Wednesday, 17 July 2013

  '' नवीन संस्कारित संस्कृती ''
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आज विश्व में शोध ,प्रगति ,सुधार अपने चरम पे हैं । कानून में सुधार फिर भी अराजकता .....,शिक्षा में सुधार पर लाखो अशिक्षित ,और जो शिक्षित हैं वो विभिन्न भ्रांतियों और संघर्षों में जकड़े हुए अपने से दूर जाते हुऐ .........खाद्य सुरक्षा ,नयी तकनीक ,नए बीज,खाद नई नस्लों के जानवर   पर फिर भी चारों और विश्व में लोग भर पेट भोजन नहीं खा रहे हैं ,भुखमरी है ,करोड़ों के पास तन ढकने को कपड़ा और सर छुपाने को छत नहीं है। आज वैश्विक स्तर पे जो सबसे बड़ी समस्या है वो है ...... ''सुधार की  ''................जो अपने साथ लाती है कई सारी  भ्रांतियां,संघर्ष .बंधन .प्रतिबन्ध और इन सबको दूर करने को फिर और अधिक कानून ,पीड़ा और  भ्रान्ति । इन समस्याओं से हम सभी को दो चार होना पड़ता है और विशेषकर उन उन युवाओं को सामना करना पड़ता है जो शीघ्र शिक्षा समाप्त कर विश्व में प्रवेश करने वाले है । यद्यपि सुधार आवश्यक हैं आगे बढ़ने के लिये ------व्यक्तिगत भी , सामाजिक ,कानूनी और ढांचागत भी पर एक ............. बुनियादी प्रश्न ................है !.. इन सुधारों से जो नई अराजकता जन्म लेती है उसका क्या हो ?इस विषैले चक्र का उच्छेदन कैसे हो ?इस प्रश्न का सम्बन्ध प्रत्येक विचार-शील व्यक्ति से है ...क्या कोई ऐसा सुधार संभव है जो अपने आप में पूर्ण हो ,जो भ्रांतियां ,संघर्ष और अराजकता न लाये ?जैसे -जैसे भौतिक सुख संसाधनों में वृद्धि होती जा रही है और यह सुधार का विषैला क्रम आगे बढ़ रहा है जल, जमीन ,जंगल ,मानवता सब इस  के विषैले कारागृह में जकड़ते जा रहे हैं ....इस दुश्चक्र को खंडित करने में कौन सी शिक्षा और कौनसा मार्ग सहायक हो सकता है कि  सुधार भी हो पर पूर्ण हो ,उसके साथ आने वाली भ्रांतियां और पीडाएं नदारद हों ......हाँ है! जीवन जीने का एक ऐसा मार्ग .........धार्मिक मार्ग ........एक सच्चे व्यक्ती का मार्ग ,जो धार्मिक है ,जिसका सुधार से कोई प्रयोजन नहीं है ......वह तो सत्य को खोज रहा है ,ऐसा सत्य जो समाज को स्वत:ही रूपांतरित कर देता है ........अतएव हमारी शिक्षा का बुनियादी लक्ष्य होना चाहिए विद्यार्थी को सत्य के और परमात्मा की खोज में सहायता करना .................न की समाज के बंधे बंधाये ढांचे में रहने के लिए तैयार करना .........धर्म वो नहीं जो मंदिरों ,मस्जिदों या गुरुद्वारों में मिलता है ,धर्म का सम्बन्ध न पुजारियों से है और न गिरिजाघरों ,मान्यताओं और संगठित विश्वासों से है .........ये सब किसी भी रूप में धार्मिक नहीं हैं , ये तो हमें विचारों और कर्मकांडों के घेरे में बाँध के रखने के लिए सुविधाएं मात्र हैं ..........ये हमारे भोलेपन ,भय और आशा का शोषण करने के तरीके हैं ..........धर्म का अर्थ है सत्य की ओर  प्रवृति ....परमात्मा की खोज ....... जिसके लिए ,आत्यन्तिक सामर्थ्य ,तीक्ष्ण बुद्धि ,विशाल चिन्तन ,और यम नियम की आवश्यकता है ,और ये अत्यंत आवश्यक है कि हम बचपन से ही ये सीख लें ताकि बड़े होते होते हम, छोटे -२ मनोरंजन ,दिल बहलाव के साधन ,लैंगिक वासनाएं ,क्षुद्र महत्वाकांक्षाएँ कम करते चले जाएँ .......हमारा धर्म हमें 
