Wednesday, 31 December 2014

जाता वर्ष सभी कठिनाइयो को अपने साथ लेता जाए सर्वे भवन्तु सुखिन: का आशीर्वाद दे ______________
जीवन चलने का नाम ! माना कि रुकना मना है ,
पर ,ठहर जाओ ! ठहरो !वर्ष जो जा रहा है ,देखो उसे ,
उसकी पोटली खोलो --बाँध दो उसमे
उड़ते जहाजों के गायब होने की घटनाये
फिर कभी न ये मानवता का दिल न  दहलाएं
कश्मीर की बाढ़ ,और साम्प्रदायिक हिंसाएं
केदारनाथ की त्रासदी भी भूले न थे अभी
फैलिन तूफ़ान को ,बाढ़ की विभीषिका को
सुनामी और सूखे के कहरको
इन सभी राक्षसी मेहमानों को
बांधा तो था हमने उस पोटली में
बलात्कार के चीत्कार को -
भ्रष्टाचार के व्यवहार को -
कन्या भ्रूण के अत्याचार को -
दहशत गर्दों के दुराचार को -
बांध दो बांध दो जाते वर्ष की पोटली में .
ये बहती गंगा का प्रदूषण-
हवाओं में घुलता जहर -
भूख से पेट में पैर गड़ा के सोये बच्चे -
और कंकाल बने माँ -बाप के शरीर -
ये दंगों में बेघर मासूम -
ये शहीदों के कटे सिरों का दर्द -
ये किसानो की आत्म हत्या ,
ये सियासत दानों का झूठा प्रपंच
ये बाबाओं की मक्कारी,
 ये फ़िल्मी दुनिया की निर्लज्जता सारी
सबकुछ बाँध दो जाते वर्ष की पोटली में .
और गांठे खूब कसके और खूब सारी बांधना -
देखना कोई भी छिद्र न हो पोटली में -
कुछ भी नीचे गिर गया तो -
तो जमीन अभी गीली है -
ये विषमताओं का राक्षस रक्त बीज है -
कुछ भी पोटली से सरक गया तो -
तो - तेजी से पनपेगा -
अब कोई दुर्गा नहीं है जो काली को पैदा करे
औ खत्म  करदे इन राक्षसों को ,
 छद्म धर्म निरपेक्षता के ठेकेदारों को
उठा के बाँध दो इस पोटली में
सांस भी न ले पाएं वो आगे से
तो रुको, ठहरो !जश्न से पहले -
इस राक्षस को विदा करो
जश्न मनाओ  ,आगत का स्वागत करो -
पर जाने वाले से भी आशीष लो -!
जो जज्बा मुसीबत के समय होता है -
उसे बनाये रखना !दुश्वारियों को विदा करना
सही सोच और जज्बा देता जाए जाता वर्ष
 मंगल भवनि  अमंगल हारी हो ये नव वर्ष।
और मेटत कठिन कुअंक भाल के हो ये नव वर्ष।।आभा।।







Tuesday, 30 December 2014

बच्चों  के लिए लिखी कुछ लाइने --जो मैं हर छोटी उम्र  बच्चों को थोड़ा अदल -बदल के  देती आ रही  हूँ सर्दी के टास्क के लिये   ----
सर्दी आयी -सर्दी आई ,निकली कंबल और रजाई
 मचा हुआ  हल्ला  टी वी  में  ,देर से आयी जोर की आयी
 आना ही  था मुझको  भइया ,हर वर्ष ही आती हूँ मैं
कोहरा संग -संग लाती हूँ मैं ,कहीं घनेरा ,कहीं अँधेरा
चालीस दिनों का पड़ता चीला ,बिजली की छिपम - छिपाई
तापो सिगड़ी ,अलाव जलाओ ,मत मुहं ढ़क बच्चोसो जाओ
नर्म - नाजुक लवंग लता सी, कन्या हूँ मैं ऋतुराज की
कड़क सर्दी सुन अपना नाम  , लो रूस गयी फिर हिम  गिराई
झूम झपक बरस जाऊं मैं  ,श्वेत धवल हिम बन   झम-झम
कोमल नरम हैं मेरे फाहें , करदें सबका हर्षित मन
भोलू चीखा बर्फ पड़ी है ,नाचे मुनिया छम-छम छम
रंग बिरंगे स्वेटर पहनो ,दस्ताने मोज़े टोपा ओढो।
करो ठीक पुराने स्वैटर ,सी दो- बटन लगादो उनपर
ढूंढो आसपास सब अपने ,जो हैं वंचित देदो जाकर
आँखों में उनके  ख़ुशी मिलेगी ,माँ ने  आशीषें बरसाई
तिलबुग्गा  तिल के लड्डू , मूंगफली ,गाजर का हलुआ
रेवड़ियों की कुट -कु ट से ,सर्दी  की किट किट लजाई
कुट -घुट की गुड की चाय सर्दी का मजा है भाय
घर नहीं हैं जिनके देखो ,उनको जाके कंबल बांटो
तुम सबके प्यारे हो जाओगे ,आशीष अनेकों पा जाओगे।।आभा।।

