कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा ,भानमती ने कुनबा जोड़ा ---और यदि ये कुनबा प्रसिद्ध शायरों की कुछ शायरियों का हो तो दीवानगी के आलम का क्या कहना --और आज ही के दिन --fb भी मुकर्रर मुकर्रर कर रहा है --फिर मैंने भी शेयर पे चटक लगा ही दिया ,वैसे भी पुरानी रचनाओं से मिलता स्नेह यूँ हो लगता है मानों किसी बुजुर्ग ने प्यार से सर पे हाथ रख दिया हो ------
March 21,2015--को विश्व कविता दिवस पे --यूँ ही सूफियाना मूड औरआज फिर हवाओं में तिरता वही सूफियाना मंजर ----
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आज फिर बैठे ठाले की बकवास ! बेमतलब की चर्चा -------------
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परमात्मा को पाने की चाह और दीवानगी में धर्म और सम्प्रदाय आड़े नहीं आता बस अपने को खो देने का जज्बा ,इश्क़ की इन्तेहाँ और एक ही मोह --एक ही ध्येय ---मुझे पाना है --
काव्य तो जज्बाते दिल और हृदय का आइना होता है जैसे आत्मा और शरीरएक में गुथें हैं अंदर का रस ,अंदर की बात ,प्राणों का स्वर। काव्य अंत:वेदना का पर्दा मात्र है --
''किया था रेखता पर्दा सखुन का ,
सो ठहरा है यही अब फन हमारा ''
कुछ शायरोंके काव्य में ईश्वर को पाने की तडफ का वर्णन --
'' उसे देखते 'मीर' खोये गये,
कोई देखे इस जुस्तजू की तरफ |''
उसे ढूंढने में मैं अपने आप को ही भूल गया ,क्या नाम दूँ मैं अपनी इस सोच को | परमतत्व में लीनहोना ,कुछ अवस्थाये आती हैं -------तस्यैवाहम[मैं उसका हूँ ]...तवैवाहम[मैं तुम्हारा हूँ ]त्वमेवाहम [मैं तू ही हूँ ]....पर अभी भी दोनों एक नहीं हैं ......
''.तेरी आह किससेखबर पाइए ,
वही बेखबर है जो आगाह है ....[.मीर ]''
यानि जो तेरा पता जान चुकाहै वो तो सब से बेखबर हो चुका है ........
ग़ालिब भी कहते हैं .........
''बहुत ढूंढा उसे फिर भी न पाया ,
अगर पाया पता अपना न पाया |''
जिसे परमतत्व को जान लेने पे कोई क्या बतायेगा वहतो स्वयम में ही तल्लीन हो जाएगा |और एक शायर तो इससे भी आगे बढ़ गया ......
''मैंने माना देह्र्को हक़ ने किया पैदा वले,
मैं वो खालिक हूँ मेरे कुन से ख़ुदा पैदा हुआ |''
मैं मानलेता हूँ की सृष्टि की रचना ईश्वर ने की है पर मैं तो वो हूँ जिसके 'हो' , उच्चारण मात्र से ईश्वर की उत्पत्ति हुई |
''हर क़दमपर थी उसकी मंजिल लेकिन
सर से सौदाये -जुस्तजू न गया ..[मीर ]''
मंजिल तो हर कदम पे मौजूद थी पर दिमाग में जो खोज का पागलपन था उसके कारण मैं जीवन भर परमात्मा को ढूंढता ही रहा |------------''
खुलता नहीं दिल बन्द ही रहता है हमेशा ,
क्या जाने कि आजाता है तू इसमें किधर से .[जौक].....''
और इसी पे बिहारी की करामात ...........
''देख्यौ जागतवैसिये ,सांकरि लगी कपाट |
कितह्वै आवत -जात भजि,को जाने किहिं बाट| |[बिहारी ]''
चारो और किवाड़ बंद करके नायिका सो रही है ,स्वप्न में उसके प्रिय आते हैं ..वो चौंक के जागती है किवाड़ खिड़की सब बंद देख के सोचती है .ना जाने वो किस रस्ते से आते हैं और कहाँ से भाग जाते हैं ........यही है वो तत्व जो हममे ही है पर हम नायिका की तरह सोये हुए हैं , पहचान ही नहीं पा रहे हैं ....
''होश जाता नहीं रहा लेकिन ,
जब वह आता है तब नहीं आता |''
मुझमें अभी चेतना है पर हाय जब वो आते हैं मैं बेहोश हो जाता हूँ ...ईश्वर के साथ एकाकार हो जाना इसी को कहते हैं ....और अपने प्रभु की मूरत देख के ही मीरा दीवानी हुई ..........
कहता है दिल किआँख ने मुझको किया ख़राब ,
कहती है आँख यह किमुझे दिल ने खो दिया |
लगता नहीं पता किसही कौनसी सही है बात ,
दोनों ने मिलके मीर हमें तो डुबो दिया ||...............
