Sunday, 29 July 2018

---ऐसी ही बारिश और बालकनी में खड़ी थी --- बरामदे में बारिश में बैठे चाय की चुस्कियों की याद आना स्वाभाविक ही होता है ---आज फिर वही मंजर --  ---
-----------वो बतकहियां हमारी ---------
आम से जीवन की बतकहियां ,किसी ख़ास से अपने को जोड़ती हुई ,वो ख़ास हमारा हीरो था ,उसकी कई किताबें हमने साथ बैठ के पढ़ीं --बस यूँ ही भावुकता भरे कुछ क्षण -----जो बस मेरे लिए खास हैं ---
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अक्सर बरामदे में शाम की चाय पे जीवन क्या है ?कैसा है ?क्यों है ?पे चर्चा होती जब मेरी और अजय की तो अंत में टकराहट पे आके रूकती। वो कहते आभा आदमी कितना सुखी है ये मत देखो उसे मौत कैसी मिलती है ये देखो। जीवन भर सुखों के झूले पे झूलता रहे , अंतिम समय बिस्तर पे पड़ जाए , बैड - सोल हो जाएँ ,त्रिशंकु बनके लटक जाए मौत और जिंदगी के बीच में या फिर मिनटों में बैठे-बैठे प्राण पखेरू उड़ जाएँ। यदि काम करते हुए आदमी जाए तो उससे सुखी कोई नहीं ,और मैं टकरा जाती ,आपको तो मौत के क्षण ही दिखाई देते हैं जीवन की सफलता या सुख को परिभाषित करने के लिए । ये भी कोई बात हुई ;जीवन भर जो सफल सुखी और संपन्न रहा है ,वो तो सुखी ही कहलायेगा न। पर अजय ये कभी मानने को ही तैयार नहीं होते थे ,उनका कहना था एक व्यक्ति यदि जिंदगी भर जूझ रहा है ,बीमार भी है पर फिर भी कर्मठ है ,कर्मठ संतानें देता है राष्ट्र को और अंत में चैन से प्राण निकल जाते हैं तो उससे बढ़कर भाग्यवान कोई नहीं। लेकिन साथ ही ये भी ,ऐसा उस ही व्यक्ति के साथ होगा जिसके मन में किसी के लिए कलुष न हो ,जिसने मानवता के लिए अधिक नहीं तो कुछ तो किया हो ,जिसमे इतना साहस हो कि उसे पता है कि फलां शख्स मुझसे हद दर्जे हा द्वेष रखता है , पर उससे मिलके माफ़ी मांग सके कि कही मेरी ही तो कोई गलती तो नहीं थी और साथ ही सबको माफ़ करने की कूवत रखता हो ,जिसे लोभ न हो --वही फटाफट मृत्यु पाता है।
मुझे लगता ये इंसान किस मिट्टी का बना है ,झूठ ,धोखा ,फरेब ,निंदा सबकुछ पचा जाता है ,किसी के लिए मन में कोई द्वेष ही नहीं और सभी चालबाजों और धोखेबाजों को भी ख़ुशी बाँट रहा है। क्यों दूर कर रहे हो नकारात्मकता ,आपने क्या ठेका लिया है ,बिना बात में उस लफंगे लम्पट से माफ़ी मान ली ,जब कोई आपने कुछ किया नहीं ,कोई दोष नहीं तो किस बात की माफ़ी ?
