है मुझे ये है कैसी पहेली |
फिसड्डी नहीं हैं हम आ खेलें कब्बड्डी ,
फिसलन भरा आंगन है ,बारिश पूरी रात है हो ली |
फर -फर चली हवा ,सर्दी है सताती ,
फेनिल है ये झरने का जल , बूंदें ,ठिठुरन हैं जगाती |
फुलैल-तेल ,क्रीम -कंघा सबही लगाते ,
फव्वारे के नीचे आ आग जलाएं |
फुलौरा -फुलौरी आ चटनी बनाएं ,
फूल गेंदुवा की माला मन्दिर में चढाएं |
फूफू की शादी है चलो धूम मचाएं ,
फूफू की शादी है चलो धूम मचाएं |
.........................................................अब तो इस बेढब ,बेतुकी रचना को याद करके वो सुनहरे -सपनीले दिन याद ही किये जा सकते हैं जब किसी निर्थक बात में भी अर्थ खोज लेते थे | ऐसी ही छोटी -छोटी यादों में बचपन कहीं छिपा बैठा होता है जो जरा सी खिड़की खोलते ही सामने आके खड़ा हो जाता है |
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क्षण- क्षण बदलती जिन्दगी के परिवेश और उससे प्रभावित मन:स्थिति के माहौल में कृतियों का परायण करते समय रचना भी अपना रंग बदलने लगती है |अक्सर पुराने समय में विचरण करने के लिए उस वक्त में लिखी चंद कृतियों और कुछ चित्रों के पास आकर उनसे स्नेह लेने से अच्छा कोई उपाय नहीं होता है | उन्ही पुराने गलियारों में घूमते हुए अपनी एक बेतुकी रचना से साक्षात्कार हुआ | सखियों के साथ कविता लिखने का जुनून और सीखने की प्रक्रिया के लिए प्रतियोगिता का लौलीपॉप ! यही करती थी हम सखियाँ | एक ही विषय या प्रसंग पे सबही को लिखना होता था और अच्छे बुरे का निर्णय भी हमारा आंतरिक लोकपाल ही करता था | ऐसा ही एक प्रसंग लिया गया शब्दकोष से एक शब्द लेकर उसी पे कुछ पंक्तियाँ लिखनी ! और तब बनी एक बेतुकी रचना | ब्लॉग में लिखने से पूर्व मन में ख्याल आया इसे कुछ ठीक करूँ पर फिर सोचा ये उस अल्हड़पन की रचना है जब हमारी सोच का दायरा घर ,पढाई , सखियों के चारो ओर ही घूमता था ,थोडा सा भी बदलाव इसके बेढंगेपन के प्रति घोर अन्याय हो जाता ---------------
शब्द -------फ ---------
फुलकारी जो कढ़ी है माँ के दुशाले में ,
फुलवारी सी महक रही है ओ ! मेरी सखी |
फुरेरी बहुत है मेरे फुरेरू में ,
फुंकनी से फूंक के ,फुटके तले ,चीड़ के छिलके को दूँ सांस |
फुकैया नहीं हूँ ,मतलब की बस करूँ हूँ बात ,
फंटूश कैसा भी हो ,लूँ पल भर में साध |
फिकरा वो उछालूं हवा में ,
फिरकी से सब घूम जाएँ |
फूजला सब साफ़ कर दिया माँ मैंने रसोई से ,
फीका नहीं था खाना ,नमक ठीक था दाल में |
फरफरा रही है जो ये चुनर तेरी सहेली ,अरे! ये क्या ?
फुचड़ा निकल रहा है इस चुनर से क्यूँ ?
फुट्टैल है ये क्यूँ आंचल से विलग हुआ ,
फुंदने बना लेंगे अब इन रेशों से हम |
फुदकी सिखा रही है ---
फुदकना चुरुगनको ,
फुद्कें इधर -उधर हम सखियाँ भी संग -संग यूँ ही |
फीस दी है आज क्लास में मास्टरजी को --(हमारे समय में फीस मास्टर जी को ही दी जाती थी )
फ्री नहीं है सरकारी स्कूल में भी पढाई भई |
फुट नोट देख के ,कापी में तू मेरी ,
फुल्ल-फुल्ल खिल रही है --
फूल गुलाब सी सखी |
फुटहेरा खाते हुए कल शाम रामलीला मैदान में ,
फिल्म शहीद देखी,जो बहुत अच्छी रही
फिकर नहीं है मुझे ,क्यूँ ?
फिरके उसने मुझे देखा ;
फंतासी में होगा ,दीवाना हुआ है |
फिरोजा देख के होता है कुछ दिल में ,
फिरोजी ही भाता है मुझे ये है कैसी पहेली |
फिसड्डी नहीं हैं हम आ खेलें कब्बड्डी ,
फिसलन भरा आंगन है ,बारिश पूरी रात है हो ली |
फर -फर चली हवा ,सर्दी है सताती ,
फेनिल है ये झरने का जल , बूंदें ,ठिठुरन हैं जगाती |
फुलैल-तेल ,क्रीम -कंघा सबही लगाते ,
फव्वारे के नीचे आ आग जलाएं |
फुलौरा -फुलौरी आ चटनी बनाएं ,
फूल गेंदुवा की माला मन्दिर में चढाएं |
फूफू की शादी है चलो धूम मचाएं ,
फूफू की शादी है चलो धूम मचाएं |
.........................................................अब तो इस बेढब ,बेतुकी रचना को याद करके वो सुनहरे -सपनीले दिन याद ही किये जा सकते हैं जब किसी निर्थक बात में भी अर्थ खोज लेते थे | ऐसी ही छोटी -छोटी यादों में बचपन कहीं छिपा बैठा होता है जो जरा सी खिड़की खोलते ही सामने आके खड़ा हो जाता है |
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