Monday, 29 December 2014

                                                                                                ''  यादें ''
                                                                                                        *********
 ***** यादें ,बीते वर्ष की ,
बीते वर्षों की ,
यूँ लगता है किसी दूसरे जीवन की
जो ;शायद मेरा ही था -
कुछ साफ़ कुछ धुंधली
अक्सर चली आती हैं --
          वो
अतिथि की तरह आती- जाती हैं
अपनी कीमती पोटली लिये  !और
थमा देती हैं वो पोटली मुझे चुपके से
अक्सर तब -जब मैं चौके में होती हूँ।
हाँ! मिलती हूँ  मैं अक्सर चौके में ही
डरती  हूँ -अतिथी की  है पोटली
कोई चुरा ले कुछ तो !
पोटली दी है संभाल
तिजोरी में दिल की
औ लगी हूँ बनाने मैं चूल्हे पे खाना ,
पर ये क्या ?
 गांठें थी ढीली , बिखर गए मोती
यादो के मोती ,बीते पलों के मोती
बचपन की यादें ,जवानी की यादें
पिता की कहानी वो माँ  की जुबानी
यादें तुम्हारी उन पे मैं वारी
झूलों में झूलूँ बच्चों संग खेलूं
तुम्हारे संग जीवन ,वो गुजरा जमाना
 वही जो था बस अपना
अब है    अफ़साना
पका रही हूँ-  ;चूल्हे में खाना
 गयी बुझ है लकड़ी हुये  कोयले भी ठंडे
धौंकूँगी धौंकनी से ,फूकूंगी जोरों से
पा सांसों की गर्मी भक से जला चूल्हा
औ  चिंगारी बन फैलीं  अतिथि की यादे
चला गया जो भूखा ही -चौके से मेरे
चाय भी न पी पाया --
बनाई तो थी मैंने  नए गुड से
यादों का ये धुंवां
हवन का धुंवां ,सुलगती
गीली लकड़ी का धुंवां
सब लाते हैं आँखों में पानी
बाहर आ गए हैं जलते अंगारे
लेके हाथो में उनको ,डालती हूँ चूल्हे में
कभी  जलीं नहीं  उंगलियां
पर आज न जाने क्यों
आँखें  लगी हैं जलने।
(थोड़े से शब्द , आत्मीय हैं जो मेरे हैं
लगे हैं कुलबुलाने
 आत्मीय बनने को आपके।)  ।। आभा।।

Wednesday, 10 December 2014

घुमन्तु है वो जो  दूधिया बादल
 अक्स मेरा बना के हँसता है अक्सर।
हाँ ! मुझे मैं दिखाई देती हूँ किसी पल उसमे
 औ !तुम भी नजर आते हो पास वहीँ कहीं।
हलचल निर्वात में भी हवाओं की है
बादलों की बदलती  सूरत ,
चुपके से कहानी ये कह जाती हैं।
ऐसे ही जैसे  जिंदगी की हलचल
बचपन पे  बुढ़ापे की ओढ़नी चढ़ाती है।
ये नीला आसमां  ,जमीं  है बादल की
हाँ !  है कुछ ऐसा ही है  रूह  मेरी का रंग।
स्नेह के  दीपक में  प्यार की शिखा की
नीली  लौ से जगमगाती  नीली छत।
हाँ ! जमीं से छत ही तो हो गयी हूँ
 सीख लिया बादलों से  बदलना आकार।
 शक्ति कणो  का कर संचय  हुई सघन
 तिरती हूँ स्वछंद  रिश्तों की डोर से बंधी।
पर सीरत न बादल की बदली न मेरी
सदियों से हम यूँ ही मीठे  पानी ही  हैं।
बरसते हैं तो नदिया झरने बन बहते है
और थक के  खारा समंदर हो जाते हैं।
पवन! जो भटकाता है राह बादल को
औ बदल देता है आकार  उसका
कभी दो पास लाके पुष्प गुच्छ बनता है
 औ पल में ही फूलो को बिखरा जाता है
हाँ मैं ही हूँ वो पवन भी !
हाँ! मैं ही हूँ वो पवन - -खुद को दिशा मुक्त करती हुई।।आभा।