सीधे इतने कि खुद बीमार हैं पर किसी का फोन आ जाए मेरी माँ बीमार है ,बीबी को बच्चा होना है ,तो चल देंगे उठ के ,खुद की तबियत ठीक नहीं है ,पर कोई बड़ी उम्र साथी अकेला है [अक्सर इस उम्र में कोई न कोई अकेला होता है और बच्चे भी जीविकोपार्जन के लिए चले जाते हैं ]तो चलदेंगे उसकी खैर-खबर लेने --चलो उसे थोड़ी देर की ही ख़ुशी दे आते हैं और ये तब जब उस आदमी ने हमेशा डिपार्टमेंट में अजय की काट करी हो ,अरे उसका उसके साथ मेरा मेरे साथ। मैं अक्सर किलसती भी थी ,देखो इतना सीधा सरल होना भी अच्छा नहीं होता ,लोग तुम्हारी राह में दोस्त बनके रोड़ा अटकाते हैं ,पर वो कभी नहीं माने ,कहते मेरा भाग्य थोड़े ही कोई छीन लेगा।
कुछ दिनों से अजय ने जिन भी लोगों के लिए वो सुनते थे कि वो मुझ से कुछ द्वेष रखते हैं ,उनसे फोन पे बात शुरू की ,मेरे पूछने पे बोले संवाद बहुत बड़ी शह है ,वो मेरे लिये कलुष लिए बैठा है ,मुझे पता चला तो मैं क्यों न अपने लिए उसकी नकारात्मकता मिटाऊं। और धीरे -धीरे सभी से उन्होंने संवाद किया ,किसी को चाय पे बुलाया ,किसी को खाने पे। मैंने इसे गंभीरता से लिया ही नहीं। जब काम ज्यादा बढ़ गया तो रोकने की कोशिश भी की ; क्यों कर रहे हो ? कुछ लोग ऐसे जो जॉब शुरू होने से लेकर अब तक जान के पीछे पड़े थे [और मैं तो आज भी उनका चेहरा नहीं देखना चाहती ]सभी से रिश्ते सहज और सौहार्दयपूर्ण कर लिये ---मैं समझ ही न पायी कि आत्मा निर्मल होना चाहती है और -------------------
''एक सुबह ,६ बजे --ताजा गुड बनवाया था ,वो गुड की चाय कभी नहीं पीते थे पर जुकाम था तो मैंने अदरख गुड की चाय बनाई --आज उठने में देर हो गयी कहके चाय के लिए उठाया तो एक सिप लेके बोले थोड़ा कमजोरी हो रही है ,कुछ देर और सो जाऊं और बस कहते कहते रामजी की चिड़िया रामजी के पास। ''------------
अजय के जाने के कुछ समय बाद जब होश आया तो पता चला सही में भाग्यशाली वही है जिसको अपने जाने का अहसास भी न हो ,पल भर में उड़ जाए ,चेहरे पे भी न शिकन न डर। --जब जरा मनन करने लगी तो पाया ,पिताजी ,माँ ,श्वसुरजी --मेरे आगे ये सभी शख्श ऐसे रहे जो चेतनावस्था में चलते-फिरते चले गए --और ये सब वही लोग थे जो सीधे ,सच्चे और सरलमना थे।
अभी कलाम सर का जाना देखा तो ये सारी बतकहियां चलचित्र की भांति घूम गयी आँखों के आगे ,मानो अभी की ही बात हो ,एक सीधे ,सच्चे सरल ,आदमी का जाना क्या होता है --पल भर में कार्य करते हुए प्राण पखेरू उड़ गए ---सही में यही व्यक्ति भाग्यशाली होता है। अजय तुम ठीक कहते थे।
काश मैं भी इतनी ही सहज हो पाऊं। कोशिश तो कर रही हूँ पर अभी ऐंठ है कहीं मन में ,कुछ गांठें हैं जो खुलती नहीं ,,कुछ लोग जिन्होंने तुम्हें धोखा दिया मेरी माफ़ी की जद में नहीं आते --शायद मैं उतनी सरलमना नहीं हूँ और कोई बिरला ही हो सकता है ऐसा।
''मैं रोती नहीं वारती मानस मोती हूँ ''---जाने वाले अब हमारे दिलों में हैं अपनी राह पे चलने को प्रेरित करते हुए ----

