Wednesday, 25 November 2015

'नगर ढिंढोरा पीटती ,प्रीत न करियो कोय ''
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25 नवंबर, 1978 से 2011 -शादी की वर्षगांठ ----और अब  25 नवंबर ,2011 -से हर वर्ष ,बिछोह की पुण्यतिथि जो अंतिम सांस तक मनाई जायेगी।
मन को स्थिर करने के प्रयत्न में मैं बदलती जा रही हूँ। पर शायद बो बेतकलुफ्फी वाला चोला ,वो मैं थी ही नही। या अब जो हूँ वो एक डिग्री के लिए फोटो खिंचवाने वाला चोला ओढ़ा है। जो भी हो इन दोनों के बीच कहीं खुद को ढूंढती सी ,तेरे जाने के बाद और कोई काम भी तो नही--यादों के जंगलों में खोना ,कुछ रास्ते बनाना ,कुछ मिटाना ताकि कोई और उस रास्ते से न आ पाये।
पहुँचूंगी जब तुम तक ,तो क्या मिलोगे मुझे ? मुझे मालूम है मिलोगे ,और आज इस रास्ते पे पहला कदम बढ़ाया।  शादी तय होने के बाद -साल भर का वक्त --और १०० चिट्ठियां तुम्हारी ,१०० मेरी। आज लिखा कुछ अतुकांत --क्यूँ ? क्यूंकि ये है -लीक से बाहर की ,बस से बाहर की ,हिम्मत ,दुःसाहस और बहादुरी वाली बात जो आज मैंने की ---
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==============
और ख़ाक कर दीं  ये निशानियाँ मैंने।
१०० खत तुम्हारे १०० मेरे ,
नाजुक अहसासों में लिपटे।
इतना आसां था क्या ?
हवा में आती सर्द आहटें                                                                                     

पीले पत्ते और नवंबर का महीना
तिनका -तिनका बिखरती साँसें ;
लिखी है तन्हाई नसीब में
तो ;
ये खत भी क्यूँ ?
क्या करूँ  ? एक किताब छपवा दूँ !
कितना कुछ तो है इन खतों में।
नाजुकी ख्यालों की ,रेश्मी अहसास ,
वो अनगढ़ ,अनछुये सपने ,
जीवन को लिखने की बराखडी ,
फूलों की सुगंध ,तितली की रंगीनी ,
भंवरे का गुंजार , रूठना मनाना
परिवारों से पहचान ,भविष्य का खाका
कभी प्यार कभी तकरार
वादे इरादे --
कुछ जो पूरे हुए ,कुछ यूँ ही रह गये --अधूरे ख़्वाब -
शायद ! दूसरे जन्म में मिलने के कर्ज के रूप में।
आज तैयारी की ,एक कदम बढ़ाया अंतिम यात्रा की ओर 
न जाने जीवन कितना है ?
कैसा है?
आगत को किसने जाना ,
समय साथ रहने वाला अतिथि है ,
उसकी पोटली में क्या है ?
उसे भी नहीं पता।                                                                                    

 सफर की ओर कदम बढ़ाना ही था
आज बढ़ाया एक कदम
अनन्त की यात्रा की ओर।
मिलोगे तुम फिर मुझे ,
ये आस तो है मुझे ,
बेटे की संतान का रूप धर के आओगे :
या ऊपर ही मिलोगे कहीं ,
एक आस ही तो है।
आस पे ही तो जीते आये हैं हम
पर ,''आस '' तो ब्याही बेटी है
दूसरे के घर की होती है न
टकटकी लगाये राह तकते रहो ,बस।
हाँ ! मैं तुम्हारे लोक तो आउंगी ही
तुम मिलोगे ?
पहुंचने पे ही पता चलेगा।
तब तक आस ही है।
पैरों में पड़े घुंघरू
कौन सा आवाज कर रहा है ,कौन सा शांत है ,
किसे पता ?
औ होम कर दीं आज मैंने ये अनमोल पोटली ,
घी और कपूर की समिधा के साथ ,एक -एक शब्द से हवन किया।  
 

उड़ गया था चेहरे का रंग !
दिल निकलेगा तो चेहरा जर्द होगा ही ,
इन खतों की इबारत अब न दिखेगी मुझे
तुम्हारे होने का अहसास थे ये खत ,
पर क्या करती ,बच्चों के लिए छोड़ जाती ?
