Monday, 24 July 2017

''तूने हमें क्या दिया री जिंदगी ''
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---एक बार फिर चली आई व्यथित करने -पुरानी रचना नजरों के सामने -- आज भी चौराहों पे एवं मन्दिरों के सामने यही हाल हैं -- भिखारियों के झुण्ड के झुण्ड --बच्चे बूढ़े स्त्रियां --चेहरों पे अजीब सा बेफिक्री मानो जिंदगी से कह रहे हों --तूने हमें क्या दिया री  जिंदगी --तो हमें भी समाज की फ़िक्र क्यों हो ---आप इन  बच्चों से बात नही कर सकते ,तुरंत ही कई सारे लोग आस-पास इकट्ठे हो जाते हैं ---
आज फिर एक बार जुलाई २०१३ की यादें और वही मंदिर के पास हाथ फैलाये बच्चों और भिखारियों के झुण्ड --
एक बच्ची जो संवेदनशील है परिवार के लिए **************************************
 अक्सर यदि १२ -१८ घंटों की यात्रा पे निकलें तो रोज -मर्रा की दवाईयाँभूलना ,स्त्रियों की आदत में शुमार होता है ,,तो दिल्ली से रूड़की,देहरादून तक के सफ़र में [सुबह४ बजे चलके रात्रि को १ ,११/२ बजे लौट -पौट],उस दिन मेरे साथ भी यही हुआ ,सफर लंबा थकानेवाला ,गंतव्यपे चलना- फिरना ,तबियत थोड़े दिनों से नासाज थी ,,तो दवाई रात को पहुँच के ले लूंगी येतर्क बेटे के साथ नहीं चला । ,{बच्चों के साथ बोलती बंद -यूँ ही टालती होंगी दवाइयों को रोज ,,पिता के जाने के बाद बच्चे माँ की सेहत के लिए कुछ अधिक ही चिंतित रहते हैं } । एक चौबीस घंटे खुलने वाली दवाई की दुकान के आगे कारपार्क कर बेटा दवाई लेने चला गया और मैं बाहर निकल के खड़ी हो गयी. । पास में ही मंदिर था और मुहं अँधेरे ही श्रधालुओं की आवाजाही शुरू हो गयी थी ।कुछ फूल और प्रसाद वाले और एक चाय की रेहड़ी । अच्छालग रहा था श्रद्धासे लोगों को शीश नवाते देखना । मानो श्रद्धा की बयार ही बह रही थी … मैं भी उस बयार में बहने लगी और सोचा चलो मैं भी दर्शन कर आऊँ । तभी मेरा आंचल पीछे से किसी ने खींचा और आवाज आयी --माँ भूख लगी । पीछे मुड़के देखा ,एक छोटी बच्ची करीब ५ -७ वर्ष की ,मेरी निगाहें उस पे पडीं ,कितनी करुणाथी उसकी आँखों में कि भीख न देने के कानून का पालन करने वाली मैं ,
सहम गयी। ये तो बच्चों के सोने का समय है और इस छोटे से बच्चे को खाने का जुगाड़ करने के लिए उठ जाना पड़ा ,या ये भूख से रात भर सोई ही नहीं।  मुझे अपने ऊपर क्रोध भी आया ,कार लॉक्ड थी -मैं जैसे अपने आप से ही बोली ,''बेटा रुको अभी भैया आता है तो देती हूँ '' …. 
देखा बच्ची के हाथ में एक बताशा है ,
मैंने कहा ये बताशा खालो बेटा,उसने भी जैसे मेरी बात को मानते हुए एक छोटा सा टुकडा तोड़ के खा लिया । 
इतने में बेटा आ गया ,और मैंने उस बच्ची को कुछ रूपये दे दिये।साथ में ये कहना भी नहीं भूली की उस चाय वाले से कुछ ले के खा लो वो उछलती हुई फुट -पाथमें चली गयी -शायद माके पास , 
दीन - हीन सी औरत !
जिसके पास दो बच्चे और बिलख रहे थे
 मैं थोड़ी देरऔर वहां पे रुकी देखने को की वो पैसों का क्या करती है ,ये भिखारियों का कोई रैकेट तो नहीं है ,कहीं मैं बेवकूफ तो नहीं बन गयी [खाया- पिया मन शंकालूभी हो जाता है ]………. 
पर वो बच्ची अपनी माँ के पास गयी उसे पैसे दिए,जिन्हें लेकर खुशी -२ वो औरत रेहड़ी वाले के पास चली गयी बच्चों के खाने का इंतजाम करने। वो तो माँ है खुश होगी ही पर जो मैंने देखा उससे मेरा दिल भर आया ,मन जार जार रोने लगा। मैंने देखा -उस छोटी सी बच्ची के हाथ में जो बताशा था वो उसने दोनों भाइयों को खिलाया और ताली बजाते हुए उनके आंसू पोंछने लगी। हर्ष और विषाद दोनों मेरे मन को उद्द्वेलित कर गए। करुणासे आँखें भर- भर आ रही थी। ये है मेरे स्वतंत्र देश के मासूमों का वर्तमान और भविष्य …. माँ ने बचपन में सातभाइयों के एक तिल को बाँट के खाने की कहानी सुनाते हुए समझाया था किपरस्पर प्यार से सुख ,समृद्धि और शांति आती है घर में  पर ये सब शायद भूत -काल की बातें हो गयी हैं। आज तो जो धूर्त है ,लंपट है, लुटेरा है ,छीन के खाने की कला में निपुण है वही संपन्नऔर बड़ा है। क्या ये बच्चे इस देश के नागरिक नहीं हैं ?इन्हें तो फ़ूड सिक्योरिटी बिल का भी फायदा नही मिलेगा। ये यदि बड़े होकर चोर उच्चके बनें तो इसमें इन का क्या दोष ! ''बिभुक्षितं किम न करोति पापम''।बचपन से इतनी असमान्यताएं झेलने पे समाज के प्रति विद्रोह तो पनपेगा ही इनके मन में  ; अब मैं चौराहे पे या लाल -बत्ती पे भीख मांगते बच्चों की तरफ नहीं देखती हूँ - कहीं मैं बहक न जाऊं।बस !  कतरा के मुहं फेर लेती हूँ । शायद यही हमारा व्यक्तित्व हो गया है - कतरा के निकल जाना और अपने मन को सांत्वना देना की जब दिल्ली में इतने सारे एन ज़ी ओ और दो -२ सरकारें भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं तो मैं ही क्या कर लूंगी।बस थोड़ा बहुत जो हम बूंद भर इन बच्चों के लिए करदेते हैं क्या ये काफी है ? 
आज निराला की कविता याद आ रही है ………………. 
वहआता दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता 
पेट पीठ दोनों मिल कर हैं एक
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 चाट रहे हैं जूठी पत्तल कभी सड़क पे पड़े हुए
और झपट लेने को उनको कुत्ते भी हैं खड़े हुए
राह ढूंढ़रही हूँ कुछ कर पाऊ ,,ताकि कतरा के न निकलना पड़े। । आभा। | …………………………

