Monday, 25 November 2013


Shradhanjali....

आराधन को प्रिय तेरे !
हृदय शूल के अक्षत लायी हूँ |
भावों के चंदन से महका कर !
मैं, तुझे सजाने आयी हूँ |

साँसों की डोरी के अगरु जला ,
सुरभित साँसों से महका कर ,
दीप जला  स्नेह सुधा का ,
अश्रु जल का तेल डाला |
अभिषेक तेरा अश्रु जल-कण से ही करने आयी हूँ |
प्रिय तेरे आराधन को मैं हृदय शूल के अक्षत लायी हूँ ||
रंग- बिरंगे हंसते- रोते ,
कुछ काँटों और कुछ पराग से ,
चुन-चुन कर स्वप्न सुमन ,
मैं !भावों की क्यारी से लायी हूँ |
दो नयन  पुजारी तेरे हैं ,
,देह पुजारन है तेरी |
उस पर  करुना का शंख बजा ,
आरत हरण को आई हूँ |
जिन क्षणों में चले गये तुम ,
वे क्षण ही हैं , जीवन धन मेरे |
सुमधुर यादों की माला ही ,
अर्चन वंदन को लायी हूँ |
प्रिय तेरे आराधन को में हृदय शूल के  अक्षत लायी हूँ |
भावों के चन्दन से महकाकर मै तुझे सजाने  आयीहूँ .||_________________________________आज दो वर्ष हो गये अजय को महाप्रयाण पे गये हुए |एक- एक पल ,एक- एक कल्प के मानिंद बीता |अभी  न जाने कितना औरजीना लिखा है |वो स्वर्ण पालकी तो सब को ही चढ़नी है एक दिन पर जो पीछे रह जाता है उसे इसकी तपन के ताउम्र झुलसना पड़ता है | स्थितप्रज्ञ होना तो सब चाहते है," पर " |जीना तो है ही और जीना है तो यादें भी है |२५ नवम्बर वो दिन जब हम दोनों का गठबंधन हुआ| .सेहरे और घूँघट का  विस्मयकारी और मंगल वातावरण ____और २५ नवम्बर ही वो दिन जब लूट गये श्रृंगार सभी बाग़ के बबूल से |यही होनी है क्यूंकि अनहोनी तो होती ही नहीं |  जाने वाले तू खुश रहे जहाँ भी हो | तू मोक्ष का आग्रही था |दुनिया को बाजीचायेइत्फाल समझता था ;मुझे  मालूम है तू हरी चरणों में ही होगा | क्यूंकि बिना राग ,द्वेष ,लालच के व्यक्ति इस संसार में तो विरले ही होते है ,इसी लिए तुझे सब सतयुग का आदमी कहते थे ,और इसी लिए तेरी गोलोक में भी आवश्यकता आन पड़ी | हमारे लिए तुम यहीं हो सदैव हमारे मन मंदिर में ,सदैव हमें सँभालते हुऐ |  आसपास तिरती
हवाओं में तुम्हारी खुशबु का अहसास हर पल रहता है | खुश रहो और अपने मन का पद पाओ ईश्वर चरणों में | यादें नहीं कह सकती तुम तो हर पल में ही शामिल हो पर आज जिस पल  छोडके गये थे उस एक पल को  जज्ब करने की कोशिश में ही जीवन बीत जाएगा श्रधान्जली " अजय " !  ________________आभा ______________

