Friday, 28 February 2014

                                             { पिता हमारा ! पथ प्रदर्शक ,ब्रह्म-प्रेम ,रस-धारा है }
                                              ..........................................................................
जीवन के इस महा-समर में घिर जाते हैं जब हम तम में ,
राहू- केतु बन---विपदायें दावानल सी दहलाती हैं ,\
कर्म-योगि बन पथ को साधो ,निर्माणों का मार्ग दिखाता है ,
औ जीवन की वैतरणी तरने को दृढ ,स्थिति-प्रज्ञ बनाता है ,
पिता हमारा ! पथ प्रदर्शक ,ब्रह्म-प्रेम ,रस- धारा है ....
                                      माँ के कोमल सुरभित भावों को ,जीवन पथ पर दृढ़ता देता ,
                                      विश्वाशों की ध्रुव-चेतना संग असी -धारा पे चलना सिखलाता है ,
                          .            अपनी स्व की मर्यादाओं से औ अनुपम व्यवहारों से -----------,-
                                      बाधाओं के गिरि-शिखरों पे चढना जो हमको सिखलाता है ,
                                      पिता हमारा !पथ प्रदर्शक ,ब्रह्म-प्रेम ,रस-धारा है।।
तोड़ कर श्रृंगों का सीना ,सरित बन बह जाओ तुम ,
कोटि दावानल की लौ में ,शलभ बन जल जाओ तुम ,
समय हो कितना कठिन ,कर्तव्य-पथ से ना डिगो तुम ,
दृढ-हृदय के सामने यातनायें भी थकेंगी ---------------
कटु प्रहारों को सहकर जो दृढ रहना सिखलाता है ,
चलते रहना ध्येय तुम्हारा ,उद्धम का मार्ग दिखाता है
पिता हमारा !पथ प्रदर्शक ,ब्रह्म-प्रेम ,रस-धारा है ....

                                





जब तक मैं मैं हूँ, तुम तुम हो,
है जीवन में जीवन।
कोई नहीं छीन सकता
तुमको मुझसे मेरे धन॥

आओ मेरे हृदय-कुंज में
निर्भय करो विहार।
सदा बंद रखूँगी
मैं अपने अंतर का द्वार॥

नहीं लांछना की लपटें
प्रिय तुम तक जाने पाएँगीं।
पीड़ित करने तुम्हें
वेदनाएं न वहाँ आएँगीं॥

अपने उच्छ्वासों से मिश्रित
कर आँसू की बूँद।
शीतल कर दूँगी तुम प्रियतम
सोना आँखें मूँद॥

जगने पर पीना छक-छककर
मेरी मदिरा की प्याली।
एक बूँद भी शेष
न रहने देना करना खाली॥

नशा उतर जाए फिर भी
बाकी रह जाए खुमारी।
रह जाए लाली आँखों में
स्मृतियाँ प्यारी-प्यारी॥