परमात्म की ओर  ले जाएगा और तब हम उन विकराल समस्याओं के प्रति  जिनका सामना पूरा विश्व कर रहा है अधिक सजग हो जायेंगे .......... तब स्वत:-स्फूर्त परिवर्तन घटेगा समाज में ........बचपन में जब माता -पिता बच्चे के पास होते हैं तो वो सजग होता है ,बहकता नहीं है ,सुरक्षित महसूस करता है गलत मार्ग पे चलने से डरता है ,और सबसे अधिक उन्नति करता है ,तो सोचिये यदि परमात्मा हमारे पास है ! जीवन भर ये अहसास रहे तो ..... विकास और सुधार का वो मार्ग मिलेगा जहाँ भ्रान्ति पीड़ा अनुपस्थित है .....सत्य की खोज के लिए आवश्यक है कि प्रकृति और समस्त संबंधों के प्रति अखंड प्रेम और गहरी सजगता हो ,जिससे समग्रता में आगे बढ़ा जाय ,स्वार्थ न हो ...अनंत की खोज असंख्यों के साथ ...इसी में सामाजिक सुधार निहित है ......
एक सुधारक कभी नूतन संस्कृति का निर्माण नहीं कर सकता है ...यदि ऐसा होता तो आज समाज सुधारकों से देश पटा पडा है .
कितने सारे संत ... प्रवचन ....एन जी ओ ....पर नतीजा ......वही भ्रांतियां ,पीडाएं ,संघर्ष .......केवल सत्य की खोज ही आदमी कोसृजन शील बना सकती है ...हमारे अभिवावकों ,शिक्षकों और वयस्क विद्यार्थियों को मिल के गहन अनुसन्धान करना होगा ..शिक्षा को समग्र होना ही होगा .......यदि हम अपने को केवल जीवनयापन के लिए ही तैयार करते है तो शिक्षा का लक्ष्य ही तिरोहित हो जाता है ..........जीवन बड़ा अद्भुत ,अगाध और रमणीयता लिए हुए है ........यंत्रवत जीवन हमारी सन्तति को और हमें कुंठित और रुग्ण कर रहा है .......यदि सरकारें न भी माने तो हम अपने घरों को ही सत्य और परमात्मा की खोज के मंदिर बनाले .......यही समय की पुकार है .किसी की ओर  न निहारें .अपनी मेधा को जागृत करें और संतति को सत्यान्वेषी और धार्मिक बनाए ताकि उसके मन में सतत क्रान्ति  की ज्वाला  प्रकाशमान हो ,वह भय  और चिंता से मुक्त होकर सोचे .......जीवन के इस अद्भुत सौन्दर्य ,इसकी अनंत गहराई, इसके ऐश्वर्य की धन्यता को महसूस करे इस विशाल और विस्तीर्ण जीवन के रहस्यों को समझने की चेष्टा करे ..........हम ढेरों उपाधियाँ पा लें  ,खूब पैसा-नाम कमालें पर यह सब पाने के चक्कर में कुंठित ,रुग्ण हो जाए तो क्या महत्व है इस संघर्ष और सुधार का .......हमें ऐसे शिक्षक चाहिए जो शिक्षा को कर्तव्य माने और यदि ऐसा संभव नहीं है तो हम ही अपनी संतति को सत्यान्वेषी और परमात्मा को खोजने की और बढ़ने वाला बनायें ....यही समय की मांग है ,,,,,, गर्त में गिरती .......संघर्षों और महत्वाकांक्षाओं के जंगल में घिरी मानवता को बचाने का यही एक मात्र उपाय है हम धार्मिक बनें अपने लिए ..अपने को जानने के लिए ,सत्य के लिए, सत्य को जानने के लिए और पमात्मा की खोज के लिए ............आभा ...........




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