Tuesday, 19 November 2013

''मानस केवल राम चरित्र ही नहीं ,व्यक्ति के लिए दर्पण ''
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सुनहु तातअब मानस रोगा |
जिन्ह ते दुःख पावहिंसब लोगा ||
मोह सकल ब्याधिन कर मूला |
तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला ||
कामबात कफ लोभ अपारा|
क्रोध पित्त नित छाती जारा||
प्रीति करहीं जो तीनों भाई |
उपजहिं सन्यपात दुःख दायी ||
बिषय मनोरथ दुर्गम नाना |
ते सब सुल नाम को जाना ||
ममता दादू कंडूइरषाई |
हरष विषाद गरह बहुताई ||
पर सुख देखि जरनि सोई छई |
कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई ||
अहंकार अति दुखद डमरुआ |
दम्भ कपट मन माद नेहरूवा ||
तृष्णा उदर बृद्धि अति भारी|
त्रिबिध ईषना तरुण तिजारी ||
जग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका |
खं लगी कहों कुरोग अनेका ||
मानस के सात पश्नों में (जो गरूडजीने  काक भुशुण्डी जी के पूछने पे बताये थे ) मानस रोग सप्तम और अति गंभीर प्रश्न है |यदि हम राम कथा को अपने जीवन से जोड़ना चाहें तो ये उपादेय भी बहुत है |इसी प्रश्न में मानस की सार्थकता छिपी है |इसीलिए मानस का समापन राम चरित्र से न हो कर मानस रोगों से जो किया गया है उसका  मुख्य तात्पर्य यही है की हम इस कथा को भूतकाल के एक महान चित्र के रूप में न देख के ,उसके रूप में हम अपने जीवन का दर्पण देखें _____हाँ दर्पण -या शीशा --मन रूपी शीशा ..जहाँ मन का हर  रोग पकड़ में आ जाएगा तो उपचार भी सुलभ होगा __________|