Sunday, 22 July 2018



सांझ का सूरज
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मन कदरी का पात हुआ जाता है ,
मेह पावस के न भिगो पायें इसको।
देख भानु को अंबर से क्षितज पे  आते ,
लगीं बुनने  स्वप्न  कुछ सुहाने लहरें।
वो होके   किरणों के झूले पे सवार ,
छिपे अंक जलधि , उगे भूधर  पीछे।
देख पींगे बढ़ाते झूलते उसको
स्मित सीमान्त आह्लादित -
खोलता मूँदता पलकें।
उषा- कुमकुम ,संध्या- सिंदूर लिए
पथ को केसरिया  वसन उढ़ा देती हैं।
पर! बाँध पायीं कहाँ  रंगीनियां तुझे ऐ सूरज  !
मिटाने को तपिश- थकन दिवसभर की ,
खेलेगा संग  जलधि लहरों के तू ,
भिगोना है तुझे  तन मन अपना -
जाना भी तो है, निशा सुंदरी के तिमिर महल !
जहां कज्जल चादर में  टंके हैं हीरे ,
तकिये पे जहां चाँद का कंगन  है कढ़ा ।
सोने चांदी के सितारों की जगमग में-
रूपसी निशा संग -सुख-दुःख मंजरित होंगे।
नीलम से चमकते सागर की लहरें
धुन बांसुरी की सुनाती है टूटते-बनते।
घन घूंघट  की ओट से  हैं झांकते ,
  लहराते -रेशमी केश ,कज्जल निशा के.
  और ! मैं बावरी -चुपके से -
लहरों के झरोंखों से ताकूँ तुझको।
लालसा मन की तुझे देखने की
जाने आँखों को क्यों गुनाहगार कहते हैं सभी !
संग अम्बुद के तू उतरता है मेरे भीतर भी
मैं तेरे संग-संग  ही सोतिजगती हूँ ,
तू मेरा मन है तू देवता मेरा -
तू है तो मैं हूँ -बस ,
इतना सा नाता तेरा- मेरा ।।आभा।।====
-----सागर के अंक में समाते सूरज का दृश्य -मन को लहरों सा चंचल कर देता है -आसमान में बिखरा कुमकुम चूर्ण ,स्वर्णिम रश्मियां और नीलम सा जलधि -मन बावरा हो कविता हो जाता है।इस सुंदर चित्र पे केवल सुंदरता का वर्णन।













