Saturday, 1 February 2014

           '' माँ का लाडला मान गया ''
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जब दिमाग कुछ न करने के मूड में हो ,विचारों को सर्दी लग गयी हो तब  दिल को अचानक ठिठोली सूझे ! दिमाग से पंगा लेने की!
शरीर का तापमान अचानक बढ़ जाए लिखने का मन हो जाए ( लिखने के लिए शरीर का तापमान ९८ .४ से कुछ अधिक ही होना मांगता है न ) तो बिना दिमाग के जो लिखा जाए वो ही मैंने आज लिखा  ,हल्का फुलका बिना अर्थ का ------कोहरे की चादर पहने ठिठुरन की बंधक बनी धरती को सर्दी से निजात दिलाने की एक माँ की अपने बेटे से मनौवल ---------------
           उठो लाल अब आँखें खोलो ,
           पानी लाई हूँ मुहं धो लो |
           उठो  छोड़  बादल की रजाई ,
          जाओ जग में करने उजेरा |
बादल की मखमली रजाई ,
कोहरे की कम्बल की नरमाई ,
मुहं पे ओढ़ सूरज मचला ,
सोने दे माँ सोने दे मुझ को |
         
  रोज सवेरे मैं उठता हूँ ,
और काम पे लग जाता हूँ ,
बदले में मैं क्या पाता हूँ ,
तू ही समझा दे ये मुझको |
      साँथरी ये मखमल की मेरी ,
       उठने का ना मन है मेरा ,
       इंसा के बेटे, मन मर्जी करते !
      क्या एक अनोखा तेरा बेटा ?
      सोने दे, माँ! सोने दे मुझ को ,
      कुछ दिन तो, मन की करने दे मुझ को |
अरे लाडले!  भोर हुई ,
पर ये अँधियारा है बड़ा हठीला ,
जाग -जाग ओ मेरे मुन्ने !
जा कर दे ,जग में उजियारा |
जब तक तू ना जागेगा पगले ,
पक्षी कलरव कैसे गायेंगे ?
बछड़े भूखे रह जायेंगे !
पेड़ पौधे भी  क्या खायेंगे ?
           धरा बाट जोहती है तेरी ,
            जागो मेरे जीवन- धन जागो !
            कुहरे की इस मोटी चादर से ,
            जगति को तुम मुक्ति दिलाओ  !
हल्का सा मुँह खोला सूरज ने ,
मरियल सी, धूप खिली धरती पे ,
पर फिर  वो हठी मान -धन माँ का ,
ओढ़ रजाई कम्बल अपनी ,
स्वप्न लोक में जा बैठा |
            माँ ने की मनुहार बथेरी ,
            मुँख चूमा बालों को सहलाया ,
            पर आज मनावल पर भी लाडेसर ,
            माँ के झांसे में ना आया |
बोला माँ मैं धरने पर हूँ ,
मेरी मांगें पहले पूरी हो ,
तभी धरा पे जाऊँगा मैं ,
कोहरा दूर भगाऊँगा मैं |
             अरे बावले! तू  राजा धरती का ,
             तेरी भी क्या मांगें होंगी ,
             पालक है तू इस जगती का ,
            शाशक तू ही, तू! पालन करता |
 टस से मस हुआ ना सूरज ,
धरती पे कोहरे ने चादर फैलायी .
टप-टप- टप- टप टपके दिन भर ,
दुनिया काँपे थर -थर थर थर ,
पेड़ पौधे सब कुम्हलाये ,
तुलसी जी भी झुलस गयी हैं |
पशु -पक्षी और सब बच्चों की
सर्दी के कारण शामत  आयी | 
           माँ ने पूछा ! अरे दुलारे ,
          चल बतला क्या मांगें है तेरी ,
          खड़ी फसल सब जल जायेगी ,
          जल्दी से तू बतला दे मुझको |
खुश हो बोला राजदुलारा ,
अम्मा की आँखों का तारा ,
तिल के लड्डू ओ गुड़ शक्कर .
मूंगफली की कड़क सी चक्की ,
रेवड़ियां और गजक सुनहरी ,
ओ एक ढेरी मूंगफलियों की ,
छील-छील के मुझे खिला दे ,
  कहानी नानी वालि सुना दे |
बादाम ओ गाजर का हलुवा ,
अदरख वाली चाय पिला दे ,
और कुछ भी हैं मांगे मेरी ---
 अरे शांत हो बच्चे मेरे !
चुप कर तू मेरे ओ लल्ला !
देख धारा में मचा है हल्ला ,
सब कुछ है गीलम-गीला |
अस्त -व्यस्त सी जगति सारी ,
पूरे दिन भर घना कोहरा ,
टपक रहा है ,बरस रहा है ,
मेरे बच्चे! मैं भी ठिठुर रही हूँ ,
चाहत तेरी कैसे पूरी हो ?
तुझ बिन लकड़ी गीली है भैया ,
कैसे  जलाए  चूल्हा  ये मैया |
       सूरज तो जिद पर अड़ा है ,
        कोहरा बादल लपेट पड़ा है ,
       मैया मैं हड़ताल करूंगा ,
       इंसा जैसा मैं भी बनूंगा !
मैया को सूझी इक चाल ,
बोली सुन ओ  मेरे लाल !
तुझ बिन कोई काम न उसरे ,
 चल मैं भी करती हूँ !तुझ संग हड़ताल |
      जब तू ही नहीं दिखाई देगा,
       कैसी चक्की कैसा हलुवा ,
       अंधियारे में राह न सूझे ,
      ठिठुरन में कुछ काम न बुझे |
      सूरज की गर्मी न हो भाई ,
      कहाँ का चूल्हा कहाँ से चाय
      बकरी और गैया  ने भी ,
      दूध देने से करदी मनाही |
हंस कर उठ बैठा सूरज ,
गलबहियाँ  अम्मा के डालीं ,
मुहं धो कर के फिर उसने ,
 अदरख वाली  चाय!
        सुड़क डाली ,
आसमान पे चमका फिर से ,
छोड़ बादलों की मखमली रजाई,
कोहरे को फिर दूर भगाया ,
 ठिठुरन से सबको आजाद कराया |
 ख़त्म  हुई हड़ताल सूर्य की ,
 सबने मंगल गीत गाया |
 बसंत आया -बसंत आया ||                


       
     



     





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