रामचरितमानस एक दर्पण है जिसमे व्यक्ति अपनी त्रुटियों और अपूर्णता का अवलोकन कर अपने व्यक्तित्व का समग्र विकास कर सकता है |अन्य ग्रन्थ एक विशेष कालखंड के चरित्रों ,घटनाओं और समाज को प्रतिबिम्बित करते है ,जिस काल की घटना होती है उस काल का चित्र हमारे सम्मुख साकार हो उठता है |ऐसा नहीं है की मानस में चरित्रों का वर्णन नहीं है अपितु इसमें तो राम के साथ उनके भक्तो  प्रियजनों ,समाज और उनके विरोधियों का भी ऐसा सांगोपांग विश्लेषण है कि यदि आपके पास सूक्ष्म दृष्टि है तो आपको इसमें चित्रित  सूक्ष्म से सूक्ष्म रेखा भी दिखाई दे सकती है | ये सब होने पे भी मेरा मानना है कि रामचरितमानस केवल चित्रकथा या कथा ही  नहीं है जिसमे इतिहास को कहते हुए परमात्मा की लीलाओं का वर्णन हो| यह तो एक दर्पण है जो हमारे वर्तमान को प्रतिबिम्बित करता है |चित्र और चित्रकथाएं तो हर घर में अलग -अलग हो सकती है या न भी हो सकती हैं ,पर दर्पण !शायद ही कोई घर ऐसा हो जहाँ दर्पण या शीशा न हो |इसीलिए मानस का समापन ,मानस रोगों से किया गया है ताकि हम उसमें अपने भूतकाल को ही न देखें अपितु उसके रूप में अपने जीवन का दर्पण पा लें | जिसके माध्यम से हम सही रूप में अपने को देख सकें |हम त्रेता युग के व्यक्तियों  में अपना और आसपास के व्यक्ति का चरित्र पढ़ सकें | तो रामकथा लिखने  से पहले गोस्वामीजी गुरु से प्रार्थना कर रहे हैं___________
_गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन |
नयन अमिय दृग दोष विभंजन ||
  _तेही करी बिमल बिबेक बिलोचन 
|बरनऊं राम चरित भव मोचन || 
कि आप  मेरे नेत्रों का दोष दूर करें क्यूंकि अभी तो मैं  आसपास के चरित्रों  को ही ठीक से  नहीं देख पा रहा हूँ तो  त्रेता युग में हुए भगवान के  चरित्र को कैसे देखूंगा | गुरु के चरणों की धूल को उन्होंने अंजन की उपमा दी है जो दृष्टि दोष दूर करता है और निर्दोष दृष्टि देता है |अर्थात  गुरु की कृपा से विवेक पूर्ण उज्ज्वल दृष्टि मिले जिससे त्रेता युग मेंश्री राम के चरित्र को आज के परिप्रेक्ष्य में ही देख सकें .|पर जब अयोध्याकांड लिखना शुरू करते हैं तो पुन: गुरु की चरण रज चाहते हैं ,अब! जब पहले ही बालकाण्ड में  स्वीकार कर लिया किप्रभु चरित्र दिखाई दे रहा है तो फिर से क्यूँ चरण रज चाहिए ?तो उत्तर है अभी तो केवल श्री राम दिखाई देते हैं परअब  जो चरण रज मिलेगी  उससे  अपने मन के  दर्पण को साफ़ करके मैं रघुनाथजी के विमल यश का वर्णन करना चाहता हूँ |
श्री गुरु चरण सरोज रज निज मन मुकुर सुधारि |
बरनऊँरघुवर विमलजसु जो दायक फल चारी ||
तात्पर्य ये है की गुरु से पहले प्रभु को देखने की दृष्टि मिली थी पर दर्पण नहीं मिला था जिसमे, हम भी -श्री राम को अपने साथ देख सकें | जब तक हम रामजी के साथ न होंगे सही अर्थों में श्री राम को देखने की सार्थकता नहीं होगी | इस प्रकार गोस्वामीजी एक गूढ़ संदेश दे रहे हैं| वे विवेक की तुलना दृष्टि से करते हैं और दर्पण की मन से |रामचरित्र मानस में जो ये ''मानस'' जुड़ाहै ये मन ही है , यदि मन रूपी दर्पण स्वच्छ होगा और दृष्टि परिष्कृत होगी तो ही रामजी का  चरित्र सार्थक होगा |ये एक विलक्षणसंकेत है गोस्वामीजी का 
