Tuesday, 9 January 2018



" चेतन जिसको कहते हैं हम जड़ में ही वो सोता है ''
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काश मैं जड़ हो जाऊं !
चेतना हो लुप्त जाए
अवसाद चिंता मोह -
दुःख से मुक्त मन
 हूँ  अतल में ;या वितल में 
भू राग का उत्सव मनाऊँ
 काश  ! मैं जड़ हो जाऊं
नीचे धरा के ,
संग सिया का
छाँव  औ पवन पी के ,
धूप कुहरे की बनूं
महक माटी की बिखेरूं
तिमिर का मैं राग गाऊं
 काश मैं जड़ हो जाऊं।
जो- वास हो ऊपर धरा के 

पंछियों से पंख लेके
लचकती डालियों  की 

बांह झूलूं झूलना 
 और !प्रभु का गान गाऊं 
ऐ काश ! मैं जड़ हो जाऊं 
ध्येय देना ही हो  मेरा
रह अतल मेँ  या सुतल  में
चाहना से मुक्त जीवन -
प्राण संतति पे मैं वारूँ
मुक्ति का मैं राग गाऊँ ,
ऐ काश मैं जड़ हो जाऊँ।।आभा।

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