Tuesday, 26 March 2013
abhajai: [ हमारा पहला फूल ] *******...
abhajai: [ हमारा पहला फूल ] *******...: [ हमारा पहला फूल ] ********************* पल वो इक वरदान सृष्टि का , थी मौन जगत की रागिनी , थे व...
[ हमारा पहला फूल ]
*********************
पल वो इक वरदान सृष्टि का ,
थी मौन जगत की रागिनी ,
थे व्यग्र वे और मैं उन्मादिनी .
कानों में गूंज उठा रुदन !!
झंकृत रोम -रोम ,बज उठा कण -कण .
तन पुलकित मन मधुरतम .
वेदना सब मिट गयी ,
गीत होंठों पर था आया .
रुदन में अहसास सुख का ,
इक पल में जीवन सिमट आया ,
कोमल मधुर स्पर्श ,चकित हम दोनों हुए ,
हो मुखर आलय गया ,
देखते थे स्वप्न जो हम ,
विस्तार उसका हमने पाया ,
नर्म ,नाजुक और कोमल ,
हम दोनों भी हो गए हैं अब ,
सेज फूलों की ,,गोद अपनी हो गयी है
,अपलक निहारें हम तुम्हें जब
नीर नयन बहाते सुरभित ,
मानो स्वागत में मन;; मकरंद में ,
कुमकुम ,चंदन मिलाकर,
नयनों की राह बिखराने लगा हो .
कृतज्ञं तुम्हारे हैं हम बच्चे ,
श्री ,सुख सब तुम लेके आये ,
सृजन करता हो गए हम ,
गौरव, पूर्णता का अहसास पाया ,
हो स्पंदन हमारे हृदय का ,
दिवस निशा के शाश्वत स्वप्न हमारे ,
दीप हो घर के हमारे :;;;
आज पा कर के तुम्हें ,
स्वर्ण हर पल हो गया है ,
अंतरजगत की सूक्ष्मता का
तुम तो हो विस्तार बच्चे
सृजन की अनुभूति हो तुम ,
पूर्णता का आभास बच्चे ,
साथ हों हम सब सदा ही ,
आशीष प्रभु का सदा तुम पाओ ,
आज घरकी जो ये सुरभि है ,
सदा महके जीवन में तुम्हारे ,
तुम बढ़ो फूलो फलो ,
जीवन हो उज्ज्वल ,उन्नत ,तुम्हारा
बाधाएं हों सब हमारी ,
तुम सृष्टि का वरदान हो ओ।।।।। .आभा
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पल वो इक वरदान सृष्टि का ,
थी मौन जगत की रागिनी ,
थे व्यग्र वे और मैं उन्मादिनी .
कानों में गूंज उठा रुदन !!
झंकृत रोम -रोम ,बज उठा कण -कण .
तन पुलकित मन मधुरतम .
वेदना सब मिट गयी ,
गीत होंठों पर था आया .
रुदन में अहसास सुख का ,
इक पल में जीवन सिमट आया ,
कोमल मधुर स्पर्श ,चकित हम दोनों हुए ,
हो मुखर आलय गया ,
देखते थे स्वप्न जो हम ,
विस्तार उसका हमने पाया ,
नर्म ,नाजुक और कोमल ,
हम दोनों भी हो गए हैं अब ,
सेज फूलों की ,,गोद अपनी हो गयी है
,अपलक निहारें हम तुम्हें जब
नीर नयन बहाते सुरभित ,
मानो स्वागत में मन;; मकरंद में ,
कुमकुम ,चंदन मिलाकर,
नयनों की राह बिखराने लगा हो .
