'' यादें ''
*********
***** यादें ,बीते वर्ष की ,
बीते वर्षों की ,
यूँ लगता है किसी दूसरे जीवन की
जो ;शायद मेरा ही था -
कुछ साफ़ कुछ धुंधली
अक्सर चली आती हैं --
वो
अतिथि की तरह आती- जाती हैं
अपनी कीमती पोटली लिये !और
थमा देती हैं वो पोटली मुझे चुपके से
अक्सर तब -जब मैं चौके में होती हूँ।
हाँ! मिलती हूँ मैं अक्सर चौके में ही
डरती हूँ -अतिथी की है पोटली
कोई चुरा ले कुछ तो !
पोटली दी है संभाल
तिजोरी में दिल की
औ लगी हूँ बनाने मैं चूल्हे पे खाना ,
पर ये क्या ?
गांठें थी ढीली , बिखर गए मोती
यादो के मोती ,बीते पलों के मोती
बचपन की यादें ,जवानी की यादें
पिता की कहानी वो माँ की जुबानी
यादें तुम्हारी उन पे मैं वारी
झूलों में झूलूँ बच्चों संग खेलूं
तुम्हारे संग जीवन ,वो गुजरा जमाना
वही जो था बस अपना
अब है अफ़साना
पका रही हूँ- ;चूल्हे में खाना
गयी बुझ है लकड़ी हुये कोयले भी ठंडे
धौंकूँगी धौंकनी से ,फूकूंगी जोरों से
पा सांसों की गर्मी भक से जला चूल्हा
औ चिंगारी बन फैलीं अतिथि की यादे
चला गया जो भूखा ही -चौके से मेरे
चाय भी न पी पाया --
बनाई तो थी मैंने नए गुड से
यादों का ये धुंवां
हवन का धुंवां ,सुलगती
गीली लकड़ी का धुंवां
सब लाते हैं आँखों में पानी
बाहर आ गए हैं जलते अंगारे
लेके हाथो में उनको ,डालती हूँ चूल्हे में
कभी जलीं नहीं उंगलियां
पर आज न जाने क्यों
आँखें लगी हैं जलने।
(थोड़े से शब्द , आत्मीय हैं जो मेरे हैं
लगे हैं कुलबुलाने
आत्मीय बनने को आपके।) ।। आभा।।
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***** यादें ,बीते वर्ष की ,
बीते वर्षों की ,
यूँ लगता है किसी दूसरे जीवन की
जो ;शायद मेरा ही था -
कुछ साफ़ कुछ धुंधली
अक्सर चली आती हैं --
वो
अतिथि की तरह आती- जाती हैं
अपनी कीमती पोटली लिये !और
थमा देती हैं वो पोटली मुझे चुपके से
अक्सर तब -जब मैं चौके में होती हूँ।
हाँ! मिलती हूँ मैं अक्सर चौके में ही
डरती हूँ -अतिथी की है पोटली
कोई चुरा ले कुछ तो !
पोटली दी है संभाल
तिजोरी में दिल की
औ लगी हूँ बनाने मैं चूल्हे पे खाना ,
पर ये क्या ?
गांठें थी ढीली , बिखर गए मोती
यादो के मोती ,बीते पलों के मोती
बचपन की यादें ,जवानी की यादें
पिता की कहानी वो माँ की जुबानी
यादें तुम्हारी उन पे मैं वारी
झूलों में झूलूँ बच्चों संग खेलूं
तुम्हारे संग जीवन ,वो गुजरा जमाना
वही जो था बस अपना
अब है अफ़साना
पका रही हूँ- ;चूल्हे में खाना
गयी बुझ है लकड़ी हुये कोयले भी ठंडे
धौंकूँगी धौंकनी से ,फूकूंगी जोरों से
पा सांसों की गर्मी भक से जला चूल्हा
औ चिंगारी बन फैलीं अतिथि की यादे
चला गया जो भूखा ही -चौके से मेरे
चाय भी न पी पाया --
बनाई तो थी मैंने नए गुड से
यादों का ये धुंवां
हवन का धुंवां ,सुलगती
गीली लकड़ी का धुंवां
सब लाते हैं आँखों में पानी
बाहर आ गए हैं जलते अंगारे
लेके हाथो में उनको ,डालती हूँ चूल्हे में
कभी जलीं नहीं उंगलियां
पर आज न जाने क्यों
आँखें लगी हैं जलने।
(थोड़े से शब्द , आत्मीय हैं जो मेरे हैं
लगे हैं कुलबुलाने
आत्मीय बनने को आपके।) ।। आभा।।
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