Tuesday, 17 July 2018


==========मन कदरी का पात हुआ जाता है ,


मेह पावस के न भिगो पायें इसको।

देख भानु को अंबर से क्षितज पे आते ,

लगीं बुनने कुछ स्वप्न सुहाने लहरें।

वो होके किरणों के झूले पे सवार ,

छिपे अंक जलधि , उगे भूधर पीछे।

देख पींगे बढ़ाते झूलते उसको

स्मित सीमान्त आह्लादित -खोलता मूँदता पलकें।

उषा- कुमकुम ,संध्या- सिंदूर लिए।,

पथ को केसरी वसन उढ़ा देती हैं।

पर! तुझे कब रंगीनियां बाँध पायीं !

मिटाने को तपिश- थकन दिवसभर की ,

खेलेगा संग जलधि लहरों के तू ,

भिगोना है तुझे तन मन अपना -

जाना भी तो है, निशा सुंदरी के तिमिर महल !

जहां कज्जल चादर में हैं हीरे टंके ,

तकिये पे जहां चाँद का कंगन है कढ़ा ।

सोने चांदी के सितारों की जगमग में-

रूपसी निशा संग -सुख-दुःख मंजरित होंगे।

ठिठक गयी हूँ तेरे रूप के जलवों में मैं

नीलम से चमकते सागर की लहरें

धुन बांसुरी की सुनाती है टूटते-बनते।

घन घूंघट की ओट से हैं झांकते , 

लहराते -रेशमी केश ,कज्जल निशा के.

और ! मैं बावरी -चुपके से -

लहरों के झरोंखों से ताकूँ तुझको।

लालसा मन की तुझे देखने की

जाने आँखों को क्यों गुनाहगार कहते हैं सभी !

संग अम्बुद के तू उतरता है मेरे भीतर भी

मैं तेरे संग-संग ही सोतिजगती हूँ ,

तू मेरा मन है तू देवता मेरा -

तू है तो मैं हूँ -बस ,

इतना सा नाता तेरा- मेरा ।।आभा।।====

-----सागर के अंक में समाते सूरज का दृश्य -मन को लहरों सा चंचल कर देता है -आसमान में बिखरा कुमकुम चूर्ण ,स्वर्णिम रश्मियां और नीलम सा जलधि -मन बावरा हो कविता हो जाता है।इस सुंदर चित्र पे केवल सुंदरता का वर्णन 

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