Sunday, 7 January 2018

झील और मैं ( संवादहीनता )
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वर्जनाएं  टूटने की कगार पे
 शांत झील में   हलचल
पर!
 हवाओं पे किसका बस 
हवा  पछुवा -
तो बदरा मौसम बदलेगा
पुरवा  तो -
 दर्द का सबब बनेगी ;
मन के भीतर की अँधेरी सुरंग -
एक झील ही तो है
संस्कारों से जकड़ी
चारों कोनों पे
वर्जनाओं सी
बड़े बड़े वृक्षों की पांत
किनारों पे उगी
मखमली घास
 झील सींचती जा रही है
अविरल ,सदियों से -
बड़े दुलार से :
बिना किसी को बताये !
बिना कुछ कहे !
 संस्कार हैं झील के ये -
घास को अहसास ही नहीं
झील के उपकार का
छोडो घास को
वो नादाँ है -
इन  बड़े  वृक्षों  को
क्या मालूम नहीं !
झील  ही अस्तित्व है इनका
पर !
देखते नहीं ये झील को
बैठती हूँ मैं नित्य  ही
झील के किनारे
मुझे आता देख
सहम जाती है झील
संवाद होने नहीं देती
भय  लगता है उसे -
मैं कोई कंकर न फेंक दूँ
हलचल झील को बर्दाश्त नहीं
वो खुश है अपने दायरे में
और-
 मुझे  प्रतीक्षा  उस दिन की
जब ,झील तोड़ेगी अपना दायरा
बह चलेगी एक बलखाती नदी की तरह
किसी भी दिशा में
और और
देखते रह जाएंगे उस दिशा के
बड़े वृक्ष ,मखमली घास
नदी इठलाएगी ,बलखायेगी
अपने दो किनारों संग -
उन्हें भी सन्देश देती
 तुम्हारे अस्तित्व को भी
नहीं देती मैं मंजूरी
चल पड़ी हूँ मंजिल की ओर। आभा ।



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