दशरथ पुत्र जन्म सुनी काना |
मानहु ब्रह्मानन्द समाना ||
परमानन्द पूरी मन राजा |
कहाबोलाईबजावहु बाजा ||
दशरथजी ने राम को पुत्र रूप में पा लिया है |वो ब्रह्मानन्द में समागये हैं |अब प्रभु को पाने से भी अधिक क्या कोई आनन्द है जो वो आनन्दके लिए बाजा बजाने को कह रहे हैं हाँ वे इस अनुभूति को सब के साथ बांटना चाहते हैं|वैसे तो प्रभु सबको ही प्राप्त हैं पर विरले ही होते हैं जिनको इसका भान हो पाता है ,सो राजा इस अनुभूति को बाँटना चाहते हैं |बालकाण्ड में दशरथजी केवल राम को ही देखते हैं पर  अयोध्या कांड में जब गोस्वामी जी गुरु से दर्पण मांग रहे हैं तो देखिये ______________
त्रिभुवन तीन काल जग माहि |
भूरी भाग दशरथ सम नाही||
मंगल मूल मय राम सुत जासु |
सो कछु कहियथोर सबु तासु ||
दशरथ से भाग्यवान तीनोलोकों में कोई नहीं है और उस पर राम जैसा पुत्र |ये सब सुन के तो राजा को फूलजाना चाहिए पर नहीं वो अपने लिए दर्पण मंगवाते हैं और उसमें अपना चेहरा देखते हैं ____________
रायँ सुभाय मुकुर कर लीन्हा|
बदनु बिलोकि मुकुट सम कीन्हा ||
यहाँ पे तुलसी का गुरु से दर्पण मांगने का अभिप्राय समझ आता  है | श्री राम तो पूर्ण हैं ,समग्र हैं ,पर मात्र उनकी पूर्णता को देख कर और उनके संग रह के हममें भी पूर्णता  नहीं आ जाएगी |इसकेलिए हमे अपने मन मुकुर को स्वच्छ रखके रामजी जैसा बनने का प्रयास करना पड़ेगा | ऐसे ही ,जैसे किसी गरीब की गरीबी किसी धनी व्यक्ति की प्रशंसा करने से या उसके निकट रहने से दूर नहीं होतीउसके लिए प्रयास करना पड़ता है |
और दर्पण है भी बड़ी अनोखी वस्तु |ये प्रिय और झगड़ालू दोनों एक साथ है | जब कोई व्यक्ति दर्पण देखता है तो उसे प्रसन्नता होती है और अपने दोष भी दिखाई देते हैं जिन्हें वो दूर करने का भरसक प्रयत्न करता है ताकि सुन्दरता बनी रहे यानी दर्पण देखने का अर्थ हुआ अपनी आँखों से अपनी कमी देखना और विवेकी दृष्टि से उसे दूर करना |पर यदि कोई दूसरा हमें कह दे ___जा शीशे में मुहं देख के आ ! तो हम क्षुब्ध हो जाते हैं |तो मानस को स्वच्छ व् निर्मल रखने को और रामचरित्र से अपने जीवन को सार्थक  करने के लिए गोस्वामीजी  ने मानस को ही दर्पण बना दिया है |एक ऐसा ग्रन्थ जो जीवन में  भगवदता  लाता है और सदैव  प्रभु का सानिध्य प्रदान करके मनोमालिन्य ,भय ,जड़ता को दूर कर चेतना और जागृती का  संचार करता है |...और भी कई उदाहरणों से जैसे अहिल्या उद्धार ,त्रिजटा मरण ,शुरपनखा ,सीता हरण ,जटायू ,शबरी ,बलि सुग्रीव इत्यादि से मानस रोगों को विस्तार से बताया गया है रामचरित मानस में बस आवश्यकता है श्रद्धा और सूक्ष्म दृष्टि की जो रामजी के समीप जाने के निर्णय मात्र से ही आजाती है -----------रामजी कल्याण करें _____________________________आभा ____________________