Thursday, 27 February 2014

                 { महा शिव रात्रि }
                  *************
**** महा शिव रात्रि ,जो सत्य है ,वही शिव है -वही सुंदर है | यही शिवरात्री का मूल मन्त्र है ,सत्य नेति -नेति करके जो शेष बचे ,ज्ञान से परे __जो केवल होने का अहसास मात्र  है  जब! सब कुछ  मिल जाए -वही शिव है जिसे ब्रह्मा -विष्णु महेश सब पूजते हैं ,जिसे राम भी अपना आराध्य मानते हैं -___
     " लिंग थापी विधिवत करी पूजा |शिव सामान प्रिय  मोहि  न दूजा "__________
         मानस में तुलसी ने प्रत्येक काण्ड का प्रारंभ शिवार्चन से ही किया है __________"भवानीशंकरौवन्दे श्रद्धा विश्वास रुपिणौ | याभ्यां बिना न पश्यन्ति सिद्धा: स्वान्तःस्थमीशवरम " ||_________शिव जिसके बिना आप अपने अंत:करण में स्थित ईश्वर को देख ही नहीं सकते |
***कंकर -कंकर में है शंकर | शिवोहम -शिवोहम | सारी जगति ,जगती के सारे क्रिया कलाप सब शिव का ही स्वरूप हैं ,शिव को ही समर्पित हैं और शिव की ही अर्चना हैं | गौर वर्ण शिव ,__________
शंखेन्द्वाममतीव सुन्दरतनुम् शार्दूलचर्माम्बरं | कालव्यालकरालभूषणधरं गंगा शशांक प्रियम || काशीशं,कलिकल्मशौघशमनम कल्याणकल्पद्रुमं | नौमीयम ! गिरिजापतिं गुणनिधिम कन्दर्पहं शंकरम__
***यही तो है शिव का स्वरूप जो दैनिक जीवन को चरितार्थ करता हुआ ,विपरीत में भी शांत और स्थिर रहने का मार्ग दिखाता है | सुंदर गौर वर्ण ,कमल से नयन ,  आजन बाहू ,कोमल गात संग में , उमा -पार्वती -अम्बिका भवानी -जिनकी सुन्दरता --''छबि गृह दीप शिखा जनु बरईं '' है  इसपर भी जोगी जटिल अकाम मन नग्न अमंगल वेष | घोर विपरीततायें जैसे संसार को हर पल याद दिला रहे है शिव किजीवन हलाहल है , पर विष  रोक लो कंठ में ही ,न अपनेशरीर को विष की बेली  बनने दो  और न  ही विष को समाज पे उगलो ,  कि वो कंठ में जाय और दवा बन जाए ताकि रोग दूर हों और तुम भी नीलकंठ का सुंदर मनभावन रूप ले के जियो | कितनी अदभुत सीख है ,पर कहाँ हम देख पाते हैं हम तो केवल जल चढ़ा के ही कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं |
*** आस्तीन में ही नहीं शिव के तो गले में और सर पे भी सर्पों की माला है | हम तो आसपास आस्तीन का एक सांप होने से ही विचलित हो जाते हैं ,पर जहाँ धोखे ही धोखे हो ---अपने भोलेपन में भोले बाबा ने वर दिया भस्मासुर को वो उन्ही को भस्म करने की सोचने लगा ,रावण ने शिव के आराध्य राम से ही बैर मोल ले लिया ,
दक्ष ने अपने घमंड में जग करता को नहीं पहचाना ,यहाँ तक कि सती ने भी राम की परीक्षा के समय दुराव किया -तो भी विवेक रूपी समुंद्र को आनंद देने वाले ,पाप रूपी घोर अन्धकार का नाश करने वाले ,तीनों तापों को हरने वाले ,मोह रूपी बादल को छिन्न -भिन्न करने वाले ,वैराग्य रूपी कमल के सूर्य कभी विचलित नहीं हुए अपितु संसार के कल्याण हेतु समाधिष्ट होगये और समाधि की अवधि पूर्ण होने पे सकल जगत के कल्याण के कार्यों में प्रविष्ठ हुए  |  क्या शिव का ये स्वरूप क्षमा सिखाने के लिए ही नहीं है ?पर कहाँ सीख पाते हैं हम ?
***  शिव के वस्त्र ,व्याघ्र चर्म और वल्कल वस्त्र जो कहीं से भी सुखदायी नहीं हैं ,हर परिस्थिति में  समायोजित होने और  प्रसन्न रहनेकी सीख देते से प्रतीत होते हैं | मस्तक पे आधा चन्द्रमा , कलंकित को भी आश्रय देने की सीख सर्पों का संग यानी आप चन्दन बन जाओ और अपने शीतल व्यवहार से अपने दुश्मनों को भी शांत करने की कला सीखो ! कमंडल अर्थात संचय की प्रवृति का त्याग ,केवल जीने लायक संचय, जटाओं में गंगा ( गंगा को अपने वेग  और पवित्रता पे बड़ा अभिमान  था ,वो स्वर्ग से नीचे नहीं आना चाहती थीं उन्होंने शिव की जटाओं में सामना स्वीकार किया क्यूंकि  गंगाजी को पूरा विश्वास  था कि वो अपने वेग से शिव को पातळ  में ढकेल देंगी पर शिव ने उन्हें संभाला और सात धाराओं में बाँट दिया )  शिव की दृढ़ता ,कठोरता संयम और तीक्ष्ण बुद्धिमता की एक झलक ,कठिनाई में भी विवेक मत खोओ ,स्थिर बुद्धि और दृढ संकल्प हर परिस्थिति में राह दिखाते हैं पर कहाँ समझ पाते हैं हम ?| समस्त कठिनाइयों को ,अशुभ को ,अशौच को , भय विद्वेष कलंक को ,दुःख -दाह को ,आत्मसाध कर सरल ,शांत ,निर्लिप्त ,बैरागी और लोककल्याणकारी जीवन शैली --यही  शिव है !  जो जगतपिता है कल्याणकारी है ,जो दूसरे के हित हेतु विषपान करता है ------
                                जरत सकल सुर वृन्द विषम गरल जेंहि पान किया |
                                 तेहिं न भजसि मन मंद  को कृपालु संकर सरिस  ||
  जिस भीषण हलाहल से देव- दानव सब जल रहे थे उसको जिन्होंने स्वयं पान किया ,रे मन तू उस शंकरजी को क्यूँ नहीं भजता --उनके सामान कृपालु और कौन है | आज महाशिवरात्रि के पावन पर्व में अपने आराध्य शिव को उनके स्वरूप की विशेषताओं और कल्याणकारी भावनाओं को अपने अंदर उतारने का संकल्प ! यही है आजका मेरा शिवार्चन | हर हर महादेव ,बम -बम भोले |
*** पर शिव के अर्चन का कोई विशेष दिन ही क्यूँ ? क्यूँ न प्रतिदिन हम उन्हें ध्यायें ? हाँ ! हम प्रति दिन प्रतिपल शिव के ध्यान में रहें पर कभी अतिरिक्त ऊर्जा की भी आवश्यकता होती है |ये मानव मन बहुत शीघ्र विचलित हो जाता है इस की नीव बहुत ही कमजोर है ,अब एक मजबूत और पक्के मकान  के लिए तो नीव का मजबूत होना बहुत आवश्यक है तो समय समय पे ये व्रत -त्यौहार हमारी नीव को पुख्ता करने का ही कार्य करते हैं ताकि हम आंधी तूफान और भूकम्प में भी डगमगाएं नहीं,चिन्तित न हों ,विचलित न हों  | कलयुग में तो विचलित करने वाली घटनाएँ साथ-साथ ही चलती है | मीरा का जीवन नहीं हिला -नीव पक्की थी ,ध्यान की  भक्ति की नीव थी मजबूत ! जैसे हम मोबाइल को रोज चार्ज करते हैं वैसे ही मन की चार्जिंग भी बहुत जरुरी है |मन को परमात्मा से कनेक्ट करना ,ये व्रत त्यौहार हमारे जीवन में सौकेट का काम करते हैं ,अपने मन की डोरी लगाइए और कई दिनों के लिए चार्ज हो जाइए | भगवान कहाँ खाते हैं वो तो भाव के ही भूखे हैं ,शिव ही सत्य है ये भाव कहीं गहरे हमारे भीतर पैंठ रहा है | हम शिवोहम को पहचान पा रहे हैं | नेति नेति करना हमें आने लगा है हम ज्ञान से परे जाने लगे हैं फिर  जो बचता है वही कल्याणकारी शिव है ,पार्वती पति हर हर शंकर ,कण -कण शंकर ,शिवोहम ||
*** शिवरात्रि कल्याणकारी हो ,मंगलमयी हो ,स्वयं से स्वयं की पहचान करवाए ...आभा ..









