Tuesday, 9 December 2014

गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ बनाया जाय या नहीं पर हम इसे अपनी संततियों को अवश्य पढ़ाएं यदि हमे इस प्रतिस्पर्धात्मक युग में टिके  रहना है और रोगग्रस्त नहीं होना है ------

आज गीता की चर्चा ---- गीता   के विषय में प्रचलित भ्रांतियां- गीता केवल महाभारत में  युद्ध के वक्त अर्जुन को दिया उपदेश है ,गीता  गीता ग्रन्थ ही नहीं है उसे राष्ट्रीय ग्रन्थ  कैसे बनाओगे , गीता बड़ा गूढ़ ग्रन्थ है उसे पढ़ना ही मुश्किल है  ,गीता का सही अनुवाद ही नहीं मिलता है उसे सबने अपनी- अपनी तरह से व्याखित किया है ,गीता सधारण जन के लायक ग्रन्थ ही नहीं है ----- असल में  गीता कोई कठिन और नीरस  योग नहीं है , कोई गूढ़ संस्कृत ग्रन्थ भी नहीं है वो तो जीवन जीने के लिए एक सरस , सरल और सुस्पष्ट कार्यक्रम हैं।
गीता के चौथे अध्याय को पढ़ते हुए पता चलता है कि गीता अनादि ग्रन्थ है उसे समय- समय पे मानव के उपयोग और लाभ हेतु प्रभु  की वाणी मिलती है यथा
''इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान् मनवे प्राह  मनुरिक्ष्वाकवेब्रवीत्।। ''
कृष्ण कह रहे हैं -ये गीता का ज्ञान कभी भी क्षीण होने वाला नहीं है ये तीनों कालों में भी नष्ट नहीं होता ,इसे मैंने पहले विवस्वान (सूर्य )को ,सूर्य ने अपने पुत्र मनु को और मनु ने अपने पुत्र इच्छ्वाकु को दिया इस प्रकार कालांतर में वंश परम्परा से प्राप्त इस ज्ञान को कई मनीषियों ने राजर्षियों ने जाना ,आचरण किया।  पर जब ये गीता योग लुप्त हो गया  तो मैं इसे तुझे बताने आया हूँ ,क्यूंकि तू मुझ को समर्पित है और सच्ची श्रद्धा रखता है।
कहने का अर्थ है कि  गीता केवल महाभारत के द्वारा आया संयोग नहीं है ,ये तो  अनादि काल से प्रभु की लाड़ली पुकार है समस्त मानवता के लिए।  गीता ग्रन्थ हमें बाहर से अंदर प्रस्थान की शिक्षा देता है।  आत्मा का मुख्य उद्द्येश्य अपने को पाना है ,वही गीता सिखाती है।
'ज्ञानाग्नि:सर्वकर्माणि  भस्मसात् कुरुतेअर्जुन ' और 'सर्व  कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ' अर्थात ज्ञान की अग्नि में सब कर्म भस्म हो जाते हैं और और सब कर्मों का अंत ज्ञान में होता है।  अत: कर्मण्येवाधिकारस्ते ,को कर्मयोग नहीं कर्मसन्यास की संज्ञा दी जानी चाहिए। कर्मयोग  ,भक्तियोग और प्रेमयोग  के प्रतिपादन के साथ विभूतियोग ,जैसे अठारह अध्य्याय जीवन को कितना सहज सरल और सम्यक बना देते है ,ये गीता गंगा में डुबकी लगाने के बाद ही अनुभव किया जा सकता है।
''ॐ तत् सदिति निर्देशो '' ॐ  तत् और सत् ब्रह्म को दिखाने  का काम करता है,आरम्भ मध्य और अंत भी यही हैं ,यही भगवान का त्रिविध  'थ्री डाइमेंशनल ' निर्देश है गीता में (अध्याय १७ का २३ वा    श्लोक )
कृष्ण अध्याय १५ के सातवें  श्लोक '' ममैवांशो  जीवलोके जीवभूत: सनातन: ''  में कह  रहे हैं मृत्यु -लोक में जीव ही मेरा सनातन प्रतिनिधि , जो इस बात को जानता है तथा श्रद्धा ,प्रेम , उत्साह ,संयम और विश्वास  साथ कार्यरत   है  ,वही  योगी है।
