.......... यादों के झुरमुट से .........
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यादों के झुरमुट से ,जीवन को पन्नों पे संवारना ,
कुछ खोने के पल , कुछ पाने के पल ,
कभी रोये ,कभी हँसे ,कभी गिरे फिर उठे .
आसां नहीं ,हर पल से न्याय ,हर पल की गवाही .
खामोशियों ,तनहाइयों का उग आया है जंगल ,
तनहाइयों का कोलाहल अब सुनने लगी हूँ मैं ,
खामोशियाँ पन्नों पे उतरती हैं शब्द बन के '
तन्हां मगर इस पथ पे चल तो पड़ी हूँ मैं .
हैं रास्ते बहुत से, मंजिल है बहुत दूर ,
सही औ गलत रास्तों का पता नहीं अभी
मंजिल पे तुम मिलोगे ,बस चल पड़ी हूँ मैं ,
रिश्तों का अम्बार है ,पर कुछ में दरार है ,
ये दरारें ये गांठें ,आसां नहीं है खोलना
जब तुम थे साथ तो थी बात दूसरी
इक दरार भरते तो इक गाँठ खोलते ,
खुद ही सुलझाती हूँ ,हर उलझन को मैं
मिलते बहुत लोग हैं इन रास्तों में अक्सर
वादा भी साथ देने का करते हैंमुझसे ,मगर ,
जानते तो हो तुम नसीब को अपने ,
जब चाहिए सहारा , हाथसर पे किसी का नहीं ,
भगवान भी नहीं है अब तो साथ में मेरे ,
क्यूँ नहीं आता है वो, जब हो जरूरत मुझे .
क्यूँ देता नहीं दिलासा ,देता नहीं दिखाई ,
क्यूँ देता है डगमगाने विश्वास को मेरे
क्यूँ देता है कर हर राह पे तन्हा यूँ ही मुझे ,
बसेरा जब से आसमान पे कर लिया तूने ,
बेगानी सी दिखने लगी है अब, ये जमीं मुझे ,
मजबूर हूँ चलने पे, मिलना जो है तुम से ,
हूँ ढूंढती इक रास्ता,जो जाता हो फलक तक
ज्वाल के उस पार जहाँ देश तुम्हारा ,
ऐ काश किसी मोड़ पर मौत ही मिल जाए ,
पूछूं उसे ,क्यूँ करती है सब को तू तन्हा
तरस आता नहीं तनहाइयों पे हमारी ,
क्या मायूस सा चेहरा दिखाई नहीं देता ,
क्या होगा उसु दिन जब तू भी हो जायेगी तन्हा ,
मैंने तो फिर भी यादों की एक नगरी है बसाई ...
***********************आभा ...आभाजय .....
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यादों के झुरमुट से ,जीवन को पन्नों पे संवारना ,
कुछ खोने के पल , कुछ पाने के पल ,
कभी रोये ,कभी हँसे ,कभी गिरे फिर उठे .
आसां नहीं ,हर पल से न्याय ,हर पल की गवाही .
खामोशियों ,तनहाइयों का उग आया है जंगल ,
तनहाइयों का कोलाहल अब सुनने लगी हूँ मैं ,
खामोशियाँ पन्नों पे उतरती हैं शब्द बन के '
तन्हां मगर इस पथ पे चल तो पड़ी हूँ मैं .
हैं रास्ते बहुत से, मंजिल है बहुत दूर ,
सही औ गलत रास्तों का पता नहीं अभी
मंजिल पे तुम मिलोगे ,बस चल पड़ी हूँ मैं ,
रिश्तों का अम्बार है ,पर कुछ में दरार है ,
ये दरारें ये गांठें ,आसां नहीं है खोलना
जब तुम थे साथ तो थी बात दूसरी
इक दरार भरते तो इक गाँठ खोलते ,
खुद ही सुलझाती हूँ ,हर उलझन को मैं
मिलते बहुत लोग हैं इन रास्तों में अक्सर
वादा भी साथ देने का करते हैंमुझसे ,मगर ,
जानते तो हो तुम नसीब को अपने ,
जब चाहिए सहारा , हाथसर पे किसी का नहीं ,
भगवान भी नहीं है अब तो साथ में मेरे ,
क्यूँ नहीं आता है वो, जब हो जरूरत मुझे .
क्यूँ देता नहीं दिलासा ,देता नहीं दिखाई ,
क्यूँ देता है डगमगाने विश्वास को मेरे
क्यूँ देता है कर हर राह पे तन्हा यूँ ही मुझे ,
बसेरा जब से आसमान पे कर लिया तूने ,
बेगानी सी दिखने लगी है अब, ये जमीं मुझे ,
मजबूर हूँ चलने पे, मिलना जो है तुम से ,
हूँ ढूंढती इक रास्ता,जो जाता हो फलक तक
ज्वाल के उस पार जहाँ देश तुम्हारा ,
ऐ काश किसी मोड़ पर मौत ही मिल जाए ,
पूछूं उसे ,क्यूँ करती है सब को तू तन्हा
तरस आता नहीं तनहाइयों पे हमारी ,
क्या मायूस सा चेहरा दिखाई नहीं देता ,
क्या होगा उसु दिन जब तू भी हो जायेगी तन्हा ,
मैंने तो फिर भी यादों की एक नगरी है बसाई ...
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