Thursday, 30 January 2014

                   " लघु दीपक "
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 स्नेह जला के जलता है जो ,
 वो लघु दीपक मैं बन जाऊं |
शलभ समीप नहीं पर आये ,
ऐसी  कोई  जुगत  भिड़ाऊं |
      स्मृतियों के बहते समीर में ,
       मेरी इस जीवन संध्या में ,
       सुख अधिक या दुःख अधिक ,
       महत्वहीन    ये   बातें    हैं |
       पतझड़ सी सूनी डाली है ,
       नीरव संध्या आने को है |
       कर विस्मृत बीती बातों को ,
       स्नेह जला कर जलता है जो ,
वो लघु दीपक मैं बन जाऊं ,
शलभ समीप नहीं पर आये ,
ऐसी कोई जुगत भिड़ाऊं |
     श्वास दग्ध पर आह न निकले ,
     दूर क्षितिज पर मिटता कुमकुम |
     तम   जीवन   को   घेरा    चाहे,
     पर   तारों   में   छवि   तुम्हारी ,
     दीपक  बन  आती  जीवन  में ,
     स्नेह जला कर जलता है जो ,
     उससे   ही   मैं   बल    पाऊं |
     शलभ समीप नहीं पर आये ,
     ऐसी कोई जुगत भिडाऊं |
गोधूली की  धूमिल बेला ये ,
बीते जीवन की वो घड़ियाँ ,
तकली की फिरकन सी घूम रही हैं ,
मेरे सूने से मन प्रांगण में |
इस नीरव निविड़ निशा में ,
जुगनू बन आती झिलमिल यादों को ,
कर दूँ तेरे चरणों में अर्पण |
स्नेह जलाकर जलने वाली ,
दीपक की बाती सा सुख पाऊं ,
शलभ समीप नहीं पर आये ,
ऐसी कोई जुगत भिडाऊं |
    इस अर्पण तर्पण में ,
      मन का उत्सर्ग  छलकता है ,
     देकर फिर कुछ न लेने का ,
     शुभ संकल्प  झलकता है ,
     जीवन संध्या की इस बेला में ,
       नयनो में यादों के सपने तिरते रहते ,
        जागी आँखों के ये सपने ,
        बीती घड़ियों की ये यादें ,
        चक्षु कहाँ से उर को देखें .
        अश्रु बहें तो तन मन भीजे ,
        हर कण को छू  पुलकित करदूं
       मिलन उत्सव पल -पल मनाऊं |
      स्नेह जला कर जलता है जो ,
      वो लघु दीपक मैं बन जाऊं ,
      शलभ समीप नहीं पर आये ,
       ऐसी कोई जुगत भिडाऊं |.........आभा ....

     
   
   
     
   

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