Sunday, 23 February 2014



विश्व- पुस्तक मेला ---एक सुखद अनुभव ! मन आनन्दित है ,आह क्या मैं सचमुच में यहाँ हूँ ! यही तो है मेरी कल्पनाओं का परी लोक |जैसे मशीन में पैसा डालने पे बच्चे की झोली में अनगिनत रंग-बिरंगी कैंडी का झरना बहने लगता है वैसे ही पुस्तकों का समुद्र लहलहा रहा है | मैं फुदकी चिड़िया की मानिंद कभी इस स्टाल -कभी उस स्टाल पर घूमती रही |किताबों का सैलाब ,हर विषय पे मन माफिक पुस्तकें एक ही जगह मिलने की ख़ुशी क्या होती है ये यहीं पे आके महसूस किया जा सकता है |गीताप्रेस हो या पैन्गुइन प्रकाशन भीड़ का रेला बह रहा है | यहाँ आके लगता है कि आज भी किताबों के प्रति दिलचस्पी बरकरार है लोगों में | हिन्दुस्तानको सही में देखना हो तो इस तरह की जगहों पे ही देखा जा सकता है ---पोलिटिक्स से परे एक सुकून भरा माहौल |
एक सुकून यह भी कि मेरी लाइब्रेरी में यहाँ मौजूद कई लेखकों की पुस्तकें हैं |बेस्ट सेलर भी और चर्चित भी |
सबसे बड़ी ख़ुशी छोटे-छोटे बच्चों को देख के हुई जिन्होंने पुस्तकें खरीदते ही सीढ़ियों में ,पेड़ के नीचे लॉन में हर जगह बैठ के पढना शुरू कर दिया , इतनी उत्सुकता और ऐसे पढ़ रहे हैं मानो अभी ही परीक्षा देनी है |यही तो आशा है हमारे सुनहरे भविष्य की |
क्या खरीदूं क्या छोडूँ मन है की बेलगाम हो रहा है ,बुद्धि समझाती है इतना पढ़ पाएगी ? मन कहता है क्यूँ नहीं जहाँ चाह वहां राह ! खूब सारी पुस्तकें खरीद लायी हूँ | अभी सबके विषय में टिप्पणीं और लेखक की कलम से पुस्तक विवेचना पढ़ रही हूँ |
हिंदी युग्म के प्रकाशक श्री शैलेशजी से भेंट एक सुखद और मधुर अनुभव रहा ---बेहतरीन काम कर रहे हैं ,मेरी ढेर सी शुभ कामनाएं उन्हें एक उभरता हुआ सितारा हैं वो ! उनके स्टाल से भी कुछ पुस्तकें खरीदीं और सुश्री वन्दना गुप्ता लेखिका ''बदलती सोच के नये अर्थ ' और श्री किशोर चौधरी लेखक ''चौराहे पे सीढियां '' से मिलना भी एक सुखद अनुभूति थी |
बहुत समय से कुरान पढने की इच्छा थी | यहाँ पे फ्री में बंट रही थी तो सोने पे सुहागा हो गया |
लौट के सभी ने एक -एक पुस्तक ले ली और पन्ने पलट के अवलोकन करना चालू | किसी को नमक स्वादानुसार में नमक ज्यादा लगा तो कोई इस्लाम फैक्ट्स वर्सेस फिक्शन को पढ़ के हतप्रभ था कि ये धर्म इतना कट्टर नहीं है | कवितायें कहानियाँ उपन्यास ,लेख ,बेस्ट सेलर और रिलीजियस बुक्स ! आज अजय की बहुत कमी महसूस हो रही थी ,वो मेरे लिए ढेरों पुस्तकें खरीद देते थे और फिर मैं पढ़ के उनको क़िताब में क्या है सुनाया करती थी |----  आभा ----

