Saturday, 30 December 2017



खोया-पाया -आभा -चक्कलस की इंतिहा --
 श्रीमदफ़ेसबुकम नाम आधुनिक पुराणं लोकविश्रुतम्।
श्रृणुयच्छ्र द्ध्या युक्तो मम सन्तोषकारणम्।।
-----जी आधुनिक पुराण फेसबुक में एक दूसरे की खिड़कियों से ताकझांक करना या चौपाल बना गुफ्तगू करना आज का सबसे बड़ा सैटिस्फैक्शन है--
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=====कलैण्डरी साल का आखिरी पड़ाव ओर  चहुंओर धुनकी की रूई सी उड़ती चक्कलसियां -क्या खोया क्या पाया जो लक्ष्य निर्धारित किया था उस पर कहां तक पहुंचे !
अपना तो हाल गढ़वाली के एक मुहावरे " चल भाग बल सबमें आग (आगे )" जैसा ही है --परेशानी ने खूब नचाया छूटते-छूटते फिर से दामन थाम लिया पर खैर ये तो जिंदगी है यूँ  चलती है -एक जिंदगी अब फेसबुक की दुनिया में भी जीने लगे हैं हम जैसे लोग -और आज इस फेसबुकी  दिमागी चक्कलस में मैंने भी डुबकी लगाने की सोची == यहां मैंने क्या खोया क्या पाया ये सोचने लगी। ( असल में यहां आने पे कुछ देर को ही सही अपनी निजी परेशानियों से आभासी छुटकारा तो मिल ही जाता है )-
==आभासी दुनिया का ये नीला पटल इस वर्ष बहुत कुछ दे गया मुझे। कुछ बहुत प्यारी सी बहनों जैसी सखियाँ जो शायद मैं यहां न आती तो न मिलतीं -धन्यवाद ,शुक्रिया thanks फेसबुक --आँचल भर प्यार मिला मुझे।
कुछस्नेही  मित्र-प्यारी सखियाँ  मिलीं  जो मेरी पोस्ट को पढ़के लाइक करते हैं,  टिप्पणी करके मेरा मान भी बढ़ाते है --जी भर के धन्यवाद आप सभी का -आप सभी मेरी ऊर्जा हैं मैं आप सभी को पढ़ के ही लिखना सीख रही हूँ।
कुछ मित्र जो पिछले वर्षों में खूब टिप्पणी करते थे अब दूर से ही देखके कन्नी काटने  लगे हाँ बात होने पे या मैसेज में लिख-कह देते हैं कि उन्होंने पोस्ट पढ़ी -अब आप पूछेंगे ये भी कोई बात हुई ऐसे मित्रों ने इग्नोर करना क्यों शुरू किया --तो बात "न्यु " है कि मैं भारत के प्रधानमंत्री श्रीमान नरेंद्र दामोदर मोदी जी की नीतियों की प्रसंशक हूँ और मेरे अधिकतर बुद्धिमान मित्र उनके कट्टर शत्रु ---उस पर  मेरा दोष ये कि मैं ऐसे स्नेहिल मित्रों की वाल पे हक से अपनी बात लिख आती हूँ ---एक तो नारी ="जो कभी भी अरी नहीं हो सकती "=ऊपर से बेबाक अपनी राय लिखने वाली बेचारों ने मेरी चौपाल को दूर से ही झाँक के गुजरना ठीक समझा -ठीक भी है ---यहां तो सब बहस भी अपने मन मुताबिक़ ही चाहते हैं।
कुछ बुद्धिमान आदरणीय बुजुर्ग -जिनको गुरु का दर्जा प्राप्त है फेसबुक में -उनकी पोस्ट की प्रतीक्षा रहती है पढ़ती भी हूँ पर अपने को अभी उस श्रेणी में नहीं पाती कि टिप्पणी करूं ,अपनी इस गलती का अहसास है मुझे पर क्या करूं -
कुछ अति - बुद्धिमान मित्र हैं जो क्या लिखते हैं समझ ही नहीं आता और कभी मेरी वाल पे नहीं आते पर शिकायतें करते हैं मैंने उनके लिखे पे टिप्पणी नहीं की -अब सोचिये कितनी बड़ी दुकष्टि  है
कुछ महिला - पुरुष - मित्र जिन्होंने मुझे फ्रैंड रिक्वेस्ट क्यों भेजी मुझे कभी  भी समझ नहीं आया -वो केवल अपनी फोटो डालते -डालती हैं और फोटो पे शेर सवाशेर ही लिखते -लिखती रहते-रहती  हैं  -अब इनको मैं वाह ,खूब ,सुंदर कितनी बार तो लिखूं -बस अनफ्रैंड इसलिये नहीं करती --कि क्या जाने इस आभासी दुनिया में मेरे किसी अन्य जन्म की आभासी दुनिया के बचपन या बुढ़ापे के मित्र हों
एक झोला भर पत्रकार भाई ,जिनमे से कुछ तो इतने विद्वान हैं कि मैं डर के मारे उनकी पोस्ट पे केवल लाइक ही करती हूँ --ये सोच के कुछ लिख ही नहीं पाती कि  न जाने मैं अज्ञानी अपना असली चेहरा ही न दिखा बैठूं !बड़ी मुश्किल  से  दीदी वाला रूतबा मिला है।
,स्नेहिल ,ढीठ ,मसखरे ,बुद्धिमान ,तथाकथित बुद्धिमान  ,इग्नोरी,एरोगेंट -  खूब सारे मित्र और मित्राणियाँ - कुछ जलकुकड़े ,कुछ घमंडी ,कुछ नकचढ़े रिश्तेदार -कुछ सचमें प्यार करने वाले रिश्तेदार -जो वैसे कभी न पूछें पर फेसबुक में पूछ लेते हैं -  पोटली भर -खूबसूरत प्यारी बेटियां और हैंडसम बेटे ,और आंचलभर प्यारी सखियाँ ----वाह ! ये तो पाया ही पाया की चक्कलस हो गयी -
आभासी दुनिया में खोने को कुछ होता भी तो नहीं है ---
 ----नित्यं फेसबुकम् यस्तु पुराणं पठते नर:|
प्रत्यक्षरं लिखेत्तस्य आत्ममुग्धं फलं लभेत।।
----आते रहना स्नेही मित्रों इस चौपाल में --
मुझे आशीष है विष्णु जी का की जो मेरी चौपाल पे आता रहेगा उसे --कलियुग परेशान नहीं करेगा
"आस्फोटयन्ति वल्गन्ति तेषां प्रीतो भवाम्यहम् ''--सच में -कल रात ही सपने में मुझसे  आकाशवाणी ने कहा था -ऐसे लोग जो मेरी चौपाल पे आएंगे वो कलि के प्रभाव से निडर होक ताल ठोकें उनपर कलयुग का प्रभाव नहीं होगा।
अथ श्रीमदफ़ेसबुके पुराणे -२०१७ रेवाखण्डे संक्षिप्त कथा ---चक्कलस अध्याय: समाप्त:-आभा।







