Tuesday, 30 July 2013

                                                                   '' मिटने का सुख  ''
                                                                  *****************
 बसंत  ! प्रकृति की चेतना  का आभास ,
  वृक्षों ने पहने कोंपल के गहने .
 चेतन  के स्पर्श का ,करने अभिनन्दन .
 चलना होगा --  बागीचे में  ,
  वृक्ष से अविरत--
  झरते  पत्तों की सेज पे .
  चर-मर ,चर-मर ,चररमरर --------
   उछल रहे हैं  नन्हे बच्चे --
   लय बनी इस चररमरर पे 
     पुलकित ,मन से --
   बना रहे कुछ मीठे सपने ,
   औ  मैं बैठी सोच रही हूँ --
  पत्तों की इक  पूरी पीढ़ी ने ,
  किया निछावर अपने को ,
   नव सृजन ,नव  कोपलों हेतु .
   एक हरा वृक्ष फिर से सूखा ,
   बसंत में नया होकर ,निखरने को .
    पीताम्बर ओढ़े ,अमलतास के वृक्षों की पांत ,
    रोज नए पुष्प- गुच्छ की लटकती झालरें ,
    प्रकृति के श्रृंगार को ,  ईश्वर का उपहार ---
    पर सुगन्धित बयार के लिए ,
    असंख्यों सुमन ,पल पल मिटते है ,
    ब्रह्म-मुहूर्त में ही -छोड़ देते है डाली ,
     नयी कलियों के चटखने की खुशी में .
     एक पीढ़ी को मिटना होता है ,
     नई को पुष्पित ,सुरभित करने को .
     आज एक नया गुलाब खिला ,
      गर्व से शीश उठाये ,
       अपने सौन्दर्य  औ मादकता पर इठलाता हुआ .
      उसे क्या पता ----------
      अभी -अभी जो बड़ा सा ,सुंदर गुलाब मुरझाया है ---
     उसके  मादक पराग की सुगंध ने ही ,
     इस कली  को चटकाया है।
      देखते है हम,  माता -पिता  को ,अपने साथ ही ,
       युवा  से बुजुर्ग होते हुए .
        अपना स्व निछावर कर ,पीढ़ी को पोषित करते हुए .
       डूबता सूरज तो प्रतीक्षा है ,
       झरने नदी में ,नदी सागर में .
       एक का अस्तित्व मिटा --
       दूसरा पूर्ण हुआ ...
       पूर्णता या शून्यता , दोनों के एक ही माने ,
      अस्तित्व का तिरोहित हो जाना .....
      एक सुखद मौन ...आगत के स्वागत की राह बनाता ...
      खो जाना ,मिट जाना ..ऊर्जामय हो जाना ,
      नयी पीढी के सृजन हेतु ,
      अग्नि में जलके --माटी  में मिल जाना .
     नए पुराने का वर्तुल ...
      एक  सत्य ,शाश्वत सत्य ...
        जो मिट जाता है वही बचता है ...........आभा ......

Wednesday, 24 July 2013

एक बच्ची जो संवेदनशील है परिवार के लिए             **************************************          अक्सर यदि १२ -१८ घंटों की यात्रा पे निकलें तो रोज -मर्रा की दवाईयाँभूलना ,स्त्रियों की आदत में शुमार होता है ,,तो दिल्ली से रूड़की,देहरादून तक के सफ़र में [सुबह४ बजे चलके रात्रि को १ ,११/२ बजे लौट -पौट],उस दिन मेरे साथ भी यही हुआ ,सफर लंबा थकानेवाला ,गंतव्यपे चलना- फिरना ,तबियत थोड़े दिनों से नासाज थी ,,तो दवाई रात को पहुँच के ले लूंगी येतर्क बेटे के साथ नहीं चला  ………। ,{बच्चों के साथ बोलती बंद -यूँ ही टालती होंगी दवाइयों को रोज ,,पिता के जाने के बाद बच्चे माँ की सेहत के लिए कुछ अधिक ही चिंतित रहते हैं } …………। एक चौबीस घंटे खुलने वाली दवाई की दुकान के आगे कारपार्क कर बेटा दवाई लेने चला गया और मैं बाहर निकल के खड़ी हो गयी. । पास में ही मंदिर था और मुहं अँधेरे ही श्रधालुओं की आवाजाही शुरू हो गयी थी ।कुछ फूल और प्रसाद वाले और एक चाय की रेहड़ी …।  अच्छालग रहा था श्रद्धासे लोगों को शीश नवाते देखना । मानो श्रद्धा की बयार ही बह रही थी … मैं भी उस बयार में बहने लगी और सोचा चलो मैं भी दर्शन कर आऊँ । तभी मेरा आंचल पीछे से किसी ने खींचा और आवाज आयी -----------माँ भूख लगी ------------। पीछे मुड़के देखा ,एक छोटी बच्ची करीब ५ -७ वर्ष की ,,मेरी निगाहें उस पे पडीं ,कितनी करुणाथी उसकी आँखों में कि भीख  न देने के कानून का पालन करने वाली मैं ,,,सहम गयी …ये तो बच्चों के सोने का समय है और इस छोटे से बच्चे को खाने का जुगाड़ करने के लिए उठ जाना पड़ा ,या ये भूख से रात भर सोई ही नहीं ,,मुझे अपने ऊपर  क्रोध भी आया ,,कार लॉक्ड थी … मैं जैसे अपने आप से ही बोली ,''बेटा रुको अभी भैया आता है तो देती हूँ '' …. देखा बच्ची के हाथ में एक बताशा है ,,मैंने कहा ये बताशा खालो बेटा,,,,उसने भी जैसे मेरी बात को मानते हुए एक छोटा सा टुकडा तोड़ के खा लिया । इतने में बेटा आ गया ,और मैंने उस बच्ची को कुछ रूपये दे दिये।