उत्तङ्क मुनि और कृष्ण --
याद के चाँद दिल में उतरते रहे।
चांदनी जगमगाती रही रात भर।
======और आज याद के चाँद बोले रतजगा है तो कुछ कान्हा को सोच। कान्हा को याद कर। कान्हा को जी।
बहुत दिनों से सोच रही थी इस प्रसंग को लिखने की पर फेसबुक खोलते ही सबके स्टेटस पढ़ के और कमेंट करके ही थक जाती। छोटे-मोटे वेरी -नाइस टाइप स्टेटस भी डाले पर आज फिर वापस आध्यात्मिक यात्रा पर --
----
कभी कभी हमे लगता है प्रभू ने ये तो बड़ी नाइंसाफी की ,हमारे अपने साथ या हमारे किसी प्रिय के साथ और हम प्रभु को खूब भला-बुरा कहने लगते हैं। यकीन मानिये यदि हमारा मन साफ़ है ,हम किसी का पक्ष नहीं ले रहे एवं सरल हृदय , सम्यक बुद्धि ,स्थिर मन तथा बिना किसी विषयवासना में लिप्त होके प्रभु की शरण में जाते हैं तो वो अवश्य हमारी सुनता है -बस हमारी पुकार स्वार्थपरक न हो (किसी का नुक्सान चाहने वाली )
वो हमारी गालियों को गुस्से को ,उलाहना को भी उतना ही प्यार करता है जितना हमारी पूजा और समर्पण को ठीक वैसे ही जैसे माँ अपने बच्चों को करती है चाहे बच्चे कितने ही दुष्ट क्यों न हो --
हमने कितनी ही कहानियां पढ़ी और सुनी हैं जब किसी ने तपस्या की और ईश्वर ने तपस्या से प्रसन्न हो उस व्यक्ति को दर्शन दिए --गीता में तो योगेश्वर कृष्ण ने अर्जुन को मूढ़मति की तरह व्यवहार करने पे और उसकी जड़ता हटाने के लिये उसे दर्शन दिये थे --जोर का झटका लगा के उसके पूरे व्यक्तित्व को ही झंझोड़ दिया था।
पर आज चाँद यादों में एक ऐसी कहानी जहां कृष्ण ने लड़ने -झगड़ने गुस्सा करने और ये जानते हुए भी कि कृष्ण पारब्रह्म परमेश्वर हैं उन्हें शाप देने को उद्द्यत एक ऋषि को अपने विराट रूप का दर्शन करवाया। हालांकि रामजी ने भी परशुराम को उनके गुस्से को शांत करने के लिये ही अपने स्वरूप का परिचय करवाया था -पर वो विराट स्वरूप नहीं था और उस वक्त श्री राम ने परशुराम पे कुपित होके उनकी वैष्णवी शक्ति हर के परशुराम को निस्तेज कर दिया था --
''इत्युक्ता राघव:क्रुद्धो भार्गवस्य वरायुधम्।
शरं च प्रतिजग्राह हस्ताल्लघुपराक्रम: || -श्रीमद्वाल्मीकिरामायण ||
अब मैं रामायण के परशुराम और गीता के अर्जुन से होते हुए चलती हूँ एक और कथा की ओर।
मैं कई दिनों से सोच रही थी मार्कण्डेय ऋषि ने जब प्रभु को माया दिखाने को कहा तो उन्हें प्रलय में फंसा दिया -
तथा --
वटं च तत्पर्णपुटे श्यानम्। ---श्रीमद्भागवद --
अपना बाल रूप दिखाने के बाद भी छुप गए --पर अर्जुन को बिना उसकी इच्छा के ही विराट स्वरूप के दर्शन करवादिये तो क्या कोई ऐसा व्यक्तित्व भी था जिसे बिना किसी सामाजिक उद्देश्य के केवल बंदे के कहने पे प्रभु ने विराट स्वरूप के दर्शन करवाए हों ---और ---कुछ दिनों पूर्व ही महाभारत को उलटते -पलटते मुझे अपनी शंका का समाधान मिल गया ---वो व्यक्ति थे एक मुनि ; नाम था ''उत्तङ्कमुनि ''.जो मरुभूमि के मध्य द्वारका की रक्षा हेतु कठिन जीवन यापन करते हुए तपस्या में लीन रहते थे।