Friday, 14 February 2014

HAPPY VALENTINE                                                               
                                                       गजल का हुस्न हो तुम ,नज्म का शबाब हो तुम |
गजल का हुस्न हो तुम नज्म का ख्वाब हो तुम !
सदायें साज हो तुम नगमाये ख़्वाब हो तुम !
हुस्न को गजल नाजुकी बख्शने के लिए वसंत का अंदाज जरुरी है ; ---
मौसिम है निकले साखों से पत्ते हरे हरे ,
पौधे चमन में फूलों से देखे भरे भरे |
यही तो मौसम है प्यार का , मनुहार का ,उपहार का , Happy Valentine ! कहने का इसका विरोध क्यूँ ? विगत से ही वसंतोत्सव तो हमारी संस्कृति का एक अभिन्न अंग रहा है वसंत पंचमी से होली तक उत्सव ही उत्सव .प्रकृति के रंग में रंग जाने का मौसम .और प्रकृति तो प्यार का ही स्वरूप है | अब बच्चे वैश्विक सभ्यताओं में जीवन यापन कर रहे हैं ; कुछ नया अपना रहे हैं , इसमें बुराई क्या है ?ये, है तो ; प्यार का ही त्यौहार ! एक यूरोपीय संत , शादी , परिवार ,समर्पण और उस पे भी अंत तक प्यार बना रहने की रीति से इतना प्रभावित हुआ कि उसने अपने समाज को भी ये उपहार देना चाहा |वो अपने यहाँ भी शादियाँ करवाने लगा और एक पत्नी व्रत का वादा लेने लगा बच्चों से .ये हमारे लिए हर्ष का विषय है | हमारी परम्परा का ही विस्तार हो रहा था .|हाँ ! प्यार को चंद पलों या चंद दिनों में समेटने की प्रवृति और प्यार के सरेआम दिखावे की प्रथा की फूहड़ता को सहन नहीं किया जा सकता ,वरना तो प्यार मीरा है ,प्यार राधा है ,प्यार गोपी-ग्वाले हैं ,प्यार शकुन्तला की मासूमियत है ,प्यार यक्ष का संताप है ,प्यार श्रद्धा और इड़ा का अनुराग है प्यार उर्मिला का त्याग है और सीता का दृढ विश्वास है ,प्यार प्राची में फैला मधुर राग है , फूलों का पराग है भंवरे का गुंजन है ,तितली की शोखी है ,कल -कल करती नदी का मधुनाद है ,बिखरी अलकों का तर्क जाल है और अभिलाषाओं का शैल श्रृंग है |प्यार प्रकृति की हंसी है --------
उच्च शैल शिखरों पर हंसती प्रकृति चंचला बाला |
धवल हंसी बिखराती ,अपना फैला मधुर उजाला ||
क्या ये दृश्य प्यार में डूबने को मजबूर करने को काफी नहीं है | इसका तो उत्सव होना ही चाहिए ! जो नकारे उसके लिए तो यही कहा जा सकता है ---
तुमने देखी नहीं है साहब आँख कोई शरमाई हुई ;
अगरचे देखते तो कहते ---------
अब तो नकाब मुहं पे ले जालिम कि शब हुई |
शर्मिंदा सारे दिन तो किया आफ़ताब को ||
वादा लीजिये ,वादा दीजिये ,फूलों से ,चाकलेट से टैडी से या रसगुल्ले से ,अकेले या माँ-बाप के साथ मिलके ! बात पक्की कीजिये , इश्क दस्तक दे रहा है दिल पे! आँखों से इजहारे मुहब्बत करिये और पूरी जिन्दगी इश्क की बारिशों में भीगिए | शुक्र है कहीं तो इश्क पनप रहा है इस बेगैरत दुनिया में ,गर डर गये तो ; दुनिया तो इसे मिटाने को ही बेताब दिखती है और फिर कहना पड़ेगा ----
तुम्हें दूर से ही देखें ,हरगिज न पास आयें ,
आँखों में जिन्दगी भर तेरा इंतजार डोले |
प्यार की हर मौज सागर को समेटे होती है ,जब बिछड़ भी जाओ तो बिछड़ने का अहसास नहीं होता ,जो पल गुजारे थे अपने वैलन्टाइन के संग उन्हीं पलों के सहारे सागर में भी चहलकदमी कर सकते हैं |---
हर सुबह उठ के तुझसे मांगूं हूँ मैं तुझी को ,
तेरे सिवाय मेरा कुछ मुद्दआ नहीं |
जिनकी शादी तय हुई है ,जिनकी अभी शादी हुई है ,जिनकी शादी की सालगिरह है ,और जो दशकों से प्यार के हिंडोले में झूल रहे हैं सभी को Happy Valentine .खूब प्यार- मनुहार से ये दिन मनाएं अच्छा सा उपहार दें .क्यूँ कि -------
ये वो नगमा है जो बनाया नहीं जाता ,
रेखतों से जिसको सजाया नहीं जाता , ----इश्क बस दुनिया के बाशिंदों को ही हासिल होता है तभी तो भगवान् को भी प्यार करने को धरा पे आना पड़ता है ----
दिल के तारों की छुवन से ,बजता है ये साज ,
इश्क खुदा को भी बन्दा बना देता है |-----------------आभा -----------