Saturday, 25 November 2017


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 मन सागर की गहन गुहा ?
मूँगे की बस्ती सी यादें 
लाल सुर्ख ! टिमटिम करतीं  
 यादों से  आलोकित जीवन
हों ध्वनित जहाँ पे बीते क्षण
औ वर्तमान संभाव्य बने 
स्मृतियों के चल- चित्र सजा
मानस मेरा वह  काव्य रचे
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घट भरा मिला था साँसों का 
जीने का मूल्य चुकाने को
साँसें उलीचता यह तन मन
रीता रह अश्रु बहाये क्यों ?
तंम  सागर में   जीवन नैया ?
 आदेश लेखनी को दो दो  !
संसृति की तपती धरती को
ये राम-कृष्ण संभाव्य बने |
===============
दो आशीष  मुझे प्रिय तुम 
शून्य मन की मुखर चाहत 
अश्रु बिन सूखे नयन ले
आर्द्र चितवन छंद बनकर
बादलों की तड़ित सी
स्वर्ण ढुरकाती गगन से
गाने को गान प्रभाती का
 राम कृष्ण संभाव्य बनूं  
================
सागर की उठती- गिरती लहरें
 मेरी  साँसों   का   होवें ----नर्तन 
हिमगिरि के मस्तक की  किरणें 
मेरे आखर से दीपित हों
धूलि व्यथा संग उड़ते सपने
नभ में तड़ित बनें चमकें
स्वर्ण रश्मि बन के बिखरें
 संतानों को उपहार बनें
गाने को गान प्रभाती का
ये राम -कृष्ण संभाव्य बने |
================
झर चुके पात पीले तरु के 
 चर-मर ,चर गान सुनाते हैं 
औ राह भविष्य को दिखलाने
मिल मिट्टी में  खाद बनाते है
यादों के  पावस निर्झर बन
आगत को पोषित करनेको 
झर चुके सुमनों के वैभव से 
उर  के छाले वरदान बनें 
गाने को गान प्रभाती का
राम कृष्ण संभाव्य  बनें 
============
दो आशीष  मुझे प्रिय तुम 
 वर्तमान के कोरे कागज पे
भूतकाल का गान सजे, 
गोधूली की स्वर्णिम बेला में
प्राची के नीलम अंगने में
प्रेम पाग की पाती  के
तारों से अक्षर बिखरा दूँ
दिन की अंतिम हंसी उलीच 
गाने को गान प्रभाती का
 राम-कृष्ण संभाव्य बनूं 
=================
वरदान लेखनी को दे दो
निविड़ निशा से तपते  उर को 
प्राची की इंगुरी ''आभा''
दूँ -
सरिता की अल्हड गति औ
नव सुमनों-विहगों का गान मधुर
भर- भर अंजुरी  उलीच चलूं 
 फिर भी न उऋण मैं  हो पाऊं
जो प्रेम दिया तूने मुझको
निर्बल का संबल बन कर मै
प्राणों में अंगारे भर दूँ
जब गाऊं गान प्रभाती का
तो वो भविष्य का गान बने
तीनों काल ध्वनित होवें
औ राम कृष्ण संभाव्य बने || आभा || ...25 नवंबर -जीवन की अमिट कहानी। 