कथा थोड़ा बड़ी है पर मैं सूक्ष्म करके लिख रही हूँ।
पांडवों को राज्य मिलगया अब कृष्ण ने युधिष्ठिर और अपनी बुआ कुंती से द्वारका जाने की आज्ञा मांगी। भरे मन से सभी ने कृष्ण को विदा किया। जब कृष्ण मरुभूमि के बीच में ही थे तो उन्हें एक अमित तेजस्वी मुनि के दर्शन हुये। उनका नाम उत्तंक था। अभिवादन के बाद मुनि ने कृष्ण से पूछा '
''कच्चिच्छौरे त्वया गत्वा कुरुपान्डवसद्म तत्।
कृतं सौभ्रात्रमचलं तन्मे व्याख्यातुमर्हसि।।''
----शूरनन्दन ! तुम कौरव-पांडवों के घर गए थे तो क्या उनके बीच में भ्रातृप्रेम और सौहार्द्य स्थापित कर आये। हे केशव क्या तुम उन वीरों में संधि करा के ही लौट रहे हो।
''संबंधिन: सवदयितान् सततं वृष्णिपुङ्गव। ''---हे वृष्णिपुङ्गव वे कौरव पांडव तुम्हारे संबन्धी हैं और तुम्हें सदा से ही प्रिय रहे हैं। --तात मेरी सदा से ही ये कामना थी कि भारतवंशियों में प्रेम पनपे वे सुख पूर्वक इस धरा में विचरण करें।
''अपि सा सफला तात कृता ते भरतान् प्रति।।''
हे तात तुमने भारतवंशियों के प्रति मेरी ये अभिलाषा तो पूर्ण कर दी है न !
---इस पर कृष्ण ने कौरव पांडव की पूरी कहानी ऋषि को सुनाई और सभी कौरवों के मारे जाने का समाचार भी बताया।
ऋषि बड़े क्रोधित हुए। वो क्रोद्ध से जल उठे --
''उत्तङ्क इत्युवाचैनं रोषादुत्फुल्ललोचन:''
---ऋषि बोले हे कान्हा कितने खेद की बात है -कौरव भी तुम्हारे प्रिय थे पर तुमने पांडवों का पक्ष लेते हुये मिथ्याचार का सहारा लिया --मधुसूदन तुम सर्वज्ञ हो समर्थ हो ,चाहते तो हाथ पकड़ के उन्हें रोक देते ,युद्ध न होने देते। युद्ध में चहुँ दिशाओं से आये हुए कितने ही वीर मारे गये --इतने वीरों की क्षति से मेरा रोष तुम पर बढ़ गया है --हे माधव ,हे मधुसूदन मैं तुमहेनशॉप देता हूँ --
कृष्ण को मालूम था उत्तंक मुनि सच्चे और समर्पित तपस्वी हैं यदि इन्होने मुझे शाप दिया तो इनकी सारी तपस्या व्यर्थ हो जायेगी सो किसी तरह मुनि को अपनी पूरी बात सुनने को मनाया ,उन्हें कहा मैं नहीं चाहता आप बिना मेरी पूरी बात पे मनन किये क्षणिक आवेश में कोई निर्णय न लें ,ध्यान से पूरी बात सुनें ,कौरवों को मैंने भीष्म पितामह ,विदुर सभी ने समझाया पर उनपे दुर्बुद्धि सवार थी और फिर प्रारब्ध के विधान को भी कोई नहीं टाल सकता।
बड़ी मिन्नतों के बाद ऋषि बोले ---चलो कान्हा तुम मुझे विस्तार से समझाओ --यदि मैं तुम्हारे आध्यात्मतत्व से संतुष्ट हुआ तो तुम्हें आशीष दूंगा ,अन्यथा मित्रहंता मान के शाप दूंगा।
कृष्ण ने कौरव-पांडवों के गुण अवगुण बताते हुए ,क्रोध से अपनी अंतरात्मा से दूर गए ऋषि को अपने विषय में वही सब ज्ञान दिया जो गीता में अर्जुन को दिया था --अंतर् मात्र ये था अर्जुन को अपने स्वरूप का और कृष्ण के परमात्मा होने का भान ही नहीं था एवं उत्तङ्क मुनि भारतवंशीय वीरों के विनाश की खबर सुन क्रोद्ध में क्षुब्ध हो अपने व् कृष्ण दोनों के स्वरूप से दूर चले गए --दुःख से उपजे क्रोध ने उनकी बुद्धि हर ली। कृष्ण जानते हैं ऐसे क्षणों में व्यक्ति को केवल उनके स्वरूप का ध्यान ही बचा सकता है। मुनि मानवता के प्रति समर्पित एक सच्ची आत्मा थे तो उन्हें बचाना कृष्ण को आवश्यक लगा।