साथ में ये कहना भी नहीं भूली की उस चाय वाले से कुछ ले के खा लो  वो उछलती हुई  फुट -पाथमें चली गयी …शायद माके पास ,,दिन हीन सी औरत !जिसके पास दो बच्चे और बिलख रहे थे  मैं थोड़ी देरऔर वहां पे रुकी देखने को की वो पैसों का क्या करती है ,ये भिखारियों का कोई रैकेट तो नहीं है ,,कहीं मैं बेवकूफ तो नहीं बन गयी [खाया- पिया मन शंकालूभी हो जाता है ]………. पर वो बच्ची अपनी माँ के पास गयी उसे पैसे दिए,, जिन्हें लेकर खुशी -२ वो औरत रेहड़ी वाले के पास चली गयी बच्चों के खाने का इंतजाम करने ,,वो तो माँ है खुश होगी ही पर जो मैंने देखा उससे मेरा दिल भर आया ,मन जार जार रोने लगा ,,मैंने देखा कि, उस छोटी सी बच्ची के हाथ में जो बताशा था वो उसने दोनों भाइयों को खिलाया और ताली बजाते हुए उनके आंसू पोंछने लगी ,,हर्ष और विषाद दोनों मेरे मन को उद्द्वेलित कर  गए ,,करुणासे आँखें भर- भर आ रही थी ,,ये है मेरे स्वतंत्र देश के मासूमों का वर्तमान ,,और भविष्य …. माँ ने बचपन में सातभाइयों के एक तिल को बाँट के खाने की कहानी सुनाते हुए समझाया था किपरस्पर प्यार से सुख ,समृद्धि और शांति आती है घर में ,,, पर ये सब शायद भूत -काल की बातें हो गयी हैं …। आज तो जो धूर्त है ,लंपट है, लुटेरा है ,छीन के खाने की कला में निपुण है वही संपन्नऔर बड़ा है ,,,क्या ये बच्चे इस देश के नागरिक नहीं हैं ,,,इन्हें तो फ़ूड सिक्योरिटी बिल का भी फायदा नही मिलेगा …ये यदि बड़े होकर चोर उच्चके बनें तो इसमें इन का क्या दोष ,,''बिभुक्षितं किम न करोति पापम'' …।बचपन से इतनी असमान्यताएं झेलने पे समाज के प्रति विद्रोह तो पनपेगा ही इनके मन में ……  . अब मैं चौराहे पे या लाल -बत्ती पे भीख मांगते बच्चों की तरफ नहीं देखती हूँ …. कहीं मैं बहक न जाऊं।।।।बस कतरा के मुहं फेर लेती हूँ …। शायद यही हमारा व्यक्तित्व हो गया है …… कतरा के निकल जाना और अपने मन को सांत्वना देना की जब दिल्ली में इतने सारे एन ज़ी ओ और दो -२ सरकारें भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं तो मैं ही क्या कर लूंगी।।।।बस थोड़ा बहुत जो हम बूंद भर इन बच्चों के लिए करदेते हैं क्या ये काफी है ,,,आज निराला की कविता याद आ रही है ………………. वहआता दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता  …. पेट पीठ दोनों मिल कर हैं एक … ………। चाट रहे हैं जूठी पत्तल कभी सड़क पे पड़े हुए ………. और झपट लेने को उनको कुत्ते भी हैं खड़े हुए … राह ढूंढ़रही हूँ कुछ कर पाऊ ,,ताकि कतरा के न निकलना पड़े ………………………………। आभा …………………………






Monday, 22 July 2013

{   गुरु पूर्णिमा -----गुरु शिष्य परम्परा को विस्तार देने का पर्व  }
                                                      **************************************************************
  कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव: पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेता:। 
  यच्छ्रेय:स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेअहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम ।।
  अर्जुन की श्री कृष्ण से विनय ----शाधि मां त्वां प्रपन्नम .......गुरु तो शिक्षा देंगे ही ....मार्ग भी दिखायेंगे ...पूरा प्रकाश देंगे -----पर  मार्ग पर चलना तो शिष्य को ही पड़ेगा --------अपना कल्याण तो शिष्य को अपने आप ही करना पड़ेगा ...लेकिन शिष्य अपने कल्याण की जिम्मेवारी अपने ऊपर  क्यूँ उठाये ....क्यूँ न गुरु पर ही छोड़ दे ...जैसे जिस काल में बच्चा माँ के दूध पे निर्भर होता है ,और बीमार पड़ जाता है तो औषध माँ को ही खानी पड़ती है .....यही अर्जुन की अभिलाषा है ...........वो पूरी तरह से कृष्ण पे समर्पित  शरणागत शिष्य बनना चाहता है ............बस यही थी होश आने पे मेरी प्रथम दीक्षा जो मेरी माँ  ने मुझे दी.......................................