                                                                                                                                                                                                   








Sunday, 17 November 2013

''काना - फूसी करते अँधेरे ''
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   रोशनी - खुशियों की आहटों को ,
 टीन की दीवारों  फटी धोती के पर्दों के पीछे ,
 कान लगा के सुनते अँधेरे |
  सामने बनते मल्टीप्लैक्स का बिखरा मलबा ,
  कई मंजिल इमारतों को बनाते -बनाते ,
 खुद ही ईंट -गारा -पत्थर बन गये ये लोग |
  रेत की ढूह पे खेलते बच्चे इनके  ,
  बारिश के पानी से भरे गड्ढे हैं ,
   स्विमिंग पूल जिनके |
मजदूरी पे गये माँ बाप ,छोड़ गये हैं पीछे ये आवारा बच्चे ,
रुको ! क्यूँ कहें आवारा इनको ?
समय बिताने का है कोई सामा इनके पास !
न इनका  स्कूल ,न इनका क्रेच ,न पार्क न खिलौने ,
बड़े -बड़े मकान ,सडकें ,पुल बनाते इनके माँ बाप ,
बस ! जुटा पाते हैं दो जून की रोटी ,तन ढकने को कपड़ा |
सीमेंट में रेतऔर घटिया सरिया लगाता ठेकेदार ,
बड़ी गाड़ी में आता है -बड़ी सी तोंद लिए |
बनवा दिए हैं टिन-शेड लेबर के लिये,
न रसोई न बाथरूम न शौचालय ,
ये नहीं हैं इंसान मालिक की नजर में ,
होते है ये भी सामान मकान बनाने का |
क्यूँ पढ़ाया जाय इनके बच्चों को ?
क्यूँ सोचा जाय इन सब के लिए ?
पढने लगे और साफ रहने लगे तो ,
सोचेंगे अपने और परिवेश के बारे में |
चेतना जागेगी ,समझेंगे इन्सान अपनेको ,
महसूस करेंगे दिल का धड़कना |
प्यार होने लगेगा  अपने से ,अपने परिवेश से ,
और अपने बच्चों के भविष्य से |
फिर ! फिर ,मकान कौन बनाएगा ,
बिल्डर क्या करेगा ? कहाँ जायेगा ?
और जो इनमे सोचने की शक्ति आ गयी तो !
इनका भी जमीर जाग गया तो !
ये अल्लम-गल्लम ,भ्रष्टाचार को,
 महसूस करने लगे तो !
तो क्या इन्कलाब ही न आ जाएगा |
एक हल्की सी जिन्दगी की सुगबुगाहट ,
एक धीमी सी रेख रोशनी की ,
पर्दे के पीछे से सुन देख लेते हैं अंधेरे  इस बस्ती में ,
और दौड़ के जाते है चुगली करने साहब से ,
फिर रची जाती हैं साजिशें ,
पहले डराया -धमकाया जाता है ,
न माने तो सौगातों के नाम पे भीख बांटी जाती है ,
और फिर भी बात न बनी तो ! तो फिर क्या ?
आ जायेगी एक नयी लेबर >>
गरीबों की कमी थोड़े ही है ;
दो जून की रोटी और सर पे छत तो चाहिए ही |
जहाँ भी जायेंगे ये ही मिलेगा ,
फिर ! यहाँ ही अच्छे है ,टिके तो है |
 अंधेरों की साजिशें यूँ ही चली हैं ,
यूँ ही चलेंगी ! ये बस्ती यूँ ही गुलजार रहेगी ,
 विकास और समाज  को चिढाती हुई |................आभा