ईश्वर से लगन लगे तो जांत-पांत का बंधन कोई मायने नहीं रखता ...संतों और सूफियों की जमात एक ही हुआ करती है .......आभा--
March 21,2015--को विश्व कविता दिवस पे --यूँ ही सूफियाना मूड औरआज फिर हवाओं में तिरता वही सूफियाना मंजर ----
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आज फिर बैठे ठाले की बकवास ! बेमतलब की चर्चा -------------
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परमात्मा को पाने की चाह और दीवानगी में धर्म और सम्प्रदाय आड़े नहीं आता बस अपने को खो देने का जज्बा ,इश्क़ की इन्तेहाँ और एक ही मोह --एक ही ध्येय ---मुझे पाना है --
काव्य तो जज्बाते दिल और हृदय का आइना होता है जैसे आत्मा और शरीरएक में गुथें हैं अंदर का रस ,अंदर की बात ,प्राणों का स्वर। काव्य अंत:वेदना का पर्दा मात्र है --
''किया था रेखता पर्दा सखुन का ,
सो ठहरा है यही अब फन हमारा ''
कुछ शायरोंके काव्य में ईश्वर को पाने की तडफ का वर्णन --
'' उसे देखते 'मीर' खोये गये,
कोई देखे इस जुस्तजू की तरफ |''
उसे ढूंढने में मैं अपने आप को ही भूल गया ,क्या नाम दूँ मैं अपनी इस सोच को | परमतत्व में लीनहोना ,कुछ अवस्थाये आती हैं -------तस्यैवाहम[मैं उसका हूँ ]...तवैवाहम[मैं तुम्हारा हूँ ]त्वमेवाहम [मैं तू ही हूँ ]....पर अभी भी दोनों एक नहीं हैं ......
''.तेरी आह किससेखबर पाइए ,
वही बेखबर है जो आगाह है ....[.मीर ]''
यानि जो तेरा पता जान चुकाहै वो तो सब से बेखबर हो चुका है ........
ग़ालिब भी कहते हैं .........
''बहुत ढूंढा उसे फिर भी न पाया ,
अगर पाया पता अपना न पाया |''
जिसे परमतत्व को जान लेने पे कोई क्या बतायेगा वहतो स्वयम में ही तल्लीन हो जाएगा |और एक शायर तो इससे भी आगे बढ़ गया ......
''मैंने माना देह्र्को हक़ ने किया पैदा वले,
मैं वो खालिक हूँ मेरे कुन से ख़ुदा पैदा हुआ |''
मैं मानलेता हूँ की सृष्टि की रचना ईश्वर ने की है पर मैं तो वो हूँ जिसके 'हो' , उच्चारण मात्र से ईश्वर की उत्पत्ति हुई |
''हर क़दमपर थी उसकी मंजिल लेकिन
सर से सौदाये -जुस्तजू न गया ..[मीर ]''
मंजिल तो हर कदम पे मौजूद थी पर दिमाग में जो खोज का पागलपन था उसके कारण मैं जीवन भर परमात्मा को ढूंढता ही रहा |------------''
खुलता नहीं दिल बन्द ही रहता है हमेशा ,
क्या जाने कि आजाता है तू इसमें किधर से .[जौक].....''
और इसी पे बिहारी की करामात ...........
''देख्यौ जागतवैसिये ,सांकरि लगी कपाट |
कितह्वै आवत -जात भजि,को जाने किहिं बाट| |[बिहारी ]''
चारो और किवाड़ बंद करके नायिका सो रही है ,स्वप्न में उसके प्रिय आते हैं ..वो चौंक के जागती है किवाड़ खिड़की सब बंद देख के सोचती है .ना जाने वो किस रस्ते से आते हैं और कहाँ से भाग जाते हैं ........यही है वो तत्व जो हममे ही है पर हम नायिका की तरह सोये हुए हैं , पहचान ही नहीं पा रहे हैं ....
''होश जाता नहीं रहा लेकिन ,
जब वह आता है तब नहीं आता |''
मुझमें अभी चेतना है पर हाय जब वो आते हैं मैं बेहोश हो जाता हूँ ...ईश्वर के साथ एकाकार हो जाना इसी को कहते हैं ....और अपने प्रभु की मूरत देख के ही मीरा दीवानी हुई ..........
कहता है दिल किआँख ने मुझको किया ख़राब ,
कहती है आँख यह किमुझे दिल ने खो दिया |
लगता नहीं पता किसही कौनसी सही है बात ,
दोनों ने मिलके मीर हमें तो डुबो दिया ||...............
ईश्वर से लगन लगे तो जांत-पांत का बंधन कोई मायने नहीं रखता ...संतों और सूफियों की जमात एक ही हुआ करती है .......आभा--
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