Sunday, 26 March 2017

आजकल मैं भगवद्गीता पे एक पुस्तक पढ़ रही हूँ --पुस्तक तो अंग्रेजी में है और अंग्रेजों के लिए ही लिखी गयी है शायद --  EKNATH  EASWARAN --केरल के विद्वान थे जो कलिफ़ोर्निया में रहने लगे उनके द्वारा लिखी गयी है ,पर है अच्छी। एक बात जो मेरे मन में भी चलती है वो मुझे इस पुस्तक में भी मिली --लेखक कहता है की गीता एक पूर्ण उपनिषद है।  ये महाभारत का भाग हो ही नही सकता।  इसमें वेदों का मंथन कर जीवनजीने की उत्कृष्ट कला का वर्णन है और ऐसा उपदेश लड़ाई के वक्त सम्भव ही नही। ये वेदों के समय में ही लिखा गया एक स्वतन्त्र उपनिषद है ,समाज में अधिक प्रचलित न होने के कारण इसे महाभारत के युद्ध काल के पहले डाला गया। युद्ध के नाम पे गीता का  केवल प्रथम अध्याय ही है।
गीता की यही खासियत है उसे मन की जिस अवस्था में पढो ,समाधान उसी हिसाब से मिलता है।
मैं भी कई बार यही सोचती हूँ --वो समय जब गीता लिखी गयी ,समाज को संस्कारित करने का ,जीने की कला सिखाने का ,प्रकृति के महत्व को समझाने का ,साम दाम दंड भेद से मानव को सामाजिक प्राणी बनाने का समय था। ईश्वर प्रदत्त बुद्धि और गुण आज भी बहुत से इंसानों में हैं ,उस समय भी हमारे ऋषि मुनि  जो कुछ ईश्वरीय गुणों और बुद्धि से युक्त थे ,ज्ञान के साथ पैदा हुए और तप से उसे बढ़ाया -समाजनिर्माण के कार्य में लगे हुए थे। तब ही वेदों की रचना हुई --वेद ज्ञान प्रभुवाणी है ,उन्हें ऋषिमुनियों ने संजोया , प्रत्यक्ष किया ,पर ऋषिमुनियों , शिक्षकों ,बुद्धिजीवियों ,वैज्ञानिकों ,और आमगृहस्थ  में फर्क था , जीवनयापन कठिन था ,अतः वेदों को पढ़ने एवं समझने का समय तब भी नही था आमगृहस्थ  के पास। तब प्रभु मुख से गीता -गान निःसृत हुआ --जो संक्षिप्त था ,हर गृहस्थी के लिए था ,हर पल के लिये था -- उसे व्यास मुनि ने  जन -जन के लिए प्रत्यक्ष किया --इसका प्रमाण भी कृष्ण ने गीता में ही दिया है जब वो अर्जुन से कहते है --ये ज्ञान बहुत पुराना है तब तू नही था --मैंने इसे सूर्य को दिया था --सूर्य वो ऋषि जो सूर्यलोक बना संसार का पिता बना और आज का प्रत्यक्ष देवता है --जिसके न होने से सृष्टि भी समाप्त ही समझो।
और साथ ही कृष्ण ये भी कह रहे है --मैं मुनियों में व्यास मुनि हूँ --- ऋषि व्यास को ही गीता महाभारत ,भागवत और कई अन्य पुराणों की रचना का श्रेय जाता है।
मेरा भी यही मत है कि गीता को वेदों के साथ ही रचा  गया। वेद तब शिक्षा के लिए पाठ्यक्रम का हिस्सा थे और गीता को प्रतिदिन के सबक के रूप में गृहस्थियों के लिए लिखा गया। जीवन जीने की कला ,योग ,यम-नियम ,प्राणायाम एवं श्रद्धा ,संस्कार युक्त कर्मप्रधान ,त्यागमय भोग ,का मार्ग प्रशस्त करने के लिए थी गीता पर किन्ही कारणों से ये उपनिषद  लोकप्रिय (बेस्ट सैलर) की श्रेणी में नही आ पाया ,उस समय के ''बेस्ट सैलर'' का निर्णय  पुस्तक की '1000' कॉपी बिकने पे नही होता था अपितु  समाज का हर वर्ग उसे अपनाये ,उसकी चर्चा करे ,उस पुस्तक से अपने को जोड़े उस पुस्तक को जिये तब वो लोकप्रिय की श्रेणी में आती थी।