  

Monday, 11 November 2013

      
                 '' हाशिये -चेतना का वर्तुल ''
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                   [बैठे ठाले की फ़ालतू गिरी ]
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  पन्नों पे हाशिये खींचने की परम्परा निभाते -निभाते जिन्दगी कब हाशिये पे आ गयी पता ही न चला | बीतते वक्त  के साथ - मैं स्वयं भी एक हाशिया ही तो हो गयी हूँ शायद | हाशिये  !पन्ने के किनारे के   वो  खाली स्थान  क्या  केवल प्रश्न -उत्तर ,या अंक १,२,३,४लिखने के लिए ही होते   है ? मेरे लिए तो हाशिये बहुत मायने रखते हैं |कुछ भी पढ़ते लिखते मेरे हाशिये तो अक्षरों की बूंदाबांदी से भर जाते हैं |कुछ नया अर्थ समझ आया , कोई शब्द नया जोड़ के देखना है कि कृति क्या रूप लेती है ,कोई नया विचार आया, हाशिये हाजिर हैं ;मेरे जीवन के हाशिये भी कभी खाली नहीं रहे| देखा जाय तो पन्नों से अधिक महत्वपूर्ण हैं ये हाशिये |अर्थ नया- पुराना ,आलोचना- विवेचना ,जोड़ना -घटाना ,गुणा-भाग या सोते हुए अचानक कोई विचार कौंधना सब कुछ हाशियों पे ही लिखा जाता है | मन का द्वंद! अक्सर इन हाशियों पे ही उकेरती हूँ, जिसे, कभी -कभी मूल रचना से रबर लगा के हटा दिया जाता है |मेरे जीवन में हाशिये अक्सर साथ साथ ही चलते हैं मैदानी इलाके में एक किनारे पे बहती नदी की मानिंद या पहाड़ की तलहटी पे बसे शहर के एक ओरबहती नदी की मानिंद जो ऐसे ही बह रही है , शहर को  जल दे रही है | पेड़ों की जड़ों को अपने आप ही पानी मिल जाता है ,कितने फूल खिलते हैं ,कितने झाड़ों को पानी मिलता है ,जब तक नदी सागर तक न पहुंचे उसे  फुर्सत ही नहीं है |  जीवन को जीवन देती नदी के जैसे ही हाशिये भी मनुष्य जीवन के लिए प्राण वायु सदृश्य ही है | मेन- स्ट्रीम से अलग -थलग थोड़ा कम भीड़ -भाड़ वाली जगह ;जो आसानी से दिखाई दे साफ़ -सुथरी और सुघड़ हो | उसके सुथरेपन से रचना की भव्यता का भान हो और हम जैसों को मन की बात लिखने को कहीं और न जाना पड़े | ठीक सड़क के साथ चलते फुटपाथ या सर्विस लेन की मानिंद |जहाँ वृक्षों की पांत और फूल होते हैं शहर की खूबसूरती बयां करते हुए से और कभी कभी रेड -लाईट या जाम से बचने की सुविधा भी देते हैं ,ठीक वैसे ही जैसे बहुत समय पश्चात किसी रचना को पढने की इच्छा होने पे ,जिस कालखंड में लिखी गयी है उसकी मनोदशा जानने के लिए हाशिये पे लिखी इबारत  सहायक होती है | किसी भी रचना को पढ़ते हुए विचारों का मजमा लगा सकते हैं हाशियों पे ,सर्विस -लेन में खड़ी  तरतीब या बेतरतीब खड़े वाहनों की तरह | हाशिये पे दिखाई देते हैं देश के दूर दराज के गाँव ,कस्बे ,जो इतनी बड़ी आबादी के लिए अन्न उगाते हैं |जहाँ वास करती है देश की आत्मा| उसे पढ़ लिया तो देश का स्वरूप समझने में आसानी होगी | हाशिये पे हैं देश के खेत खलिहान ,पशुधन ,जल जमीन जंगल जो जीवन को शुद्ध हवा और पानी देते है ,जो देश की जीवन धारा हैं ,हाशिये पे हैं देश के जवान ,जो देश के रक्षक हैं ,हाशिये पे है देश के पहाड़ जो दरक रहे हैं और अपनी आत्मा को पढने के लिए आमंत्रित कर रहे हैं | हाशिये पे हैं हमारे बुजुर्ग जो अपने चेहरे की लकीरों में जीवन भर का अनुभव समेटे बैठे हैं ||
   मेरे लिए तो हाशिये पे उकेरे अक्षर उन वृक्षों की  टहनियों की तरह हैं जिन के शीर्ष पे सुगन्धित पुष्प -गुच्छ खिल रहे हैं |क्षण -क्षण बदलती प्रकृति के परिवेश और उससे प्रभावित मन:स्थितियों में --कृतियों का परायण करते  समय रचना भी अपना रूप रंग बदलने लगती है |जब भी किसी पुरानी कृति से स्नेह लेने का मन हो तो उस पन्ने को खोलने पे हाशियों पे हलचल सी होने लगती है |और समय के अनुरूप एक नया अर्थ ,नया विचार पुन: हाशिये पे उकेर दिया जाता है | ऐसे ही जन्म हो जाता है नई रचना का |इन्सान का आत्म -बिम्ब_______ दूसरों की निगाहों में वो कैसा है ,कैसा दिखना चाहिए ,जैसा है वैसा ही रहे या कुछ और अच्छा बनने की कोशिश  करे _________में ही उलझा रहता है |ऐसे में हाशिये पे लिखी इबारत ही सच्चाई बखान करती है और रास्ता दिखाती है |
 ये हाशिये जीवन के, बहुत अनमोल हैं , पर अनदेखे और अनसुलझे ही रहते हैं | हाशियों पे लिखते -लिखते कब जीवन हाशिये पे आ लगा भान ही न हुआ |कितनी मधुर यादें ,सुख दुःख ,मान अपमान अभिमान ,अपने पराये , दोस्त दुश्मन ,अप्रतिम पल .असंख्यों लोग ,सहस्त्रों रिश्ते नाते ,क्या कुछ नहीं है इन हाशियों में |जीवन का खजाना है यहाँ | बस एक छोटे सी जगह  के अहसास को चुराने की देर है वो समय ज्यूँ का त्यूं सामने आ खड़ा होता है |कृति तो पूर्ण होने के पश्चात जड़ हो जाती है पर हाशिये वो हैं जहाँ सदैव चेतना का वर्तुल घूमता रहता है | जब चाहे सुधार कर  लो | एक ही पन्ने पे जड़ चेतन एक साथ | जड़ को पूरा पन्ना मिला ,पूरे जीवन की मानिंद और चेतन को मिले हाशिये ,अंगुष्ठ बराबर आत्मा ____________आभा 