Monday, 13 November 2017


=======हाशिये पे बिछी कुर्सी -मेज --=========
'' हाशिये -चेतना का वर्तुल ''
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[बैठे ठाले की फ़ालतू गिरी ]--बिना हाशिये की रचना --
बीच में पलंग और कमरे के हाशिये पे मेरी कुर्सी -हाशिये पे रहते जीते पढ़ते गुनगुनाते हाशिये बोले चल फ़ालतू बैठी है तो हम पे ही लिख दे -फ़ालतू लोगों की फ़ालतू गिरी यही होती है शायद --ये मेरा शगल है समय गुजारने का -  --मेरी मर्जी  
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पुरानी में छेड़छाड़ बिना आज की गुफ्तगू -तो आज की खबर कि पुरानी रचना सामने आ गयी On This Day के अंतर्गत। हाशिये पे पड़ी मैं इनकी हलचल सुनने लगी - हाशिये मुझे कह रहे हैं -देखा तूने -जल-जमीन-जंगल को हाशिये पे डालने का सबब। चलो हाशिये पे डाला तो डाला उन हाशियों में होने वाली हलचल को पढ़ने की कोशिश तो करो -आज साँसें भी घुटने लगी हैं मेनस्ट्रीम वाली रचना तो जड़ हो चुकी है -कूड़े का ढ़ेर ,हवा-पानी मिटटी सब जहरीली -अब हाशियों को संवारने का वक्त है ,जल-जंगल जमीन और गाँवों को देखने का वक्त ,गाँवदी संस्कृति की ओर लौटने का वक्त ----पुरानी रचना को पढ़ने का आनंद पर तभी जब आप ठाले हों तो वरना कौन देखता है हाशियों को -वो संवेदनाओं से लबालब होते हैं न और संवेदना मोर्डर्न नहीं होती -
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पन्नों पे हाशिये खींचने की परम्परा निभाते -निभाते जिन्दगी कब हाशिये पे आ गयी पता ही न चला | बीतते वक्त के साथ - मैं स्वयं भी एक हाशिया ही तो हो गयी हूँ शायद | हाशिये !पन्ने के किनारे के वो खाली स्थान क्या केवल प्रश्न -उत्तर ,या अंक १,२,३,४लिखने के लिए ही होते है ? मेरे लिए तो हाशिये बहुत मायने रखते हैं |कुछ भी पढ़ते लिखते मेरे हाशिये तो अक्षरों की बूंदाबांदी से भर जाते हैं |कुछ नया अर्थ समझ आया , कोई शब्द नया जोड़ के देखना है कि कृति क्या रूप लेती है ,कोई नया विचार आया, हाशिये हाजिर हैं ;मेरे जीवन के हाशिये भी कभी खाली नहीं रहे| देखा जाय तो पन्नों से अधिक महत्वपूर्ण हैं ये हाशिये |अर्थ नया- पुराना ,आलोचना- विवेचना ,जोड़ना -घटाना ,गुणा-भाग या सोते हुए अचानक कोई विचार कौंधना सब कुछ हाशियों पे ही लिखा जाता है | मन का द्वंद! अक्सर इन हाशियों पे ही उकेरती हूँ, जिसे, कभी -कभी मूल रचना से रबर लगा के हटा दिया जाता है |मेरे जीवन में हाशिये अक्सर साथ साथ ही चलते हैं मैदानी इलाके में एक किनारे पे बहती नदी की मानिंद या पहाड़ की तलहटी पे बसे शहर के एक ओरबहती नदी की मानिंद जो ऐसे ही बह रही है , शहर को जल दे रही है | पेड़ों की जड़ों को अपने आप ही पानी मिल जाता है ,कितने फूल खिलते हैं ,कितने झाड़ों को पानी मिलता है ,जब तक नदी सागर तक न पहुंचे उसे फुर्सत ही नहीं है | जीवन को जीवन देती नदी के जैसे ही हाशिये भी मनुष्य जीवन के लिए प्राण वायु सदृश्य ही है | मेन- स्ट्रीम से अलग -थलग थोड़ा कम भीड़ -भाड़ वाली जगह ;जो आसानी से दिखाई दे साफ़ -सुथरी और सुघड़ हो | उसके सुथरेपन से रचना की भव्यता का भान हो और हम जैसों को मन की बात लिखने को कहीं और न जाना पड़े | ठीक सड़क के साथ चलते फुटपाथ या सर्विस लेन की मानिंद |जहाँ वृक्षों की पांत और फूल होते हैं शहर की खूबसूरती बयां करते हुए से और कभी कभी रेड -लाईट या जाम से बचने की सुविधा भी देते हैं ,ठीक वैसे ही जैसे बहुत समय पश्चात किसी रचना को पढने की इच्छा होने पे ,जिस कालखंड में लिखी गयी है उसकी मनोदशा जानने के लिए हाशिये पे लिखी इबारत सहायक होती है | किसी भी रचना को पढ़ते हुए विचारों का मजमा लगा सकते हैं हाशियों पे ,सर्विस -लेन में खड़ी तरतीब या बेतरतीब खड़े वाहनों की तरह | हाशिये पे दिखाई देते हैं देश के दूर दराज के गाँव ,कस्बे ,जो इतनी बड़ी आबादी के लिए अन्न उगाते हैं |जहाँ वास करती है देश की आत्मा| उसे पढ़ लिया तो देश का स्वरूप समझने में आसानी होगी | हाशिये पे हैं देश के खेत खलिहान ,पशुधन ,जल जमीन जंगल जो जीवन को शुद्ध हवा और पानी देते है ,जो देश की जीवन धारा हैं ,हाशिये पे हैं देश के जवान ,जो देश के रक्षक हैं ,हाशिये पे है देश के पहाड़ जो दरक रहे हैं और अपनी आत्मा को पढने के लिए आमंत्रित कर रहे हैं | हाशिये पे हैं हमारे बुजुर्ग जो अपने चेहरे की लकीरों में जीवन भर का अनुभव समेटे बैठे हैं ||
मेरे लिए तो हाशिये पे उकेरे अक्षर उन वृक्षों की टहनियों की तरह हैं जिन के शीर्ष पे सुगन्धित पुष्प -गुच्छ खिल रहे हैं |क्षण -क्षण बदलती प्रकृति के परिवेश और उससे प्रभावित मन:स्थितियों में --कृतियों का परायण करते समय रचना भी अपना रूप रंग बदलने लगती है |जब भी किसी पुरानी कृति से स्नेह लेने का मन हो तो उस पन्ने को खोलने पे हाशियों पे हलचल सी होने लगती है |और समय के अनुरूप एक नया अर्थ ,नया विचार पुन: हाशिये पे उकेर दिया जाता है | ऐसे ही जन्म हो जाता है नई रचना का |इन्सान का आत्म -बिम्ब_______ दूसरों की निगाहों में वो कैसा है ,कैसा दिखना चाहिए ,जैसा है वैसा ही रहे या कुछ और अच्छा बनने की कोशिश करे _________में ही उलझा रहता है |ऐसे में हाशिये पे लिखी इबारत ही सच्चाई बखान करती है और रास्ता दिखाती है |
ये हाशिये जीवन के, बहुत अनमोल हैं , पर अनदेखे और अनसुलझे ही रहते हैं | हाशियों पे लिखते -लिखते कब जीवन हाशिये पे आ लगा भान ही न हुआ |कितनी मधुर यादें ,सुख दुःख ,मान अपमान अभिमान ,अपने पराये , दोस्त दुश्मन ,अप्रतिम पल .असंख्यों लोग ,सहस्त्रों रिश्ते नाते ,क्या कुछ नहीं है इन हाशियों में |जीवन का खजाना है यहाँ | बस एक छोटे सी जगह के अहसास को चुराने की देर है वो समय ज्यूँ का त्यूं सामने आ खड़ा होता है |कृति तो पूर्ण होने के पश्चात जड़ हो जाती है पर हाशिये वो हैं जहाँ सदैव चेतना का वर्तुल घूमता रहता है | जब चाहे सुधार कर लो | एक ही पन्ने पे जड़ चेतन एक साथ | जड़ को पूरा पन्ना मिला ,पूरे जीवन की मानिंद और चेतन को मिले हाशिये ,अंगुष्ठ बराबर आत्मा। आभा।

Tuesday, 10 October 2017



काश ख्वाबों में ही
काश ख्वाबों में ही आ जाओ
बहुत तन्हा हूँ
बहुत तन्हा हूँ
काश ख़्वाबों में ही आ जाओ
बहुत तन्हा हूँ
बहुत तन्हा हूँ
काश ख्वाबों में ही आ जाओ
या मेरे जहन से यादों के दिए गुल कर दो
मेरे अहसास की दुनिया को मिटा दो हमदम
रात तारे नहीं अंगारे लिए आती है
इन बरसते हुए शोलों को बुझा दो हमदम।
दिल की धड़कन को सुला जाओ बहुत तन्हा हूँ
बहुत तन्हा हूँ
काश ख्वाबों में ही आ जाओ

अँधेरी रात में जब चाँद खिलने लगता है
तुम्हारे प्यार के दीपक जला के रोता हूँ
तुम्हारे आने की जब आस जाने लगती है
मैं उन चिरागों को खुद ही बुझा के रोता हूँ
जिंदगी ऐसी मिटा जाओ बहुत तन्हा हूँ
बहुत तन्हा हूँ
काश ख्वाबो में ही आ जाओ

सोचते सोचते जब सोच भी मर जाती है
वक्त के कदमों की आहट को सुना करता हूँ
अश्क थमते हैं तो आहों का धुँआ उठता है
रात भर यूँ ही तड़पते हुए चला करता हूँ
भारी गम कुछ तो घटा जाओ बहुत तन्हा हूँ बहुत तन्हा हूँ
काश ख्वाबों में ही आ जाओ


Sunday, 8 October 2017

करवाचौथ की अनेकों शुभकामनायें सभी को -=सोलहश्रृंगार से सजी हर उम्र की युवतियां देश के लिए कल्याणकारी हों ---