Thursday, 6 February 2014

भैसन्ही माह रहत नित बकुला '' बहुत पहले शरद जोशी की इस रचना में भैंसों का जिक्र आया था .बगुलों और भैंसों के चरित्र को क्या खूबी से बयाँ किया गया था --बगुले अक्सर वहीँ रहते हैं जहाँ भैंसें चर रही हों या बैठी जुगाली कर रही हों .भैंसें वेजिटेरियन और बगुले नॉनवेज,एक चौपाया एक दो पाया पाखी ,एक धीमी गति पे विश्वास करने वाला और एक फुर्तीला , घाघ पर पता नहीं क्यूँ दोनों सदैव आस-पास ही रहते हैं .यदि बगुले को गौर से देखा जाय तो स्थानीय नेता सा ही लगता है | शिकार पे नजर रखे विनय की प्रतिमूर्ति |उपर से धीर -गम्भीर अंदर से महा चालू और चालाक |भैंसें गंदले और साफ़ जल में अंतर नहीं कर पाती और जल देखते ही तालाब में उतर जाती हैं और साफ़ जल को भी कीचड़ कर देती हैं और गंदला जल तो उन्हें निमन्त्रण देता सा प्रतीत होता है | नेता भी भैंसों की तरह ही होते है ये अपने छुद्र लाभ के लिए किसी भी गंदे या उलझन भरे कार्य में उतरजाते हैं और अपने को गन्दा करने के साथ -साथ -समाज के आर्थिक ,सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन को कीचड़ के देते हैं |नव दौलतिया संस्कृति के सारे कुकर्मों से ये ही व्यक्ति जुड़ा होता है |
भैंस और बगुले की ये दोस्ती किसी वैचारिक या सैद्धांतिक आधारपे है ये साबित करना तो मुश्किल है पर बगुला रूपी नेता चालक बड़ा है वो आराम से बैठी भैंस को पानी में जाने को लालायित करता है और एक बार भैंस गई तालाब में तो ---एक मछली सारे तालाब को गन्दा करती है और यहाँ तो पूरी साबुत भैंस ही उतर रही है तालाब हिचकोले खायेगा ,कीचड़ डोलेगा और किनारे बैठा बगुला आराम से मछलियाँ खायेगा .ऐसे ही जैसे भैंसें बगुलों को अपनी पीठ पे बैठा लेती हैं असामाजिक और काले धंधे में लगे लोग इन नेताओं को आदर देते हैं और नेता भी इनके बिना रह नहीं पाता | राजनीती में भी कम लातिहाब नहीं है इंच भर भी संवेदना नहीं होती पर आंसू जोर शोर से टेली -कास्ट किये जाते हैं | किनारे बैठा बगुला जनता रूपी परेशानहाल लोगों और धरने प्रदर्शन करने वालों का इंतजार करता है और अपने द्वारा ही पैदा की गयी समस्याओं के समाधान के लिए उन्हें लपक के अपने बगुले पन का प्रदर्शन करता है .
मुझे लगता है किसी भैंस ने ये कालजयी रचना पढ़ ली होगी | और उसने सबको जाके बताया होगा कि देखो बहनों ये नेता तो रोज ही दूरदर्शन पे आ रहे हैं और हमें कोई पूछ भी नहीं रहा ,यहाँ तक कि ये कहते हैं 'भैंस के आगे बीन बजाओ भैंस खड़ी पगुराय ',अरे शरद जी ने तो कहा था कि कीचड़ वाली भैंस की पीठ पे बैठ के ही ये अपना धंधा चलाते हैं फिर हम नेपथ्य में क्यूँ हों !और सभी ने निश्चय किया हम अपनी ताकत से सरकार को हिला देंगी ,जिम्मेदारी मिली आजमखान की भैंसों को क्यूँ कि वो क्वीन विक्टोरिया की कैटेगरी में आती है ,और देखिये अक्ल बड़ी या भैंस वाली भैंस ने क्या कांड रच दिया ,सारा पुलिस महकमा ,सारे टीवी चैनल, हिल गये .गोबर सी महकने लगी बसंत ऋतू | बगुले और भैंस का पवित्र रिश्ता एक बार फिरसे अपवित्र हो गया |__________________
 आभा 