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Sunday, 23 July 2017

उत्तङ्क मुनि और कृष्ण --

याद के चाँद दिल में उतरते रहे।
चांदनी जगमगाती रही रात भर।
======और आज याद के चाँद बोले रतजगा है तो कुछ कान्हा को सोच। कान्हा को  याद कर। कान्हा को जी।
बहुत दिनों से सोच रही थी इस प्रसंग को लिखने की पर फेसबुक खोलते ही सबके स्टेटस पढ़ के और कमेंट करके ही थक जाती। छोटे-मोटे वेरी -नाइस टाइप स्टेटस भी डाले पर आज फिर वापस आध्यात्मिक यात्रा पर --
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कभी कभी हमे लगता है प्रभू ने ये तो बड़ी नाइंसाफी की ,हमारे अपने साथ या हमारे किसी प्रिय के साथ और हम प्रभु को खूब भला-बुरा कहने लगते हैं। यकीन मानिये यदि हमारा मन साफ़ है ,हम किसी का पक्ष नहीं ले रहे एवं  सरल हृदय , सम्यक बुद्धि ,स्थिर मन तथा  बिना किसी विषयवासना में लिप्त होके प्रभु की शरण में जाते हैं तो वो अवश्य हमारी सुनता है -बस हमारी पुकार स्वार्थपरक न हो (किसी का नुक्सान चाहने वाली )
वो हमारी गालियों को गुस्से को ,उलाहना को भी उतना ही प्यार करता  है जितना हमारी पूजा और समर्पण को ठीक वैसे ही जैसे माँ अपने बच्चों  को करती है चाहे बच्चे कितने ही दुष्ट क्यों न हो --