तो वो न कर पाते इन्हें अपनी जिंदगी से अलग
ये विधि तो मुझे ही निबाहनी थी।
खतों की ये पोटली तुम्हारे होने का अहसास थी
पर आज मैंने हवन किया इन चिट्ठियों का
बहुत समय से सोच रही थी ,
अलमारी से निकाल पलंग पे रही कई  दिनों ये चिट्ठियां
सिरहाने रख के सोई कई दिनों
और आज ,आज २५ नवंबर का दिन
तुम्हें भी तो ज्वाल रथ पे चढ़ाया था
वही रथ मैंने इस सुनहरी बराखडी को भी दिया
दुःख ,आंसू -सब वही
पर जब तुम ही नही तो ये क्या ?
ये संस्कार मेरे ही जिम्मे था।
तुम्हारी विरासत तो बच्चे हैं
ये चिट्ठियां तो उनके लिये भी बोझ बन जातीं।
वो न कर पाते इन्हें रफा दफा ,
मैंने ही स्वाहा कर दिये अपने अहसास।             

कितना मुश्किल था ?
तुम होते तो न कर पाते ;
पर मैं ,तुम्हारे मुहं में तुलसी दल गंगाजल डालके
बच्चों को फोन कर सकती हूँ ,
बेहोशी को रोक सकती हूँ ,
मैं ये भी कर गयी आज।
क्या कहा ? गंगा में बहा देती ;
हाँ बहा तो सकती थी ,पर
नहीं ,यदि कोई चिट्ठी किनारे लग जाती तो ?
ये फ़क़त खत नहीं ,हमारी आत्मा हैं
मुक्ति के लिये,जलना ही पड़ा इन्हें।
कितने दिन काटे इनके सहारे
तब भी जब हम मिले नहीं थे ,
और अब भी जब तुम चले गए।
अब मैं भी तन्हा तुम भी तन्हा ,
पर हाँ ,शादी की सालगिरह की बधाई तुम्हें ,और मुझे भी ,
यही दिन जब मैंने तुम्हें पाया भी और खोया भी ,
मैं रोती नहीं वारती मानस मोती हूँ ,
सारे मोती तुम पे निछावर ,
जब दोगे आवाज चली आउंगी।
नियति तो होती ही कठोर है ,
कोमल तो बस हम हैं या हमारे अहसास।। -----------
========================================== 
 जिंदगी एक अतुकांत कविता ही तो है ,जिसे लय में गाना पड़ता है ,कई बेमेल छंदों और स्वरों के साथ।



''जो मैं ऐसा जानती ,प्रीत किये दुःख होय ''
''नगर ढिंढोरा पीटती ,प्रीत न करियो कोय ''
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25 नवंबर, 1978 से 2011 -शादी की वर्षगांठ ----और अब  25 नवंबर ,2011 -से हर वर्ष ,बिछोह की पुण्यतिथि जो अंतिम सांस तक मनाई जायेगी।
मन को स्थिर करने के प्रयत्न में मैं बदलती जा रही हूँ। पर शायद बो बेतकलुफ्फी वाला चोला ,वो मैं थी ही नही। या अब जो हूँ वो एक डिग्री के लिए फोटो खिंचवाने वाला चोला ओढ़ा है। जो भी हो इन दोनों के बीच कहीं खुद को ढूंढती सी ,तेरे जाने के बाद और कोई काम भी तो नही--यादों के जंगलों में खोना ,कुछ रास्ते बनाना ,कुछ मिटाना ताकि कोई और उस रास्ते से न आ पाये।
पहुँचूंगी जब तुम तक ,तो क्या मिलोगे मुझे ? मुझे मालूम है मिलोगे ,और आज इस रास्ते पे पहला कदम बढ़ाया।  शादी तय होने के बाद -साल भर का वक्त --और १०० चिट्ठियां तुम्हारी ,१०० मेरी। आज लिखा कुछ अतुकांत --क्यूँ ? क्यूंकि ये है -लीक से बाहर की ,बस से बाहर की ,हिम्मत ,दुःसाहस और बहादुरी वाली बात जो आज मैंने की ---
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और ख़ाक कर दीं  ये निशानियाँ मैंने।
१०० खत तुम्हारे १०० मेरे ,
नाजुक अहसासों में लिपटे।
इतना आसां था क्या ?