Monday, 3 February 2014

               ''  सखि फिर बसंत आया .''
                ~~~~~~~~~~~~~~~~~~
     फिर चली आयी  निगोड़ी ! कोयल ये काली मतवाली ,कानों में रस घोले बोली |बोली क्या! पंचम सुर में डोली ,सखि बसंत आया -सखि बसंत आया |
तरु -वासिनी ,अंतर्यामिनी ,तुझे किसने बतलाया इसका आना ?स्वागत में बसंत के दूर देश से आकर सदा ही गाये तू! ये मधुर तराना |कुहू कुहू बोली कोयल तब ! खिड़की खोलो बाहर झांको --सर्दी की ठिठुरन को दूर भगाता ,नर्म धूप की ऊष्मा में ,सुरभि की गागर भर लाया ! सखि बसंत आया |
        अरे वाह ! सच में ही बसंत का आगाज हुआ है |हिम में तम में कोहरे की चादर में सोती प्रकृति को मानो अनंग  मदन का बाण लगा हो |बसंत पंचमी अपनी सम्पूर्ण मादकता के साथ द्वार खड़ी इठला रही है |कामदेव की सखी रति अपनी पूरी सजधज के साथ उतर आयी है धरती पे, अपने प्रणय देवता को रिझाने को --जो, शिव के शाप से '' बिनु वपु व्यापहिंसभी पुनि ''और ''अबते रति तव नाथकर ,होइहिं नाम अनंग '' बिना शरीर के ही सब जगह व्याप्त है |तो उसको रिझाने का श्रृंगार भी अलौकिक ही होगा | वो कामदेव!  जिसने  शिव की समाधि को भंग करने के लिए  लोक हित हेतु अपने प्राणों का बलिदान कर दिया  ,लेकिन शिव को जगा भी दिया अपने फूलों के बाण और पराग के शर से ,वो ही कामदेव वसंत में सृजन ,प्यार ,मनुहार बन आता है ,अपने पूरे वैभव के साथ अनगिनत आयामों में ,आह्लाद और अमृत लुटता हुआ |  बसंत का आगाज ही सरसों के चटख पीले फूलों की दूर तक फैली मखमली चादर ,और  सरसों के खेतों की हरियाली के साथ होता है , मानो माँ प्रकृति ने  रेशमी हरी ,पीले बूटों वाली मनभावन साड़ी पहनी हो जो दूर क्षितज पर जाके व्योम की नीलिमा  से मिलके नीले आंचल का अहसास करवाती है जिसपे उदित होते सूर्य की सिंदूरी आभा और धूप की सुनहरी  किरणों ने मिल के लहरिया जरी गोटे का काम  करके उसे और भी सुंदर बना दिया है | महादेवी जी के शब्दों में ---,
                                                           कुमकुम से सीमान्त सजीला ,
                                                           केसर   का   आलेपन    पीला |
       भारतीय मनीषा में बसंत की अवधारणा ,नव सृजन ,नित नवता का आभास लिए हुए है ,प्रकृति का कण -कण मानो सृजनोत्सव मनाने को आतुर है -निरालाजी के शब्दों में ---
                                                           नव गति नव लय ताल छंद नव ,
                                                           नवल कंठ नव ,जलद मंद्र नव ,
                                                           नव नभ के नव विहग वृन्द को ,
                                                           नव पर नव सुर दे------------- |
       करवटें बदलता मौसम ,अमरूद ,सेब ,आडू .खुबानी ,बादाम ,आलूबुखारे के वृक्षों की  छोटे -छोटे टिमटिमाते -गुलाबी -सफ़ेद -पीले फूलों से लदी डालियाँ और फिजां में तिरती इन फूलों की मधुर सुगंध |आम के वृक्ष पे छोटे- छोटे दहकते लाल पत्ते और सुनहरी मंजरी |बौर के साथ -साथ लगता है कि आम्र वृक्ष भी बौरा गया है | आम की बौर ,टेसू के फूल और महुआ की मद मातीसुगंध में यूँ लगता है जैसे मन धरती पे है और शरीर फुनगी -फुनगी चढ़ के डोल रहा है | शहतूत का वृक्ष रातों रात  नव पल्लवों  से भर जाता है और रातभर में ही जाने कहाँ से अनगिनत खंजन पक्षी भी आ जाते हैं इन नर्म नाजुक पत्तों का स्वाद लेने को |  बसंत का आगाज होते ही  नीम्बू ,नारंगी ,संतरे के फूल उपवन को महका देते है | अनार की  छोटी- छोटी  लाल कलियाँ  ,बौटल ब्रुश के रक्तिम पुष्प , बेल ,रुद्राक्ष ,जामुन ,खैर ,आंवला, हरड ,बहेड़ा ,पीपल ,मौलश्री ,के नव पल्लव मानो नव गीत की ही पीठिका रचने लगते हैं | नीम के वृक्ष पे असंख्यों छोटे -छोटे सितारों जैसे सफ़ेद फूल उग आये है मानो दीपकों की  झिलमिलाती छाँव का एक संसार ही रच गया हो | बसंत आते ही पारिजात के छोटे छोटे नारंगी धवल पुष्पों का  मखमली कालीन रात्रि के अंतिम प्रहर को ही वृक्ष के नीचे बिछने लगता है औरपुष्प सन्देश देते है ,कान्हा राधा और   गोपियों संग आये थे यहाँ वसंतोत्सव मनाने ,हम उन्हीं के चरणों में समर्पित फूल हैं |गेंदे की क्यारियाँ ,चम्पा चमेली बेला ,मोगरे और वसंत मालती  की लताएँ , गुलाब, कनेर ,डहेलिया ,पैंजी ,डेजी , लिली .ट्यूलिप ,हेसेंथ  ,की क्यारियाँ और बहता सुगन्धित समीर --आमन्त्रण देता प्रतीत होता है  आकाश में उमगते गुलाबी  बादलों को | कश्मीर में सुदूर क्षितज  तक फैली केसर की क्यारियाँ ,पहाड़ो में फूलने वाली पीली चटकीली फ्यूंली ,और बुरांश के लाल गुलाबी सफ़ेद वन ,सनुद्र किनारे काजू के फलों की लाल दहकती पंक्तियाँ और समुद्री पाखी की उड़ती कतारे ,वसंत के आह्लाद को और कई गुना बढ़ा देती हैं |रातकी रानी की कलियाँ  ,रात्रि के प्रथम प्रहर से ही चटखने लगती है और आंगन मह -मह -महकने लगता है |
कचनार की खुबसूरत अनछुई कलियाँ मानो भवरों को गुंजन के लिए अपनी और आकर्षित करती हैं |बांस के नए पत्तों से बने झुरमुट और हवा से बजते कीचकों से निकलते मधुर स्वर बसंत का अनमोल उपहार ही तो हैं |स्वीट पी की झालरें यूँ प्रतीत होती हैं जैसे तितलियों ने अपने हाथों से शिव का रंग बिरंगा सुगन्धित  सेहरा बुना हो | भांग की कोपलों को खाके गुलाटी मारते तोतों को देखने का अपना ही आनंद है ,तरह तरह के पक्षी ,कीट -पतंगे .भँवरे ,रंग बिरंगी तितलियाँ और उस पे माहौल को और खुशनुमा बनाती आकाश में ऊँची और ऊँची उडती रंग -बिरंगी पतंगें मानव मन को मदमस्त कर देती है |रचनाधर्मिता ,श्रृजन,चेतना का प्रवाह प्रकृति से मानव की ओर होता है |
       वसंत ऋतू उत्सव ,आनंद ,उमंग ,उल्लास और चेतना की द्योतक है |कवियों ने वसंत को ऋतुओं का राजा कहा है |और है भी हर सुमन में संकेत होता है मिलन और विरह का |साहित्य वसंत के वर्णन से सराबोर है "कलिन में कुंजन में  केलिन में कानन में ,',बगन में बागन में बगरयो बसंत है '' | बसंत मधु ऋतू है | कालिदास ने ऋतू -संहार में बसंत का जैसा वर्णन किया है वैसा कहीं नहीं दिखाई देता --
                                                      द्रुमा सपुष्पा: सलिलं सपदम ,
                                                      स्त्रीय सकामा: पवन: सुगंधी:|
                                                      सुखा: प्रदोषा: दिवसाश्च रम्या:,
                                                      सर्व प्रिये चारुतरं वसंते          ||
    बसंत के आगमन पे आदिकाल से ही उत्त्सवों की परम्परा रही है | कहीं वसंतोत्सव तो कहीं मदनोत्सव | विश्व के अन्य देशों में भी वसंत को अलग अलग तरीकों से आनंद और उत्साह से मनाया जाता है | अतीत में वसंत का नाता प्रेम ,आनंद और कामनापूर्ति के साथ था पर  अब इसे सरस्वती पूजन के रूप में मनाया जाता है | सर्वप्रथम वीणा वादिनी से वरदान --या कुन्देन्द्युतुषार हार धवला ,या शुभ्र वस्त्रा भ्रिता...वर दे वीणा वादिनी वर दे .....हंस वाहिनी देवी ....  फिर पीले वस्त्र ,पीला खाना ,मीठे चावल ,गुड़ . नृत्य संगीत|
    वसंत प्रेम का प्रतीक है ,फागुन तो फगुआने की ही ऋतू है ,होली में उत्सवधर्मिता चरम पे होती है ,तो अब वैलेंटाइन डे की भी धूम होती है |  ये सब शुद्ध प्रेम का ही प्रतीक है| मौसम खुलते ही युवा जोड़े उद्यानों में चहलकदमी करने लगते है ,एक दूसरे में खोये संवादरत जोड़ों को देख के रास्ता बदल लेना मेरी आदत में शुमार है | किसी कवि ने कहा भी है --------
                                इधर दो फूल मुहं से मुहं सटाए बात करते हैं ,
                               यहीं से काट लो रास्ता यही बेहतर ,
                               हमें दिन इस तरह के रास आये नहीं ये दीगर ,
                               तसल्ली है कहीं तो पल रहा है प्यार धरती पर |
                               उम्र की आग का परचम उठाये बात करते हैं ,
                               यहीं से काट लो रास्ता यही बेहतर |
  और सुभद्रा कुमारी चौहान की वो कविता 'वीरों का कैसा हो बसंत '---------
                                              भर रही कोकिला इधर तान ,
                                               मारू बाजे पर उधर गान |
                                               है रंग और रण का विधान ,
                                               मिलने को आये आदि अंत ,
                                               वीरों का कैसा हो बसंत ,
           बसंत को एक नया अर्थ देती है | केसरिया अर्थ ,मात्रिभूमी के लिए प्राणों के उत्सर्ग का अर्थ |मेरा रंग दे बसंती चोला ,कहके तरुणाई को भी ललकारता है बसंत! एक नई  चेतना और नई जागृति के साथ |
     