               मेरे लिए मेरे प्रथम गुरु पूजनीय  माता -पिता ही हैं । शायद सबके लिए ही होते हैं । मेरा नमन श्री चरणों में। .... जीवन में'' ॐ नम:सिद्धम'' के बाद जब बाहरी परिवेश में कदम रखा तब से आज तक कई गुरु मिले ..कुछ सच्चे समर्पित जिन्होंने जीवन को संवारा और मुझे, मैं ,बनाया ,,आज उन सभी गुरुओं की चरण वंदना करते हुए मैं उन्हें नमन करती हूँ ,,और कुछ गुरु घंटाल जिनसे जीवन रूपी समुद्र में तैरने की कई कलाओं के विषय में मालूम हुआ ..उनकी भी वन्दना क्यूँकि  सिक्के के दूसरे पहलू से परिचय करवाने में उनका बहुत हाथ रहा ......................मेरे श्रद्धेय श्वशुर मेरे जीवन में माँ-पिताजी के बाद अहम गुरु रहे  .....उनके व्यवहारिक ज्ञान, हर कार्य को लिखना ,बजट से चलना .सिस्टेमेटिक रहना इन बातों  से जीवन में बहुत परिवर्तन आया। मेरा नमन श्री चरणों में। .......और हमारे आध्यात्मिक गुरुदेव ..जो मिल तो बहुत बचपन में ही गए थे पर दीक्षा कुछ वर्षों पहले ही ली ......जिन्होंने गुरु मन्त्र दिया ,,वो भी पूरे परिवार को नैया पे  बिठा के पतवार अपने हाथों सेखेतेहुए ................. 
     .डारि डोर हरी  हाथ में ,भावी भूत बिसारी ..
      अब कृपालु गुरु [प्रभु ] गोद में सोवत पाँव पसारि ....जैसे छोटा बच्चा माँ पे निर्भर होता है वैसे ही अपने को प्रभु पे छोड़ दो और सद्कर्म करो .................वो तुम्हें स्वयम देखेंगे ..........
  पर गुरु ,.परमात्मा, माता -पिता ,,सब हमारे साथ हैं ,पर अपने हिस्से का कर्म तो हमको करना ही होगा ........आज तक किसी को भी किसी दूसरे की वजह से सुख या आनन्द की प्राप्ति नहीं हुई है। सदियों का इतिहास इस बात का सबूत हैकि तुम्हारे अतिरिक्त कोई भी दूसरा तुम्हें आनन्द नहीं दे सकेगा । .........