महाभारत के युग में जब लोभ ,लालच स्वार्थ ने मानव को जकड़ लिया ,वेदों को क्लिष्ट समझ के छोड़ दिया गया ,ऐसे वक्त में कृष्ण ने  समाज को संस्कारित करने के लिए  गीता का सहारा लिया। अब तक वेद व्यास महाभारत लिख चुके थे जो सारे उपनिषदों में सबसे अधिक गाया  जा रहा था ,इसमें और भी कई गीताएं थीं विद्वानों के मुंह से गायी गयी थीं ,पर कोई भी पूर्ण नही थी --तो
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् --
 कृष्ण, वेदव्यास [कृष्णद्वैपायन ] इत्यादि ऋषियों ने मन्त्रणा की और गीता को समष्टि के लिए सर्वोच्च ग्रन्थ मानके उसे महाभारत में समाहित किया गया। वो भक्तियोग का समय भी था तो
 ''ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्द्देशेअर्जुन तिष्ठति --मद्याजी मां नमस्कुरु --
से सभी में ईश्वरीय तत्व है इसकी पुनर्स्थापना की गयी।
गीता को प्रभावशाली बनाने के लिए उसे यूद्ध क्षेत्र में और युद्ध के प्रारम्भ में ही प्रस्तुत किया गया।  जनता अहंकारी और पांडवों को पीड़ा देने वाले कौरवों का विनाश चाहती थी। भाई -भाई सभी बन्धु-बांधव आमने सामने हों ,रणभेरी बज चुकी हो , जब सभी बड़े अपने क्षुद्र स्वार्थों और पूर्वाग्रह युक्त कर्तव्यनिष्ठा के लिये अत्याचारी शासन के साथ हों --ऐसे में अर्जुन का अवसाद , कृष्ण का गीताज्ञान --और उस ज्ञान से मिली जीत ,निश्चय ही समाज को गीता के उपदेशों पे विशवास करने को प्रेरित करती।
महाभारत में स्पष्ट है कि युद्ध से पूर्व ,युद्ध  टालने की हर छोटी से छोटी कोशिश की गयी। दूत भेजे गये ,यहां तक कि कृष्ण स्वयं दूत बनके गये ,एक एक व्यक्ति से पूछा गया कि वो युद्ध होने की अवस्था में किसके साथ होगा --तो क्या अर्जुन जैसा वीर ऐन युद्ध के आरम्भ होने पे अपना गांडीव नीचे रख देता ?  700 श्लोकों के उपदेशों तक दोनों ओर की सेना प्रतीक्षा करती ! जबकि दुर्योधन को पाण्डवों का अस्तित्व समाप्त करने की बहुत जल्दी थी। शकुनि जैसे अराजक तत्व युद्ध को शीघ्रातिशीघ्र चाहते थे।
गीता में प्रथम अध्याय ही युद्ध के सम्बन्ध में है अन्य सभी अध्याय समष्टि को कृष्ण का गान हैं। हर पल के लिये जीने की उपयोगी राह देता कृष्ण ज्ञान।
तो क्या हम ये सोच सकते हैं कि प्रथम अध्याय कृष्ण की सहमति से इसमें क्षेपक किया गया और फिर इस गीतोपनिषद को महाभारत में डाला गया। बीच-बीच में अर्जुन से वार्तालाप के द्वारा इसकी युद्ध में और महाभारत में होने की पृष्ठभूमी को भी परिभाषित किया गया।