भद्रो भद्रया सचमान आगात्स्वसारं जारो अभ्येति पश्चात्।
सुपरकेतैर्द्द्यु भिरग्निर्वितिष्ठन्नुश द्भिर्वर्णैरभि राममस्थात्।।
-----वेद सूक्तों के शब्दार्थ तो संस्कृत के पंडित ही कर सकते हैं और उनके भी भिन्न भिन्न मत होते हैं पर यजुर्वेद के उपर्युक्त सूक्त का भावार्थ कहें या विश्लेषण कहें मैंने यूँ किया  ---स्त्रियों के सशक्त संस्कारों और अनुष्ठानों  से भी  परिवार और परिवारजन प्रतिष्ठित होते हैं --वैसे ही जैसे भगवान भक्ति के द्वारा भजन किये जाने पे सभी के हृदय में प्रतिष्ठित होते हैं -सूर्य रात्रि के पीछे चल रहा है और ''रात्रि'' ने उसे चंद्र  और नक्षत्रों के कमनीय प्रकाश में स्थित कर सूर्य को ''श्येनासश्चिदर्थिन:'' सुखपूर्वक अपने घरों में विश्राम करने वाला बना  दिया है।
महर्षि पराशर के ''पारस्करगृह्यसूत्र ''में  पारिवारिक और सामाजिक नियमों की परम्परा को लोकजीवन से ही लिया गया है -ग्रामवचनं --जैसा समाज कहता है और वो समाज क्या है -स्वकुलवृद्धानां स्त्रीणां वाक्यं कुर्युः ---अपनेकुल की वृद्ध महिलाओं की बात मानकर कार्य करें ---
जन्म -मरण- विवाह -उपनयन -सोलह संस्कार और व्रत त्यौहार उत्सव ये सभी अपने कुल की वृद्ध स्त्रियों से पूछ के उनके अनुसार ही करने चाहियें -ये आदेश दे दिया गया है -
और यही कुल की वृद्ध स्त्रियां कहती हैं करकचतुर्दशी ( करवाचौथ ) को खूब सजधज से मनाओ। वर्ष में एक बार दुल्हिन की तरह सजो। अपने प्रेम को प्रगाढ़ करने के लिये विवाह के दिन वाली अनुभूति जागृत करो ,पति भी इस उत्सव में बराबर की भागीदारी करे ताकि ये व्रत केवल एक साधारण उपवास न बन के रह जाए। रही बात निर्जल रहने की तो पाणिग्रहण की शुभबेला में आपके मातापिता ने निर्जल व्रत किया था। विवाह की साड़ी भागदौड़ में आपके जीवन की मंगलकामना हेतु उन्होंने कार्याधिकता में भी निर्जल व्रत किया तो अब तुम सब भी अपने जीवन के कल्याण हेतु हर वर्ष ये तप करो ,निर्जल रह कर --बस इसे अंधविश्वास न बनाओ -आतुरो नियमो नास्ति -रोगी ,कमजोर वृद्ध जनों को अपने स्वास्थ्य के अनुकूल कार्य करना है उनके लिए कोई नियमों का बंधन नहीं है। 







Wednesday, 4 October 2017

दिमागी फितूर बैठे ठाले का
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'बहस -मुसाहिबा और आपा खोते लोग '
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 चश्मों के नंबर- भिन्न -भिन्न
प्लस , माइनस  संग   नंबर गिन
 तुझे दिखाई देता जैसा
 कुछ कम ज्यादा  मुझे दीखता
चश्मा मेरा जैसा है
 नजर वही तो देखेगी
दृष्टि दोष जब आ जाता
मौलिक  छूट कहीं  जाता
जो जैसा है, वही !  देखना
 अब सब कल की बातें हैं
सब के चश्मे अलग -अलग
अपनी सुविधा अपने मत
नंबर ही तो अलग नहीं
आकार प्रकार ,महंगे सस्ते
कोई ब्रैंडेड कोई लोकल
कोई हल्का कोई भारी
अपने चेहरे से मिलते
अपनी  जेब से ढलते
चश्मा तो बस  चश्मा है
दृष्टि दोष को दूर करे
हो आँखों का  मन का
दुनिया यही दिखाता है
मन  चश्मे भी अलग हैं सबके
 तो  मेरे पाले में क्यों सब हों !
क्यूँ ! सब मेरे जैसा सोचें
मैं जो बोलूं उसे सराहें
 मेरी सोच तो गंगा का जल
  दूजा  गंदे नाले का पानी  ?
आँखें मेरी भी कमजोर
आँखें तेरी भी कमजोर
निकटदृष्टि -दूरदृष्टि
चश्मे  में  तो दोनों दोष
मन में हों तो अर्थ अलग
निर्णय हमको मिल करना
तूने तो अपनी कह दी
मेरी सुनने पे तंज न कर। आभा।











Monday, 2 October 2017

जोहानिसबर्ग में गांधी -जब उन्होंने गीता पढ़नी शुरू की ---
थियोसोफी सोसाइटी ने गांधी जी को हिन्दू विचारों से परिचित होने के लिये उन्हें अपने मण्डल में शामिल करने की इच्छा व्यक्त की। गांधी तो अंग्रेजी माध्यम से वकालत पढ़े थे। हिन्दू संस्कृति पे क्या बोलते ? उन्होंने गीता पढ़नी शुरू की --
''गीता पर मुझे प्रेम और श्रद्धा तो थी ही अब उसकी गहराई में उतरने की आवश्यकता प्रतीत हुई। मेरे पास एक दो अनुवाद थे। उनकी सहायता से मैंने मूल संस्कृत समझ लेने का प्रयत्न किया और नित्य एक दो श्लोक कंठस्थ करने का निश्चय किया।
प्रात: दातुन और स्नान के समय का उपयोग गीता के श्लोक कण्ठ करने में किया। दातुन में पंद्रह और स्नान में बीस मिनट लगते थे। खड़े-खड़े करता था। सामने की दीवार पर गीता के श्लोक लिख के चिपका देता था और आवश्यकतानुसार उन्हें घोटता जाता था। पिछले श्लोकों को भी दोहरा लेता था। इस तरह गीता के तेरह अध्याय मैंने कण्ठ क्र लिए।
इस गीता का प्रभाव मेरे सहकर्मियों पर क्या पड़ा मुझे नहीं पता पर मेरे लिये यह पुस्तक आचार की प्रौढ़ मार्गदर्शिका बन गयी। यह मेरे लिए धार्मिक कोष का काम देने लगी। अपरिग्रह समभाव आदि शब्दों ने मुझे पकड़ लिया। ''
---'' The Story of My Experiments with Truth  the autobiography of Mohandas K. Gandhi, -''के हिंदी अनुवाद '' सत्य के प्रयोग '' से ---
गांधी जयंती पे नमन मोहनदास करमचंद गांधी ---घोटने की विधा हमने गांधी से ही सीखी ,हमारे बचपन में आत्मकथा पढ़ने का बहुत चलन था --

Saturday, 23 September 2017



कुछ कर्म स्वान्त:सुखाय होते हैं -❤️❤️❤️❤️❤️🌱😶🌱
नंदा ,रक्तदन्तिका ,शाकम्भरी दुर्गा ,भीमा और भ्रामरी ----वर्तमान में जागृत हैं और सम्पूर्ण जगत में व्याप्त अपने भक्तों की रक्षा हेतु तत्पर रहती है। 