यहां पे महाभारत में गीता की पुनरावृति होती है बस शब्द कुछ बदले हुए हैं ठीक वैसे ही जैसे हम एक बात को जगह-जगह दोहराते हैं तो भाव एक होते हुये भी शब्दों में अंतर् होता है।
अंत में कृष्ण ने मुनि से कहा
''मानुष्ये वर्तमाने तु कृपणं याचिता मया।
मैं अभी मनुष्य योनि में आया हूँ तो कौरवों पे अपनी ईश्वरीय शक्ति का प्रयोग न करके दीनता पूर्वक याचना करके ही कौरवों को मनाता रहा। पर वे प्रारब्धवश मोहग्रस्त थे -अपने हित की बात भी न समझ पाए।
साम दाम दण्ड भेद किसी भी तरह कौरव बस में नहीं आये।
कहने का भाव यही है कि जब प्रारब्ध में ही विनाश हो , मोहग्रस्त हो तो कोई भी सीख काम नहीं आती। ईश्वरीय शक्ति भी सच्चे व् सरल व्यक्ति को ही बचा सकती है।
तब उत्तङ्क बोले --
''अभिजानामि जगत:कर्तारं त्वां जनार्दन ''
मुझ पे कृपा करो और अपना विराट ईश्वरीय स्वरूप मुझे दिखा दो मेरी बड़ी इच्छा हो रही है आपका ईश्वर रूप देखने की -
''द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं तन्निदर्शय। ''
--तब भगवान ने उन उत्तंग ऋषि को ''ददृशे यद् धनंजय:'' जैसा अर्जुन को विराट रूप दिखाया था वैसा ही रूप दिखाया। भगवान विष्णु के उस विराट स्वरूप को देख मुनि बहुत प्रसन्न हुए ,उन्होंने अनुभव किया कि ये विशाल सृष्टि विष्णु का ही प्रपंच है ,उन्होंने विष्णु की आराधना की और संतुष्ट होके प्रभु से स्वरूप को समेटने को कहा।
अर्जुन तो प्रभु के स्वरूप को देख के दर गया था तो उसने उन्हें अपने मनुष्य रूप में आने की प्रार्थना की पर मुनि ने खुश होके विश्व के कल्याण के लिये प्रभु से मनुष्य रूप में आने की प्रार्थना की।. ....आभा। ...
क्रमश:----
''
याद के चाँद दिल में उतरते रहे।
चांदनी जगमगाती रही रात भर।
======और आज याद के चाँद बोले रतजगा है तो कुछ कान्हा को सोच। कान्हा को याद कर। कान्हा को जी।
बहुत दिनों से सोच रही थी इस प्रसंग को लिखने की पर फेसबुक खोलते ही सबके स्टेटस पढ़ के और कमेंट करके ही थक जाती। छोटे-मोटे वेरी -नाइस टाइप स्टेटस भी डाले पर आज फिर वापस आध्यात्मिक यात्रा पर --
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कभी कभी हमे लगता है प्रभू ने ये तो बड़ी नाइंसाफी की ,हमारे अपने साथ या हमारे किसी प्रिय के साथ और हम प्रभु को खूब भला-बुरा कहने लगते हैं। यकीन मानिये यदि हमारा मन साफ़ है ,हम किसी का पक्ष नहीं ले रहे एवं सरल हृदय , सम्यक बुद्धि ,स्थिर मन तथा बिना किसी विषयवासना में लिप्त होके प्रभु की शरण में जाते हैं तो वो अवश्य हमारी सुनता है -बस हमारी पुकार स्वार्थपरक न हो (किसी का नुक्सान चाहने वाली )
वो हमारी गालियों को गुस्से को ,उलाहना को भी उतना ही प्यार करता है जितना हमारी पूजा और समर्पण को ठीक वैसे ही जैसे माँ अपने बच्चों को करती है चाहे बच्चे कितने ही दुष्ट क्यों न हो --