Tuesday, 9 December 2014

गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ बनाया जाय या नहीं पर हम इसे अपनी संततियों को अवश्य पढ़ाएं यदि हमे इस प्रतिस्पर्धात्मक युग में टिके  रहना है और रोगग्रस्त नहीं होना है ------

आज गीता की चर्चा ---- गीता   के विषय में प्रचलित भ्रांतियां- गीता केवल महाभारत में  युद्ध के वक्त अर्जुन को दिया उपदेश है ,गीता  गीता ग्रन्थ ही नहीं है उसे राष्ट्रीय ग्रन्थ  कैसे बनाओगे , गीता बड़ा गूढ़ ग्रन्थ है उसे पढ़ना ही मुश्किल है  ,गीता का सही अनुवाद ही नहीं मिलता है उसे सबने अपनी- अपनी तरह से व्याखित किया है ,गीता सधारण जन के लायक ग्रन्थ ही नहीं है ----- असल में  गीता कोई कठिन और नीरस  योग नहीं है , कोई गूढ़ संस्कृत ग्रन्थ भी नहीं है वो तो जीवन जीने के लिए एक सरस , सरल और सुस्पष्ट कार्यक्रम हैं।
गीता के चौथे अध्याय को पढ़ते हुए पता चलता है कि गीता अनादि ग्रन्थ है उसे समय- समय पे मानव के उपयोग और लाभ हेतु प्रभु  की वाणी मिलती है यथा
''इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान् मनवे प्राह  मनुरिक्ष्वाकवेब्रवीत्।। ''
कृष्ण कह रहे हैं -ये गीता का ज्ञान कभी भी क्षीण होने वाला नहीं है ये तीनों कालों में भी नष्ट नहीं होता ,इसे मैंने पहले विवस्वान (सूर्य )को ,सूर्य ने अपने पुत्र मनु को और मनु ने अपने पुत्र इच्छ्वाकु को दिया इस प्रकार कालांतर में वंश परम्परा से प्राप्त इस ज्ञान को कई मनीषियों ने राजर्षियों ने जाना ,आचरण किया।  पर जब ये गीता योग लुप्त हो गया  तो मैं इसे तुझे बताने आया हूँ ,क्यूंकि तू मुझ को समर्पित है और सच्ची श्रद्धा रखता है।
कहने का अर्थ है कि  गीता केवल महाभारत के द्वारा आया संयोग नहीं है ,ये तो  अनादि काल से प्रभु की लाड़ली पुकार है समस्त मानवता के लिए।  गीता ग्रन्थ हमें बाहर से अंदर प्रस्थान की शिक्षा देता है।  आत्मा का मुख्य उद्द्येश्य अपने को पाना है ,वही गीता सिखाती है।
'ज्ञानाग्नि:सर्वकर्माणि  भस्मसात् कुरुतेअर्जुन ' और 'सर्व  कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ' अर्थात ज्ञान की अग्नि में सब कर्म भस्म हो जाते हैं और और सब कर्मों का अंत ज्ञान में होता है।  अत: कर्मण्येवाधिकारस्ते ,को कर्मयोग नहीं कर्मसन्यास की संज्ञा दी जानी चाहिए। कर्मयोग  ,भक्तियोग और प्रेमयोग  के प्रतिपादन के साथ विभूतियोग ,जैसे अठारह अध्य्याय जीवन को कितना सहज सरल और सम्यक बना देते है ,ये गीता गंगा में डुबकी लगाने के बाद ही अनुभव किया जा सकता है।
''ॐ तत् सदिति निर्देशो '' ॐ  तत् और सत् ब्रह्म को दिखाने  का काम करता है,आरम्भ मध्य और अंत भी यही हैं ,यही भगवान का त्रिविध  'थ्री डाइमेंशनल ' निर्देश है गीता में (अध्याय १७ का २३ वा    श्लोक )
कृष्ण अध्याय १५ के सातवें  श्लोक '' ममैवांशो  जीवलोके जीवभूत: सनातन: ''  में कह  रहे हैं मृत्यु -लोक में जीव ही मेरा सनातन प्रतिनिधि , जो इस बात को जानता है तथा श्रद्धा ,प्रेम , उत्साह ,संयम और विश्वास  साथ कार्यरत   है  ,वही  योगी है।