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नंदा ,रक्तदन्तिका ,शाकम्भरी दुर्गा ,भीमा और भ्रामरी ----वर्तमान में जागृत हैं और सम्पूर्ण जगत में व्याप्त अपने भक्तों की रक्षा हेतु तत्पर  रहती है। 
मूर्ति रहस्य ---
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या रक्त दन्तिका नाम देवी प्रोक्ता मयानघ। तस्या: स्वरूपं वक्ष्यामि शृणु सर्वभयापहम्॥
ऋषि उवाच
राजन !- पहले मैंने रक्त दन्तिका नाम से जिन देवी का परिचय दिया है, अब उनके स्वरूप का वर्णन करूँगा; सुनो। वह सब प्रकार के भयों को दूर करने वाली है॥

रक्ताम्बरा रक्त वर्णा रक्तसर्वाङ्गभूषणा। रक्तायुधा रक्त नेत्रा रक्त केशातिभीषणा॥
रक्त तीक्ष्णनखा रक्त दशना रक्त दन्तिका। पतिं नारीवानुरक्ता देवी भक्तं भजेज्जनम्॥
 वे लाल रंग के वस्त्र धाण करती हैं। उनके शरीर का रंग भी लाल ही है और अङ्गों के समस्त आभूषण भी लाल रंग के हैं। उनके अस्त्र-शस्त्र, नेत्र, सिर  के बाल, तीखे नख और दाँत सभी रक्त वर्ण के हैं; इसलिये वे रक्त दन्तिका कहलाती और अत्यन्त भयानक दिखायी देती हैं। जैसे स्त्री पति के प्रति अनुराग रखती है, उसी प्रकार देवी अपने भक्त पर (माता की भाँति) स्नेह रखते हुए उसकी सेवा करती हैं॥

अनया व्याप्तमखिलं जगत्स्थावरजङ्गमम्। इमां य: पूजयेद्भक्त्या स व्यापनेति चराचरम्॥
 इनके द्वारा सम्पूर्ण चराचर जगत् व्याप्त है। जो इन रक्त दन्तिका देवी का भक्ति पूर्वक पूजन करता है, वह भी चराचर जगत् में व्याप्त होता है॥
 एक अनार फ्रिज में सूखने लगा -सोचा कुछ  प्रयोग किया जाये -और अनार को बीच से आधा काट गमले में मिटटी में दबा दिया ---आह्लादिल करने वाले परिणाम --कुछ ही दिनों में अनार की बिज्वाड़ (पौध )---अब तो पौधे बड़े होकर भी लहरा रहे हैं -रक्तदन्तिका ही कहती हूँ मैं अनार को ----कोशिश करके देखें आप स्नेहिल मित्र भी ---पौधे हो जाएँ तो आसपास रोप दें -प्रकृति सज उठेगी -चाहें तो फ्रेश अनार भी बो सकते हैं -जब छोटे-छोटे अंकुर फूटेंगे तो आपको नवरात्र का असली फल मिला अहसास होगा  ---ऐसा मेरा सोचना है.आभा। ......


Sunday, 20 August 2017

Love you dear & thanks for sharing this beautiful poem ,
-----
I know Ajai you are living in our hearts ,
We  gained so much from your living .
Your  memories are our  treasure .
I can listen the song of freedom 
Which your soul sings ----
I can see your soul has wings 
You are flying free 
Enjoying that  freedom you sing 
Your songs ,your voice ,
Your melody ,your living 
When I sit and relax - pondering 
All memories of you that I have 
Keep on showering inside me 
I often hear your voice in blowing winds 
I see your face in the holy  smoke of my 'Diya'
I see you smiling and dancing in falling 'Rain'
I listen every rain drop quietly dictum 'Your Name 
Yes  often I weep ,it makes  me strong 
Parting is hell but life goes on 
You may have died ,but you  are  not gone .
I know your memories are my treasure ,
You are with me live on inside of me .
I know that I am not alone .Abha -








अब नहीं सोचती तुम कितने वर्ष के होते ,समय की सीमा से परे जो चले गए हो पर हमारे दिलों में जैसे गए थे वैसे ही हो -
आज जन्मदिन है तुम्हारा अजय - मुझे मैसेज बॉक्स में सभी प्यार करने वाले मित्रों की बधाई ,शुभकामनायें और आशीष मिला --ठीक भी तो है तुम्हारे सारे उपहार मैं ही तो खोलती संभालती थी आज भी सारा प्यार मैंने झोली में समेट लिया --सभी गुरुजनों को प्रणाम! चरण स्पर्श !आपलोगों का आशीष उपहार है मेरे लिये। मित्रों का अभिवादन और हार्दिक धन्यवाद ,सभी छोटों को ढेर सा प्यार !खुश रहें आप सब खूब -खूब उन्नति करें और सभी प्यारी सखियों बहनों को प्यार भरी झप्पी और शुभकामनाएं। मैंने कोशिश की है इनबॉक्स में सभी का अभिनंदन अभिवादन करूं --यदि किसी का उत्तर नहीं दे पायी हूँ तो क्षमाप्रार्थी ढेर सी शुभकामनाएं और प्यार सभी को।
जन्मदिन की शुभकामनायें लो अजय --
कभी जन्माष्टमी से पहले कभी बाद में शिफ्ट होता था तुम्हारा जन्मदिन , और फिर सितम्बर में दोनों बच्चों का --भादों से अश्विन हमारे घर में त्यौहार ही त्यौहार बसते थे !क्या हुआ जो तुम मेरे पास नहीं हो तो ,कान्हा भी तो मेरे मन में ही हैं न ,और मैं तो तुम्हारी टाइमलाइन को ही संभाल रही हूँ '' बच्चों के आग्रह पे'' ; शून्य में होने पे भी इस जगह पे आती ही हूँ ,यहां तुम्हारा नाम जुड़ा है न । तुम हो हमारे साथ अजय ;आज भी कल भी हमेशा , मन के झरोंखों से झांकते ,हर सुख में खिलखिलाते हर दुःख में गले लगाते हुये। देख तो पाते हो तुम हमें ऊपर से ,बस हम ही ढूंढते रह जाते है तुम्हें।श्रधान्जली अजय ! जन्मदिन की बधाई ! तुम तो कान्हा के पास चले गये मेरी भी अर्जी आई है उसे भी देख लेना ---
( हर क्षण सपना ;सपने में बस तुम )और मैं ------
मैं कथाओं की माला
सुखदुःख की डोरी
व्यथाओं के मोती
समय की शिला पे
धुंधले -उजले
चित्रों की थाती
अश्रु से निर्मित
सघन नभ मन में
खारे या  मीठे
ये बादल अनूठे
मन आंगन में खेलें
स्मृतियों की चाबी
जरा सी जो घूमी
तड़ित मन में चमकी
रिमझिम फुहारें
बरस आयीं अखियां
अमरबेलि विष की
मधु बन  छलकी -
यादों के हिम कण
साँसों की अग्नि
उजला अँधेरा
धुवें ने अनोखा
चित्र उकेरा -
गलने को आतुर
 मन प्राण मेरा
यम ही तो होगा
पाहुन अब मेरा
आया था  ,छू के
तुम्हें  ले गया था
तब  से हूँ बैठी
दीपक जलाये
कथाओं की माला
व्यथाओं के मोती
शूलों की गोदी में
सुमनों को सहेजे
पाहुन के पथ
नित दीप  जलाती।।आभा।।