बस यूँ ही कुछ नया विचार यदि आपकी सोच से भी मिलता हुआ हो तो खाली पड़े  दिमागी घोड़े दौड़ने लगते हैं।
मैं अभी इस लायक नही हूँ कि गीता का विश्लेषण कर पाऊं ,पर यूँ ही लिख दिया ,शायद किसी और की भी  मेरे जैसी सोच हो--कि गीता अपने आप में एक संपूर्ण उपनिषद है जो वैदिक काल की रचना है --इसे महाभारत में डाला गया इसलिये ये महाभारत में भी है और उससे बाहर भी पूर्ण  ही है ---कन्हैया और वेदव्यास जी से क्षमा प्रार्थना के आवेदन सहित --आभा --










Wednesday, 22 March 2017

अहा ,जहेनसीब -जहेनसीब --शम्मा रोशन हुई ,जो देखे तेरे रेख़्तों की ओर  ,तो मायल न हो ,किसी गुहर की ओर ---पेशे खिदमत है ---
आँखों में  सूरत ,दिल में तस्वीर तुम्हारी है ,
अग़र्चे  मुद्दतें हुईं
,तुम सामने न आते हो न जाते हो ,
यह इज़्तराब देखो जरा मेरी ख्वाहिशों की
दुश्मन से भी कहती हूँ
उससे मिलने की कुछ तो दुआ करो।
माना कि हूँ  मैं इक चिराग बुझा हुआ
ठानी है दिल में अग़र्चे ,चुप न रहूंगी मैं  ,
 यांकि हकीकत मुझे पता है  -
चलने के वक्त  ए -दोस्त
इक हर्फ़ भी जुबां से कह न सकूँगी मैं।।

Tuesday, 21 March 2017

दिल टूटने पे ही कोई कवि बने ये सदा सत्य नही होता --कभी कभी थर्मामीटर भी का टूटना भी कुछ लिखवा जाता है ---पर ये लिखना बीमारी का खुलासा भी कर गया और दूर बैठे बच्चे परेशान भी हो गए ,भाई का फोन आ गया। तब मैं दिल्ली में अकेली जो थी -- और आज 21 मार्च को एक बार फिर चली आयी ये याद ---धन्यवाद fb ,विचारों के संग-संग वो गुजरे पल भी याद आ जाते हैं ---
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''इक चोट पड़ी बिखरे मोती''
सुबह ज्वर देखने को थर्मामीटर निकाला और हाथ से छूटगया ---मुझे हमेशा अच्छा लगता है कोई भी थर्मामीटर टूटना। पाराबिखर -बिखर जाता है। इन पारे के मोतियों को समेटने का अपना ही आनंद है। कभी एक बड़ा मोती बन जाता है कभी छिटक के कई सारे मोती हो जाते हैं। पारे से सोना बनना --पहले थी ये विद्या हमारे पास --पर मैं सोचती हूँ क्या जीवन का अर्थ मिले ,ईश्वर का अर्थ मिले। हम क्यूँ हैं ,कौन हैं ,ये समझ आये ; तो यही पारे से सोना बनना नही है ? -----------यूँ ही विश्व कविता दिवस पे कुछ लिखूं तो माध्यम एक थर्मामीटर का टूटना बना ---
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पारे की माला - जीवन
इक चोट पड़ी बिखरे मोती
बिखर गये !
पर ;
जगमग झलमल
थाली पे ज्यूँ बिखरा सोना
बूंदें ?
बूंदें -चलो टीप लें हाथों से
फिर गढें एक माला इनकी।
हाथ नही मोती ये आते ?
पल-पल रूप बदलते जाते
''नवानि गृह्णाति नरोपराणी ''
छोटे और बड़े ये मोती
कभी नही मिटते चुकते
 ''अयमविकार्योअमुच्य्ते ''--
[रूप न बदलने वाला आत्मा ;]
क्षण भर को दूजे को छू जाये
तो ?