गीता का  असल तत्व है 'तत्त्वमसि  ' को समझना और साधना। मानव जब' तद्भावभावित:' के चिंतन में आ  है तभी वह 'तत्त्वमसि ' को प्राप्त होता है ,और  है।
गीता  द्वापर में कुरुक्षेत्र में सुनाना ,इस युग के लिए ही सीख थी।  हम सब का जीवन किसी कुरुक्षेत्र से कम नहीं है , यहाँ रोज मर्रा की आपधापी  ,असफलताएँ ,भ्रम ,उलझनें ,कुंठाएं ,विषमताएं और दुःख ,ये सब मानव को अवसाद ग्रस्त कर देते हैं ,इंसान अर्जुन की ही भांति अवसाद ग्रस्त  और  विवेकशून्य हो  जाता है ,जिससे वो कई सारी  शारीरिक व्याधियों से घिर जाता है। ऐसे ही समय गीता इंसान को उबारने में सहायक होती है ,ये जितनी प्रासंगिक तब थी उतनी ही आज भी है। …''''  क्लैब्यं  माँ स्म  पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्धयते।''  तू नपुंसकता कायरताऔर पलायन  को छोड़  और अपना कर्म कर।    ज्ञान से ही हम अर्जुन की तरह ''नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा '' हो जाते है और जीवन को सच्चे अर्थों में जीते हैं।
गीता का १४ वां अध्याय तो शरीर और उसकी क्रियाओं की विस्तार से व्याख्या करता है , सेक्स एडुकेशन को पूरी तरह से समझना हो और वासना ,तृष्णा ,मोह ,विकृतियों को समझना हो यहाँ सबकुछ है ,  शारीरिक और मानसिक  विकृतियां   रेप जैसी कलुषित घटनाएँ भी गीता के पठन पाठन से विलुप्त हो जाएंगी।  पर गीता को शामिल करना होगा जीवन में बचपन से ही।  दिन  भर भाड़ झोंकके ,अनर्गल प्रलाप करके शाम को घर में दारु की बोतल खोल के बैठने वाले जीव से आप गीता पढ़ने की उम्मीद भी नहीं  सकते ,वो तो जोड़ तोड़ की राह पकड़ चुका  है या तो किसी का अंध भक्त है या अंध विरोधी।  वो तो गीता को बच्चों के जीवन में लाने को किसी पार्टी का एजेंडा बताने से भी गुरेज नहीं करेगा ,क्यूँ ? क्यूंकि उसे पता ही नहीं है गीता क्या है ,और क्या कर सकती है।  आज समाज में फैली विकृतियों को जड़ मूल से यदि उखाड़  फेंकना है तो गीता को बचपन को देना ही होगा ,सरकारें सहयोग  करें या न करें  हम  अपनी संतति को गीता दें  ये तो कान्हा की लाड़ली पुकार है ,राष्ट्र-ग्रन्थ बने तो देश का भाग्य ! नहीं तो हर घरमें तो पढ़ी ही जाए ,यही सपना महामना मदनमोहन मालवीय जी का भी था और विवेकानंद ने भी यही सपना देखा था।
अंत में --''मल निर्मोचनम् पुंसां जल स्नानं दिने दिने।
              सुकृग्दीताम्भसि स्नानं संसार मल नाशनम्।।''
''सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दन:।
पार्थो वत्स: सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्।। ''गीता अमृत है ,वह योग नहीं महायोग है ,वह जगद्जननी है ,किसी को निराश नहीं करती ,जब भी कभी निराशा का अँधेरा मन पे छाता  है तो मैं तुरंत गीता के पास जाती हूँ ,वो मुझे आनंद देती है ,घनघोर निराशा में भी मेरी आशा तो गीता ही है और मुझमे जो आभा है है वो भी गीता ही है। जय कन्हैया लाल की ! आभा !