प्रेम पर्व आया है | मधु ऋतू आयी है | प्रकृति का अनुपम उपहार |एक जानी  पहचानी आहट लिए ---इसे मोबाईल ,लैपटॉप .एस ऍम एस ,मेसजेस की दुनियाँ में रह के नहीं महसूस किया जा सकता है | प्रकृति का सानिध्य चाहियेगा | काफी  हॉउस को छोड़ के बागीचों में जाना होगा तभी मन प्राण स्पन्दित होंगे |वासंती हवा में भीगना होगा ,सुगन्धित बयार में नहाना होगा तभी प्रेम और वासना में अंतर समझ आयेगा |इस बलात्कारी युग में जहाँ फूल सी बच्ची से लेकर किसी भी उम्र की स्त्री सुरक्षित नहीं है |जहाँ छोटे छोटे गेंदे और गुलाब -बाल मजदूरी करने को और कचरा बीनने को विवश है |जिनके सपने युवावस्था तक पहुंचने से पहले ही अधेड़ हो जाते हैं  |,जहाँ फूल पे बैठी तितली के पीछे भागने की उम्र में फूल सी बच्ची- चौराहे पे फूल बेचते नजर आती है |जहाँ गुब्बारों से खेलने की उम्र में लाल बत्ती पे छोटे -छोटे ,नन्हे -मुन्हे ,गुब्बारे बेचते नजर आते हैं |जहाँ प्यार परवान चढने से पहले ही समाज की भेंट चढ़ जाता है |जहाँ जात-पात के भरम में पड़के प्रेम असमय ही
काल कवलित होक दम तोड़ देता है | ऐसे युग में जो कंक्रीट का जंगल है और जहाँ  भावनाएं भी कंक्रीट ही हो गयी हैं या टैक्नोलोजी में उलझ के मशीनी हो गयीं हैं ,हमें वसंत को जीवन में उतारना ही होगा | बागों में ,उद्द्यानों में ,पार्कों में जाना होगा तभी मन प्राण स्पंदित होंगे |कलुष मिटेगा | सृष्टि से जुडाव होगा तो मासूमियत लौटेगी और प्रेम और प्यार पनपेगा| असल में वसंतोत्सव  होगा! बागों में, नदिया के किनारे ,समुद्र के किनारे--काजू के खेतों में ,पर्वत प्रदेश में- बांज -बुरांस के जंगल में ,शहर के बाहर- खेतो में फूली सरसों की क्यारियों में और फूलों के बागीचों में और आपके घर के पास के उद्द्यान की छोटी सी गेंदा गुलाब की महकती बगिया में |
         सभी को बसंत पंचमी की ढेर सी शुभ कामनाएं | प्रेम ,प्यार ,उल्लास और मनुहार के साथ बसंत आये सबके जीवन में | माँ शारदे का वरदान सभी को मिले  |.............आभा ............