खो स्वरुप अपना-अपना
इक दूजे में मिल जायेंगे
औ -
गढ़ लेंगे इक रूप नया
कितने जन्मों का खेल यहाँ
पिघले पारे से बिछड़ मिलें
इक नीड़ नया फिर बन जाये
पारद सी स्वर्णिम चमक लिए
 सदियों की प्यास बुझाने को
प्यासी रह जाती प्यास यहाँ
चोले का आकर्षण बांधे
ज्यूँ चोले से मुक्त हुआ
कुछ मोती ,
हाँ ! कुछ मोती
अवश्य ; बिखरत जाते !
हो स्वतंत्र इक दूजे से
कुछ कण , अवश्य हैं ; खो जाते।
जीवन भी यूँ , बस यादों में
पारद मोतियों सा तिरता
 यादों को छूना दुष्कर है
छूते ही रूप बदल लेतीं।
हर चाह अधूरी रह जाती
हर प्यास अबूझी रह जाती
खोने -पाने की अभिलाषा
क्या ? पारद से सोना बनना !
तुम नील गगन के वासी हो
मैं ,धरती में डोला करती
यादों की भट्टी में पिघला सोना
जीवन थाली में हिलता सा
प्यासे की प्यास जगाताहै ,
ज्ञात मुझे भी है ; यह भी
पर आस का पंछी गाता है
पारद कण से मिल जायेंगे
हम फिर , इक सुर में गायेंगे।।आभा।
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''21 मार्च '', ''विश्व-कविता दिवस ''-और ''मैं ''
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यादें आज बनी हैं साकी
मोह बना जीवन  हाला
अक्षर क्षर हो बरस रहे हैं
लिए तमन्नाओं का प्याला
यादों के रंग भर  प्याले में
कूची डुबा -डुबा मन की
मन व्योम के प्रांतर के
कांटो- फूलों की खेती से
चुन -चुन बिम्ब ढूंढ-ढांड
जीवन को परिभाषित करती
उत्सर्गों के अवशेषों पे  
कविता बनने जो  मचली
मौन व्यथा ,मौन वांछा संग
नीरव   मधु रंगों की छाया
शिशिर- हृदय की पीड़ाओं के
 गायन- नर्तन की गूँजों सी
चित्रपटी की तृष्णा सी बहती
जीवन सरिता  मधुशाला। आभा।

कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा ,भानमती ने कुनबा जोड़ा ---और यदि ये कुनबा प्रसिद्ध शायरों की कुछ शायरियों का हो तो दीवानगी के आलम का क्या कहना --और आज ही के दिन --fb भी मुकर्रर मुकर्रर कर रहा है --फिर मैंने भी शेयर पे चटक लगा ही दिया ,वैसे भी पुरानी रचनाओं से मिलता स्नेह यूँ हो लगता है मानों किसी बुजुर्ग ने प्यार से सर पे हाथ रख दिया हो ------
March 21,2015--को विश्व कविता दिवस पे --यूँ ही सूफियाना मूड औरआज फिर हवाओं में तिरता वही सूफियाना मंजर ----
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आज फिर बैठे ठाले की बकवास ! बेमतलब की चर्चा -------------
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परमात्मा को पाने की चाह और दीवानगी में धर्म और सम्प्रदाय आड़े नहीं आता बस अपने को खो देने का जज्बा ,इश्क़ की इन्तेहाँ और एक ही मोह --एक ही ध्येय ---मुझे पाना है --
काव्य तो जज्बाते दिल और हृदय का आइना होता है जैसे आत्मा और शरीरएक में गुथें हैं अंदर का रस ,अंदर की बात ,प्राणों का स्वर। काव्य अंत:वेदना का पर्दा मात्र है --
''किया था रेखता पर्दा सखुन का ,
सो ठहरा है यही अब फन हमारा ''

कुछ शायरोंके काव्य में ईश्वर को पाने की तडफ का वर्णन --
'' उसे देखते 'मीर' खोये गये,
कोई देखे इस जुस्तजू की तरफ |''
उसे ढूंढने में मैं अपने आप को ही भूल गया ,क्या नाम दूँ मैं अपनी इस सोच को | परमतत्व में लीनहोना ,कुछ अवस्थाये आती हैं -------तस्यैवाहम[मैं उसका हूँ ]...तवैवाहम[मैं तुम्हारा हूँ ]त्वमेवाहम [मैं तू ही हूँ ]....पर अभी भी दोनों एक नहीं हैं ......