कृतज्ञं तुम्हारे हैं हम बच्चे ,
श्री ,सुख सब तुम लेके आये ,
सृजन करता हो गए हम ,
गौरव, पूर्णता का अहसास पाया ,
हो स्पंदन हमारे हृदय का ,
दिवस निशा के शाश्वत स्वप्न हमारे ,
दीप हो घर के हमारे :;;;
आज पा कर के तुम्हें ,
स्वर्ण हर पल हो गया है ,
अंतरजगत की सूक्ष्मता का
तुम तो हो विस्तार बच्चे
सृजन की अनुभूति हो तुम ,
पूर्णता का आभास बच्चे ,
साथ हों हम सब सदा ही ,
आशीष प्रभु का सदा तुम पाओ ,
आज घरकी जो ये सुरभि है ,
सदा महके जीवन में तुम्हारे ,
तुम बढ़ो फूलो फलो ,
जीवन हो उज्ज्वल ,उन्नत ,तुम्हारा
बाधाएं हों सब हमारी ,
तुम सृष्टि का वरदान हो ओ।।।।। .आभा
Monday, 25 March 2013
आज होलिका दहन है .....कहते हैं होलिका को वरदान था अग्नि में न जलने का , या शायद उसके पास अग्नि में न जलने वाले वस्त्र होंगे ,या आग में न जलने के वस्त्र बनाने वाली टेक्नोलॉजी होगी जिसका उसने पेटेंट करवा दिया होगा और अपने निजी स्वार्थ के लिए ही उपयोग करती होगी , जो भी हो इस घटना से समाज के विकसित होने का ,और शक्तियों के आतातियों के हाथ में पड़ने का प्रमाण तो मिलता ही है ,,और जब भी विज्ञान ,वरदान से विनाश की ओर जाता है तो सामाजिक उथल -पुथल मचती है ,जब सत्ता पे आरूढ़ चंदलोग समाज को बंधक बना कर दारुण स्थिति में पहुंचाकर ,जनता का मनोबल तोड़ कर उसे कुंठित करने का कुचक्र रचते हैं ताकि सारे सुख वे स्वयम ही भोग सकें ,तो शायद सत्ता के मद में चूर लोग स्वयम भी भीरु और कुंठित हो जाते है .सिमित दायरे में घूम के अपने को महान समझने लगते है ,,ऐसे में प्रकृति ही समाधान खोजती है और पैदा होता है एक निडर ,निर्भीक ,अहंकार रहित सत्यान्वेषी बुराई को जड़ से उखाड़ फैंकने वाला प्रह्लाद ,जो बुराई की गोद में ही बैठ कर उसका विनाश करने की ताकत रखता है .
होलिका दहन आताताई ताकतों के गर्व के मर्दन का ही पर्व है। शायद! होलिका ने गर्व में चूर होकर पूरे अग्निशामक वस्त्र ना पहन कर केवल दुशाला ही डाल लिया था अपने ऊपर ,या शायद! ये प्रभु की प्रेरणा थी ,कि जैसे ही हवा चली दुशाला प्रह्लाद के ऊपर आ गिरा और होलिका जल गई ,बुराई पे अच्छाई की विजय ,असत्य पे सत्य की विजय ,,पर ये हुआ तब ही जब प्रह्लाद ,निडर हुआ ,सत्य की राह चला ,प्रलोभनों को छोड़ कर अपने लक्ष्य पे दृढ रहा ,समाज में व्याप्त बुराइयों को समाप्त करने के लिए अपने शक्तिशाली पिता से भी टकराने से नहीं हिचका ,,आज फिर से समाज में प्रह्लाद की आवश्यकता है ,,,एक प्रह्लाद से काम नहीं चलेगा ,,,आज तो हर मोड़, हर चौराहे पे हिरन्याकश्य्प और होलिकाएं हैं हम सब को प्रहलाद बनना होगा ,अपने अंदर बैठे प्रह्लाद को जगाना ही होगा ,तभी ईश्वरीय शक्तियां भी साथ देंगी ,,काम कठिन नहीं है ,,क्यूंकि लड़ाई हमें अपने भीतर बैठे हिरान्याकश्य्पों और होलिकाओ से ही लड़नी है ,,हम सब प्रहलाद बनने की और अग्रसित होवें ,,,,,ये होलिका -दहन का पर्व हम सब को बल दे ,,देश समाज सुखी हो ,,,और आप सबके जीवन में खुशियाँ आयें ,,,शुभकामनाओं सहित .....आभा ...
[ होली के अनोखे रंग ]
**************************
टोली हुरियारों की आई है
चलो चलें होली खेलें .
रंग उधर मेज पे सारे ,
अपने मन का रंग चुन लें .
रंग गुलाल से क्या होगा ,
ये भ्रष्टाचार का रंग चुनो।
गर इस रंग में रंग जाओगे ,
नाती-पोते भी तर जायेंगे .,
साम्प्रदायिकता नाम है इसका ,
ये लाल हरा जो चमक रहा है .
वोट बहुत दिलवाता है ,
नेतागिरी चमकाता है .
चाहते यदि नेता बनना।
तो इससे ही होली खेलो ,
झूठ ,फरेब और धोखेबाजी ,
ये रंग थोड़े सस्ते हैं,
आम आदमी चाहे इनको ,
महंगाई में भी ले सकता है .