Friday, 20 July 2018



जिजीविषा ----
गिलोय [ टीनोस्फोरा कार्डीफोलिया ] , अमृता जीवन्तिका , गुडुची , छिन्नरुहा ,कुण्डलिनी , चक्रांगी , मधुपर्ण ---और भी न जाने कितने नाम और उतने ही गुण |ज्वर के लिये तंत औषधी | मेरे घर में ज्वर होने पे तुरंत गिलोयका काढ़ा दिया जाता है ,शायद मेरा विश्वास ; ज्वर उतर भी जाता है | सरल शब्दों में कहा जाए तो लाख रोगों की एक दवा --पर आज मैं कोई आयुर्वेदिक पोस्ट नही लिख रही --ये एक चमत्कार ( आज ही देखा ) बयाँ कर रही हूँ --वो चमत्कार जहाँ ईश्वर के दर्शन होते हैं ''जाको राखे साइयां मार सके न कोई '' जिजीविषा --जो सब प्रभू की कृपा के कारण ही हो सकती है ----
''दशरथ पुत्र जन्म सुनी काना | मानहुं ब्रह्मा नन्द सामना ||
परम प्रेम मनपुलक सरीरा | -----कहा बोलाई बजावहूँ बाजा ||''
पुत्र जन्म की सूचना दशरथ जी के लिए ब्रह्म को पा लेने का आनन्द ही थी , अब उससे बड़ा भी कोई आनन्द हो सकता है --जी हाँ ---सबके साथ उस आनन्द को बाँटना ---आज मैं भी बाँट रही हूँ ये आनन्द --इसे आप सभी सुधीजन मेरी बेवकूफी भी समझ सकते है --पर मूर्खा हूँ तो हूँ --- 
2014 में बच्चे बाहर थे--एक महीने के लिए अकेली थी , तभी तेजज्वर और फ्लू ने जकड़ लिया ,आस-पास डेंगू फैला था | जब दो तीन बार बेहोशी आ गयी तो पपीते के पत्ते मंगवाए काम वाली से और रस पीना शुरू किया ,दो तीन दिन में ज्वर उतर गया | मैं कुछ दिनों के लिए हरिद्वार आ गयी | भाई के घर में गिलोय की बेल है --पत्ते भी खाए और काढ़ा भी पिया ,आते हुए कुछ कलमें लेती आई और गमले में रोप दीं --यही बेल जिसका चित्र मैंने डाला है --शान से लहरा रही है अब | कुछ टहनियां मैंने रख लीं और भूल गयी ,आज रद्दी निकाल रही थी तो एक कार्टन से गिलोय की वो भूलीबिसरी टहनी मिली | दो वर्ष तक यूँ ही पड़ी टहनी -- उसमे नये पत्ते एवं दो रस्सी सी जड़ें देख मेरी तो ख़ुशी और आश्चर्य से चीख ही निकल गयी --मुहं से बस यही निकला जाको राखे साइयां ,--इसी लिए इसका नाम अमृता है --खुद में इतनी जिजीविषा है तभी तो मरते हुए को भी जीवित करदे ऐसा कहा जाता है इसके विषय में ---कुण्डलिनी नाम को सार्थक करती है ये बेल --सचमें नवांकुर ऐसे लग रहे हैं मानो सुषुप्त कुण्डलिनी जागृत हो गयी हो --सचमुच अमृता --मेरी आज की ख़ुशी सभी स्नेहिल मित्रों के साथ सार्थक हो ----
सावन का महिना ,भोले का महिना कांवड़ यात्रा का महिना ,पार्वती के दुल्हिन बनने सजने का महिना ---सब कुछ वैसा ही पर हर वर्ष नया -नया------एक बार फिर के अंतर्गत --यादें --
सावन में बस भोला बम ---
''पार्वती तप कीन्ह अपारा ,करहुँ तासु अब अंगीकारा। ''
देवताओं की विनती शिव से ,और शिव का प्रसन्न होके कहना --
''ऐसे ही होऊ कहा सुख मानी ''-
सप्तऋषियों का हिमालय के प्रसाद में आना और पार्वती की परीक्षा ---
देखो तुमने हमारा कहना नहीं सुना ,अब शिव ने काम को भस्म कर दिया ,तुम्हारा प्रण झूठा हो गया --पार्वति मुस्कुराते हुए बोलीं ---
''तुम्हरे जान काम हर जारा ,अब लगि शम्भू रहे सविकारा।
