Wednesday, 18 July 2012

Shradhanjali....by abha

घोर तम निविड़ निशा ,चन्द्रहीन इक रात ,
नभ में उजले-उजले तारकगण ,और धरा पर उद्दुगन झलमल .
शांत धूमिल पर कुछ श्रांत ,खड़ी आंगन में वृक्षों की पांत -----
अलसाई सी सोच रही थी ,अंधियारे में छिपी हुई है -------------
-----------उषा एक उज्वल निर्मल सी ---------------------------
जान न पायी इस जीवन में उषा नहीं अब आने वाली ------
प्राची में सूरज ने जो कुंकुम बिखराया ,---------------------------
मेरे घर से ही था सूरज ने ,वो कुंकुम चूर्ण चुराया ----------------
अरुणोदय की वो लालिमा ,आयी करने वैभव-हीन मुझे ..

सुबह हुई क्या सुला गयी ,चिर-निद्रा में मेरे जीवन-धन को ,
ध्वस्त हुआ मंदिर मेरा ,सो गये चेतना के सब पाश .
सुबह बनी अभिशाप ,जगत की ज्वालाओं मूल ,
ईश का जो वरदान ,मैं कभी न सकती उसको भूल .
एक पहेली इस सुबह ने ,जीवन मेरा बना दिया ,
ढूंढ़ रही हूँ उस अपने को जो तिमिर गर्भ में खो गया .
ज्योति का प्रतिबिम्ब वह जीवन में फिर ना आयेगा
होगी न अब मेरी सुबह ,औ न प्रभात ही आयेगा .
हास्य का वह मधुर पर्याय ,शीतलता का वह उन्माद ,
मेरे मृग-छौनों का आलम्बन ,छोड़ गया था उनको आज .
हर-पल साथ रहते थे जो ,वो पिता ,आज कहाँ गये ?
करुण क्रन्दन और चीतकार ,पर ,शांत पिता की तरह खड़े .
अविरल विषाद इन आँखों से ,वर्षा-ऋतू बन बहता जाता ,
पर दग्ध हृदय से रुद्ध कंठ से माँ को सब समझाते हैं ,
पिता हमारे साथ खड़े हैं बस ,अब मन के भीतर चले गये ,
प्रतिनिधि बनकर वे पिता के,  मेरा आलम्बन बन जाते हैं .
आलोक रश्मि से बुनी उषा-अंचल ने ही, मेरा आंचल छीन लिया .
प्राची के फैले मधुर राग ने ही ,मुझे विराग किया
अब प्रभात की शीतल वायु ,आतप बन मुझे जलाती है ,
पर बच्चों की स्नेह दृष्टि उस पर जल बरसाती है .
निशब्द मौन विजन उषा ,हर रोज जगाने आती है ,
स्नेहसिक्त जिजीविषा पिताकी ,भी वह साथ ही लेकर आती है .
माँ बनाया प्रकृती ने ,पिता मुझे तुम बना गये ,
स्नेह सिक्त हो सींचू सब को ,वो पथ मुझको दिखा गये .----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------श्रधान्जली   अजय को ------------------------आभा ------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------


Tuesday, 17 July 2012

Shradhanjali....

आराधन को प्रिय तेरे !-------
हृदय शूल के अक्षत लायी हूँ .
भावों के चंदन से महका कर !-----
मैं तुझे सजाने आयी हूँ .--------

साँसों की डोरी के अगरु जला ,---
सुरभित साँसों से महका कर ,----
दीप जला कर स्नेह सुधा का ,----
अश्रु जल का तेल डाला .----------
अभिषेक तेरा अश्रु जल-कण से ही करने आयी हूँ .
प्रिय तेरे आराधन को मैं हृदय शूल के अक्षत लायी हूँ .
रंग बिरंगे ,हंसते रोते ,
कुछ काँटों और कुछ पराग से ,
चुन-चुन कर स्वप्न सुमन ,
मैं ,भावों की क्यारी से लायी हूँ ,
दो नयन  पुजारी तेरे हैं ,
,देह पुजारन है तेरी ,-----------
उस पैर करुना का शंख बजा ,
आरत हरण को आई हूँ .-----------------------------------
जिन क्षणों में चले गये तुम ,
वे क्षण ही जीवन धन हैं मेरे ,
सुमधुर यादों की माला ही ,
अर्चन वंदन को लायी हूँ .
प्रिय तेरे आराधन को में हृदय शूल के  अक्षत लायी हूँ .
भावों के चन्दन से महकाकर मै तुझे सजाने आयी हूँ .----------------

सब के लिए अमावस की रात काली होती है ,मेरे लिये अमावस की सुबह काली है जो अजय को मुझ से छीन ले गयी 
मेरी और बच्चों की श्रधान्जली अजय को.--------------------------आभा ------------