हवा में आती सर्द आहटें
पीले पत्ते और नवंबर का महीना
तिनका -तिनका बिखरती साँसें ;
लिखी है तन्हाई नसीब में
तो ;
ये खत भी क्यूँ ?
क्या करूँ  ? एक किताब छपवा दूँ !
कितना कुछ तो है इन खतों में।
नाजुकी ख्यालों की ,रेश्मी अहसास ,
वो अनगढ़ ,अनछुये सपने ,
जीवन को लिखने की बराखडी ,
फूलों की सुगंध ,तितली की रंगीनी ,
भंवरे का गुंजार , रूठना मनाना
परिवारों से पहचान ,भविष्य का खाका
कभी प्यार कभी तकरार
वादे इरादे --
कुछ जो पूरे हुए ,कुछ यूँ ही रह गये --अधूरे ख़्वाब -
शायद ! दूसरे जन्म में मिलने के कर्ज के रूप में।
आज तैयारी की ,एक कदम बढ़ाया अंतिम यात्रा की ओर
न जाने जीवन कितना है ?
कैसा है?
आगत को किसने जाना ,
समय साथ रहने वाला अतिथि है ,
उसकी पोटली में क्या है ?
उसे भी नहीं पता।
 सफर की ओर कदम बढ़ाना ही था
आज बढ़ाया एक कदम
अनन्त की यात्रा की ओर।
मिलोगे तुम फिर मुझे ,
ये आस तो है मुझे ,
बेटे की संतान का रूप धर के आओगे :
या ऊपर ही मिलोगे कहीं ,
एक आस ही तो है।
आस पे ही तो जीते आये हैं हम
पर ,''आस '' तो ब्याही बेटी है
दूसरे के घर की होती है न
टकटकी लगाये राह तकते रहो ,बस।
हाँ ! मैं तुम्हारे लोक तो आउंगी ही
तुम मिलोगे ?
पहुंचने पे ही पता चलेगा।
तब तक आस ही है।
पैरों में पड़े घुंघरू
कौन सा आवाज कर रहा है ,कौन सा शांत है ,
किसे पता ?
औ होम कर दीं आज मैंने ये अनमोल पोटली ,
घी और कपूर की समिधा के साथ ,एक -एक शब्द से हवन किया।
उड़ गया था चेहरे का रंग !
दिल निकलेगा तो चेहरा जर्द होगा ही ,
इन खतों की इबारत अब न दिखेगी मुझे
तुम्हारे होने का अहसास थे ये खत ,
पर क्या करती ,बच्चों के लिए छोड़ जाती ?
तो वो न कर पाते इन्हें अपनी जिंदगी से अलग
ये विधि तो मुझे ही निबाहनी थी।
खतों की ये पोटली तुम्हारे होने का अहसास थी
पर आज मैंने हवन किया इन चिट्ठियों का
बहुत समय से सोच रही थी ,
अलमारी से निकाल पलंग पे रही कई  दिनों ये चिट्ठियां
सिरहाने रख के सोई कई दिनों
और आज ,आज २५ नवंबर का दिन
तुम्हें भी तो ज्वाल रथ पे चढ़ाया था
वही रथ मैंने इस सुनहरी बराखडी को भी दिया
दुःख ,आंसू -सब वही
पर जब तुम ही नही तो ये क्या ?
ये संस्कार मेरे ही जिम्मे था।
तुम्हारी विरासत तो बच्चे हैं
ये चिट्ठियां तो उनके लिये भी बोझ बन जातीं।
वो न कर पाते इन्हें रफा दफा ,
मैंने ही स्वाहा कर दिये अपने अहसास।
कितना मुश्किल था ?
तुम होते तो न कर पाते ;
पर मैं ,तुम्हारे मुहं में तुलसी दल गंगाजल डालके
बच्चों को फोन कर सकती हूँ ,
बेहोशी को रोक सकती हूँ ,
मैं ये भी कर गयी आज।
क्या कहा ? गंगा में बहा देती ;
हाँ बहा तो सकती थी ,पर
नहीं ,यदि कोई चिट्ठी किनारे लग जाती तो ?