        देश दिशांतर में फिरूं ,मानुस बड़ा सुकाल ।
        जा देखे सुख ऊपजे ,बाका पड़ा अकाल।।
आज समाज में गुरू को लेकर जितनी भ्रांतियाँ हैं उतनी कभी नहीं थीं ....गुरू के मायने ही बदल गए हैं लगता है ....आश्रमों और मठों में लोग गुरु ढूंढ़ रहे हैं ऋषिकेश ,हरिद्वार में इतनी भीड़ ,इतना चढ़ावा गुरू को रिझाने की कोशिश  बस आशीर्वाद मिल जाए।पहले से ही खाए- पिये -अघाये गुरुओं के पैरों का चंदन पुष्प प्रक्षालन कर चरणामृत पान ......मानती हूँ गुरु पूजा हमारी संस्कृति है ...सनातन धर्म की पहचान है .......पर हर जगह अंध -दौड़  ,स्वार्थ,  भौतिकता ,......इधर गुरू पूजा समाप्त हुई और आश्रम से निकलते ही BOOZING & chicken  ..... हरिद्वार ऋषिकेश में गंदगी देखते ही बनती है ......अध्यात्मिक गुरु बनाइये ,अर्घ्य और द्रव्य भी समर्पित कीजिये पर गुरु की सीख को मान के आत्म चिन्तन भी करिए ...आसपास स्वच्छता रखिये और गुरु पूर्णिमा को आनन्ददायक और सार्थक बनाइये ......पर करें भी क्या आजकल गुरु होना स्टेट्स  सिम्बल हो गया है ...और गुरुघंटालों का बाजार लगा हुआ है ..........जानिता बुझा नहीं ,बूझा किया नहीं गौन। .............
............................................................अंधे को अंधा मिला रा ह बतावे कौन।। ..............
गुरू की ,परमात्म की ,आनन्द की इतनी चर्चाएँ हैं ,पर लगता है की सब बातें ही बातें हैं .....परमात्मा हमें कहीं दिखाई नहीं देता। ......हम भाग रहे हैं ,खोज रहे हैं पर आँख में तिनका पड़ने से जैसे सामने का पहाड़ नहीं दिखाई देता ऐसे ही हमारी आत्मा पे पड़े छोटे -छोटे तिनके हमें अपने अंदर के परमात्मा को  देखने नहीं देते ..सदगुरु हमारे भीतर ही हैं। निश्चित रूप से हमें अपने अंत:चक्षुओं पे पड़े इन तिनकों को हटाना होगा ......गुरु की वाणी को जीवन में उतारना होगा .....अपने अंदर पड़े निष्क्रिय केंद्र को जगाना होगा ...जिसे कभी राम ने, कभी कृष्ण ने , कभी बुद्ध और महावीर ने जगाया ...तब ही गुरु पूर्णिमा सार्थक होगी .....चटखेंगी कलियाँ ,खिलेंगे पुष्प और बिखरेगी सुगंध .............और अंत में तुलसी का महा मन्त्र ...........................
..............श्रीगुर पद  नख मनिगन ज्योति ,सुमिरत दिव्य दृष्टि हियँ होती।
..............दलन मोह तम  सो सप्रकासू ,बड़े भाग उर आवही जासू।। ................गुरु पूर्णिमा आपसभी मित्रों के लिए और देश के लिए सुख समृद्धि और संतोष दायक हो .............आभा ..............

      


Wednesday, 17 July 2013

  '' नवीन संस्कारित संस्कृती ''
                          ********************************
आज विश्व में शोध ,प्रगति ,सुधार अपने चरम पे हैं । कानून में सुधार फिर भी अराजकता .....,शिक्षा में सुधार पर लाखो अशिक्षित ,और जो शिक्षित हैं वो विभिन्न भ्रांतियों और संघर्षों में जकड़े हुए अपने से दूर जाते हुऐ .........खाद्य सुरक्षा ,नयी तकनीक ,नए बीज,खाद नई नस्लों के जानवर   पर फिर भी चारों और विश्व में लोग भर पेट भोजन नहीं खा रहे हैं ,भुखमरी है ,करोड़ों के पास तन ढकने को कपड़ा और सर छुपाने को छत नहीं है। आज वैश्विक स्तर पे जो सबसे बड़ी समस्या है वो है ...... ''सुधार की  ''................जो अपने साथ लाती है कई सारी  भ्रांतियां,संघर्ष .बंधन .