हमने कितनी ही कहानियां पढ़ी और सुनी हैं जब किसी ने तपस्या की और ईश्वर ने तपस्या से प्रसन्न हो उस व्यक्ति को दर्शन दिए --गीता में तो योगेश्वर कृष्ण ने अर्जुन को मूढ़मति की तरह व्यवहार करने पे और उसकी जड़ता हटाने के लिये उसे दर्शन दिये थे --जोर का झटका लगा के उसके पूरे व्यक्तित्व को ही झंझोड़ दिया था।
पर  आज चाँद यादों में एक ऐसी कहानी जहां कृष्ण ने लड़ने -झगड़ने गुस्सा करने और ये जानते हुए भी कि कृष्ण पारब्रह्म परमेश्वर हैं उन्हें शाप देने को उद्द्यत  एक ऋषि को अपने विराट रूप का दर्शन करवाया। हालांकि रामजी ने भी परशुराम को उनके गुस्से को शांत करने के लिये ही अपने स्वरूप का परिचय करवाया था -पर वो विराट स्वरूप नहीं था और उस वक्त श्री राम ने  परशुराम पे कुपित होके  उनकी वैष्णवी शक्ति हर के परशुराम को निस्तेज कर दिया था --
''इत्युक्ता राघव:क्रुद्धो भार्गवस्य वरायुधम्।
शरं  च प्रतिजग्राह हस्ताल्लघुपराक्रम: || -श्रीमद्वाल्मीकिरामायण ||
अब मैं रामायण के परशुराम और गीता के अर्जुन से होते हुए चलती हूँ एक और  कथा की ओर।
मैं कई दिनों से सोच रही थी मार्कण्डेय ऋषि ने जब प्रभु को माया  दिखाने को कहा तो उन्हें प्रलय में फंसा दिया -
तथा --
वटं च तत्पर्णपुटे श्यानम्। ---श्रीमद्भागवद --
अपना बाल रूप दिखाने के बाद भी छुप गए --पर अर्जुन को बिना उसकी इच्छा के ही विराट स्वरूप के दर्शन करवादिये तो क्या कोई ऐसा व्यक्तित्व भी था जिसे बिना किसी सामाजिक उद्देश्य के केवल बंदे के कहने पे प्रभु ने विराट स्वरूप के दर्शन करवाए हों ---और ---कुछ दिनों पूर्व ही महाभारत को उलटते -पलटते मुझे अपनी शंका का समाधान मिल गया ---वो व्यक्ति थे एक मुनि ;  नाम था ''उत्तङ्कमुनि ''.जो मरुभूमि के मध्य द्वारका की रक्षा हेतु कठिन जीवन यापन करते हुए तपस्या में लीन रहते थे।
कथा थोड़ा बड़ी है पर मैं सूक्ष्म  करके लिख रही हूँ।
पांडवों को राज्य मिलगया अब कृष्ण ने युधिष्ठिर और अपनी बुआ कुंती से द्वारका जाने की आज्ञा मांगी। भरे मन से सभी ने कृष्ण को विदा किया। जब कृष्ण मरुभूमि के बीच में ही थे तो उन्हें एक अमित तेजस्वी मुनि के दर्शन हुये। उनका नाम उत्तंक था। अभिवादन के बाद मुनि ने कृष्ण से पूछा '
''कच्चिच्छौरे त्वया गत्वा कुरुपान्डवसद्म तत्।
कृतं सौभ्रात्रमचलं तन्मे  व्याख्यातुमर्हसि।।''
----शूरनन्दन ! तुम कौरव-पांडवों के घर गए थे तो क्या उनके बीच में भ्रातृप्रेम और सौहार्द्य स्थापित कर आये। हे केशव क्या तुम उन वीरों में संधि करा के ही लौट रहे हो।
''संबंधिन: सवदयितान् सततं वृष्णिपुङ्गव। ''---हे वृष्णिपुङ्गव वे कौरव पांडव तुम्हारे संबन्धी हैं और तुम्हें सदा से ही प्रिय रहे हैं। --तात मेरी सदा से ही ये कामना थी कि भारतवंशियों में प्रेम पनपे वे सुख पूर्वक इस धरा में विचरण करें।
''अपि सा सफला तात कृता ते भरतान् प्रति।।''
हे तात तुमने भारतवंशियों के प्रति मेरी ये अभिलाषा तो पूर्ण कर  दी है न !
---इस पर कृष्ण ने कौरव पांडव की पूरी कहानी ऋषि को सुनाई और सभी कौरवों के मारे जाने का समाचार भी बताया।
ऋषि बड़े क्रोधित हुए। वो क्रोद्ध से जल उठे --
''उत्तङ्क इत्युवाचैनं रोषादुत्फुल्ललोचन:''