''.तेरी आह किससेखबर पाइए ,
वही बेखबर है जो आगाह है ....[.मीर ]''
यानि जो तेरा पता जान चुकाहै वो तो सब से बेखबर हो चुका है ........
ग़ालिब भी कहते हैं .........
''बहुत ढूंढा उसे फिर भी न पाया ,
अगर पाया पता अपना न पाया |''
जिसे परमतत्व को जान लेने पे कोई क्या बतायेगा वहतो स्वयम में ही तल्लीन हो जाएगा |और एक शायर तो इससे भी आगे बढ़ गया ......
''मैंने माना देह्र्को हक़ ने किया पैदा वले,
मैं वो खालिक हूँ मेरे कुन से ख़ुदा पैदा हुआ |''
मैं मानलेता हूँ की सृष्टि की रचना ईश्वर ने की है पर मैं तो वो हूँ जिसके 'हो' , उच्चारण मात्र से ईश्वर की उत्पत्ति हुई |
''हर क़दमपर थी उसकी मंजिल लेकिन 
सर से सौदाये -जुस्तजू न गया ..[मीर ]''
मंजिल तो हर कदम पे मौजूद थी पर दिमाग में जो खोज का पागलपन था उसके कारण मैं जीवन भर परमात्मा को ढूंढता ही रहा |------------''
खुलता नहीं दिल बन्द ही रहता है हमेशा ,
क्या जाने कि आजाता है तू इसमें किधर से .[जौक].....''
और इसी पे बिहारी की करामात ...........
''देख्यौ जागतवैसिये ,सांकरि लगी कपाट |
कितह्वै आवत -जात भजि,को जाने किहिं बाट| |[बिहारी ]''
चारो और किवाड़ बंद करके नायिका सो रही है ,स्वप्न में उसके प्रिय आते हैं ..वो चौंक के जागती है किवाड़ खिड़की सब बंद देख के सोचती है .ना जाने वो किस रस्ते से आते हैं और कहाँ से भाग जाते हैं ........यही है वो तत्व जो हममे ही है पर हम नायिका की तरह सोये हुए हैं , पहचान ही नहीं पा रहे हैं ....
''होश जाता नहीं रहा लेकिन ,
जब वह आता है तब नहीं आता |''
मुझमें अभी चेतना है पर हाय जब वो आते हैं मैं बेहोश हो जाता हूँ ...ईश्वर के साथ एकाकार हो जाना इसी को कहते हैं ....और अपने प्रभु की मूरत देख के ही मीरा दीवानी हुई ..........
कहता है दिल किआँख ने मुझको किया ख़राब ,
कहती है आँख यह किमुझे दिल ने खो दिया |
लगता नहीं पता किसही कौनसी सही है बात ,
दोनों ने मिलके मीर हमें तो डुबो दिया ||...............