Monday, 14 August 2017

त्वमादिदेव: पुरुष: पुराणस्त्वमस्य विश्र्वस्य परं निधानम्। 
वेत्तासि वेद्धयं च परं च धाम ,त्वया ततं विश्र्वमनन्तरुप।।--------------
आदि देव ,सनातन पुरुष ,विश्व को गीता का ज्ञान देने वाले विश्व गुरु ,विश्व जिनके 
' होने से ही व्याप्त है ऐसे कृष्णा के जन्मोत्सव् ---और साथ में विश्वकल्याण हेतु लघु अवधि के लिये शरीर धारण कर ,जन-जन के उद्धार के लिए अपनी बलि चढ़ाने के लिये प्रगट हुई ''भगवती योगमाया ''--कृष्ण की बहिन --जो कंस के द्वारा भूमि में पटकने से पहले ही छूट के आकाशीय बिजुरी बन गयी और वहीं से कंस को और दुनिया को संदेश दिया -- --प्रभु अवतरित हो चुके हैं  ---योगमाया ने आकाशीय बिजुरी सी चमक के ये सन्देश दुष्टों को दिया और साथ ही दिया अपना बलिदान -
देवकी के आठवें पुत्र के भय से कंस ने उसके सभी पुत्रों को बड़ी ही निर्दयता से उसके सामने ही मार दिया -ठीक वैसे ही जैसे गोरखपुर में हत्यारों ने आक्सीजन बंद कर अनेकों  बच्चों को मार डाला ---
किं मया हतया मन्द जात:खलु तवांतकृत्। 
यत्र क्व वा पूर्वशत्रुर्मा हिंसी:कृपणान् वृथा।।
---रे मूर्ख तेरे पापों का अंत निश्चित है ,तुझे मारने वाला पैदा हो चुका है - 
योगमाया का भी जन्मदिवस।  छलकपट दुष्टों पापियों के अंत की शुरवात ---एक  संयोग ही है।
काश ये संयोग सच में बदले !
आठवे पुत्र की जगह कन्या होने पे --
तां गृहीत्वा रुदत्या दीनदीनवत्। 
याचितस्तां विनिर्भत्सर्य हस्तादाचिच्छिदे खल:|| 
तां गृहीत्वा चरणयोर्जातमात्रां स्वसुः सुताम्। 
अपोथयच्छिलापृष्ठे स्वार्थोन्मूलित्रसौहृदय।।
देवकी ने कन्या को अपनी गोद  में छिपा दीनता से कंस से याचना की पर उस पापी दुष्ट ने देवकी को झिड़कर कन्या छीन ली और अपनी उस नवजात भानजी को पैरों से पटककर  दीवार पे दे मारा। 
 इस घटना को मैं  आज के कंसों से जोड़ के देखने को बाध्य हूँ  -जिन्होंने केवल कुछ पैसों या अपनी घृणा या गद्दी छिन जाने के वशीभूत हो कंस की ही तरह अनेकों नौनिहालों को मृत्यु की गोद में भेज दिया।  
ऐन जन्माष्टमी से पहले ये कुकृत्य -कुछ कहने की कोशिश कर रहा है -आज के कंसों के पापों का घड़ा भी भर रहा है ,इन्होने अपनी बर्बादी की एक और कील ठोंक दी है ,अनेकों मासूमों का बलिदान इतिहास की पुनरावृति सा ही है -बच्चे कन्हैया को बहुत प्रिय हैं। अब दुष्टों का  संहार करने की शक्ति संतों को दो  कान्हा। 
भावुकता की जगह कठोरता से काम हो ,दोषी को कठोर सजा मिले शायद मुझे ग्रह नक्षत्रों का ज्ञान नहीं पर संजोग तो वही बन  पड़ा है। 

आनंदमंगल हों सभी के जीवन में ,कृष्ण की गीता और योगमाया के त्याग की सभी के हृदय -मन में पुनर्संस्थापना हो ,देश कर्म के सिद्धांत को अपनाये पर स्थिरचित्त हो --''सभी को पुण्यपर्व की मंगलकामना --

Friday, 11 August 2017


यादों में आज भी वो दिन जब दिल्ली शिफ्ट हुई ,पहली बार तुम्हारे बिना -बस अहसासों की कलम से बह चली थी स्याही और भीग गया सामने रखी कॉपी का पन्ना आज फिर फड़फड़ा के सामने आ गया -भीगा हुआ नम ,गीला पर उदास नहीं -तुम ----,तुम जो नहीं रह सकते थे पल भर भी मेरे बिना चले गये अनंत की यात्रा में --आज भी पदचाप की आहट गूंजती है ,अब तो रोम रोम श्रवण इंद्री बन गये हैं ,तुम हो न मुझमें ,बस मैं ही सुन पाती हूँ ''आभा '' की वो आवाज जो पोर पोर में बह रही है हवा बनके अदृश्य पर जागृत --सागर की लहर बनी मैं यादों के समुन्दर में उछलती हूँ और मिट जाती हूँ कब मिलेगा किनारा पता नहीं पर हर उत्साहित लहर की मानिंद मैं भी नए सिरे से हर सवेरे जीने की तैयारी करती हूँ-(तुमने भी तो उषा का दामन ही थामा था मुझे छोड़ने के लिए ) मर मिटने के लिये -----
"मैं लहर सागर की "
==============
हाँ तुम हो मुझमें 
सदियों से सदियों के लिये
पहले भी थे
 जब,हम मिले न थे ,
हो आज भी -
जब तुम नहीं हो !
हो- शामिल; मुझमे ,
मेरे हर हिस्से में -
अपने कुछ न कुछ हिस्से के साथ।
देखा था तुमने पहली बार
रख दी थी ,
"अपने हिस्से की शर्म" -
मेरी पलकों में ;
आज भी पलकें झुकी हैं 
"उसी भार से" ,
मेरी शर्म में ,हिस्सा है तुम्हारा।
सर्दियों में तुम्हें लगती थी जब ठंड -
धूप सेकते हुए ; 
अपने हिस्से की धूप -
दे दी थी मैंने तुम्हें ;
आज भी ! मैं ,धूप में नहीं बैठ पाती हूँ।
सारा प्यार अपने हिस्से का -
दे दिया मुझे -भर दी मेरी झोली ;
रीते ही चले गए 'तुम '
मेरे हिस्से आ गया -
सारा प्यार तुम्हारे हिस्से का।
वो सुर तुम्हारे -
जब भी गाते थे तुम ,
मैं चुरा लेती थी आवाज का रस -
अपने हिस्से का ,
आज मेरी मिठास में
है वही चोरी वाला हिस्सा।
हर नैया का सागर में हिस्सा ,
हर सपने  का नींदों  में हिस्सा ,
लहर ढूंढती अपना साहिल ,
राही का मंजिल में हिस्सा ,
चमन में बुलबुल का हिस्सा ,
फूल में सुगन्धि का हिस्सा -
आसमां में हर तारे का हिस्सा।
मेरा हिस्सा आसमान में -
तुम ही तय करके रखना ,
जब मैं आऊँ तुम से मिलने
बाजू वाला हिस्सा देना।
तुम मेरे ही हिस्से हो
तब भी जब तुम पास थे मेरे
अब भी जब तुम पास नहीं हो।
हां मेरे जीवन का हिस्सा
छूट  गया - खो गया जो
 फिर मैं क्यूँ नहीं  अधूरी ?
शायद !
हम दोनों ही  इक दूजे का हिस्सा।<><><>आभा <>
=========================
रोज सुबह की संध्या तुम्हारी तस्वीर के आगे माथे पे रोली कुमकुम लगाने का बहाना और फिर कुमकुम का कण बालों में छिपा लेना --मेरे लिए तो तुम गए ही नहीं बस बाहर से भीतर हो गए हो -समय का लुकाछिपी का खेल देखो कब धप्पा लगा के तुम्हें ढूँढ पाती हूँ ,तब तक छलक रही हूँ लहरों की तरह ----
आत्मा कब दूर है हमसे उषा को प्राची में दिखती है तो संध्या समय पश्चिम में लाल नारंगी सुनहरा कुमकुम उड़ाती हुई आभा ----
s