प्रतिबन्ध और इन सबको दूर करने को फिर और अधिक कानून ,पीड़ा और  भ्रान्ति । इन समस्याओं से हम सभी को दो चार होना पड़ता है और विशेषकर उन उन युवाओं को सामना करना पड़ता है जो शीघ्र शिक्षा समाप्त कर विश्व में प्रवेश करने वाले है । यद्यपि सुधार आवश्यक हैं आगे बढ़ने के लिये ------व्यक्तिगत भी , सामाजिक ,कानूनी और ढांचागत भी पर एक ............. बुनियादी प्रश्न ................है !.. इन सुधारों से जो नई अराजकता जन्म लेती है उसका क्या हो ?इस विषैले चक्र का उच्छेदन कैसे हो ?इस प्रश्न का सम्बन्ध प्रत्येक विचार-शील व्यक्ति से है ...क्या कोई ऐसा सुधार संभव है जो अपने आप में पूर्ण हो ,जो भ्रांतियां ,संघर्ष और अराजकता न लाये ?जैसे -जैसे भौतिक सुख संसाधनों में वृद्धि होती जा रही है और यह सुधार का विषैला क्रम आगे बढ़ रहा है जल, जमीन ,जंगल ,मानवता सब इस  के विषैले कारागृह में जकड़ते जा रहे हैं ....इस दुश्चक्र को खंडित करने में कौन सी शिक्षा और कौनसा मार्ग सहायक हो सकता है कि  सुधार भी हो पर पूर्ण हो ,उसके साथ आने वाली भ्रांतियां और पीडाएं नदारद हों ......हाँ है! जीवन जीने का एक ऐसा मार्ग .........धार्मिक मार्ग ........एक सच्चे व्यक्ती का मार्ग ,जो धार्मिक है ,जिसका सुधार से कोई प्रयोजन नहीं है ......वह तो सत्य को खोज रहा है ,ऐसा सत्य जो समाज को स्वत:ही रूपांतरित कर देता है ........अतएव हमारी शिक्षा का बुनियादी लक्ष्य होना चाहिए विद्यार्थी को सत्य के और परमात्मा की खोज में सहायता करना .................न की समाज के बंधे बंधाये ढांचे में रहने के लिए तैयार करना .........धर्म वो नहीं जो मंदिरों ,मस्जिदों या गुरुद्वारों में मिलता है ,धर्म का सम्बन्ध न पुजारियों से है और न गिरिजाघरों ,मान्यताओं और संगठित विश्वासों से है .........ये सब किसी भी रूप में धार्मिक नहीं हैं , ये तो हमें विचारों और कर्मकांडों के घेरे में बाँध के रखने के लिए सुविधाएं मात्र हैं ..........ये हमारे भोलेपन ,भय और आशा का शोषण करने के तरीके हैं ..........धर्म का अर्थ है सत्य की ओर  प्रवृति ....परमात्मा की खोज ....... जिसके लिए ,आत्यन्तिक सामर्थ्य ,तीक्ष्ण बुद्धि ,विशाल चिन्तन ,और यम नियम की आवश्यकता है ,और ये अत्यंत आवश्यक है कि हम बचपन से ही ये सीख लें ताकि बड़े होते होते हम, छोटे -२ मनोरंजन ,दिल बहलाव के साधन ,लैंगिक वासनाएं ,क्षुद्र महत्वाकांक्षाएँ कम करते चले जाएँ .......हमारा धर्म हमें 
परमात्म की ओर  ले जाएगा और तब हम उन विकराल समस्याओं के प्रति  जिनका सामना पूरा विश्व कर रहा है अधिक सजग हो जायेंगे .......... तब स्वत:-स्फूर्त परिवर्तन घटेगा समाज में ........बचपन में जब माता -पिता बच्चे के पास होते हैं तो वो सजग होता है ,बहकता नहीं है ,सुरक्षित महसूस करता है गलत मार्ग पे चलने से डरता है ,और सबसे अधिक उन्नति करता है ,तो सोचिये यदि परमात्मा हमारे पास है ! जीवन भर ये अहसास रहे तो ..... विकास और सुधार का वो मार्ग मिलेगा जहाँ भ्रान्ति पीड़ा अनुपस्थित है .....सत्य की खोज के लिए आवश्यक है कि प्रकृति और समस्त संबंधों के प्रति अखंड प्रेम और गहरी सजगता हो ,जिससे समग्रता में आगे बढ़ा जाय ,स्वार्थ न हो ...अनंत की खोज असंख्यों के साथ ...इसी में सामाजिक सुधार निहित है ......
एक सुधारक कभी नूतन संस्कृति का निर्माण नहीं कर सकता है ...यदि ऐसा होता तो आज समाज सुधारकों से देश पटा पडा है .