जिन 

Sunday, 15 July 2012

जीवन के चढ़ाव व् उतार में नारी का अन्तर्द्वन्द ----------

            है शून्य सा पसरा हुआ ,ज्यों थम गयी हो जिन्दगी .
आहट है ये तूफान की ,या थम गया तूफ़ान है .
चाह है ना ही कोई ,आह ,सोच ना ख्याल है ,
बाहर से दिखती शून्यता ,पर भीतर कहीं भूचाल है .
मन क्लांत है पर शांत है ,यह क्या विरोधाभास है ?
भावों कि आंधियो पे ये कैसा ?धूल का अम्बार है .
भीतर हैं अंधड़ चल रहे ,बाहर से मैं निश्चल सी हूँ ,
मन में भयंकर आंधियां ,खुद की समझ बेहाल है .
गुजर गया जीवन यूँ ही ,कब आया ?कब चला गया ?
मैं रास्ते सी देखती जाते उसे ही रह गयी .
जीवन मैं थी जो ऊर्जा, वो बाँट दी सब में मैने ,
ना ,सोच वर्तमान की ,ना चिंता भविष्य की ही करी .
था क्या पता आयेगा इक दिन ----------शिथिल तू हो जायेगी ,सा
औ फिर समझने को तुझे ,कोई नहीं रह जायेगा .
सोच सबकी है स्वयम की औ अपनि हैं परेशानियां
जो समझे व्यथा तेरी ,वो है यहाँ कोई नहीं .
दूर कर तू आज भी दुशवारिया परिवार की .
है तू धरती ,है तू सीता ,राधा भि तू रुक्मणि भी है ,
तू कर सदा तप सती सा तू ही ???तो जगत जननी है .
-----------क्या धरती केवल जड़ है ?
--------सीता केवल अर्धांगिनी है ?
राधा औ रुक्मणी बस संगिनी कान्हा की हैं ?
नारी नहीं बस माँ ,बहन औ संगिनी का नाम है ,
नारी तो वो है ,टिका जिस से की ये संसार है .
पर आज कैसे शांत मन की आँधियों को मैं करूँ ?
इक शून्य सा जाता पसर है ,क्लांत हो जाता है मन .
थक चुकी शायद मैं हूँ ,पर हौसला बाकी अभी .
पति ,बच्चे ,समाज सबके लिये जीती रही ,
नारी के  भी हैं शिकवे गिले ,है यहाँ समझे कोई
चाहा यदि रोना कभी ,गम अपना लिये हाजिर कोई ,
गम मेरे ,खुशियाँ मेरी ,मोहताज हैं घर की मेरे ,
खुद रीती होकर भी मैं ,सारे घर का ताज हूँ --------------
सारे घर का ताज हूँ ----------------------------------
-----------------------------------------------------------
-----------आभा ----------------------


Thursday, 12 July 2012

prarthna

सावन में शंकर भोले बाबा से मेरी विनती -----------

प्रभु हाथ मेरा पकड़ो ,-------छूटे ये फिर कभी ना .
दर पे तेरे हूँ आई ,-----वरदान दो दरश का .
जन्मों की मैं हूँ प्यासी तव चरणों की लगन है ,
बस दिल ही इक मैं लायी ,खाली है झोली मेरी .
शिकवा है ना शिकायत ना मुझको कोई गिला है ,
हुआ धन्य मेरा जीवन, तेरा प्यार जो मिला है .
जो भी मुझे मिला है तेरे दर से ही मिला है .
बनकर के दीप पथ का ,जग को मैं दूँ उजाला ,
औरों के अश्क पोंछूं छ्लकू ज्यों रस का प्याला .
तेरी कृपा हो शंकर ,विष-पान भी करूँ मैं 
जीवन दिया है तुने तुझ पे ही वार दूँ मैं .

--------------------आभा ---------------------शिवोहम -शिवोहम -2-3-4-5

sard jajbat

मानव  को परिवार और समाज में रहते हुए रिश्तों को जीते हुए कई बार कडवी सच्चाइयों से रु- बरु होना पड़ता है .परिवार में समरसता बनाये रखना आसन नही होता है मन में उठते हुए विद्रोहको ठंडा पानी डाल कर जमा कर बर्फ बना देना होता है
यही जीवन है इन्ही भावों को उधृत करती एक रचना ----------------

मानव मन के झंझावत को ,
मन में उमड़े तूफानों को ,
बांध  तोड़ कर बहना चाहे ,
सरिता की उद्दात लहर को ,
किसने समझा ,किसने जाना .

पर्वत शिखरों पर पड़ी बर्फ ,
पिघल-पिघल कर --
जल धरा बन कर  ,सबको जीवन दे जाये गी ,
मेरे मन की बर्फ पिघल कर क्या ,
मुझको जीवन दे पायेगी ?