Monday, 7 August 2017



स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवा स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥ ---
पुरातन से चलते चलते रक्षासूत्र एक लम्बा सफर तय कर अब एक नए स्वरूप में ढल चुका है ,अब ये विशुद्ध भाई-बहन का त्यौहार है। 
आज बाजार का त्यौहार भी हो गया है ये। 
जैसा देश वैसा भेष तो अब इसका यही स्वरूप मान्य है कम से कम बेटी की जरूरत तो महसूस होगी। 
राखी बंधन ,यानी एक ऐसा रिश्ता जिसे रखके पालना पड़ता है | बीतते समय के साथ जब भाई बहन के अपने परिवार हो जाते हैं तो ये रिश्ता ही जीवन की नीरसता में स्वाद लेके आता है ,बिलकुल खट्टे मीठे आचार की भांति | जिसे बनाने और बनने की प्रक्रिया में बहुत सावधानी रखनी होती है थोडा सी चूक ! और- स्वाद से लेकर खुशबू तक सब बिगड़े | सुधरने की गुंजायश हो तो ऊपर की परत जो बिगड़ गयी है को खुरच के आग में या धूप में पकाने की जटिल और निरंतर प्रक्रिया सावधानी हटी और दुर्घटना घटी | 
रक्षाबन्धन अब अपनी पुरानी मान्यताओं को छोड़ता हुआ केवल भाई-बहन का त्यौहार ही होके रह गया है | असल में ,ये है तो लम्बी उम्र और शुभकामनाओं की दुवाओं का ही त्यौहार ,रक्षा सूत्र चाहे कोई भी बांधे ; वो युद्ध में जाते हुए राजा ( अब सैनिक ) की माँ हो या पत्नी हो , भाई की लम्बी उम्र और सुंदर भविष्य की कामना करने वाली बहिन हो ,घर खानदान के पंडे हों जो जजमान की रक्षा के लिए अभिमंत्रित रक्षा सूत्र लेके आये हों या अपनी रक्षा की गुहार लगाती बहनें हों चाहे विधर्मी ही हों ,ये एक अटूट विश्वास ,प्यार ,सद्भावना और जीत के भरोसे का बंधन है | रक्षा बंधन उपनिषदों -पुराणों के काल से लेकर आज तक अपनी पूरी ठसक और रंगीनी के साथ समाज की उत्सवधर्मिता को जीवित रखे हुए है यही इसकी विशेषता है | हमारी संस्कृति में तो किसी भी पूजा अर्चना की शुरुआत ही रोली-मौली से होती है और यही है रक्षा सूत्र बाँधने का मूल स्वरुप |
राखी बांधने का मन्त्र --------------
येन बद्धो बलि राजा दानवेन्द्रो महाबल ,
तेन त्वां अभि बधनामी रक्षे माचलमाचल् ||
इस मन्त्र में खास बात ये है कि जब शचि ने इंद्र के हाथ में राखी बांधी थी तो उसने कहा ,"तेन त्वां अनु बधनामी रक्षे माचलमाचल् '' सब आपके अनुकूल होवें और आपको विजय मिले | कहा जाता है इस पर्व की शुरुआत शचि से ही हुई | कालान्तर में यह अपना रूप बदलता गया | यदि गुरु या ब्राह्मण रक्षा सूत्र बांधे तो रक्षा की कामना करे ,'तेन त्वां रक्ष बधनामी रक्षे माचलमाचल्" , और बहन अपने भाई की उन्नति ,की कामना से बांधे , वो सचरित्र होवे ,ऊँचा उठे जीवन में ,स्वस्थ होवे और समाज के लिए शुभ होवे तो " तेन त्वां अभि बधनामी रक्षे माचलमाचल् " मन्त्रों में बहुत शक्ति होती है ,शब्द ब्रह्म है ये तो हम सब जानते हैं और जब उन शब्दों को मन्त्र का रूप मिल जाता है तो उच्चारण मात्र से जो कम्पन होता है वो सकारात्मक चक्र बना देता है हमारे चारों ओर| मंत्रोच्चार के साथ राखी मनाइए | 
बलि को लक्ष्मीजी ने राखी बाँध विष्णु भगवान को छुड़वाया था -
और भी कई कहानियां हैं इस त्यौहार के भाईबहन का त्यौहार होने की -
सभी भाइयों की कलाईयों पे राखी के रूप में बहना का प्यार झिलमिलाये , कन्या भ्रूण हत्या का उन्मूलन हो ,समाज को सद्बुद्धि आये ,सभी को राखडी की शुभकामनायें | श्रधा विश्वास और प्रेम का पर्व है इसे ऐसे ही मनाया जाये | कन्याओं का संवर्धन और संरक्षण हो ,शुभ हो ये पर्व |
रक्षाबंधन की शुभकामनायें सभी फेसबुक भाई बहिनों को। ये ऐसी चौपाल है जहां रिश्ते मानसिक हैं --संबंध जोड़ने वाले तार अदृश्य हैं आसमानों में -ईश्वर भी अदृश्य ही है तो मानो तो मैं गंगा माँ हूँ -न मानो तो ----मंगलकामना राखड़ी पर्व की --
फेसबुक दीदी का आशीर्वाद छोटों को बड़ों को नमन पैलाग -चरणस्पर्श -
तनमन की थकन है चेहरे पे पर पर्व में फोटू तो बनती है ताकि सनद रहे ---
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Monday, 24 July 2017

