Friday, 7 July 2017



सुख दुःख दोनों मेरे अपने ----एक अजन्मी बच्ची की माँ के मन की व्यथा -
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सुख दुःख की निशा दिवा में 
श्याम-धवल मेरा जीवन !
झूम के नाचूं  मैं  मयूर सी 
और कभी आंसू झम झम !
हंसी रूदन संग -संग यूँ ही 
छाया साथ ज्यूँ कदम - कदम 
पूर्ण कहाऊं तब ही जब 
हंसती रोती सी दिखती
कभी बादलों से ओझल चंदा 
फिर चंदा से ओझल बादल
हंसी रुदन मेरे आंचल में
मैं इनको प्रति पल जीती .
बाबुल के आंगन की चिड़िया 
नाचे गाये ,धूम मचाये 
सौरभ से भर दे अंगने को 
उषा सांझ  लाली सी बिखरे 
प्रिय  का  नेह पगा  आमन्त्रण
तारों सी जगमग चूनर पहना दी 
कुमकुम चूर्ण उड़ा  पिया ने
केसर सा जीवन महकाया 
कैसा कोमल मृदु स्पंदन !
मेरे उर में धड़क रहा यह 
मृदुल और कुछ -मेरा मन ;
नन्ही परी की है ये आहट ,
 सुनकर !
ओह! क्यूँ  कुचक्र रचाया
नन्ही कली 
''सांस न ले पावे ''
बंधक मुझको ही बनाया ?
तोड़ती हूँ मैं ये बंधन ,
आज मैं दुःख को वरूँगी 
ये सृजन अब हक है मेरा 
राह कितनी कंटकित हों 
मैं आज ---
''अभिशापों को वरूँगी ''
आज मैं विद्रोहिणी -
रो लिया जितना था रोना 
पोंछ आंसू ; धारणा की !
जन्म बिटिया अवश्य लेगी,
ताज मेरे सर का होगी ,
मेरे अंगने के हिंडोले 
राज बिटिया का चलेगा
नाचती अर खिलखिलाती 
जब वो मुझे अम्मा कहेगी 
दुःख सभी कपूर होगें 
अश्रु दुःख ज्वाला हरेंगे ||आभा ||
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-रोज के बलात्कारों ,अपहरण ,कुकर्म ,कन्याभ्रूण हत्या और पैदा हुई बालिका को कूड़े में फेंकने की असंख्यों घटनायें अब हमारा ध्यान ही आकर्षित नहीं करतीं ,अखबारों के पन्नों में ,सौ खबरें एक साथ --टीवी में --देखना जैसे हमारे लिये रोजमर्रा की आम घटना हो गयी है -
दो दिन की बच्ची को कोई फेंक गया सड़क पे ,उसी वेदना का स्वर |--पुरानी रचना उस दिन की घटना से उद्वेलित मन के उदगार। स्त्री का मान बढ़ाने को स्त्री को ही सामने आना पड़ेगा -

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