ये फ़क़त खत नहीं ,हमारी आत्मा हैं
मुक्ति के लिये,जलना ही पड़ा इन्हें।
कितने दिन काटे इनके सहारे
तब भी जब हम मिले नहीं थे ,
और अब भी जब तुम चले गए।
अब मैं भी तन्हा तुम भी तन्हा ,
पर हाँ ,शादी की सालगिरह की बधाई तुम्हें ,और मुझे भी ,
यही दिन जब मैंने तुम्हें पाया भी और खोया भी ,
मैं रोती नहीं वारती मानस मोती हूँ ,
सारे मोती तुम पे निछावर ,
जब दोगे आवाज चली आउंगी।
नियति तो होती ही कठोर है ,
कोमल तो बस हम हैं या हमारे अहसास।। -----------
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 जिंदगी एक अतुकांत कविता ही तो है ,जिसे लय में गाना पड़ता है ,कई बेमेल छंदों और स्वरों के साथ।





























Wednesday, 14 October 2015

''नवरात्रि में बैठे-ठाले --बेमतलब का बुद्धि-विलास ''
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'मोह न नारि -नारि के रूपा ,पन्नगारि यह रीति अनूपा।।'' ----
यह विलक्षण रीति है की स्त्री स्त्री के रूप पे मोहित नहीं होती।
.... आज बाबा तुलसी की इस चौपाई का विश्लेषण ,''जसु कछु बुद्धि विवेक बल मोरे ,तस कहिये हिय हरि के प्रेरे।।'' --हरि की प्रेरणा स्वरूप ही--
रामायण की इस चौपाई के कई विश्लेषण ,कई अर्थ अपने -अपने अनुसार ,नारी 'नारी' को ईर्ष्या से देखती है ,एक नारी दूसरी को पसंद नहीं करती या सहन नहीं कर सकती ,हर नारी अपने को सर्वश्रेष्ठ मानती है।
शायद शाब्दिक अर्थ यही निकले ,पर ऐसा है नही.
उत्तरकाण्ड अंत में ये चौपाई नारी शक्ति होने का ही एक प्रमाण है ,और तुलसी के मानस में स्त्री को अबला कहने वालों के लिये एक उदाहरण।
'' मोह न नारि नारि के रूपा '', अब क्यूँ लिख गए गोस्वामीजी जबकि सीतास्वयंबर के स्थल में वो स्वयं लिख चुके है --''रंग भूमि जब सिय पगु धारी ,देखि रूप मोहे नर नारि ''----नारी भी मोहित हैं जानकी के रूप में।
और एक उदाहरण ---सीयस्वयंबर को देखने देवों की स्त्रियां सामान्य स्त्रियों का रूप बना के शामिल हो गयीं ,उन्हें देख के,महल की स्त्रियोंने बहुत सुख माना --''नारि वेष जे सुरवर -वामा सकल सुभाय सुंदरी श्यामा '' ।
ऐसे ही कई उदाहरण है जब गोस्वामीजी ,स्त्री की स्त्री से प्रशंसा करवाते हैं ,वन की स्त्रियों से सीता की ,सासुओं से सीता की ,त्रिजटा से सीता की और सीता से त्रिजटा की ,अनसूया की सिया से और सिया की अनसूया से ,और कई अनगिनत उदाहरण हैं ,तो गोस्वामीजी मानस के समापन पे ये क्यों लिख गये। 
-----ये चौपाई गरुड़जी और कागभुशण्डिजी के वैराग्य की चर्चा के प्रसंग में आती है। गरुड़ का प्रश्न ,वैराग्य क्या है ज्ञान या भक्ति ? कागभुशुण्डि कहते हैं ज्ञानभक्ति एक ही है ,अलग नहीं है। जीव में ज्ञान होगा भक्ति होगी तभी वैराग्य होगा और वैराग्य होगा तभी चेतना होगी ,चेतना होगी तभी रामजी मिलेंगे। यहां ये समझना भी अनिवार्य है की वैराग्य का अर्थ सबकुछ छोड़ देना नहीं वरन रामजी पे अटूट अनुराग है ,उनको अपने को समर्पित करके फिर कर्म करना। 
ज्ञान पुरुष और भक्ति नारी पर नारी के दो रूप हैं ,माया और भक्ति।