हमरे जान सदा शिव योगी ,अज अनवद्ध्य अकाम अभोगी ''
कितना विशवास जगदम्बा का ,सप्तऋषियों ने उमा को आशीष दे पत्रिका मिलाई और ---''जस दूलह तस बनी बराता ''----रामचरितमानस में भव्य वर्णन शिव-पार्वति विवाह का। जी हाँ महीना सावन का तथा शिव बारात का , --बस इसी लिए सावन शिव मय ,चारों ओर ,नम:शिवाय और बम-बम भोले की गूंज।
महाभारत में भी कृष्ण जब शिव की तपस्या कर वर मांगने हेतु हिमालय में गए --तो शिव स्थान का कितना सुंदर वर्णन कृष्ण के मुहं से ------
''कृष्ण कहते हैं ,पहुंचते ही मैंने हिमालय को तपस्या के अनुकूल पाया ,वहां पर दिव्य आश्रम ,ब्राह्मी से शोभायमान थे। धव ,कुकुभ [अर्जुन ],कदम्ब ,नारियल [जो अब समुद्र के तट पे पाये जाते हैं ],कुरबक ,केतक ,जामुन पाटल बड़ वरुणक ,वत्सनाभ ,बिल्व ,सरल ,कपित्थ ,प्रियाल ,साल ,ताल ,बेर ,कुन्द ,पुन्नाग।,अशोक ,आम्र ,अतिमुक्त ,महुवा ,कोविदार ,चम्पा था कटहल ,केले के कुञ्ज ,नाना प्रकार के पशु पक्षी ,सर्प ,हाथी ,शेर , विशालकाय पशु ,झर -झर झरते झरनों की शीतल फुहारें ,कई तरह की नदिया और भव्य जान्हवी ,नाना प्रकार के फूलों तितलियों भर्मरों से गुंजित वो वन जिसके विषय में दूसरे लोग सोच भी नहीं सकते --''अचिन्त्यं मनसाप्यन्यै ''---अनेकानेक सरोवरों से अलंकृत पुष्पों से आच्छादित विशाल अग्निशालाओं से विभूषित था ---और फिर महाभारत में शिव की पूजा अर्चना तपस्या कैसे की कृष्ण ने सब विस्तार से --साथ ही उमा का आशीर्वाद कृष्ण को --
''-एवं भविशत्यमरप्रभाव नाहं मृषा जातु वदे कदाचित।
भार्या सहस्त्राणि च षोडशैव तासु प्रियत्वं च तथाक्षयं च।
प्रीतिं चाग्रयां बान्धवानाम सकाशाद ददामि तेहं वपुष:काम्यतां च।
भोक्ष्यन्ते वै सप्ततीं वै शतानि गृहे तुभ्यमतिथीनां च नित्यं ''-------जगद्जननी अम्बे का आशीष ठीक वैसे ही जैसे माँ पुत्र को देती है ----तुम सदैव कमनीय बने रहो ,बंधु -बांधवों से प्रसन्नता मिले ,तुम्हारी सोलह हजार रानियाँ और शक्तिशाली पुत्र हों ,घर अक्षय धनधान्य से भरा रहे और प्रतिदिन सातहजार अतिथि तुम्हारे घर में भोजन करें। -----
कृष्ण की विनय ---
'' त्वत्तो जातानि भूतानि स्थावराणि चराणि च।
त्वया सृष्टमिदं कृत्स्नं त्रैलोक्यं सचराचरम् ''-----आज का मेरा शिवार्चन ------
यही सुंदरता है हमारे शास्त्रों की ,ब्रह्मा ,विष्णु महेश सदैव एक दूसरे की पूजा अर्चना करते एक दूसरे के प्रति श्रद्धा रखते हुए देखे जा सकते हैं ------आज सावन के पहले सोमवार को महाभारत ,रामायण में शिवार्चन का ---आनंद लीजिये सभी --आशीष है माँ पार्वती का , सभी का अधिकार है उसपे सो शेयर कर दिया ,कृष्ण के साथ ही मैंने भी अपने लाडले के लिए एक रानी की अर्जी लगाई ---नम:शिवाय --सत्यं शिवं सुंदरम का बोलबाला हो ,सारे देश में और शिव की नगरी उत्तराखंड में --वो उत्तराखंड जिसका मनोरम वर्णन कृष्ण ने किया पूण: अपने वैभव को प्राप्त हो ---वृक्षारोपण से --
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Tuesday, 17 July 2018