शिखरों पर पड़ी बर्फ एक सर्द नदी बन जायेगी ,
पर मेरे मन की बर्फ पिघल कर ,
लावे सी बह जायेगी .-------------------------
इस बर्फ की अग्नि में -------!!!
कितने जीवन जल जायंगे .?
एक जरा सी हलचल से ,
भूकंप हजारों आयेंगे .

मन में उमड़े तूफानों को ,
यादों के इस झंझावत को ,
सर्द बर्फ से ढक लूं मैं ,
ना ही छेडू ना ही कुरेदूं ,
बस  अंतरमन में रख लूँ मैं .
--------------------------------
इस जीवन संघर्ष को पर्व मान कर जीलूं मैं
बर्फ बहे ना लावा बनकर
हिमालय सी बन जाऊं मैं
अंतर्मन के तूफानों को
सर्द बर्फ से  ढक दूँ मैं

Tuesday, 3 July 2012

sahaj hamaen hona hi hoga

  1.                                                                                       सब मिथ्या है ,निरुदेश्य है प्रकृति यदि ,
  2.                                                                                        हम क्यूँ चलें उदेश्य लेकर ?------------
  3. सुना है जीवन का इक ध्येय होना चाहिये ?
  4. ध्येय यदि छोड़ सको यही बड़ा उदेश्य यहाँ .
  5. प्रकृति जैसे बन जायें --तो ही जीवन सच्चा जीवन .
  6. मनुज अप्राकृतिक हो गया है ,प्रकृति से टूटा नाता है .
  7. निज स्वारथ में अँधा होकर ,सब कुछ पकड़े बैठा है ,
  8. सब छोडने काही  ध्येय हमें बनाना होगा  ------------
  9. -------------सोचो ------------------------------------
  10. फूल खिला अपनी रौ में ,नहीं किसी के लिये खिला
  11. राही ले सुगंध उसकी फूल की ऐसी चाह नही .
  12. सुन्दरता का मिले मैडल ,पूजा की माला में गुंथा जाये ,
  13. सजे सेज पर कहीं किसी की ,या बालों की शोभा हो जाये ,
  14. नही ध्येय खिलने का यह की बाजारों में बेचा जाये ,
  15. फूल खिला ,निरुदेश्य खिला ,चाह नही अभिलाष नहीं ,
  16. गर फूल खिले किसी प्रिय के कारण --प्रिय न आये -?
  17. फूल बंद ही रहना चाहे ,फिर वह प्रिय आये तो??
  18. बंद रहने की आदत मजबूत हुई तो !---------------
  19. फूल नही फिर खिल पायेगा !---फूल सहज है ,
  20. ध्येय हीन है ,चाह नही अभिलाष नही है ,
  21. तब ही पूरा खिल सकता है ,
  22. पैरों में चुभ गया जो कांटा ,कांटे से ही निकलेगा ,
  23. पर फिर दोनों काँटों को फेंक कहीं पर देना होगा .
  24. सोचो यदि दूसरे कांटे को रखदें वहाँ जहाँ पहला था
  25. बोलें हम ,धन्य हो तुम ,मुक्ति मुझे पीड़ा से दी तुमने ,
  26. अनर्थ बड़ा तब हो जायेगा ,दोनों को ही तजना होगा ,सहज
  27. सहज गर हम हो जायें तो सहज को भी तजना होगा ,
  28. भाव सहज होने का भी अटकन पैदा कर  सकता है ,
  29. प्रकृति जैसा यदि होना है तो ध्येय विहीन होना ही होगा
  30. गीता का भी ज्ञान यही है ,निरुदेश्य हो कर्म करें हम
  31. ध्येय विहीन ,अर कर्म प्रधान जीवन हो अपना ,
  32. अपने को पहचान गये यदि ,खिलना शुरू हो जायेगा
  33. खुशबू फैलेगी ,
  34.                प्रज्ञां बाहर आयेगी
  35.                 सारी विभूतियाँ अंतरतम की
  36.                  एक -एक कर खिल जायेंगी
  37.                   खुद भी महकोगे तुम फिर दुनिया को भी महकाओगे

Monday, 2 July 2012

Shradhanjali....by abha

मेरे नयनो के आंसू ही आज मेरा श्रृंगार बने
मेरे स्वप्नों मेंआ - आकर ,रंगों के बादल से छा कर ,
तुम देते हो विस्तार मुझे .----------------------------
मेरे स्वप्नों में आ -आकर ,स्वप्नों के इन्द्र-धनुष बनकर ,
तुम देते हो आकार मुझे .-----------------------------------
हर स्वप्न तुम्हारी सीखों का, इक छंद दिखाई देता है ,
हर साँस तुम्हारी यादों का विस्तार दिखाई देती है ,
इन पलकों को मूंद -मूंद ,ढुलका कर आंसू बूंद -बूंद ,
देता है समय सवांर मुझे .-----------------------------------
मेरे नयनो के आंसू ही आज मेरा श्रृंगार बने .

                  ------------आभा ------------------------------