ईश्वर से लगन लगे तो जांत-पांत का बंधन कोई मायने नहीं रखता ...संतों और सूफियों की जमात एक ही हुआ करती है .......आभा--

Sunday, 12 March 2017

मूर्खाधिराज या होली का गधा -आज मेरा मन ---
================--
होली में मिलने वाली इस उपाधि के अंतर्गत - आज मेरा गर्दभ आलाप --
पिछले दिनों खूब ढेंचू ढेंचू हुई ,आज मेरे मूर्ख मन की  मूर्खतापूर्ण ढिंचाऊ ढिंचाऊ -- भाषा की शुद्धता होने का मतबल ही नही खिचड़ी ही मूर्खों की भाषा --बैठे ठाले की बकवास -----
=============================================
====सफ़ेद रंग की कॉपी में नीले  रंग की लिखाई - उसपे मास्साब की लाल रंग की स्याही से नम्बर और हस्ताक्षर।मन में  लाल रंग से गुड ,वैरीगुड ,एक्सीलेंट या फिर फेयर ही, देखने की अभिलाषा। 
हरी ,नीली और काली स्याही तो काफी बाद में मिलीं हमें और जब मिलीं तो हमारी ख़ुशी का क्या कहने।  पेस्टल  ,क्रेयॉन  , पेन्सिल कलर ,और फिर  वाटर आयल , फैब्रिक  कलर के बाद तो किस्म -किस्म के रंग और रंगों से कल्पनाओं को साकार करने के लिए एक्सेसरीज --कल्पना को तो जैसे पंख ही लग गए थे।
बचपन से ही रंग  अपनी ओर  आने का लालच देते से लगते  । इंद्रधनुष बेइंतिहा  लुभाता  ,बचपन में तो इंद्रधनुष देख के सभी को दौड़ा लेते  कि आओ देखो आनन्द लो रंगों की इस बरात का।
सिलाई- बिनाई ,कढाई ,इंटीरियर डेकोरेशन ,गार्डनिंग - कुछ न बन सकी  तो रंगों से इसी फील्ड में  खेली।
उषा -निशा में प्राची और सीमान्त में बिखरा ,सिंदूरी- सुनहरा -नारंगी -पीला- लाल रंगों की छटा वाला गुलाल आज भी रुक के देखती ही हूँ।
 मैंने देखा है =======
लोहे  को  धीरे-धीरे गर्म करने पे   पहले तो वह काला दिखाई पड़ता है, फिर उसका रंग लाल होने लगता है,और गर्म करने पे  उसका रंग क्रमश: नारंगी, पीला  हुआ फिर  सफ़ेद हो जाता है। जब लोहा कम गरम होता है तब  केवल लाल रंग का प्रकाश  ही दृष्टिगोचर होता है  , शनैः -शनैः --उसे अधिक गर्म करने पे उसमें से अन्य रंगों का प्रकाश भी निकलने लगता है।  जब वह इतना गरम हो जाता है कि उसमें से स्पेक्ट्रम के सभी रंगों का प्रकाश निकलने लगे तब उनके सम्मिलित प्रभाव से सफ़ेद रंग दिखाई देता है  -यानी जब सभी रंग बाहर निकल गये तो सफ़ेद की ठंडक लिए हुई शांति। 
  जिंदगी ने-हमें   कमोबेश काले सफ़ेद   इन्ही दो रंगों के बीच झूलती हुई  करोड़ों रंगों को पहचानने की क्षमता  रखने वाली आँखें दी हैं। कब कौन सी वस्तु किस रंग को  रंग को अवशोषित करती है सारा रंगों का विज्ञान  इसी पे टिका है और  शायद हमारा जीवन दर्शन भी। हम जिस पल जो रंग अवशोषित करते हैं उसी रंग के गुण -धर्म हमारे व्यक्तित्व में परिलक्षित होते है ---------शायद ;  जीवन में रंगीनी हो ,उत्सवधर्मिता  बनी रहे इसीलिये  रंग पंचमी का ये त्यौहार हिन्दू वर्ष के अंतिम माह और नूतन वर्ष के आगमन  पे  ,संक्रमण काल में रखा गया ताकि हम वर्ष भर के लिए सारे रंग अपने भीतर अवशोषित कर ले और जिस पल जिसकी जरूरत हो उसे यूज करें। 
