Sunday, 12 March 2017


मूर्खाधिराज या होली का गधा -आज मेरा मन ---
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होली में मिलने वाली इस उपाधि के अंतर्गत - आज मेरा गर्दभ आलाप --
पिछले दिनों खूब ढेंचू ढेंचू हुई ,आज मेरे मूर्ख मन की  मूर्खतापूर्ण ढिंचाऊ ढिंचाऊ -- भाषा की शुद्धता होने का मतबल ही नही खिचड़ी ही मूर्खों की भाषा --बैठे ठाले की बकवास -----
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====सफ़ेद रंग की कॉपी में नीले  रंग की लिखाई - उसपे मास्साब की लाल रंग की स्याही से नम्बर और हस्ताक्षर।मन में  लाल रंग से गुड ,वैरीगुड ,एक्सीलेंट या फिर फेयर ही, देखने की अभिलाषा।
हरी ,नीली और काली स्याही तो काफी बाद में मिलीं हमें और जब मिलीं तो हमारी ख़ुशी का क्या कहने।  पेस्टल  ,क्रेयॉन  , पेन्सिल कलर ,और फिर  वाटर आयल , फैब्रिक  कलर के बाद तो किस्म -किस्म के रंग और रंगों से कल्पनाओं को साकार करने के लिए एक्सेसरीज --कल्पना को तो जैसे पंख ही लग गए थे।
बचपन से ही रंग  अपनी ओर  आने का लालच देते से लगते  । इंद्रधनुष बेइंतिहा  लुभाता  ,बचपन में तो इंद्रधनुष देख के सभी को दौड़ा लेते  कि आओ देखो आनन्द लो रंगों की इस बरात का।
सिलाई- बिनाई ,कढाई ,इंटीरियर डेकोरेशन ,गार्डनिंग - कुछ न बन सकी  तो रंगों से इसी फील्ड  खेली।
उषा -निशा में प्राची और सीमान्त में बिखरा ,सिंदूरी- सुनहरा -नारंगी -पीला- लाल रंगों की छटा वाला गुलाल आज भी रुक के देखती ही हूँ।
 मैंने देखा है =======
लोहे  को  धीरे-धीरे गर्म करने पे   पहले तो वह काला दिखाई पड़ता है, फिर उसका रंग लाल होने लगता है,और गर्म करने पे  उसका रंग क्रमश: नारंगी, पीला  हुआ फिर  सफ़ेद हो जाता है। जब लोहा कम गरम होता है तब  केवल लाल रंग का प्रकाश  ही दृष्टिगोचर होता है  , शनैः -शनैः --उसे अधिक गर्म करने पे उसमें से अन्य रंगों का प्रकाश भी निकलने लगता है।  जब वह इतना गरम हो जाता है कि उसमें से स्पेक्ट्रम के सभी रंगों का प्रकाश निकलने लगे तब उनके सम्मिलित प्रभाव से सफ़ेद रंग दिखाई देता है  -यानी जब सभी रंग बाहर निकल गये तो सफ़ेद की ठंडक लिए हुई शांति। 
  जिंदगी ने-हमें   कमोबेश काले सफ़ेद   इन्ही दो रंगों के बीच झूलती हुई  करोड़ों रंगों को पहचानने की क्षमता  रखने वाली आँखें दी हैं। कब कौन सी वस्तु किस रंग को  रंग को अवशोषित करती है सारा रंगों का विज्ञान  इसी पे टिका है और  शायद हमारा जीवन दर्शन भी। हम जिस पल जो रंग अवशोषित करते हैं उसी रंग के गुण -धर्म हमारे व्यक्तित्व में परिलक्षित होते है ---------शायद ;  जीवन में रंगीनी हो ,उत्सवधर्मिता  बनी रहे इसीलिये  रंग पंचमी का ये त्यौहार हिन्दू वर्ष के अंतिम माह और नूतन वर्ष के आगमन  पे  ,संक्रमण काल में रखा गया ताकि हम वर्ष भर के लिए सारे रंग अपने भीतर अवशोषित कर ले और जिस पल जिसकी जरूरत हो उसे यूज करें। 
प्रकृति में रचे बसे  रंग हम भी अपने में समाहित करें ,सर्दी के जड़त्व को रंगों का रोमांच और रोमांस दें। सूर्य की लालिमा , खेतों की हरियाली, आसमान का नील वर्ण , मेघों का काला या सफेद रंग  इंद्रधनुष  का रोमांच  बर्फ़ की सफ़ेदी ,फूलों ,पशु पक्षियों की रंगीन छटा , जाने कितने ही ख़ूबसूरत नज़ारे जो हमे अंतरतम तक  प्रफुल्लित करते हैं आनन्द देते हैं - को अपने अस्तित्व में समाहित कर लें। प्रकृति और मानव मन एक हो जाये  --कोई भेद न रहे।   सृष्टि का हर एक रंग  जीवन को छू के निकले --कभी रोमांच ,कभी रोमांस कभी उत्तेजना ,कभी प्यार तो कभी बर्फ सी पवित्र शान्ति ---
मैंने तो अब दो ही रंग चुन लिए अपने लिए --सफेद कैनवास पे काले अक्षर ,इन्हें ही पढ़ना इन्हें ही लिखना और यही मेरी होली --बाकी सारे रंग सन्तति के लिये ---
----होली पे यूँ ही परिंदों से उड़ते ख्याल अक्षर बन सिमट गए और काले रंग के भुनगे बन यहां बैठ गये --पर इन भुनगों में एक शलभ भी है ,और एक भँवरा भी --प्यार का रंग ,--सभी के जीवन में प्यार के रंग बरसें ---
होली की शुभकामनायें 
उड़त गुलाल लाल भये बदरा 
मारत  भर -भर झोरि रे रसिया 
इत ते आये कुंवर कन्हाई 
उत ते आयी राधा गोरी रे रसिया 
आज बिरज में होरी रे रसिया।।
------मेरी ओर  से भी अंजुरी भर -भर गुलाल  सभी को --आभा ---








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