                     [ हाशिये]
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         ..... बैठे ठाले का फितूर ....
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पन्नों में हाशिये खींचने की परम्परा निभाते हुए जिन्दगी कब हाशिये पे आ लगी अहसास ही न हुआ |या यूँ कहूँ बीतते वक्त के साथ मैं ही खुद एक हाशिया बन गयी |क्या हाशिये सही में किनारे पर खिंची रेखा के उस और वाली खाली जगह  ही होते है,जहाँ हम प्रश्न -उत्तर ,या १-२-३-४ ही लिख सकते हैं  

 
        

Sunday, 3 November 2013

गोवर्धन पूजा --------------------गोधन ,और पर्वत की महत्ता और स्थापित करने का पर्व .............
ब्रज में आंधी- तूफान- बिजली- मुसलाधार बारिश ,त्राहि ,त्राहि ,नदियों में बाढ़ ,शहर के डूबने का ख़तरा --''स्थूणास्थूला वर्षधाराम्न्चत्स्व भ्रेश्व भीक्ष्णश:|जलौघे: प्लाव्यमाना भूर्नादृश्यत नतोन्न्तम ||'' एक तरह से कई बादल एक साथ फटने की त्रासदी ,तूफ़ान और जल प्रलय , आज की केदारनाथ की जल प्रलय और फेलिन जैसे हालत एक साथ ...
इस परीस्थिति में आज भी जब सरकारें नाकारा साबित हो रही हैं ,कृष्ण ने इंसान तो क्या एक जानवर की भी क्षति न होने दी . क्या मनेजमेंट रहा होगा |-------------- पर्वत- नदी -तालाब- गोधन के संरक्षण का पर्व गोवर्धन ----कान्हा की इसी लीला को समर्पित है |गोवर्धन पूजा प्रकृति के संरक्षण के व्रत लेने का पर्व है | सामाजिक समरसता ,परस्पर विश्वास ,धैर्य और संसाधनों के उचित प्रबन्धन से ''सर्वे भवन्तु सुखिन:.सर्वे सन्तु निरामया ''की व्यवस्था स्थापित करने का पर्व है . कर्म की प्रधानता का पर्व है .सदियों से चली आ रही रूढीवादी वादी परम्पराओं को तोड़ने का पर्व है .अंधविश्वास और डर के साए में जी रही प्रजा से कृष्ण कहते हैं --''-जब हम सब प्राणी अपने -अपने कर्मों का फल भोग रहे हैं तो हमें इंद्र की क्या आवश्यकता ---जब देवता पूर्वसंस्कारों के कारण प्राप्त होने वाले कर्मों के फलों को बदल ही नहीं सकते तो उनके यजन का क्या फायदा , उचित तो यही होगा की हम इस जन्म के कर्मों को सुधारें और दूसरे जन्म को सरल और सुगम बनाएं ''----"किमिइन्द्रेणही भूतानं स्वस्वकर्मानुवर्तिताम.अनीशेनान्यथा कर्तुं स्वभावविहितं न्रिणाम "| |
दीपावलीहिन्दू धर्म का सबसे बड़ा और महत्व पूर्ण पर्व है..रामजी के वनवास की अवधि के समापन, घर वापसी और राज्याभिषेक के हर्षोल्लास के साथ ही, कान्हा की प्रबन्धन क्षमता और समाजसुधारकहोने कीप्रामाणिकता का भी पर्व है ----ये करवाचौथ में पति-पत्नी के परस्पर प्यार और समर्पण से प्रारम्भ हो कर संतान की शुभकामना होई अष्टमी ,धन तेरस में मिट्टी के दीये मिट्टी की हटड़ीऔर खिलौने से कुम्हार की शुभेच्छा ,खील बताशे से किसान की नई फसल के लिए शुभकामना ,उपहार वितरण की परम्परा से वनिक वर्ग के लिए शुभकामनाएं ,गोवर्धन में समाज और प्रकृति को सहेजने की कोशिश ,और अंत में भाई बहनके प्यार का पर्व भाई दूज , समाज के सभी वर्गो के लिए शुभेच्छा और उत्साह .. दीपावली हमारे संस्कारों में ही समाहित है .ये रामजी के वन से घर आने और राज्याभिषेक का पर्व तो है ही ,समाज को एक सूत्र में जोड़ने का भी पर्व है अन्य किसी भी धर्म या संस्कृति में , सब को अपने में समाहित करने वाला-जो अपने स्वरूप में ही अनंत का विस्तार लिए हुए ,ऐसा पर्व शायद नही है ,इसीलिए दीपावली हर धर्म और संस्कृति के लोगों को आकर्षित करती है ---- गोवर्धन पूजा का पर्व समाज से भ्रष्टाचार और शासन की दम्भी प्रकृति को समाप्त करे ये ही शुभेच्छा है -----सभी के ऊपर कान्हा की कृपा हो ,रामजी का प्यार बरसे - आभा.