प्रकृति में रचे बसे  रंग हम भी अपने में समाहित करें ,सर्दी के जड़त्व को रंगों का रोमांच और रोमांस दें। सूर्य की लालिमा , खेतों की हरियाली, आसमान का नील वर्ण , मेघों का काला या सफेद रंग  इंद्रधनुष  का रोमांच  बर्फ़ की सफ़ेदी ,फूलों ,पशु पक्षियों की रंगीन छटा , जाने कितने ही ख़ूबसूरत नज़ारे जो हमे अंतरतम तक  प्रफुल्लित करते हैं आनन्द देते हैं - को अपने अस्तित्व में समाहित कर लें। प्रकृति और मानव मन एक हो जाये  --कोई भेद न रहे।   सृष्टि का हर एक रंग  जीवन को छू के निकले --कभी रोमांच ,कभी रोमांस कभी उत्तेजना ,कभी प्यार तो कभी बर्फ सी पवित्र शान्ति ---
मैंने तो अब दो ही रंग चुन लिए अपने लिए --सफेद कैनवास पे काले अक्षर ,इन्हें ही पढ़ना इन्हें ही लिखना और यही मेरी होली --बाकी सारे रंग सन्तति के लिये ---
----होली पे यूँ ही परिंदों से उड़ते ख्याल अक्षर बन सिमट गए और काले रंग के भुनगे बन यहां बैठ गये --पर इन भुनगों में एक शलभ भी है ,और एक भँवरा भी --प्यार का रंग ,--सभी के जीवन में प्यार के रंग बरसें ---
होली की शुभकामनायें 
उड़त गुलाल लाल भये बदरा 
मारत  भर -भर झोरि रे रसिया 
इत ते आये कुंवर कन्हाई 
उत ते आयी राधा गोरी रे रसिया 
आज बिरज में होरी रे रसिया।।
------मेरी ओर  से भी अंजुरी भर -भर गुलाल  सभी को --आभा ---


मूर्खाधिराज या होली का गधा -आज मेरा मन ---
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होली में मिलने वाली इस उपाधि के अंतर्गत - आज मेरा गर्दभ आलाप --
पिछले दिनों खूब ढेंचू ढेंचू हुई ,आज मेरे मूर्ख मन की  मूर्खतापूर्ण ढिंचाऊ ढिंचाऊ -- भाषा की शुद्धता होने का मतबल ही नही खिचड़ी ही मूर्खों की भाषा --बैठे ठाले की बकवास -----
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====सफ़ेद रंग की कॉपी में नीले  रंग की लिखाई - उसपे मास्साब की लाल रंग की स्याही से नम्बर और हस्ताक्षर।मन में  लाल रंग से गुड ,वैरीगुड ,एक्सीलेंट या फिर फेयर ही, देखने की अभिलाषा।
हरी ,नीली और काली स्याही तो काफी बाद में मिलीं हमें और जब मिलीं तो हमारी ख़ुशी का क्या कहने।  पेस्टल  ,क्रेयॉन  , पेन्सिल कलर ,और फिर  वाटर आयल , फैब्रिक  कलर के बाद तो किस्म -किस्म के रंग और रंगों से कल्पनाओं को साकार करने के लिए एक्सेसरीज --कल्पना को तो जैसे पंख ही लग गए थे।
बचपन से ही रंग  अपनी ओर  आने का लालच देते से लगते  । इंद्रधनुष बेइंतिहा  लुभाता  ,बचपन में तो इंद्रधनुष देख के सभी को दौड़ा लेते  कि आओ देखो आनन्द लो रंगों की इस बरात का।
सिलाई- बिनाई ,कढाई ,इंटीरियर डेकोरेशन ,गार्डनिंग - कुछ न बन सकी  तो रंगों से इसी फील्ड  खेली।
