''काना - फूसी करते अँधेरे ''
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रोशनी - खुशियों की आहटों को ,
टीन की दीवारों फटी धोती के पर्दों के पीछे ,
कान लगा के सुनते अँधेरे |
सामने बनते मल्टीप्लैक्स का बिखरा मलबा ,
कई मंजिल इमारतों को बनाते -बनाते ,
खुद ही ईंट -गारा -पत्थर बन गये ये लोग |
रेत की ढूह पे खेलते बच्चे इनके ,
बारिश के पानी से भरे गड्ढे हैं ,
स्विमिंग पूल जिनके |
मजदूरी पे गये माँ बाप ,छोड़ गये हैं पीछे ये आवारा बच्चे ,
रुको ! क्यूँ कहें आवारा इनको ?
समय बिताने का है कोई सामा इनके पास !
न इनका स्कूल ,न इनका क्रेच ,न पार्क न खिलौने ,
बड़े -बड़े मकान ,सडकें ,पुल बनाते इनके माँ बाप ,
बस ! जुटा पाते हैं दो जून की रोटी ,तन ढकने को कपड़ा |
सीमेंट में रेतऔर घटिया सरिया लगाता ठेकेदार ,
बड़ी गाड़ी में आता है -बड़ी सी तोंद लिए |
बनवा दिए हैं टिन-शेड लेबर के लिये,
न रसोई न बाथरूम न शौचालय ,
ये नहीं हैं इंसान मालिक की नजर में ,
होते है ये भी सामान मकान बनाने का |
क्यूँ पढ़ाया जाय इनके बच्चों को ?
क्यूँ सोचा जाय इन सब के लिए ?
पढने लगे और साफ रहने लगे तो ,
सोचेंगे अपने और परिवेश के बारे में |
चेतना जागेगी ,समझेंगे इन्सान अपनेको ,
महसूस करेंगे दिल का धड़कना |
प्यार होने लगेगा अपने से ,अपने परिवेश से ,
और अपने बच्चों के भविष्य से |
फिर ! फिर ,मकान कौन बनाएगा ,
बिल्डर क्या करेगा ? कहाँ जायेगा ?
और जो इनमे सोचने की शक्ति आ गयी तो !
इनका भी जमीर जाग गया तो !
ये अल्लम-गल्लम ,भ्रष्टाचार को,
महसूस करने लगे तो !
तो क्या इन्कलाब ही न आ जाएगा |
एक हल्की सी जिन्दगी की सुगबुगाहट ,
एक धीमी सी रेख रोशनी की ,
पर्दे के पीछे से सुन देख लेते हैं अंधेरे इस बस्ती में ,
और दौड़ के जाते है चुगली करने साहब से ,
फिर रची जाती हैं साजिशें ,
पहले डराया -धमकाया जाता है ,
न माने तो सौगातों के नाम पे भीख बांटी जाती है ,
और फिर भी बात न बनी तो ! तो फिर क्या ?
आ जायेगी एक नयी लेबर >>
गरीबों की कमी थोड़े ही है ;
दो जून की रोटी और सर पे छत तो चाहिए ही |
जहाँ भी जायेंगे ये ही मिलेगा ,
फिर ! यहाँ ही अच्छे है ,टिके तो है |
अंधेरों की साजिशें यूँ ही चली हैं ,
यूँ ही चलेंगी ! ये बस्ती यूँ ही गुलजार रहेगी ,
विकास और समाज को चिढाती हुई |................आभा
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रोशनी - खुशियों की आहटों को ,
टीन की दीवारों फटी धोती के पर्दों के पीछे ,
कान लगा के सुनते अँधेरे |
सामने बनते मल्टीप्लैक्स का बिखरा मलबा ,
कई मंजिल इमारतों को बनाते -बनाते ,
खुद ही ईंट -गारा -पत्थर बन गये ये लोग |
रेत की ढूह पे खेलते बच्चे इनके ,
बारिश के पानी से भरे गड्ढे हैं ,
स्विमिंग पूल जिनके |
मजदूरी पे गये माँ बाप ,छोड़ गये हैं पीछे ये आवारा बच्चे ,
रुको ! क्यूँ कहें आवारा इनको ?
समय बिताने का है कोई सामा इनके पास !
न इनका स्कूल ,न इनका क्रेच ,न पार्क न खिलौने ,
बड़े -बड़े मकान ,सडकें ,पुल बनाते इनके माँ बाप ,
बस ! जुटा पाते हैं दो जून की रोटी ,तन ढकने को कपड़ा |
सीमेंट में रेतऔर घटिया सरिया लगाता ठेकेदार ,
बड़ी गाड़ी में आता है -बड़ी सी तोंद लिए |
बनवा दिए हैं टिन-शेड लेबर के लिये,
न रसोई न बाथरूम न शौचालय ,
ये नहीं हैं इंसान मालिक की नजर में ,
होते है ये भी सामान मकान बनाने का |
क्यूँ पढ़ाया जाय इनके बच्चों को ?
क्यूँ सोचा जाय इन सब के लिए ?
पढने लगे और साफ रहने लगे तो ,
सोचेंगे अपने और परिवेश के बारे में |
चेतना जागेगी ,समझेंगे इन्सान अपनेको ,
महसूस करेंगे दिल का धड़कना |
प्यार होने लगेगा अपने से ,अपने परिवेश से ,
और अपने बच्चों के भविष्य से |
फिर ! फिर ,मकान कौन बनाएगा ,
बिल्डर क्या करेगा ? कहाँ जायेगा ?
और जो इनमे सोचने की शक्ति आ गयी तो !
इनका भी जमीर जाग गया तो !
ये अल्लम-गल्लम ,भ्रष्टाचार को,
महसूस करने लगे तो !
तो क्या इन्कलाब ही न आ जाएगा |
एक हल्की सी जिन्दगी की सुगबुगाहट ,
एक धीमी सी रेख रोशनी की ,
पर्दे के पीछे से सुन देख लेते हैं अंधेरे इस बस्ती में ,
और दौड़ के जाते है चुगली करने साहब से ,
फिर रची जाती हैं साजिशें ,
पहले डराया -धमकाया जाता है ,
न माने तो सौगातों के नाम पे भीख बांटी जाती है ,
और फिर भी बात न बनी तो ! तो फिर क्या ?
आ जायेगी एक नयी लेबर >>
गरीबों की कमी थोड़े ही है ;
दो जून की रोटी और सर पे छत तो चाहिए ही |
जहाँ भी जायेंगे ये ही मिलेगा ,
फिर ! यहाँ ही अच्छे है ,टिके तो है |
अंधेरों की साजिशें यूँ ही चली हैं ,
यूँ ही चलेंगी ! ये बस्ती यूँ ही गुलजार रहेगी ,
विकास और समाज को चिढाती हुई |................आभा
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