माया जो विष्णु का ही प्रपंच है ,स्वाभाव से निर्बल है तो अपने अस्तित्व को संजोये रखने के लिये दूसरे का आलंबन लेती है उसे जड़ कर देती है ,वो अहंकार है मैं के होने का। गीता में भी भगवान कह रहे हैं --जड़ कौन है जो अहंकारी है ,जो मैं कर्ता हूँ इस आसक्ति में लिप्त है ---''प्रकृते: क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वश:। अहंकार विमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।'' -- जो जीव प्रकृति के द्वारा गुणों को अपनी क्रिया समझे वही जड़ है। माया का यही गुण हैं वो मनुष्य को जड़वत बना देती है --इसी गुण से लिप्त जीव को ''ढोल गंवार शूद्र पशु नारी '' से परिभाषित किया गया है न की केवल स्त्री को।
भक्ति सीता हैं ,वो शक्ति जो अपना निर्णय स्वयं लेने में समर्थ है। जो शिव-धनुष को उठा सकती है। जिसे पार्वती के आशीष पे विशवास है। जो वैरागी है ,कर्म करना है यानी स्वयंबर में जाना है ,शेष माँ की इच्छा --पूर्ण समर्पण। जो दशरथ की राजयसभा में वन जाने के लिये अपना मत सबके आगे रखती है। जो वन में सारी कठिनाइयां सहती हुई भी राम को कहती है ,की तुम्हारे बाण से कोई भी निर्दोष राक्षस नहीं मारा जाय ,जो वनवासिनों की माँ बनजाती हैऔर राजमहलों से सुखों को भूल वन के हिंसक पशुओं को भी प्यार से अपना कर लेती है। भक्ति वो सीता है जो अग्नि परीक्षा देके ,राम को ग्लानि से बचाती है और सम्राटों की मर्यादा को अक्षुण रखती है पर दूसरी बार सम्राट का विरोध कर स्वयं की समाधी बना उसमें समा जाने की शक्ति भी रखती है -मोह का कोई बंधन नहीं।
यही है नारी के दो रूप ,माया और भक्ति दोनों नारी संज्ञक हैं ये जग विदित है ,पर भक्ति जगद्जननी जानकी है ,शक्तिस्वरूपा ,भक्ति मीरा है भक्ति राधा है और माया जो कुशल नर्तकी है। जिसके हृदय में भक्ति का वास है ,वहां माया रहने से सकुचाती है।
यही है इस चौपाई का अर्थ --सारा संसार जिस पुरुषात्मक शक्ति का गर्व करता है वो पुरुष माया और भक्ति के चारों ओर ही नृत्य कर रहा है ,इस स्त्री शक्ति के बिना वो शक्तिहीन है ,यही नारी उसे जड़ बनाती है माया का रूप लेके और यही चेतन बनाती है भक्ति से ज्ञान और वैराग्य का आलंबन देके।
पर अभी अर्थ कुछ और भी है ,एक शब्द और डाला है चतुर भुशुण्डी ने इसमें --वो है --पन्नगारी --जो उन्होंने गरुड़ के लिये पूरी रामायण में पहली बार कहा। अब पन्नगारी का अर्थ ----साँपों का शत्रु अर्थात गरुड़ पर कुछ और भी देखिये
पन्न = गिरापड़ा
पन्नग =सर्प
पन्ना =रत्न
पन्ना= पृष्ठ
पन्नी =रंगीन ,चमकीला ,सुनहरा कागज।
और गारी =गाली।
नारी =जो हमारा अरि [शत्रु ]नहीं है अर्थात मित्र है। वो कई रूपों में हमारे सामने आती है पर हम अपने मन की भावना के अनुसार ही उसे महत्व देते है। हम चमकीली पन्नी के मोह में फंसे भ्रम में पड़के ,पन्न गारि --हो जाते हैं ,जड़ प्रकृति--और गोस्वामीजी कहते है --''सो माया बस भयहुँ गुसाईं ,बँधेहुँ कीर मर्कट की नाई। ''
पन्नगारी ==============
'' यज्ञमूर्ति पुराणात्मा साममूर्द्धा च पावन:। 
ऋग्वेदपक्षवान् पक्षी पिंगलो जटिलाकृति:।
ताम्रतुण्ड सोमहर:शक्रजेता महाशिर:। 
