Monday, 11 November 2013

      
                 '' हाशिये -चेतना का वर्तुल ''
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                   [बैठे ठाले की फ़ालतू गिरी ]
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  पन्नों पे हाशिये खींचने की परम्परा निभाते -निभाते जिन्दगी कब हाशिये पे आ गयी पता ही न चला | बीतते वक्त  के साथ - मैं स्वयं भी एक हाशिया ही तो हो गयी हूँ शायद | हाशिये  !पन्ने के किनारे के   वो  खाली स्थान  क्या  केवल प्रश्न -उत्तर ,या अंक १,२,३,४लिखने के लिए ही होते   है ? मेरे लिए तो हाशिये बहुत मायने रखते हैं |कुछ भी पढ़ते लिखते मेरे हाशिये तो अक्षरों की बूंदाबांदी से भर जाते हैं |कुछ नया अर्थ समझ आया , कोई शब्द नया जोड़ के देखना है कि कृति क्या रूप लेती है ,कोई नया विचार आया, हाशिये हाजिर हैं ;मेरे जीवन के हाशिये भी कभी खाली नहीं रहे| देखा जाय तो पन्नों से अधिक महत्वपूर्ण हैं ये हाशिये |अर्थ नया- पुराना ,आलोचना- विवेचना ,जोड़ना -घटाना ,गुणा-भाग या सोते हुए अचानक कोई विचार कौंधना सब कुछ हाशियों पे ही लिखा जाता है | मन का द्वंद! अक्सर इन हाशियों पे ही उकेरती हूँ, जिसे, कभी -कभी मूल रचना से रबर लगा के हटा दिया जाता है |मेरे जीवन में हाशिये अक्सर साथ साथ ही चलते हैं मैदानी इलाके में एक किनारे पे बहती नदी की मानिंद या पहाड़ की तलहटी पे बसे शहर के एक ओरबहती नदी की मानिंद जो ऐसे ही बह रही है , शहर को  जल दे रही है | पेड़ों की जड़ों को अपने आप ही पानी मिल जाता है ,कितने फूल खिलते हैं ,कितने झाड़ों को पानी मिलता है ,जब तक नदी सागर तक न पहुंचे उसे  फुर्सत ही नहीं है |  जीवन को जीवन देती नदी के जैसे ही हाशिये भी मनुष्य जीवन के लिए प्राण वायु सदृश्य ही है | मेन- स्ट्रीम से अलग -थलग थोड़ा कम भीड़ -भाड़ वाली जगह ;जो आसानी से दिखाई दे साफ़ -सुथरी और सुघड़ हो | उसके सुथरेपन से रचना की भव्यता का भान हो और हम जैसों को मन की बात लिखने को कहीं और न जाना पड़े | ठीक सड़क के साथ चलते फुटपाथ या सर्विस लेन की मानिंद |जहाँ वृक्षों की पांत और फूल होते हैं शहर की खूबसूरती बयां करते हुए से और कभी कभी रेड -लाईट या जाम से बचने की सुविधा भी देते हैं ,ठीक वैसे ही जैसे बहुत समय पश्चात किसी रचना को पढने की इच्छा होने पे ,जिस कालखंड में लिखी गयी है उसकी मनोदशा जानने के लिए हाशिये पे लिखी इबारत  सहायक होती है | किसी भी रचना को पढ़ते हुए विचारों का मजमा लगा सकते हैं हाशियों पे ,सर्विस -लेन में खड़ी  तरतीब या बेतरतीब खड़े वाहनों की तरह | हाशिये पे दिखाई देते हैं देश के दूर दराज के गाँव ,कस्बे ,जो इतनी बड़ी आबादी के लिए अन्न उगाते हैं |जहाँ वास करती है देश की आत्मा| उसे पढ़ लिया तो देश का स्वरूप समझने में आसानी होगी | हाशिये पे हैं देश के खेत खलिहान ,पशुधन ,जल जमीन जंगल जो जीवन को शुद्ध हवा और पानी देते है ,जो देश की जीवन धारा हैं ,हाशिये पे हैं देश के जवान ,जो देश के रक्षक हैं ,हाशिये पे है देश के पहाड़ जो दरक रहे हैं और अपनी आत्मा को पढने के लिए आमंत्रित कर रहे हैं | हाशिये पे हैं हमारे बुजुर्ग जो अपने चेहरे की लकीरों में जीवन भर का अनुभव समेटे बैठे हैं ||
   मेरे लिए तो हाशिये पे उकेरे अक्षर उन वृक्षों की  टहनियों की तरह हैं जिन के शीर्ष पे सुगन्धित पुष्प -गुच्छ खिल रहे हैं |क्षण -क्षण बदलती प्रकृति के परिवेश और उससे प्रभावित मन:स्थितियों में --कृतियों का परायण करते  समय रचना भी अपना रूप रंग बदलने लगती है |जब भी किसी पुरानी कृति से स्नेह लेने का मन हो तो उस पन्ने को खोलने पे हाशियों पे हलचल सी होने लगती है |और समय के अनुरूप एक नया अर्थ ,नया विचार पुन: हाशिये पे उकेर दिया जाता है | ऐसे ही जन्म हो जाता है नई रचना का |इन्सान का आत्म -बिम्ब_______ दूसरों की निगाहों में वो कैसा है ,कैसा दिखना चाहिए ,जैसा है वैसा ही रहे या कुछ और अच्छा बनने की कोशिश  करे _________में ही उलझा रहता है |ऐसे में हाशिये पे लिखी इबारत ही सच्चाई बखान करती है और रास्ता दिखाती है |
 ये हाशिये जीवन के, बहुत अनमोल हैं , पर अनदेखे और अनसुलझे ही रहते हैं | हाशियों पे लिखते -लिखते कब जीवन हाशिये पे आ लगा भान ही न हुआ |कितनी मधुर यादें ,सुख दुःख ,मान अपमान अभिमान ,अपने पराये , दोस्त दुश्मन ,अप्रतिम पल .असंख्यों लोग ,सहस्त्रों रिश्ते नाते ,क्या कुछ नहीं है इन हाशियों में |जीवन का खजाना है यहाँ | बस एक छोटे सी जगह  के अहसास को चुराने की देर है वो समय ज्यूँ का त्यूं सामने आ खड़ा होता है |कृति तो पूर्ण होने के पश्चात जड़ हो जाती है पर हाशिये वो हैं जहाँ सदैव चेतना का वर्तुल घूमता रहता है | जब चाहे सुधार कर  लो | एक ही पन्ने पे जड़ चेतन एक साथ | जड़ को पूरा पन्ना मिला ,पूरे जीवन की मानिंद और चेतन को मिले हाशिये ,अंगुष्ठ बराबर आत्मा ____________आभा 






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