भौजी जो रंग तुमने है उठाया
नाम इसका नेता है .
एक बार इसको लगवालो ,
फिर देखो कैसे, गिरगिट सा रंग बदलता है .
और एक रंग इस जैसा ही ,
सफेद खून कहलाता है .
चमचों और चालबाजों पे ,
ये रंग खूब सुहाता है .
आतंकवादी का कहते हैं ,
कोई रंग नहीं होता ,
पर भूख गरीबी के रंग ,रंग कर ,
आओ मिल होली खेलें ,
टोली हुरियारों की आई ,
चलो -चलो होली खेलें .......आभा .... Sunday, 24 March 2013
.......... यादों के झुरमुट से .........
**************************
यादों के झुरमुट से ,जीवन को पन्नों पे संवारना ,
कुछ खोने के पल , कुछ पाने के पल ,
कभी रोये ,कभी हँसे ,कभी गिरे फिर उठे .
आसां नहीं ,हर पल से न्याय ,हर पल की गवाही .
खामोशियों ,तनहाइयों का उग आया है जंगल ,
तनहाइयों का कोलाहल अब सुनने लगी हूँ मैं ,
खामोशियाँ पन्नों पे उतरती हैं शब्द बन के '
तन्हां मगर इस पथ पे चल तो पड़ी हूँ मैं .
हैं रास्ते बहुत से, मंजिल है बहुत दूर ,
सही औ गलत रास्तों का पता नहीं अभी
मंजिल पे तुम मिलोगे ,बस चल पड़ी हूँ मैं ,
रिश्तों का अम्बार है ,पर कुछ में दरार है ,
ये दरारें ये गांठें ,आसां नहीं है खोलना
जब तुम थे साथ तो थी बात दूसरी
इक दरार भरते तो इक गाँठ खोलते ,
खुद ही सुलझाती हूँ ,हर उलझन को मैं
मिलते बहुत लोग हैं इन रास्तों में अक्सर
वादा भी साथ देने का करते हैंमुझसे ,मगर ,
जानते तो हो तुम नसीब को अपने ,
जब चाहिए सहारा , हाथसर पे किसी का नहीं ,
भगवान भी नहीं है अब तो साथ में मेरे ,
क्यूँ नहीं आता है वो, जब हो जरूरत मुझे .
क्यूँ देता नहीं दिलासा ,देता नहीं दिखाई ,
क्यूँ देता है डगमगाने विश्वास को मेरे
क्यूँ देता है कर हर राह पे तन्हा यूँ ही मुझे ,
बसेरा जब से आसमान पे कर लिया तूने ,
बेगानी सी दिखने लगी है अब, ये जमीं मुझे ,
मजबूर हूँ चलने पे, मिलना जो है तुम से ,
हूँ ढूंढती इक रास्ता,जो जाता हो फलक तक
ज्वाल के उस पार जहाँ देश तुम्हारा ,
ऐ काश किसी मोड़ पर मौत ही मिल जाए ,
पूछूं उसे ,क्यूँ करती है सब को तू तन्हा
तरस आता नहीं तनहाइयों पे हमारी ,
क्या मायूस सा चेहरा दिखाई नहीं देता ,
क्या होगा उसु दिन जब तू भी हो जायेगी तन्हा ,
मैंने तो फिर भी यादों की एक नगरी है बसाई ...
***********************आभा ...आभाजय .....
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यादों के झुरमुट से ,जीवन को पन्नों पे संवारना ,
कुछ खोने के पल , कुछ पाने के पल ,
कभी रोये ,कभी हँसे ,कभी गिरे फिर उठे .
आसां नहीं ,हर पल से न्याय ,हर पल की गवाही .
खामोशियों ,तनहाइयों का उग आया है जंगल ,
तनहाइयों का कोलाहल अब सुनने लगी हूँ मैं ,
खामोशियाँ पन्नों पे उतरती हैं शब्द बन के '
तन्हां मगर इस पथ पे चल तो पड़ी हूँ मैं .