उषा -निशा में प्राची और सीमान्त में बिखरा ,सिंदूरी- सुनहरा -नारंगी -पीला- लाल रंगों की छटा वाला गुलाल आज भी रुक के देखती ही हूँ।
 मैंने देखा है =======
लोहे  को  धीरे-धीरे गर्म करने पे   पहले तो वह काला दिखाई पड़ता है, फिर उसका रंग लाल होने लगता है,और गर्म करने पे  उसका रंग क्रमश: नारंगी, पीला  हुआ फिर  सफ़ेद हो जाता है। जब लोहा कम गरम होता है तब  केवल लाल रंग का प्रकाश  ही दृष्टिगोचर होता है  , शनैः -शनैः --उसे अधिक गर्म करने पे उसमें से अन्य रंगों का प्रकाश भी निकलने लगता है।  जब वह इतना गरम हो जाता है कि उसमें से स्पेक्ट्रम के सभी रंगों का प्रकाश निकलने लगे तब उनके सम्मिलित प्रभाव से सफ़ेद रंग दिखाई देता है  -यानी जब सभी रंग बाहर निकल गये तो सफ़ेद की ठंडक लिए हुई शांति। 
  जिंदगी ने-हमें   कमोबेश काले सफ़ेद   इन्ही दो रंगों के बीच झूलती हुई  करोड़ों रंगों को पहचानने की क्षमता  रखने वाली आँखें दी हैं। कब कौन सी वस्तु किस रंग को  रंग को अवशोषित करती है सारा रंगों का विज्ञान  इसी पे टिका है और  शायद हमारा जीवन दर्शन भी। हम जिस पल जो रंग अवशोषित करते हैं उसी रंग के गुण -धर्म हमारे व्यक्तित्व में परिलक्षित होते है ---------शायद ;  जीवन में रंगीनी हो ,उत्सवधर्मिता  बनी रहे इसीलिये  रंग पंचमी का ये त्यौहार हिन्दू वर्ष के अंतिम माह और नूतन वर्ष के आगमन  पे  ,संक्रमण काल में रखा गया ताकि हम वर्ष भर के लिए सारे रंग अपने भीतर अवशोषित कर ले और जिस पल जिसकी जरूरत हो उसे यूज करें। 
प्रकृति में रचे बसे  रंग हम भी अपने में समाहित करें ,सर्दी के जड़त्व को रंगों का रोमांच और रोमांस दें। सूर्य की लालिमा , खेतों की हरियाली, आसमान का नील वर्ण , मेघों का काला या सफेद रंग  इंद्रधनुष  का रोमांच  बर्फ़ की सफ़ेदी ,फूलों ,पशु पक्षियों की रंगीन छटा , जाने कितने ही ख़ूबसूरत नज़ारे जो हमे अंतरतम तक  प्रफुल्लित करते हैं आनन्द देते हैं - को अपने अस्तित्व में समाहित कर लें। प्रकृति और मानव मन एक हो जाये  --कोई भेद न रहे।   सृष्टि का हर एक रंग  जीवन को छू के निकले --कभी रोमांच ,कभी रोमांस कभी उत्तेजना ,कभी प्यार तो कभी बर्फ सी पवित्र शान्ति ---
मैंने तो अब दो ही रंग चुन लिए अपने लिए --सफेद कैनवास पे काले अक्षर ,इन्हें ही पढ़ना इन्हें ही लिखना और यही मेरी होली --बाकी सारे रंग सन्तति के लिये ---
----होली पे यूँ ही परिंदों से उड़ते ख्याल अक्षर बन सिमट गए और काले रंग के भुनगे बन यहां बैठ गये --पर इन भुनगों में एक शलभ भी है ,और एक भँवरा भी --प्यार का रंग ,--सभी के जीवन में प्यार के रंग बरसें ---
होली की शुभकामनायें 
उड़त गुलाल लाल भये बदरा 
मारत  भर -भर झोरि रे रसिया 
इत ते आये कुंवर कन्हाई 
उत ते आयी राधा गोरी रे रसिया 
आज बिरज में होरी रे रसिया।।
------मेरी ओर  से भी अंजुरी भर -भर गुलाल  सभी को --आभा ---