---ऋषि बोले हे कान्हा कितने खेद की बात है -कौरव भी तुम्हारे प्रिय थे पर तुमने पांडवों का पक्ष लेते हुये मिथ्याचार का सहारा लिया --मधुसूदन तुम सर्वज्ञ हो समर्थ हो ,चाहते तो हाथ पकड़ के उन्हें रोक देते ,युद्ध न होने देते। युद्ध में चहुँ दिशाओं से आये हुए कितने ही वीर मारे गये --इतने वीरों की क्षति से मेरा रोष तुम पर बढ़ गया है --हे माधव ,हे मधुसूदन  मैं तुमहेनशॉप देता हूँ --
कृष्ण को मालूम था उत्तंक मुनि सच्चे और समर्पित तपस्वी हैं यदि इन्होने मुझे शाप दिया तो इनकी सारी तपस्या व्यर्थ हो जायेगी सो किसी तरह मुनि को अपनी पूरी बात सुनने को मनाया ,उन्हें कहा मैं नहीं चाहता आप बिना मेरी पूरी बात पे मनन किये क्षणिक आवेश में कोई निर्णय न लें ,ध्यान से पूरी बात सुनें ,कौरवों को मैंने भीष्म पितामह ,विदुर सभी ने  समझाया पर उनपे दुर्बुद्धि सवार थी और फिर प्रारब्ध के विधान को भी कोई नहीं टाल सकता।
बड़ी मिन्नतों के बाद ऋषि बोले ---चलो कान्हा तुम मुझे विस्तार से समझाओ --यदि मैं तुम्हारे आध्यात्मतत्व से संतुष्ट हुआ तो तुम्हें आशीष दूंगा ,अन्यथा मित्रहंता मान के शाप दूंगा।
कृष्ण ने कौरव-पांडवों के गुण अवगुण बताते हुए ,क्रोध से अपनी अंतरात्मा से दूर गए ऋषि को अपने विषय में वही  सब ज्ञान दिया जो गीता में अर्जुन को दिया था --अंतर् मात्र ये था अर्जुन को अपने स्वरूप का और कृष्ण के परमात्मा होने का भान ही नहीं था एवं  उत्तङ्क मुनि भारतवंशीय वीरों के विनाश की खबर सुन क्रोद्ध में क्षुब्ध हो अपने व्  कृष्ण दोनों के स्वरूप से दूर चले गए --दुःख से उपजे क्रोध ने उनकी बुद्धि हर ली। कृष्ण जानते हैं ऐसे क्षणों में व्यक्ति को केवल उनके स्वरूप का ध्यान ही बचा सकता है। मुनि मानवता के प्रति समर्पित एक सच्ची आत्मा थे तो उन्हें बचाना  कृष्ण को आवश्यक लगा।
यहां पे महाभारत में गीता की पुनरावृति होती है बस शब्द कुछ बदले हुए हैं ठीक वैसे ही जैसे हम एक बात को जगह-जगह दोहराते हैं तो भाव एक होते हुये भी शब्दों में अंतर् होता है।
अंत में कृष्ण ने मुनि से कहा
''मानुष्ये वर्तमाने तु कृपणं याचिता मया।
मैं अभी मनुष्य योनि में आया हूँ तो कौरवों पे अपनी ईश्वरीय शक्ति का प्रयोग न करके दीनता पूर्वक याचना करके ही कौरवों को मनाता रहा। पर वे प्रारब्धवश मोहग्रस्त थे -अपने हित  की बात भी न समझ पाए।
साम दाम दण्ड भेद किसी भी तरह कौरव बस में नहीं आये।
कहने का भाव यही है कि जब प्रारब्ध में ही विनाश हो , मोहग्रस्त हो तो कोई भी सीख काम नहीं आती। ईश्वरीय शक्ति भी सच्चे व्  सरल व्यक्ति को ही बचा सकती है।
तब उत्तङ्क बोले --
''अभिजानामि जगत:कर्तारं त्वां जनार्दन ''
मुझ पे कृपा करो और अपना विराट ईश्वरीय स्वरूप मुझे दिखा दो मेरी बड़ी इच्छा हो रही है आपका ईश्वर रूप देखने की -
''द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं तन्निदर्शय। ''
--तब भगवान ने उन उत्तंग ऋषि को ''ददृशे यद् धनंजय:'' जैसा अर्जुन को विराट रूप दिखाया था वैसा ही रूप दिखाया। भगवान विष्णु के उस विराट स्वरूप को देख मुनि बहुत प्रसन्न हुए ,उन्होंने अनुभव किया कि ये विशाल सृष्टि विष्णु का ही प्रपंच है ,उन्होंने विष्णु की आराधना की और संतुष्ट होके प्रभु से  स्वरूप को समेटने को कहा।
अर्जुन तो प्रभु के स्वरूप को देख के दर गया था तो उसने उन्हें अपने मनुष्य रूप में आने की प्रार्थना की पर मुनि ने खुश होके विश्व के कल्याण के लिये प्रभु से मनुष्य रूप में आने की प्रार्थना की।. ....आभा। ...
क्रमश:----