कितने सारे संत ... प्रवचन ....एन जी ओ ....पर नतीजा ......वही भ्रांतियां ,पीडाएं ,संघर्ष .......केवल सत्य की खोज ही आदमी कोसृजन शील बना सकती है ...हमारे अभिवावकों ,शिक्षकों और वयस्क विद्यार्थियों को मिल के गहन अनुसन्धान करना होगा ..शिक्षा को समग्र होना ही होगा .......यदि हम अपने को केवल जीवनयापन के लिए ही तैयार करते है तो शिक्षा का लक्ष्य ही तिरोहित हो जाता है ..........जीवन बड़ा अद्भुत ,अगाध और रमणीयता लिए हुए है ........यंत्रवत जीवन हमारी सन्तति को और हमें कुंठित और रुग्ण कर रहा है .......यदि सरकारें न भी माने तो हम अपने घरों को ही सत्य और परमात्मा की खोज के मंदिर बनाले .......यही समय की पुकार है .किसी की ओर  न निहारें .अपनी मेधा को जागृत करें और संतति को सत्यान्वेषी और धार्मिक बनाए ताकि उसके मन में सतत क्रान्ति  की ज्वाला  प्रकाशमान हो ,वह भय  और चिंता से मुक्त होकर सोचे .......जीवन के इस अद्भुत सौन्दर्य ,इसकी अनंत गहराई, इसके ऐश्वर्य की धन्यता को महसूस करे इस विशाल और विस्तीर्ण जीवन के रहस्यों को समझने की चेष्टा करे ..........हम ढेरों उपाधियाँ पा लें  ,खूब पैसा-नाम कमालें पर यह सब पाने के चक्कर में कुंठित ,रुग्ण हो जाए तो क्या महत्व है इस संघर्ष और सुधार का .......हमें ऐसे शिक्षक चाहिए जो शिक्षा को कर्तव्य माने और यदि ऐसा संभव नहीं है तो हम ही अपनी संतति को सत्यान्वेषी और परमात्मा को खोजने की और बढ़ने वाला बनायें ....यही समय की मांग है ,,,,,, गर्त में गिरती .......संघर्षों और महत्वाकांक्षाओं के जंगल में घिरी मानवता को बचाने का यही एक मात्र उपाय है हम धार्मिक बनें अपने लिए ..अपने को जानने के लिए ,सत्य के लिए, सत्य को जानने के लिए और पमात्मा की खोज के लिए ............आभा ...........




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Tuesday, 9 July 2013

बचपन को बचपन लौटाना होगा ..

 **********नन्हे -नन्हे बच्चे --ऊर्जा के अजस्त्र श्रोत खेल रहे हैं पार्क में।। .गीली मिट्टी की सोंधी महक से मन -प्राण प्रफ्फुलित हो रहा है .ये बच्चे भी हमारे देश के भविष्य के लिए गीली मिट्टी की सोंधी महक ही हैं ,बैठ के अपने देश के भविष्य को देखना -----एक सुखद अनुभूति है ,आँखें सुख पाती  हैं और मन शांत और सुरभित हो जाता है .पर आज मैं मुक्त मन से सोच नहीं पा रही हूँ। प्राण चिंता मग्न है।---------- हमारी पीढ़ी ने विकास की जिस यात्रा को देखा है वो शायद ,अन्य किसी ने नहीं। ----पिताजी का स्थानान्तरण सुदूर उत्तराखंड में भटवाड़ी में जब हुआ तो १८ किलो -मीटर की पैदल यात्रा से ,घोड़ा ,बग्घी ,बैल -गाड़ी  ,और आज संसाधनों का जाल ,तख्ती -कलम दवात से लेकर की -बोर्ड ,प्रकार पेंसिल रूलर से ,कैलकुलेटर से अब लैपटॉप ,,टैबलेट और नजाने क्या -क्या ,चिट्ठी मनिऑडर से अब नेट ,विडियो कौनफ्रैन्सिंग से भी आगे की दुनिया ,नए नए सेटेलाईट और हर क्षेत्र में उच्च  वैज्ञानिक तकनीकि  । विकास, विज्ञान ,ज्ञान ,तकनीक ,पूंजीवाद ,बाजार वाद इस सबमे हमने एक चीज को खो दिया है -----वह है हमारे देश का बचपन ! आज हमारे देश की या यूँ कहें विश्व की सबसे बड़ी समस्या है यह ---खोता बचपन ------जिस ओर हम ध्यान ही नहीं दे पा रहे हैं । विश्व का आज पुराने से मोह भंग होता प्रतीत हो रहा है .........रोमांटिक कैशोर्य भी अब आह्लादित नहीं कर रहा है विश्व को ....और बुद्धिवादी प्रौढ़ता से सब ऊबने लगे हैंसब  ...विश्व शायद अब फिर से सहज उद्दाम  सहजता की ओर जाना चाहता है ...लोक -गीत ,नौटंकी ,खो -खो ,कब्बड्डी ,रामलीला ,गिट्टू ,पिट्ठू -गर्म ,कठपुतली ये सब फिर से रोमांस  पैदा कर रहे हैं ...पर क्या ये संभव है की ये शताब्दी जो एक आँख से अपलक संवेदनहीन होते संस्कारों की क्रूरता और मानवता को तिरोहित होते हुए देखे और दूसरी आँख मूंद -कर शैशत्व में खो जाए ,सहज और निर्मल हो जाये ...आज हर पीढ़ी में यह द्वैत स्वाभाव सहज रूप से व्याप्त है ....अंधी प्रतिद्वंदिता ,अर्थ -उपार्जन की ललक में अनर्थ की परिणिति बचपन से ही महत्वपूर्ण होने की ललक ,रियलिटी- शोज में बच्चों को बाजार वाद की और ढकेलना ,अशोभनीय लिबास पहनाकर टैलेंट- हंट के नाम खेलने की उम्र में  कठिन मेहनत करवा के [फूहड़ नृत्य और गाने गवा कर ],बाल मन को फूहड़ता की और ले जाना -अति महत्वाकांक्षी और अदूरदर्शी माता -पिता का पहला कर्तव्य बन गया है। ....वे बच्चों की संवेदनाओ और मासूमियत को विध्वंस के कगार पे पहुंचाने के अपराधी हैं ....बच्चों के शोज़ को बालपन की वेश -भूषा उर्ज्वसित ,उल्लसित करने वाले गीतों और कार्यक्रमों के माध्यम से भी प्रदर्शित किया जा सकता है ...पर नहीं छोटी- छोटीबचियों और बच्चों को शीला की जवानी और दारु देसी जैसे गीतों पे नौटंकी करने को मजबूर किया जाता है ,एक से एक अदूरदर्शी बेदिमाग लोग जब उन्हें जज करते हैं तो माँ -बाप अपने को धन्य समझते हैं ..........