''तूने हमें क्या दिया री जिंदगी ''
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---एक बार फिर चली आई व्यथित करने -पुरानी रचना नजरों के सामने -- आज भी चौराहों पे एवं मन्दिरों के सामने यही हाल हैं -- भिखारियों के झुण्ड के झुण्ड --बच्चे बूढ़े स्त्रियां --चेहरों पे अजीब सा बेफिक्री मानो जिंदगी से कह रहे हों --तूने हमें क्या दिया री  जिंदगी --तो हमें भी समाज की फ़िक्र क्यों हो ---आप इन  बच्चों से बात नही कर सकते ,तुरंत ही कई सारे लोग आस-पास इकट्ठे हो जाते हैं ---
आज फिर एक बार जुलाई २०१३ की यादें और वही मंदिर के पास हाथ फैलाये बच्चों और भिखारियों के झुण्ड --
एक बच्ची जो संवेदनशील है परिवार के लिए **************************************
 अक्सर यदि १२ -१८ घंटों की यात्रा पे निकलें तो रोज -मर्रा की दवाईयाँभूलना ,स्त्रियों की आदत में शुमार होता है ,,तो दिल्ली से रूड़की,देहरादून तक के सफ़र में [सुबह४ बजे चलके रात्रि को १ ,११/२ बजे लौट -पौट],उस दिन मेरे साथ भी यही हुआ ,सफर लंबा थकानेवाला ,गंतव्यपे चलना- फिरना ,तबियत थोड़े दिनों से नासाज थी ,,तो दवाई रात को पहुँच के ले लूंगी येतर्क बेटे के साथ नहीं चला । ,{बच्चों के साथ बोलती बंद -यूँ ही टालती होंगी दवाइयों को रोज ,,पिता के जाने के बाद बच्चे माँ की सेहत के लिए कुछ अधिक ही चिंतित रहते हैं } । एक चौबीस घंटे खुलने वाली दवाई की दुकान के आगे कारपार्क कर बेटा दवाई लेने चला गया और मैं बाहर निकल के खड़ी हो गयी. । पास में ही मंदिर था और मुहं अँधेरे ही श्रधालुओं की आवाजाही शुरू हो गयी थी ।कुछ फूल और प्रसाद वाले और एक चाय की रेहड़ी । अच्छालग रहा था श्रद्धासे लोगों को शीश नवाते देखना । मानो श्रद्धा की बयार ही बह रही थी … मैं भी उस बयार में बहने लगी और सोचा चलो मैं भी दर्शन कर आऊँ । तभी मेरा आंचल पीछे से किसी ने खींचा और आवाज आयी --माँ भूख लगी । पीछे मुड़के देखा ,एक छोटी बच्ची करीब ५ -७ वर्ष की ,मेरी निगाहें उस पे पडीं ,कितनी करुणाथी उसकी आँखों में कि भीख न देने के कानून का पालन करने वाली मैं ,
सहम गयी। ये तो बच्चों के सोने का समय है और इस छोटे से बच्चे को खाने का जुगाड़ करने के लिए उठ जाना पड़ा ,या ये भूख से रात भर सोई ही नहीं।  मुझे अपने ऊपर क्रोध भी आया ,कार लॉक्ड थी -मैं जैसे अपने आप से ही बोली ,''बेटा रुको अभी भैया आता है तो देती हूँ '' …. 
देखा बच्ची के हाथ में एक बताशा है ,
मैंने कहा ये बताशा खालो बेटा,उसने भी जैसे मेरी बात को मानते हुए एक छोटा सा टुकडा तोड़ के खा लिया । 
इतने में बेटा आ गया ,और मैंने उस बच्ची को कुछ रूपये दे दिये।साथ में ये कहना भी नहीं भूली की उस चाय वाले से कुछ ले के खा लो वो उछलती हुई फुट -पाथमें चली गयी -शायद माके पास , 
दीन - हीन सी औरत !
जिसके पास दो बच्चे और बिलख रहे थे
 मैं थोड़ी देरऔर वहां पे रुकी देखने को की वो पैसों का क्या करती है ,ये भिखारियों का कोई रैकेट तो नहीं है ,कहीं मैं बेवकूफ तो नहीं बन गयी [खाया- पिया मन शंकालूभी हो जाता है ]………. 
पर वो बच्ची अपनी माँ के पास गयी उसे पैसे दिए,जिन्हें लेकर खुशी -२ वो औरत रेहड़ी वाले के पास चली गयी बच्चों के खाने का इंतजाम करने। वो तो माँ है खुश होगी ही पर जो मैंने देखा उससे मेरा दिल भर आया ,मन जार जार रोने लगा। मैंने देखा -उस छोटी सी बच्ची के हाथ में जो बताशा था वो उसने दोनों भाइयों को खिलाया और ताली बजाते हुए उनके आंसू पोंछने लगी। हर्ष और विषाद दोनों मेरे मन को उद्द्वेलित कर गए। करुणासे आँखें भर- भर आ रही थी। ये है मेरे स्वतंत्र देश के मासूमों का वर्तमान और भविष्य …. माँ ने बचपन में सातभाइयों के एक तिल को बाँट के खाने की कहानी सुनाते हुए समझाया था किपरस्पर प्यार से सुख ,समृद्धि और शांति आती है घर में  पर ये सब शायद भूत -काल की बातें हो गयी हैं। आज तो जो धूर्त है ,लंपट है, लुटेरा है ,छीन के खाने की कला में निपुण है वही संपन्नऔर बड़ा है। क्या ये बच्चे इस देश के नागरिक नहीं हैं ?इन्हें तो फ़ूड सिक्योरिटी बिल का भी फायदा नही मिलेगा। ये यदि बड़े होकर चोर उच्चके बनें तो इसमें इन का क्या दोष ! ''बिभुक्षितं किम न करोति पापम''।बचपन से इतनी असमान्यताएं झेलने पे समाज के प्रति विद्रोह तो पनपेगा ही इनके मन में  ; अब मैं चौराहे पे या लाल -बत्ती पे भीख मांगते बच्चों की तरफ नहीं देखती हूँ - कहीं मैं बहक न जाऊं।बस !  कतरा के मुहं फेर लेती हूँ । शायद यही हमारा व्यक्तित्व हो गया है - कतरा के निकल जाना और अपने मन को सांत्वना देना की जब दिल्ली में इतने सारे एन ज़ी ओ और दो -२ सरकारें भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं तो मैं ही क्या कर लूंगी।बस थोड़ा बहुत जो हम बूंद भर इन बच्चों के लिए करदेते हैं क्या ये काफी है ? 
आज निराला की कविता याद आ रही है ………………. 
वहआता दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता 
पेट पीठ दोनों मिल कर हैं एक
====================
 चाट रहे हैं जूठी पत्तल कभी सड़क पे पड़े हुए
और झपट लेने को उनको कुत्ते भी हैं खड़े हुए
राह ढूंढ़रही हूँ कुछ कर पाऊ ,,ताकि कतरा के न निकलना पड़े। । आभा। | …………………………

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