हैं रास्ते बहुत से, मंजिल है बहुत दूर ,
सही औ गलत रास्तों का पता नहीं अभी
मंजिल पे तुम मिलोगे ,बस चल पड़ी हूँ मैं ,
रिश्तों का अम्बार है ,पर कुछ में दरार है ,
ये दरारें ये गांठें ,आसां नहीं है खोलना
जब तुम थे साथ तो थी बात दूसरी
इक दरार भरते तो इक गाँठ खोलते ,
खुद ही सुलझाती हूँ ,हर उलझन को मैं
मिलते बहुत लोग हैं इन रास्तों में अक्सर
वादा भी साथ देने का करते हैंमुझसे ,मगर ,
जानते तो हो तुम नसीब को अपने ,
जब चाहिए सहारा , हाथसर पे किसी का नहीं ,
भगवान भी नहीं है अब तो साथ में मेरे ,
क्यूँ नहीं आता है वो, जब हो जरूरत मुझे .
क्यूँ देता नहीं दिलासा ,देता नहीं दिखाई ,
क्यूँ देता है डगमगाने विश्वास को मेरे
क्यूँ देता है कर हर राह पे तन्हा यूँ ही मुझे ,
बसेरा जब से आसमान पे कर लिया तूने ,
बेगानी सी दिखने लगी है अब, ये जमीं मुझे ,
मजबूर हूँ चलने पे, मिलना जो है तुम से ,
हूँ ढूंढती इक रास्ता,जो जाता हो फलक तक
ज्वाल के उस पार जहाँ देश तुम्हारा ,
ऐ काश किसी मोड़ पर मौत ही मिल जाए ,
पूछूं उसे ,क्यूँ करती है सब को तू तन्हा
तरस आता नहीं तनहाइयों पे हमारी ,
क्या मायूस सा चेहरा दिखाई नहीं देता ,
क्या होगा उसु दिन जब तू भी हो जायेगी तन्हा ,
मैंने तो फिर भी यादों की एक नगरी है बसाई ...
***********************आभा ...आभाजय .....
Friday, 22 March 2013
स्मृतियों के कुछ स्वर्णिम पल ,
कुछ संघर्षों के ,
कुछ पाने के ,
कुछ खोने के .
ये स्मृतियाँ ही अब तो मेरे जीवन की साथी हैं ,
बंद कमरे में ले जा कर फिर आंगन में ले आती हैं .
अपने जो छोड़ चले मुझको ,संग हमेशा स्मृति में ,
जुगनू से जगमग रहते हैं ,मेरे मन के अंधियारों को .
भूलें जो बात पुरानी ,जीवन यांत्रिक हो जाएगा ,
भावों भरा स्नेहिल मन ,पत्थर बन कर रह जाएगा ,
बीते पल थाती मेरी ,संग प्रतिदिन उनके मैं मुस्काती ,
वो भाई बहिन की अठखेली ,सखियों संग खिल -खिल खिलना ,
माँ -पिता का स्नेह कवच ,सीख सिखाना गुरुजन का ,
वो संग पिया का !वो स्वर्णिम पल ,बादल के पंख लगा उड़ना ,
वो घर में नव जीवन आना ,ममता से घर का भर-भर जाना ,
होली हो या दीवाली ,सुख हो या दुःख की काली रातें ,
यदि मैं इन सब को भूलूं ,तो निज को ही मिटा चलूँ ,
स्मृतियों में ही तो सृष्टि समायी ,आदि -अंत सब जगमग मन में ,
स्मृतियों में ही वो !बचपन के पल , वो गंगा जल निर्झर पावन ,
वो यमुना की सांवल धारा ,वो चीड़ बुरांस के सुरभित वन
वो विश्वनाथ का पावन मंदिर ,वो दुर्गा का शक्ति स्थल ,
वो चीड़ के वन की सन-सन में,हाथ तुम्हारे हाथों में देकर ,
सूखी पीरुल पे चढ़ते चढ़ते अनगिनत बार रपटन ,फिसलन।
संग तुम्हारे जो था जीवन ,अब उसको हर पल मैं जीती हूँ ,
पट स्मृतियों के खोल जरा ,जुगनू सी टिम -टिम यादों से ,
एक सुनहरी स्मृति का जुगनू मैं प्रतिदिन चुनती हूँ।
ये स्मृतियाँ हैं साँसें मेरी ,जीवन भर साथ निभाएंगी
जिस दिन पंछी उड़ जाएगा ,साथ मेरे ये जायेंगी। ........आभा
Thursday, 14 March 2013
फूलदेई संगरांद [संक्रांति ] पहाड़ों में मनाया जाने वाला एक ऐसा पर्व जिसको मानाने का उत्तरदायित्व केवल बच्चों के कोमल कन्धों पे ही होता है वो भी कन्याओं के [हाँ वे अपने भाइयों को अपनी टोली में शामिलकरती हैं ] माता -पिता तो केवल संस्कारित करते हैं बच्चों को ।कन्याओं के द्वारा सबकी देहरीयों में सुबह -2 फूल रखे जाते हैं ।