              समस्या सुरसा के मुहँ की तरह बढती जा रही है ..तमाम समाजशास्त्रियों और दार्शनिकों की चेतावनियों के बाद भी कोई समाधान नहीं दिख रहा है .....बाजार की निरंकुशता को व्यवस्था और समाज ने खुली छूट दे दी है ....एकल परिवारों के बच्चों को दादा -दादी ,नाना -नानी ,या और रिश्तों कोई सरोकार नहीं है ,उन्हें अपनी बाइक ,मोबाइल ,और कम्प्यूटर गेम्स चाहिए ...बुजुर्गों की खांसी से उन्हें वितृष्णा होती है ,नींद में खलल होता है ...चारों तरफ फैले ग्लैमर ,कोचिंग -क्लासेस ,गेम -क्लासेस ,म्यूजिक -डांस ,स्विमिंग जैसी असंख्यों क्लासेस ,और इलेक्ट्रोनिक डिवाइसेस की भरमार  में बच्चे कहीं खो गए हैं ...उनके पास अपने लिए ही समय नहीं है ...अपने घर के लिए ही संवेदना नहीं है ...वो प्रकृति को क्या देखेंगे ...कैसे संवेदनशील बनेंगे ...खिलौनों के नाम पर काले ,भूरे ,धूसर ,सलेटी ..मटमैले रंगों के डायनासोर ,स्पाइडर मैन ,मनहूस शक्ल वाले बैट -मैन ,तरह -तरह की बंदूकें?? सुन्दरता जो कोमलता और सहज प्रकृति की चेतना होती है पूरी तरह से लोप हो रही है ,गुडिया भी है तो बदसूरत बार्बीडाल ,,थोड़ी ही देर में बच्चा बिना कार्टून और मोबाइल गेम्स के बोर होने लगता है ..कहने वाले इसे डेवलेपमेंट भी कह सकते हैं ...............शोर- शराबा है ,तीक्ष्ण ज्ञान -विज्ञान है ,तकनीकी है .आगे बढ़ने के अनन्य श्रोत हैं ......पर बचपन में निष्पाप ,उन्मुक्त खिलखिलाहट नहीं है ,भोलापन .खूबसूरती ,समवेदना ----इस बाजारू समय ने बचपन से छीनना शुरू कर दिया है ... शिशु शैशवत्व से विपन्न होटा जा  रहा है इस खोये बचपन को वापिस लाने की जिम्मेदारी किसकी है ?...यदि ये बचपन वापिस न आया तो मनुष्यता खंडित  हो जायेगी और दोष हमारी पीढ़ी पर ही होगा .... विश्व एक आँख को बंद करके जिस रोमांस को महसूस करके रोमांचित हो रहा है उसे हम अपने बच्चों को दें , ये दायित्व हमारा ही है  ...बचपन को बचपन लौटाना ही होगा ........................इति शुभम .....

Saturday, 6 July 2013

manv kaa lalach ..prakriti kaa vinash

कितना है बदनसीब जफर , दफ्न के लिए ..
दो गज जमीन भी न मिली कूये यार में ....