गीता का  असल तत्व है 'तत्त्वमसि  ' को समझना और साधना। मानव जब' तद्भावभावित:' के चिंतन में आ  है तभी वह 'तत्त्वमसि ' को प्राप्त होता है ,और  है।
गीता  द्वापर में कुरुक्षेत्र में सुनाना ,इस युग के लिए ही सीख थी।  हम सब का जीवन किसी कुरुक्षेत्र से कम नहीं है , यहाँ रोज मर्रा की आपधापी  ,असफलताएँ ,भ्रम ,उलझनें ,कुंठाएं ,विषमताएं और दुःख ,ये सब मानव को अवसाद ग्रस्त कर देते हैं ,इंसान अर्जुन की ही भांति अवसाद ग्रस्त  और  विवेकशून्य हो  जाता है ,जिससे वो कई सारी  शारीरिक व्याधियों से घिर जाता है। ऐसे ही समय गीता इंसान को उबारने में सहायक होती है ,ये जितनी प्रासंगिक तब थी उतनी ही आज भी है। …''''  क्लैब्यं  माँ स्म  पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्धयते।''  तू नपुंसकता कायरताऔर पलायन  को छोड़  और अपना कर्म कर।    ज्ञान से ही हम अर्जुन की तरह ''नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा '' हो जाते है और जीवन को सच्चे अर्थों में जीते हैं।
गीता का १४ वां अध्याय तो शरीर और उसकी क्रियाओं की विस्तार से व्याख्या करता है , सेक्स एडुकेशन को पूरी तरह से समझना हो और वासना ,तृष्णा ,मोह ,विकृतियों को समझना हो यहाँ सबकुछ है ,  शारीरिक और मानसिक  विकृतियां   रेप जैसी कलुषित घटनाएँ भी गीता के पठन पाठन से विलुप्त हो जाएंगी।  पर गीता को शामिल करना होगा जीवन में बचपन से ही।  दिन  भर भाड़ झोंकके ,अनर्गल प्रलाप करके शाम को घर में दारु की बोतल खोल के बैठने वाले जीव से आप गीता पढ़ने की उम्मीद भी नहीं  सकते ,वो तो जोड़ तोड़ की राह पकड़ चुका  है या तो किसी का अंध भक्त है या अंध विरोधी।  वो तो गीता को बच्चों के जीवन में लाने को किसी पार्टी का एजेंडा बताने से भी गुरेज नहीं करेगा ,क्यूँ ? क्यूंकि उसे पता ही नहीं है गीता क्या है ,और क्या कर सकती है।  आज समाज में फैली विकृतियों को जड़ मूल से यदि उखाड़  फेंकना है तो गीता को बचपन को देना ही होगा ,सरकारें सहयोग  करें या न करें  हम  अपनी संतति को गीता दें  ये तो कान्हा की लाड़ली पुकार है ,राष्ट्र-ग्रन्थ बने तो देश का भाग्य ! नहीं तो हर घरमें तो पढ़ी ही जाए ,यही सपना महामना मदनमोहन मालवीय जी का भी था और विवेकानंद ने भी यही सपना देखा था।
अंत में --''मल निर्मोचनम् पुंसां जल स्नानं दिने दिने।
              सुकृग्दीताम्भसि स्नानं संसार मल नाशनम्।।''
''सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दन:।
पार्थो वत्स: सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्।। ''गीता अमृत है ,वह योग नहीं महायोग है ,वह जगद्जननी है ,किसी को निराश नहीं करती ,जब भी कभी निराशा का अँधेरा मन पे छाता  है तो मैं तुरंत गीता के पास जाती हूँ ,वो मुझे आनंद देती है ,घनघोर निराशा में भी मेरी आशा तो गीता ही है और मुझमे जो आभा है है वो भी गीता ही है। जय कन्हैया लाल की ! आभा !











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