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Friday, 21 July 2017




आ मिल मेरी मधुशाला से
इसमें नैसर्गिक हाला
ये प्रकृति मेरा मदिरालय
हरियाली साकी बाला
तरह तरह की रंगबिरंगी
इसमें मिलजाती हाला
नव  पलल्व नव पुष्प औ  फल
मेरे सुख दुःख सुनते हैं
ममता से अभिसिंचित कर
बरसाते प्रणय मई हाला
अखिल विश्व का विष पी कर  भी
धरती मदमाती रहती
ढूंढ सको तो पास ही होगी
कुञ्ज गली वो मधुशाला --आभा --




Tuesday, 11 July 2017

वर-वधू खड़े हों। प्रत्येक कदम बढ़ाने से पहले देव शक्तियों की साक्षी का मन्त्र बोला जाता है, उस समय वर-वधू हाथ जोड़कर ध्यान करें। उसके बाद चरण बढ़ाने का मन्त्र बोलने पर पहले दायाँ कदम बढ़ाएँ। इसी प्रकार एक-एक करके सात कदम बढ़ाये जाएँ। भावना की जाए कि योजनाबद्ध-प्रगतिशील जीवन के लिए देव साक्षी में संकल्पित हो रहे हैं, संकल्प और देव अनुग्रह का संयुक्त लाभ जीवन भर मिलता रहेगा।
(१) अन्न वृद्धि के लिए पहली साक्षी- ॐ एको विष्णुजर्गत्सवर्ं, व्याप्तं येन चराचरम्। हृदये यस्ततो यस्य, तस्य साक्षी प्रदीयताम्॥ पहला चरण- ॐ इष एकपदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥१॥
(२) बल वृद्धि के लिए दूसरी साक्षी- ॐ जीवात्मा परमात्मा च, पृथ्वी आकाशमेव च। सूयर्चन्द्रद्वयोमर्ध्ये, तस्य साक्षी प्रदीयताम्॥२॥ दूसरी चरण- ॐ ऊजेर् द्विपदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥२॥
(३) धन वृद्धि के लिए तीसरी साक्षी- ॐ त्रिगुणाश्च त्रिदेवाश्च, त्रिशक्तिः सत्परायणाः। लोकत्रये त्रिसन्ध्यायाः, तस्य साक्षी प्रदीयताम् । तीसरा चरण- ॐ रायस्पोषाय त्रिपदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥३॥
(४) सुख वृद्धि के लिए चौथी साक्षी- ॐ चतुमर्ुखस्ततो ब्रह्मा, चत्वारो वेदसंभवाः। चतुयुर्गाः प्रवतर्न्ते, तेषां साक्षी प्रदीयताम्। चौथा चरण- ॐ मायो भवाय चतुष्पदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥४॥
(५) प्रजा पालन के लिए पाँचवी साक्षी- ॐ पंचमे पंचभूतानां, पंचप्राणैः परायणाः। तत्र दशर्नपुण्यानां, साक्षिणः प्राणपंचधाः॥ पाँचवाँ चरण- ॐ प्रजाभ्यां पंचपदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥५॥
(६) ऋतु व्यवहार के लिए छठवीं साक्षी- ॐ षष्ठे तु षड्ऋतूणां च, षण्मुखः स्वामिकातिर्कः। षड्रसा यत्र जायन्ते, कातिर्केयाश्च साक्षिणः॥ छठवाँ चरण- ॐ ऋतुभ्यः षट्ष्पदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥६॥
(७) मित्रता वृद्धि के लिए सातवीं साक्षी- ॐ सप्तमे सागराश्चैव, सप्तद्वीपाः सपवर्ताः। येषां सप्तषिर्पतनीनां, तेषामादशर्साक्षिणः॥ सातवाँ चरण- ॐ सखे सप्तपदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥७॥ -पार०गृ०सू० १.८.१-२, आ०गृ०सू० १.७.१९