==========मन कदरी का पात हुआ जाता है ,


मेह पावस के न भिगो पायें इसको।

देख भानु को अंबर से क्षितज पे आते ,

लगीं बुनने कुछ स्वप्न सुहाने लहरें।

वो होके किरणों के झूले पे सवार ,

छिपे अंक जलधि , उगे भूधर पीछे।

देख पींगे बढ़ाते झूलते उसको

स्मित सीमान्त आह्लादित -खोलता मूँदता पलकें।

उषा- कुमकुम ,संध्या- सिंदूर लिए।,

पथ को केसरी वसन उढ़ा देती हैं।

पर! तुझे कब रंगीनियां बाँध पायीं !

मिटाने को तपिश- थकन दिवसभर की ,

खेलेगा संग जलधि लहरों के तू ,

भिगोना है तुझे तन मन अपना -

जाना भी तो है, निशा सुंदरी के तिमिर महल !

जहां कज्जल चादर में हैं हीरे टंके ,

तकिये पे जहां चाँद का कंगन है कढ़ा ।

सोने चांदी के सितारों की जगमग में-

रूपसी निशा संग -सुख-दुःख मंजरित होंगे।

ठिठक गयी हूँ तेरे रूप के जलवों में मैं

नीलम से चमकते सागर की लहरें

धुन बांसुरी की सुनाती है टूटते-बनते।

घन घूंघट की ओट से हैं झांकते , 

लहराते -रेशमी केश ,कज्जल निशा के.

और ! मैं बावरी -चुपके से -

लहरों के झरोंखों से ताकूँ तुझको।

लालसा मन की तुझे देखने की

जाने आँखों को क्यों गुनाहगार कहते हैं सभी !

संग अम्बुद के तू उतरता है मेरे भीतर भी

मैं तेरे संग-संग ही सोतिजगती हूँ ,

तू मेरा मन है तू देवता मेरा -

तू है तो मैं हूँ -बस ,

इतना सा नाता तेरा- मेरा ।।आभा।।====

-----सागर के अंक में समाते सूरज का दृश्य -मन को लहरों सा चंचल कर देता है -आसमान में बिखरा कुमकुम चूर्ण ,स्वर्णिम रश्मियां और नीलम सा जलधि -मन बावरा हो कविता हो जाता है।इस सुंदर चित्र पे केवल सुंदरता का वर्णन 
क्षितिज के उस पार-प्रोत्साहन के लिये ---
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अपनी साँसें मुझको देकर 
तू मुझमें ही छिप जाता है। 
पपीहे सी प्यासी रह जाती 
सुधियों का अमृत पीने को। 
जब तू मेरा होता है ,
मैं भी अपनी होती हूँ। 
जुगों जुगों की रीत यहां 
बस प्यार और अधिकार की है। 
तुझको पाना तुझको जीना 
तेरी ही राहों पे चलना -
तिनका -तिनका जोड़ यहां 
निर्मित अपना संसार किया -
अब पंछी कैद हुआ तड़पे 
चाहे ऊँची उड़ान प्रिये। 
अधखुली पलकों का उन्मीलन 
सुधियाँ लेती आकार प्रिये। 
तू भी अंक में सागर की 
नित आता थकन मिटाने को। 
मैं भी लहरों में मिलकर के 
फिर लेती हूँ आकार प्रिये।।आभा।।-हर बार उजला होने की आस में आत्मा लिहाफ बदलती है ,कुछ भूली बिसरी सुधियों संग -"पुनरपि जननं पुनरपि मरणं' -- साँसों का हवन है जीवन फिर - फिर से सागर के अंक में समाना -जैसे प्रतिदिन सूरज समाता है ,आत्मा की थकन उतारने को -पर अवसान मनभावन हो,रंगभरा हो , ये भी सीख देता है क्षितिज का सूरज --आखिर जीवन तो क्षितिज के उस पार ही है।
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Monday, 16 July 2018

17 july 2015 ---ठीक से याद नही -शायद अथर्वेद को खोल के बैठी होऊँगी--तभी ये लिखा होगा ---आज फिर वही दिन वही आशीष वेदों से लोक में घूमता हुआ उस पीढ़ी से इस पीढ़ी तक पीढ़ी दर पीढ़ी ---
पश्येम शरदः शतम् ।।१।।
जीवेम शरदः शतम् ।।२।।
बुध्येम शरदः शतम् ।।३।।
रोहेम शरदः शतम् ।।४।।
पूषेम शरदः शतम् ।।५।।
भवेम शरदः शतम् ।।६।।
भूयेम शरदः शतम् ।।७।।
भूयसीः शरदः शतात्।।८।।

