जीवन के चढ़ाव व् उतार में नारी का अन्तर्द्वन्द ----------
है शून्य सा पसरा हुआ ,ज्यों थम गयी हो जिन्दगी .
आहट है ये तूफान की ,या थम गया तूफ़ान है .
चाह है ना ही कोई ,आह ,सोच ना ख्याल है ,
बाहर से दिखती शून्यता ,पर भीतर कहीं भूचाल है .
मन क्लांत है पर शांत है ,यह क्या विरोधाभास है ?
भावों कि आंधियो पे ये कैसा ?धूल का अम्बार है .
भीतर हैं अंधड़ चल रहे ,बाहर से मैं निश्चल सी हूँ ,
मन में भयंकर आंधियां ,खुद की समझ बेहाल है .
गुजर गया जीवन यूँ ही ,कब आया ?कब चला गया ?
मैं रास्ते सी देखती जाते उसे ही रह गयी .
जीवन मैं थी जो ऊर्जा, वो बाँट दी सब में मैने ,
ना ,सोच वर्तमान की ,ना चिंता भविष्य की ही करी .
था क्या पता आयेगा इक दिन ----------शिथिल तू हो जायेगी ,सा
औ फिर समझने को तुझे ,कोई नहीं रह जायेगा .
सोच सबकी है स्वयम की औ अपनि हैं परेशानियां
जो समझे व्यथा तेरी ,वो है यहाँ कोई नहीं .
दूर कर तू आज भी दुशवारिया परिवार की .
है तू धरती ,है तू सीता ,राधा भि तू रुक्मणि भी है ,
तू कर सदा तप सती सा तू ही ???तो जगत जननी है .
-----------क्या धरती केवल जड़ है ?
--------सीता केवल अर्धांगिनी है ?
राधा औ रुक्मणी बस संगिनी कान्हा की हैं ?
नारी नहीं बस माँ ,बहन औ संगिनी का नाम है ,
नारी तो वो है ,टिका जिस से की ये संसार है .
पर आज कैसे शांत मन की आँधियों को मैं करूँ ?
इक शून्य सा जाता पसर है ,क्लांत हो जाता है मन .
थक चुकी शायद मैं हूँ ,पर हौसला बाकी अभी .
पति ,बच्चे ,समाज सबके लिये जीती रही ,
नारी के भी हैं शिकवे गिले ,है यहाँ समझे कोई
चाहा यदि रोना कभी ,गम अपना लिये हाजिर कोई ,
गम मेरे ,खुशियाँ मेरी ,मोहताज हैं घर की मेरे ,
खुद रीती होकर भी मैं ,सारे घर का ताज हूँ --------------
सारे घर का ताज हूँ ----------------------------------
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-----------आभा ----------------------
है शून्य सा पसरा हुआ ,ज्यों थम गयी हो जिन्दगी .
आहट है ये तूफान की ,या थम गया तूफ़ान है .
चाह है ना ही कोई ,आह ,सोच ना ख्याल है ,
बाहर से दिखती शून्यता ,पर भीतर कहीं भूचाल है .
मन क्लांत है पर शांत है ,यह क्या विरोधाभास है ?
भावों कि आंधियो पे ये कैसा ?धूल का अम्बार है .
भीतर हैं अंधड़ चल रहे ,बाहर से मैं निश्चल सी हूँ ,
मन में भयंकर आंधियां ,खुद की समझ बेहाल है .
गुजर गया जीवन यूँ ही ,कब आया ?कब चला गया ?
मैं रास्ते सी देखती जाते उसे ही रह गयी .
जीवन मैं थी जो ऊर्जा, वो बाँट दी सब में मैने ,
ना ,सोच वर्तमान की ,ना चिंता भविष्य की ही करी .
था क्या पता आयेगा इक दिन ----------शिथिल तू हो जायेगी ,सा
औ फिर समझने को तुझे ,कोई नहीं रह जायेगा .
सोच सबकी है स्वयम की औ अपनि हैं परेशानियां
जो समझे व्यथा तेरी ,वो है यहाँ कोई नहीं .
दूर कर तू आज भी दुशवारिया परिवार की .
है तू धरती ,है तू सीता ,राधा भि तू रुक्मणि भी है ,
तू कर सदा तप सती सा तू ही ???तो जगत जननी है .
-----------क्या धरती केवल जड़ है ?
--------सीता केवल अर्धांगिनी है ?
राधा औ रुक्मणी बस संगिनी कान्हा की हैं ?
नारी नहीं बस माँ ,बहन औ संगिनी का नाम है ,
नारी तो वो है ,टिका जिस से की ये संसार है .
पर आज कैसे शांत मन की आँधियों को मैं करूँ ?
इक शून्य सा जाता पसर है ,क्लांत हो जाता है मन .
थक चुकी शायद मैं हूँ ,पर हौसला बाकी अभी .
पति ,बच्चे ,समाज सबके लिये जीती रही ,
नारी के भी हैं शिकवे गिले ,है यहाँ समझे कोई
चाहा यदि रोना कभी ,गम अपना लिये हाजिर कोई ,
गम मेरे ,खुशियाँ मेरी ,मोहताज हैं घर की मेरे ,
खुद रीती होकर भी मैं ,सारे घर का ताज हूँ --------------
सारे घर का ताज हूँ ----------------------------------
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