Thursday, 11 January 2018

आभा की बुढ़भस -
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स्वामी विवेकानंद को याद कर रही थी उनके जन्मदिन पे तो बहुत पहले उनकी लिखी एक लाइन याद आयी --" ईश्वर थे पहले इस धरती में ,उन्होंने मानवता की बेहतरी के लिए अपने को अदृश्य किया " किस किताब में पढ़ी मुझे याद नहीं अब खंगालना पड़ेगा सारा साहित्य विवेकानंद का जो मेरे पास है --पर सोचने लगी तो अपने को भी उस समय पे महसूस किया जब परमपितापरमेश्वर हमारे साथ थे -

ईश्वर है -पर दिखाई नहीं देता 🤔- पहले दिखाई देता था ईश्वर ,आपको हो न हो मुझे मालूम है -कोई तर्क नहीं -बस मैं थी उस जमाने में 😀सुबूत ? तो सुबूत मैं ही हूँ ; इससे बड़ा सुबूत और क्या होगा ! कृष्ण ने जब गीता में अर्जुन से कहा
"बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥
तो अर्जुन ने चुपचाप मान लिया था , मैं कृष्ण क्यों नहीं हो सकती। इस युग में थोड़े ही कन्हैया आएंगे वो मेरे जैसे पगलों से ही बुलवाते हैं अपने मन की बात -वो भी कभी- कभी
तो सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर थे हमारे साथ ही हमारे जैसे ही खाना पीना सोना उठना बैठना सब हमारे साथ।
हुआ ये कि स्वर्ग में रहने वाले देव ,अप्सरा सभी सुखसुविधाओं की प्रचुरता के कारण आलसी और कामचोर हो चुके थे। स्वर्ग कर्मप्रधान तो है नहीं ,वहां तो भाग्य की चलती है -सो -
"अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम "
का दर्शन अपना लिया सभी ने यहां तक क़ि जब प्रभु को नर्क की व्यवस्थाओं को देखने जाना होता तो उनका पायलट ,ड्राइवर ,रथ हांकने वाला सारथी सब पहले टालमटोल करते ,फिर बहुत मनुहार से चलते। इस प्रवृति से प्रभु व्यथित होने लगे उन्हें कोफ़्त होने लगी।
प्रभु स्वर्गनर्क के जंजाल से मुक्ति चाहते थे। एक दिन उन्होंने विचार किया -क्यों न एक ऐसी सृष्टि रची जाये जहां स्वर्ग नर्क दोनों लोक एक साथ ही हों जाएँ और मुझे न्याय के लिये कभी इस लोक कभी उस लोक न जाना पड़े।
बस विचार को योजना और फिर परियोजना ,पृथ्वी ग्रह सबसे उपयुक्त था -वहां की अधिष्ठात्री देवी सीता थीं -पृथ्वी की रजिस्ट्री सीता माता के ही नाम थी ,उनकी अनुमति के बिना वहां पृथ्वी पे निर्माण अवैधानिक होता ! अत: सिया से प्रार्थना की गयी सहयोग के लिये (अब ये न सोचना कि सीता तो केवल त्रेता युग में रामजी के साथ थी -ऐसा नहीं है सीता तब भी रामजी के प्राकट्य पे उन्हें सहयोग देने ही आयीं थी )-अपने जैसे कुछ कर्मठ ,ऊर्जावान साथियों संग प्रयोग प्रारम्भ हो गए -योजना (प्रोजेक्ट )बहुत बड़ी थी सो सगरी पृथ्वी को ही प्रयोगशाला बनाया गया
अपना छोटा सा भी घर बना ले तो उसकी देखभाल करता है न इंसान ,प्रभु तो इतनी बड़ी सृष्टि रच रहे थे वो कैसे न रहते इसकी देखरेख के लिये फिर आरम्भ में इसको सजाना संवारना भी था ,कुछ नियम भी बनाने थे , ईश्वर का घर था तो घर के सभी सदस्यों की देखभाल भी उनका ही कर्तव्य था ,अपनी संतानों को सभ्य- सुसंस्कृत , शिक्षित करना और भविष्य के लिए योग्य बनाना ये तो प्रत्येक मनुष्य भी चाहता है फिर वो तो ईश्वर थे जो शून्य से सृजन कर रहे थे।