 हम सौ शरदों को देखें अर्थात सौ वर्षों तक हमारी नेत्र इन्द्रिय स्वस्थ रहे I१ 
 हम सौ शरद ऋतु तक जीयें यानि हम सौ वर्ष तक जीयें I२ 
 सौ वर्ष तक हमारी बुद्धि सक्षम बनी रहे अर्थात मानसिक तौर पर सौ वर्षों तक स्वस्थ रहे I३ 
 वर्षों तक हमारी वृद्धि होती रहे अर्थात हम सौ वर्षों तक उन्नति को प्राप्त करते रहे I४ 
  सौ वर्षों तक हम पुष्टि प्राप्त करते रहें, हमें अच्छा भोजन मिलता रहे I५ 
 हम सौ वर्षों तक बने रहे I यह दूसरे सूक्त की पुनरावृति है I६ 
 सौ वर्षों तक हम पवित्र बने रहें I७ 
 सौ वर्षों के बाद भी ऐसे ही बने रहें ८ 
------------आंचलिक भाषा में अथर्ववेद का ये मंत्र -कुछ यूँ बन गया ----
''जी रये, जागि रये धरती जस आगव, आकाश जस चाकव है जये सूर्ज जस तराण, स्यावे जसि बुद्धि हो दूब जस फलिये, सिल पिसि भात खाये, जांठि टेकि झाड़ जाये।''------
-हरेला की आत्मा अथर्ववेद में बसी है ,पूर्वजों की परम्पराएँ ,संस्कार लोकमन के साथ-साथ यहां तक चले आये। 
ये संस्कार, पर्व आज ज्यादा प्रासंगिक हैं जब जनसंख्या विस्फोट के कारण  सुविधाओं के विस्तार के लिए वृक्षों का अंधाधुंध कटान अपरिहार्य हो गया है -
 विकास की कीमत पे दस वर्ष से अधिक उम्र के वृक्षों का कटान तो प्रतिबंधित होना ही चाहिए साथ ही उससे छोटे जितने भी पेड़ काटे जाएँ उन्हें आधुनिक तकनीक से दूसरी जगहों पे रोपने की कोशिश हो तब ही हरेला जैसे आंचलिक पर्वों की आत्मा का अनुसरण होगा -
कुछ समय तक घरों में गमलों पे पेड़ लगाये जाएँ स्वस्थ होने के बाद उन्हें जमीन दी जाये -पर ऐसी जमीन जहाँ दो तीन वर्ष तक देखभाल हो सके -यही संकल्प हो हमारा -
मेरे जामुन इमली अनार अमृता पीपल तैयार हो रहे है और इस वर्ष भी गमलों में आम लीची प्लम आड़ू करीपत्ता सभी बो दिए गए है -दूसरे वर्ष के लिए -ईश्वर इन पौधों को उम्र दे। 
आषाढ़ी नवरात्रि और हरेला पर्व सभी के लिये सुख-समृद्धि और शांति का पैगाम लेके आए।.आभा।।



Wednesday, 11 July 2018

 जीने की जद्दोजहद में,  हर रोज- जिंदगी
   मौत से करती रही   ,सदा ही  दोस्ती।
 खेल आंखमिचौनी का, चलता रहा सदा
 गमे इश्क को  मेरे ,न मिल सकी ये  जिंदगी।
इश्क के बुतों संग ,  कुछ वक्त तो गुजार
रूह अपनी से इजहारे मुहब्बत है-   जिंदगी।
 मरने से हो शुरू- वो शै है, 'इश्क' - जिंदगी
मरते हैं किसी पे- तो ही ,जीते हैं  जिंदगी
मिट के ही  छू पाउंगी मैं, तुझे ए इश्क
ए री  न   मेरी बन ,आली तू  -जिंदगी  !
 डरा के मौत से मुझे ,खुद ही  तू डर गयी
क्या  जानती  है, तू भी  "तू "मुझसे  है जिंदगी ?
गर्म रेत  सी राहें मेरी  , ये तो ;  मालूम  है तुझे
तो !  हमसफर मुझे ही क्यूँ चाहती है- जिंदगी?
इश्क ख़्वाब है मेरा ,आदत मेरी है वो
इश्क "रूह " है मेरी , "तू "  इबादत है जिंदगी।
दाद ओ तहसीन की ख्वाहिशें हुई तमाम
बुझता हुआ चिराग मैं तेरा हूँ जिंदगी।। आभा।।