    

Saturday, 1 February 2014

           '' माँ का लाडला मान गया ''
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जब दिमाग कुछ न करने के मूड में हो ,विचारों को सर्दी लग गयी हो तब  दिल को अचानक ठिठोली सूझे ! दिमाग से पंगा लेने की!
शरीर का तापमान अचानक बढ़ जाए लिखने का मन हो जाए ( लिखने के लिए शरीर का तापमान ९८ .४ से कुछ अधिक ही होना मांगता है न ) तो बिना दिमाग के जो लिखा जाए वो ही मैंने आज लिखा  ,हल्का फुलका बिना अर्थ का ------कोहरे की चादर पहने ठिठुरन की बंधक बनी धरती को सर्दी से निजात दिलाने की एक माँ की अपने बेटे से मनौवल ---------------
           उठो लाल अब आँखें खोलो ,
           पानी लाई हूँ मुहं धो लो |
           उठो  छोड़  बादल की रजाई ,
          जाओ जग में करने उजेरा |
बादल की मखमली रजाई ,
कोहरे की कम्बल की नरमाई ,
मुहं पे ओढ़ सूरज मचला ,
सोने दे माँ सोने दे मुझ को |
         
  रोज सवेरे मैं उठता हूँ ,
और काम पे लग जाता हूँ ,
बदले में मैं क्या पाता हूँ ,
तू ही समझा दे ये मुझको |
      साँथरी ये मखमल की मेरी ,
       उठने का ना मन है मेरा ,
       इंसा के बेटे, मन मर्जी करते !
      क्या एक अनोखा तेरा बेटा ?
      सोने दे, माँ! सोने दे मुझ को ,
      कुछ दिन तो, मन की करने दे मुझ को |
अरे लाडले!  भोर हुई ,
पर ये अँधियारा है बड़ा हठीला ,
जाग -जाग ओ मेरे मुन्ने !
जा कर दे ,जग में उजियारा |
जब तक तू ना जागेगा पगले ,
पक्षी कलरव कैसे गायेंगे ?
बछड़े भूखे रह जायेंगे !
पेड़ पौधे भी  क्या खायेंगे ?
           धरा बाट जोहती है तेरी ,
            जागो मेरे जीवन- धन जागो !
            कुहरे की इस मोटी चादर से ,
            जगति को तुम मुक्ति दिलाओ  !
हल्का सा मुँह खोला सूरज ने ,
मरियल सी, धूप खिली धरती पे ,
पर फिर  वो हठी मान -धन माँ का ,
ओढ़ रजाई कम्बल अपनी ,
स्वप्न लोक में जा बैठा |
            माँ ने की मनुहार बथेरी ,
            मुँख चूमा बालों को सहलाया ,
            पर आज मनावल पर भी लाडेसर ,
            माँ के झांसे में ना आया |
बोला माँ मैं धरने पर हूँ ,
मेरी मांगें पहले पूरी हो ,
तभी धरा पे जाऊँगा मैं ,
कोहरा दूर भगाऊँगा मैं |
             अरे बावले! तू  राजा धरती का ,
             तेरी भी क्या मांगें होंगी ,
             पालक है तू इस जगती का ,
            शाशक तू ही, तू! पालन करता |
 टस से मस हुआ ना सूरज ,
धरती पे कोहरे ने चादर फैलायी .
टप-टप- टप- टप टपके दिन भर ,
दुनिया काँपे थर -थर थर थर ,
पेड़ पौधे सब कुम्हलाये ,
तुलसी जी भी झुलस गयी हैं |
पशु -पक्षी और सब बच्चों की
सर्दी के कारण शामत  आयी | 
           माँ ने पूछा ! अरे दुलारे ,
          चल बतला क्या मांगें है तेरी ,
          खड़ी फसल सब जल जायेगी ,
          जल्दी से तू बतला दे मुझको |
खुश हो बोला राजदुलारा ,
अम्मा की आँखों का तारा ,
तिल के लड्डू ओ गुड़ शक्कर .
मूंगफली की कड़क सी चक्की ,
रेवड़ियां और गजक सुनहरी ,
ओ एक ढेरी मूंगफलियों की ,
छील-छील के मुझे खिला दे ,
  कहानी नानी वालि सुना दे |
बादाम ओ गाजर का हलुवा ,
अदरख वाली चाय पिला दे ,
और कुछ भी हैं मांगे मेरी ---
 अरे शांत हो बच्चे मेरे !
चुप कर तू मेरे ओ लल्ला !
देख धारा में मचा है हल्ला ,
सब कुछ है गीलम-गीला |
अस्त -व्यस्त सी जगति सारी ,
पूरे दिन भर घना कोहरा ,
टपक रहा है ,बरस रहा है ,
मेरे बच्चे! मैं भी ठिठुर रही हूँ ,
चाहत तेरी कैसे पूरी हो ?
तुझ बिन लकड़ी गीली है भैया ,
कैसे  जलाए  चूल्हा  ये मैया |
       सूरज तो जिद पर अड़ा है ,
        कोहरा बादल लपेट पड़ा है ,
       मैया मैं हड़ताल करूंगा ,
       इंसा जैसा मैं भी बनूंगा !
मैया को सूझी इक चाल ,
बोली सुन ओ  मेरे लाल !
तुझ बिन कोई काम न उसरे ,
 चल मैं भी करती हूँ !तुझ संग हड़ताल |
      जब तू ही नहीं दिखाई देगा,
       कैसी चक्की कैसा हलुवा ,
       अंधियारे में राह न सूझे ,
      ठिठुरन में कुछ काम न बुझे |
      सूरज की गर्मी न हो भाई ,
      कहाँ का चूल्हा कहाँ से चाय
      बकरी और गैया  ने भी ,
      दूध देने से करदी मनाही |
हंस कर उठ बैठा सूरज ,
गलबहियाँ  अम्मा के डालीं ,
मुहं धो कर के फिर उसने ,
 अदरख वाली  चाय!
        सुड़क डाली ,
आसमान पे चमका फिर से ,
छोड़ बादलों की मखमली रजाई,
कोहरे को फिर दूर भगाया ,
 ठिठुरन से सबको आजाद कराया |
 ख़त्म  हुई हड़ताल सूर्य की ,
 सबने मंगल गीत गाया |
 बसंत आया -बसंत आया ||                


       
     



     





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