शैशवस्था की सृष्टि को प्रतिक्षण प्रभु की देखरेख की आवश्यकता थी।
फिर वो अदृश्य क्यों हुए ? सृष्टि को तो आज भी उनकी आवश्यकता है।
अब हुआ ये कि प्रभु ने अपनी संतानों को भिन्न भिन्न गुणों और साधनों से लैस किया साथ ही स्वयं भी सबकी सहायता के लिये प्रतिक्षण तत्पर रहते थे ,उनका एक ही ध्येय था धरती को सुंदर मनोरम बनाना जहां स्वर्ग -नर्क दोनों को भोगा जाये पर स्वर्ग भोगने वाले नर्क वालों की सहायता को अपना कर्तव्य समझे।
यहां स्वर्ग -नर्क के भी कई पायदान रखे गये। इस सृष्टि को कर्म प्रधान रखा गया
"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन " यहां का सिद्धांत रखा गया। 
मृत्यु यहां का सबसे बड़ा देव बना ,जो जन्म के साथ ही मानव की आयु का क्षरण करने लगा। स्वर्ग में मृत्यु नहीं थी  और न ही कर्मों का लेखा जोखा सो यहां धरा पे यही सिद्धांत जीने का नियम बने परमात्मा जगती  के स्वामी बने और माँ सिया जगद्जननी। 
धीरे-धीरे जनसंख्या बढ़ने लगी। कर्मप्रधान नियति है तो लोगों ने सतकर्म किये ,कुछ दुष्ट भी बने पर उनका प्रतिशत कम ही रहा ,अत: आयु लम्बी थी ,जीवेम शरद शतम ,तो वैसे भी वरदान था ही मनुष्यों को लेकिन 
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः।''
से मानव ने ईश्वर से वो है -से तो अपने अहंकार को पोषित किया और मैं उनमे नहीं हूँ से अपने स्वार्थ को पोषित करने लगा।  हम अपनी संतानों को पोषित करें पर सक्षम होने पे वो हमें केवल जरूरतों पे याद करें अन्यथा हमारी उनके जीवन में कोई अहमियत न हो -ये महत्वाकांक्षा और स्वार्थ की देन है पर प्रभु के साथ ये नहीं हुआ। संताने प्रत्येक समस्या में प्रभु का मुहं तकतीं ,----भगवान को बहुत आश्चर्य होता ,हर तरह से सक्षम जन भी छोटी-छोटी समस्या लेके उनके पास आ जाते ,अपने दिमाग का प्रयोग ही नहीं करते या करना नहीं चाहते -भगवान के पास समस्याओं का अम्बार लग गया ----तब भगवान ने अपने मंत्रिमंडल से मंत्रणा की ,ऐसा ही चलता रहा तो जो मस्तिष्क संकुचित होने लगेगा -पृथ्वी के वासियों को अपनी समस्या का निदान स्वयं ही ढूँढना पड़ेगा और कर्मठ भी बनना पड़ेगा ---पृथ्वी में सभी को सन्देश चला गया ,प्रभु वापिस जा रहे हैं अपने धाम ,आज से वो सभी के भीतर हैं ,पर अदृश्य रूप में।  समय समय पे मैं धरती पपे अवतार भी लूंगा पर तब भी मुझे बहुत कम लोग ही जान पाएंगे ---और प्रभु अदृश्य हो गए।
अब हम उन्हें खोजते फिरते हैं जगह जगह -पर वो हमारे भीतर ही हैं पर जिसमें " सूर्य की प्रखरता ,चन्द्रमा की सौम्यता  ,पवन का वेग जल की शीतलता सागर और धरती सा जड़-चेतनता जिसमे होगी आज के बाद वो ही मुझे पा सकेगा "----स्वामी विवेकानंद को मेरा शत-शत नमन।








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