Friday, 7 July 2017



सुख दुःख दोनों मेरे अपने ----एक अजन्मी बच्ची की माँ के मन की व्यथा -
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सुख दुःख की निशा दिवा में 
श्याम-धवल मेरा जीवन !
झूम के नाचूं  मैं  मयूर सी 
और कभी आंसू झम झम !
हंसी रूदन संग -संग यूँ ही 
छाया साथ ज्यूँ कदम - कदम 
पूर्ण कहाऊं तब ही जब 
हंसती रोती सी दिखती
कभी बादलों से ओझल चंदा 
फिर चंदा से ओझल बादल
हंसी रुदन मेरे आंचल में
मैं इनको प्रति पल जीती .
बाबुल के आंगन की चिड़िया 
नाचे गाये ,धूम मचाये 
सौरभ से भर दे अंगने को 
उषा सांझ  लाली सी बिखरे 
प्रिय  का  नेह पगा  आमन्त्रण
तारों सी जगमग चूनर पहना दी 
कुमकुम चूर्ण उड़ा  पिया ने
केसर सा जीवन महकाया 
कैसा कोमल मृदु स्पंदन !
मेरे उर में धड़क रहा यह 
मृदुल और कुछ -मेरा मन ;
नन्ही परी की है ये आहट ,
 सुनकर !
ओह! क्यूँ  कुचक्र रचाया
नन्ही कली 
''सांस न ले पावे ''
बंधक मुझको ही बनाया ?
तोड़ती हूँ मैं ये बंधन ,
आज मैं दुःख को वरूँगी 
ये सृजन अब हक है मेरा 
राह कितनी कंटकित हों 
मैं आज ---
''अभिशापों को वरूँगी ''
आज मैं विद्रोहिणी -
रो लिया जितना था रोना 
पोंछ आंसू ; धारणा की !
जन्म बिटिया अवश्य लेगी,
ताज मेरे सर का होगी ,
मेरे अंगने के हिंडोले 
राज बिटिया का चलेगा
नाचती अर खिलखिलाती 
जब वो मुझे अम्मा कहेगी 
दुःख सभी कपूर होगें 
अश्रु दुःख ज्वाला हरेंगे ||आभा ||
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-रोज के बलात्कारों ,अपहरण ,कुकर्म ,कन्याभ्रूण हत्या और पैदा हुई बालिका को कूड़े में फेंकने की असंख्यों घटनायें अब हमारा ध्यान ही आकर्षित नहीं करतीं ,अखबारों के पन्नों में ,सौ खबरें एक साथ --टीवी में --देखना जैसे हमारे लिये रोजमर्रा की आम घटना हो गयी है -
दो दिन की बच्ची को कोई फेंक गया सड़क पे ,उसी वेदना का स्वर |--पुरानी रचना उस दिन की घटना से उद्वेलित मन के उदगार। स्त्री का मान बढ़ाने को स्त्री को ही सामने आना पड़ेगा -