Monday, 8 December 2014

 रेप होने पे , मीडिया इतना संवेदनशील है  कि डिस्कशन के लिए पूजा बेदी और शोभा डे  को( अपना टी आर पी बढ़ाने के लिए  ) टी वी  पे लाकर बहस करवाता है , क्या ये सही में समस्या का हल ढूंढने की कोशिश कर रहे है।  हर रेप के बाद कुछ लोगों को बिठा के  अनर्गल प्रलाप करवाना ,और एक दूसरे की सरकारों पे छींटा कशी  करवाना।
मुझे पिछले महीने दो तीन बार टैक्सी से अकेले यात्रा करनी पड़ी ,तो अपने जानकार की टैक्सी को ही बुलाया उसपे भी हर आधे घंटे पे कोई न कोई फोन करदेता था खैर खबर को , कहाँ पहुंची ,सोना मत --वही सब हिदायतें जो मैं किसी को ऐसी स्थिति   में    देती।  पर जब रात  को ३. ३०  बजे की फ्लाइट थी और दिल्ली की ही कैब लेनी थी तो कोई भी मुझे अकेले भेजने को तैयार न हुआ। हरिद्वार और यमुनानगर से भाई केवल आधे घंटे की दूरी तक मुझे छोड़ने जाने के लिए  ५-७ घंटे की दूरी  तय करके  आने को तैयार थे पर अकेले आधे घंटे की कैब  में भेजने को तैयार नहीं थे। इधर मुझे सबकी परेशानी दिखाई दे रही थी। जिस  परिवार को  मुझे छोड़ने की जिम्मेदारी दी गयी वो रात  को ८ बजे अपने आफिस नॉएडा से द्वारका अपने घर पहुंचा सुबह ६ बजे उसे उठके फिर से बच्चों को स्कूल छोड़ते हुए नॉएडा जाना होता है ,ऐसे में उसे रात तक जगाना मुझे बहुत परेशान कर रहा था ( हालाँकि वो हमेशा ही मेरी सारी परेशानियों में सब से आगे बढ़ के मेरे साथ रहता है ,और मुझे अपनों से भी अधिक प्यारा  है )-तो मैंने १० बजे ही एयर पोर्ट पे जाना तय किया ताकि बच्चों को रात तक न जगना पड़े -पर एक परिवार का शिड्यूल तो डिस्टर्ब हुआ ही। जब हम बुजुर्ग महिलाओं के लिए ही घर वाले इतना परेशान हो जाते हैं तो बच्चियों की सुरक्षा के लिए तो भगवान  पे ही भरोसा है ,अपने डैनों में छिपा के भी नहीं रख सकते।  हम  टैक्स देते है ताकि हमे देश में सुख सुविधा मिले। पर क्या कभी वो मिल पाएगी ,क्या कभी बच्ची  हो या बुजुर्ग - महिला के बाहर जाने पे घरवाले निश्चिन्त होक सो सकेंगे ,जब तक सुरक्षित पहुंचने की खबर न आ जाए।  रोज ही रेप हो रहे हैं दिल्ली में कोई कोईरेप इतना भाग्यवान होता है कि  मीडिआ  की नजरे उस पे इनायत हो जाती हैं और गर्म गर्म बहस होने के बाद इस मुद्दे को फाइलों में पैक  कर दिया जाता है किसी नयी दुर्घटना के लिए किन्हीं दूसरी मॉडल्स या फ़िल्मी सितारों के साथ बहस के लिए।  हम संवेदनहीनता के युग में जी रहे है , अभिशप्त हैं अपनी बेटियों -माओं को सुरक्षित न रखने के लिए। और संवेदनहीनता की पराकाष्ठा वहां होती है जब किसी माननीय जज का डिसीजन आता है की ८४ वर्ष की महिला के साथ रेप को रेप नहीं माना  जा सकता  क्यूंकि वो रजोनिवृत्त हो चुकी होती है।
जब तक हम रेप साबित होने पे दो चार रेपिस्टों को सरे आम कड़ी से कड़ी सजा नहीं देंगे तब तक स्थिति के सुधरने की आशा बेमानी है।