...........................मुगलिया सल्तनत का बादशाह ,जो हिंदुस्तान की सरजमीं का सर-परस्त था ,कैसी हकीकत बयाँ कर गया --------------------असल में यही हकीकत है ,यही सच्चाई है .........ये जमीन कब किसी अपनी हुई ,जिसपे हम पुरखों की थाती ,पूर्वजों की कमाई मान के कुंडली मार के बैठ जाते हैं और अपना जन्म सिद्ध अधिकार मान के, अपनी संतति के लिए लड़ाई -झगड़े की नीव रख देते हैं ---वो कब हमें बेदखल करदे ये उस को ही मालूम है ....बड़े -२ राजा -महाराजा ,अवतार ,धनिक ,वणिक सबने अपने और अपनी संततियों के सुरक्षित भविष्य के लिए बड़े -२ महल- दुमहले बनवाये .अपनी सीमा, जमीन ,घर के लिए लडाइयां ,मुकदमें -----------पर क्या कोई सुनिश्चित कर पाया अपनी जमीन पे अपनी दावेदारी हमेशा के लिए ......क्या हम कह सकते हैं कि आज हम जिस जमीन - मकान के मालिक हैं कल भी ये जगह हमारी ही होगी ? --------------पढ़ के ,सुन के ,देख के और अनुभव कर के भी हम समझना ही नहीं चाहते हैं ----------------हमें घर चाहिए हर शहर में ,एक होटल ,एक अदद दुकान ,शहर -२ में ऑफिस ,और भी न जाने क्या- क्या ...............अपने लालच से सामाजिक पारिस्थितिकी को बिगाड़ने के लिए .........लालच -२ -२ .........क्यूँ अपने लालच के वशीभूत होकर ,या फिर अपने को समाज में बड़ा दिखाने की प्रवृति के कारण हम इस शश्य -श्यामला धरती को कंक्रीट का जंगल बनाने पे आतुर हैं .....जीवन -यापन को जितना चाहिये उससे अधिक -और अधिक -२ ...हम संतुष्ट होना ही नहीं चाहते ....अपने से ऊपर ही देखते हैं और मजे की बात ये की ये प्रतियोगिता या कहें होड़ केवल संसाधनों के लिए ही है ........कार्य -कुशलता ,कर्तव्य -निष्ठा ,ईमानदारी ,और ज्ञान -वर्धन के लिये नहीं है .....................हर कोई सोच रहा है उसकी शर्ट ,मेरी शर्ट से अधिक सफ़ेद क्यूँ ?येन -केन -प्रकारेण हमें संसाधनों से लैस होना है। .प्रकृति का दोहन -दोहन और दोहन .परिणाम जल -जंगल -जमीन -पूरा पर्यावरण प्रदूषित और इंसानी लालच के बोझ तले दबा हुआ ......
...................अब तो हमारी पीढ़ी इस लालच की एक बानगी उत्तराखंड की वादियों में देख चुकी है .....हमने लालच में आकर जहाँ पे भी जमीन दिखी ,रहने खाने और भोग विलास का साजो सामान स्थापित कर लिया .बिना ये जाने की ये नदी का मुहाना है या किनारा ...प्रकृति को अपने लिए ही जान के हम ने निर्णय लिया! १० वर्षों से नदी यहाँ पे नहीं आयी है तो अब क्या आयेगी .....हमारी सरकारों ने भी इसमें हमारा साथ दिया ,क्यूँ ?घपल -चौथ में सरकारी तन्त्र की भी पौ -बारह होती है ..और फिर टैक्स वसूली तो है ही ......नतीजा पहाड़ की सुरम्यवादी वीराने में तबदील हो गयी .........ये जीवन की बहुत बड़ी सच्चाई है की हमें प्रकृति से उतना ही लेना होगा जितना हमें जीवन -यापन को चाहिए ..........कबीर के शब्दों में ..........................
..........................................साईं इतना दीजिये जामे कुटुम्ब समाय ...
..........................................मैं भी भूखा ना रहूँ ,साधु न भूखा जाय .......
.....यही हमारी सनातन संस्कृति है जिसकी वजह से हम प्रकृति का अरबों वर्ष तक संरक्षण कर पाए .....हमें सनातन संस्कृति का पुन:-संस्थापन करना होगा ...तभी हम अपनी संतति को एक स्वस्थ -सुरम्य और आनन्दमयी धरती ,,जो हमारी एक मात्र थाती है सौंप पायेंगे ....................कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें .
.................................................इतनी जगह कहाँ है दिले दाग दार में ...
ये धरती ,ये प्रकृति ये हमारा दिल ही तो है ......इसे अपनी हसरतों की भेंट न चढ़ाएं .....इससे एक प्रेमिका की तरह प्यार करें यही हमारी साधना होनी चाहिए ,,वरना तो ये बात दीगर है की जमीं बेवफा होती है ...और उसकी बेवफाई पे हम ईश्वर और कुदरत को कोसते हैं .............इति शुभम ............आभा .................