हमने कितनी ही कहानियां पढ़ी और सुनी हैं जब किसी ने तपस्या की और ईश्वर ने तपस्या से प्रसन्न हो उस व्यक्ति को दर्शन दिए --गीता में तो योगेश्वर कृष्ण ने अर्जुन को मूढ़मति की तरह व्यवहार करने पे और उसकी जड़ता हटाने के लिये उसे दर्शन दिये थे --जोर का झटका लगा के उसके पूरे व्यक्तित्व को ही झंझोड़ दिया था।
पर आज चाँद यादों में एक ऐसी कहानी जहां कृष्ण ने लड़ने -झगड़ने गुस्सा करने और ये जानते हुए भी कि कृष्ण पारब्रह्म परमेश्वर हैं उन्हें शाप देने को उद्द्यत एक ऋषि को अपने विराट रूप का दर्शन करवाया। हालांकि रामजी ने भी परशुराम को उनके गुस्से को शांत करने के लिये ही अपने स्वरूप का परिचय करवाया था -पर वो विराट स्वरूप नहीं था और उस वक्त श्री राम ने परशुराम पे कुपित होके उनकी वैष्णवी शक्ति हर के परशुराम को निस्तेज कर दिया था --
''इत्युक्ता राघव:क्रुद्धो भार्गवस्य वरायुधम्।
शरं च प्रतिजग्राह हस्ताल्लघुपराक्रम: || -श्रीमद्वाल्मीकिरामायण ||
अब मैं रामायण के परशुराम और गीता के अर्जुन से होते हुए चलती हूँ एक और कथा की ओर।
मैं कई दिनों से सोच रही थी मार्कण्डेय ऋषि ने जब प्रभु को माया दिखाने को कहा तो उन्हें प्रलय में फंसा दिया -
तथा --
वटं च तत्पर्णपुटे श्यानम्। ---श्रीमद्भागवद --
अपना बाल रूप दिखाने के बाद भी छुप गए --पर अर्जुन को बिना उसकी इच्छा के ही विराट स्वरूप के दर्शन करवादिये तो क्या कोई ऐसा व्यक्तित्व भी था जिसे बिना किसी सामाजिक उद्देश्य के केवल बंदे के कहने पे प्रभु ने विराट स्वरूप के दर्शन करवाए हों ---और ---कुछ दिनों पूर्व ही महाभारत को उलटते -पलटते मुझे अपनी शंका का समाधान मिल गया ---वो व्यक्ति थे एक मुनि ; नाम था ''उत्तङ्कमुनि ''.जो मरुभूमि के मध्य द्वारका की रक्षा हेतु कठिन जीवन यापन करते हुए तपस्या में लीन रहते थे।
कथा थोड़ा बड़ी है पर मैं सूक्ष्म करके लिख रही हूँ।
पांडवों को राज्य मिलगया अब कृष्ण ने युधिष्ठिर और अपनी बुआ कुंती से द्वारका जाने की आज्ञा मांगी। भरे मन से सभी ने कृष्ण को विदा किया। जब कृष्ण मरुभूमि के बीच में ही थे तो उन्हें एक अमित तेजस्वी मुनि के दर्शन हुये। उनका नाम उत्तंक था। अभिवादन के बाद मुनि ने कृष्ण से पूछा '
''कच्चिच्छौरे त्वया गत्वा कुरुपान्डवसद्म तत्।
कृतं सौभ्रात्रमचलं तन्मे व्याख्यातुमर्हसि।।''
----शूरनन्दन ! तुम कौरव-पांडवों के घर गए थे तो क्या उनके बीच में भ्रातृप्रेम और सौहार्द्य स्थापित कर आये। हे केशव क्या तुम उन वीरों में संधि करा के ही लौट रहे हो।
''संबंधिन: सवदयितान् सततं वृष्णिपुङ्गव। ''---हे वृष्णिपुङ्गव वे कौरव पांडव तुम्हारे संबन्धी हैं और तुम्हें सदा से ही प्रिय रहे हैं। --तात मेरी सदा से ही ये कामना थी कि भारतवंशियों में प्रेम पनपे वे सुख पूर्वक इस धरा में विचरण करें।
''अपि सा सफला तात कृता ते भरतान् प्रति।।''
हे तात तुमने भारतवंशियों के प्रति मेरी ये अभिलाषा तो पूर्ण कर दी है न !