फूलदेई संक्रांति ,फूलों से सजी प्रकृति के रंग ,सबकी देहरी में पहुंचें । सुबह सवेरे जब द्वार खुले ,देहरी पुष्पों से सजी हो और सुरभि घर में फ़ैल जाए .सायंकाल से ही कन्यायें अपनी -2 टोकरियां सजा लेती है ,प्रातः सूर्य -नारायण के आगमन से पहले पास पड़ोस व् आत्मीय स्वजनों के घरों की देहरी में फूल रखना -----शायद बचपन से ही सुबह उठना बच्चों को भाने लगे तो प्रकृति और फूलों के माध्यम से सिखाने का प्रयास -------------,शायद प्रकृति की सुन्दरता और सुरभि आपके घर तक पहुंचे और प्रकृति के संरक्षण और संवर्धन की भावना आपके मन में भी जागृत हो --------------------------,शायद निश्छल और निष्पाप बचपन के द्वारा रखे गए पुष्प आपके घर और मन का कलुष मिटाने में सहायक हो ,-----------------------------------या शायद कन्याओं के द्वारा पुष्प रखवाना ---प्रकृति और कन्या के महत्व से अवगत करवाना समाज को । दोनों का संरक्षण और संवर्धन का अनूठा पर्व है यह ।
हमारी संस्कृति में मनाये जाने वाले इन पर्वों के कई प्रयोजन होते थे ,जिन्हें कालान्तर में हम भूल चुके हैं ,आज आवश्यकता इन पर्वों के पुन:स्थापन और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की है ।फूल संक्रांति के लिए हर घर में कन्या होगी और हर चार कदम पे फुलवारी होगी कल्पना कीजिये ---हर मुहल्ला ,गाँव ,क़स्बा ,शहर महकेगा फूलों की सुरभि से और हर घर चहकेगा कन्याओं की किलकारी से -----क्या हम अपने पूर्वजों के सामान दूरन्देशी नहीं हो सकते ??/------फूलदेई संक्रांति सबके घरों को महकाए और कन्याओं का संवर्धन हो ,सब का शुभ हो ----------आभा --------
फूलदेई संक्रांति ,फूलों से सजी प्रकृति के रंग ,सबकी देहरी में पहुंचें । सुबह सवेरे जब द्वार खुले ,देहरी पुष्पों से सजी हो और सुरभि घर में फ़ैल जाए .सायंकाल से ही कन्यायें अपनी -2 टोकरियां सजा लेती है ,प्रातः सूर्य -नारायण के आगमन से पहले पास पड़ोस व् आत्मीय स्वजनों के घरों की देहरी में फूल रखना -----शायद बचपन से ही सुबह उठना बच्चों को भाने लगे तो प्रकृति और फूलों के माध्यम से सिखाने का प्रयास -------------,शायद प्रकृति की सुन्दरता और सुरभि आपके घर तक पहुंचे और प्रकृति के संरक्षण और संवर्धन की भावना आपके मन में भी जागृत हो --------------------------,शायद निश्छल और निष्पाप बचपन के द्वारा रखे गए पुष्प आपके घर और मन का कलुष मिटाने में सहायक हो ,-----------------------------------या शायद कन्याओं के द्वारा पुष्प रखवाना ---प्रकृति और कन्या के महत्व से अवगत करवाना समाज को । दोनों का संरक्षण और संवर्धन का अनूठा पर्व है यह ।
हमारी संस्कृति में मनाये जाने वाले इन पर्वों के कई प्रयोजन होते थे ,जिन्हें कालान्तर में हम भूल चुके हैं ,आज आवश्यकता इन पर्वों के पुन:स्थापन और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की है ।फूल संक्रांति के लिए हर घर में कन्या होगी और हर चार कदम पे फुलवारी होगी कल्पना कीजिये ---हर मुहल्ला ,गाँव ,क़स्बा ,शहर महकेगा फूलों की सुरभि से और हर घर चहकेगा कन्याओं की किलकारी से -----क्या हम अपने पूर्वजों के सामान दूरन्देशी नहीं हो सकते ??/------फूलदेई संक्रांति सबके घरों को महकाए और कन्याओं का संवर्धन हो ,सब का शुभ हो ----------आभा --------
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