---इस पर कृष्ण ने कौरव पांडव की पूरी कहानी ऋषि को सुनाई और सभी कौरवों के मारे जाने का समाचार भी बताया।
ऋषि बड़े क्रोधित हुए। वो क्रोद्ध से जल उठे --
''उत्तङ्क इत्युवाचैनं रोषादुत्फुल्ललोचन:''
---ऋषि बोले हे कान्हा कितने खेद की बात है -कौरव भी तुम्हारे प्रिय थे पर तुमने पांडवों का पक्ष लेते हुये मिथ्याचार का सहारा लिया --मधुसूदन तुम सर्वज्ञ हो समर्थ हो ,चाहते तो हाथ पकड़ के उन्हें रोक देते ,युद्ध न होने देते। युद्ध में चहुँ दिशाओं से आये हुए कितने ही वीर मारे गये --इतने वीरों की क्षति से मेरा रोष तुम पर बढ़ गया है --हे माधव ,हे मधुसूदन मैं तुमहेनशॉप देता हूँ --
कृष्ण को मालूम था उत्तंक मुनि सच्चे और समर्पित तपस्वी हैं यदि इन्होने मुझे शाप दिया तो इनकी सारी तपस्या व्यर्थ हो जायेगी सो किसी तरह मुनि को अपनी पूरी बात सुनने को मनाया ,उन्हें कहा मैं नहीं चाहता आप बिना मेरी पूरी बात पे मनन किये क्षणिक आवेश में कोई निर्णय न लें ,ध्यान से पूरी बात सुनें ,कौरवों को मैंने भीष्म पितामह ,विदुर सभी ने समझाया पर उनपे दुर्बुद्धि सवार थी और फिर प्रारब्ध के विधान को भी कोई नहीं टाल सकता।
बड़ी मिन्नतों के बाद ऋषि बोले ---चलो कान्हा तुम मुझे विस्तार से समझाओ --यदि मैं तुम्हारे आध्यात्मतत्व से संतुष्ट हुआ तो तुम्हें आशीष दूंगा ,अन्यथा मित्रहंता मान के शाप दूंगा।
कृष्ण ने कौरव-पांडवों के गुण अवगुण बताते हुए ,क्रोध से अपनी अंतरात्मा से दूर गए ऋषि को अपने विषय में वही सब ज्ञान दिया जो गीता में अर्जुन को दिया था --अंतर् मात्र ये था अर्जुन को अपने स्वरूप का और कृष्ण के परमात्मा होने का भान ही नहीं था एवं उत्तङ्क मुनि भारतवंशीय वीरों के विनाश की खबर सुन क्रोद्ध में क्षुब्ध हो अपने व् कृष्ण दोनों के स्वरूप से दूर चले गए --दुःख से उपजे क्रोध ने उनकी बुद्धि हर ली। कृष्ण जानते हैं ऐसे क्षणों में व्यक्ति को केवल उनके स्वरूप का ध्यान ही बचा सकता है। मुनि मानवता के प्रति समर्पित एक सच्ची आत्मा थे तो उन्हें बचाना कृष्ण को आवश्यक लगा।
यहां पे महाभारत में गीता की पुनरावृति होती है बस शब्द कुछ बदले हुए हैं ठीक वैसे ही जैसे हम एक बात को जगह-जगह दोहराते हैं तो भाव एक होते हुये भी शब्दों में अंतर् होता है।
अंत में कृष्ण ने मुनि से कहा
''मानुष्ये वर्तमाने तु कृपणं याचिता मया।
मैं अभी मनुष्य योनि में आया हूँ तो कौरवों पे अपनी ईश्वरीय शक्ति का प्रयोग न करके दीनता पूर्वक याचना करके ही कौरवों को मनाता रहा। पर वे प्रारब्धवश मोहग्रस्त थे -अपने हित की बात भी न समझ पाए।
साम दाम दण्ड भेद किसी भी तरह कौरव बस में नहीं आये।
कहने का भाव यही है कि जब प्रारब्ध में ही विनाश हो , मोहग्रस्त हो तो कोई भी सीख काम नहीं आती। ईश्वरीय शक्ति भी सच्चे व् सरल व्यक्ति को ही बचा सकती है।
तब उत्तङ्क बोले --
''अभिजानामि जगत:कर्तारं त्वां जनार्दन ''
मुझ पे कृपा करो और अपना विराट ईश्वरीय स्वरूप मुझे दिखा दो मेरी बड़ी इच्छा हो रही है आपका ईश्वर रूप देखने की -
''द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं तन्निदर्शय। ''
--तब भगवान ने उन उत्तंग ऋषि को ''ददृशे यद् धनंजय:'' जैसा अर्जुन को विराट रूप दिखाया था वैसा ही रूप दिखाया। भगवान विष्णु के उस विराट स्वरूप को देख मुनि बहुत प्रसन्न हुए ,उन्होंने अनुभव किया कि ये विशाल सृष्टि विष्णु का ही प्रपंच है ,उन्होंने विष्णु की आराधना की और संतुष्ट होके प्रभु से स्वरूप को समेटने को कहा।
अर्जुन तो प्रभु के स्वरूप को देख के दर गया था तो उसने उन्हें अपने मनुष्य रूप में आने की प्रार्थना की पर मुनि ने खुश होके विश्व के कल्याण के लिये प्रभु से मनुष्य रूप में आने की प्रार्थना की।. ....आभा। ...
क्रमश:----
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