पन्नगारि -पद्मनेत्र साक्षाद् विष्णुरिवापर: ॥ ''--गरुड़ के लिए है ये विशेषण ''वेदराशि ,यज्ञमूर्ति ,साममूर्द्धा ,ऋग्वेदपक्षवान् ,साक्षाद् विष्णुरिवापर: ---अति महत्व के विशेषण। गरुड़ को वेद का प्रतीक स्वीकार किया गया है। वेदस्वरूप गरुड़ पे विष्णु रूपी ब्रह्म आरूढ़ हैं। अर्थात ब्रह्मज्ञान होने के लिये ,शरीर रूपी पक्षी भी आवश्यक है।
---''विजयो विक्रमेणेव प्रकाश इव तेजसा। पर्ज्ञोंतकर्ष: श्रुतेनेव --सुपर्णेनायमुह्यते।।''=======विष्णुवाहन गरुड़ (सुपर्ण ),विजय को विक्रम की तरह ,प्रकाश को तेज की तरह ,बुद्धि के निर्माल्य को विद्या की तरह वहन करते हैं।
---और यही गरुड़ हैं जिन्हें पन्नगारी कहा गया इस चौपाई में ,अर्थात साक्षात् विष्णु ==विष्णु और विष्णुवाहन को एक ही कहा गया बस स्वरूपत: यौक्तिक भेद --विष्णु को उपेन्द्र और गरुड़ को खगेन्द्र मान के इंद्र विष्णु और गरुड़ में समन्वय स्थापित किया गया।
अब एक और संकेत है यहां पे ----महाभारत काल के आगमन की पूर्व सूचना। ''मोह न नारि नारि के रूपा ''---इस उक्ति के साक्षात दर्शन महाभारत में होते हैं --शुरू होने पे ही कद्रु और विनीता के वैमनस्य की कहानी ,गरुड़ अरुण और नाग की उतपत्ति और महाभारत काल का पूर्वार्ध। ----पौष्यपर्व और पौलोमपर्व में हीसर्पयज्ञ का प्रारम्भ। दक्ष पुत्रियों ,वनिता-कद्रु का ''मोह न नारी नारी के रूपा '' को चरितार्थ करना और गरुड़ , अरुण का उद्भव। ---------
यूँ ही सोच रही थी ,रामचरित मानस की एक -एक में चौपाई ,कई सारे अर्थ समाये हुये हैं ,जितनी बार पढ़ो ये नए रूप में सामने आती है ,मंत्र तो हैं ही ये चौपाइयां। इन्हें पढ़ने से ध्वनि तरंगें आसपास एक सकारात्मक आभामंडल बना देती हैं हमारे आसपास और हम चेतन हो जाते हैं ,हनुमानजी की कृपा भी मिलनी प्रारम्भ हो जारी है।




















Monday, 10 August 2015

              '' मैं लहर सागर की ''
              ==============
हाँ ! हो मुझमे तुम ;
सदैव से रहे हो
पहले भी थे जब,हम मिले न थे ,
हो आज भी -
जब तुम नहीं हो !
हो- शामिल; मुझमे ,
मेरे हर हिस्से में -
अपने कुछ न कुछ हिस्से के साथ।
देखा था तुमने पहली बार
रख दी थी ,अपने हिस्से की शर्म -
मेरी पलकों में ;
आज भी पलकें  झुकी  हैं  उसी  भार से ,
मेरी शर्म में ,हिस्सा है तुम्हारा।
सर्दियों में तुम्हें लगती थी जब ठंड -
धूप सेकते हुए ; अपने हिस्से की धूप -
दे दी थी मैंने तुम्हें ;
आज भी ! मैं ,धूप में नहीं बैठ पाती हूँ।
सारा प्यार अपने हिस्से का -
दे दिया मुझे -भर दी मेरी झोली ;
रीते ही चले गए 'तुम '
मेरे हिस्से आ गया -
सारा प्यार तुम्हारे हिस्से का।
वो सुर तुम्हारे -
जब भी गाते थे तुम ,
मैं चुरा लेती थी आवाज का रस -
अपने हिस्से का ,
आज मेरी मिठास में
है वही चोरी वाला हिस्सा।
हर नैया का सागर में हिस्सा ,
हर ख़्वाब का सपनों में हिस्सा ,
लहर ढूंढती अपना साहिल ,
राही का मंजिल में हिस्सा ,
चमन में  बुलबुल  का हिस्सा ,
फूल में सुगन्धि का हिस्सा -
आसमां में हर तारे का हिस्सा।
मेरा हिस्सा आसमान में -
तुम ही तय करके रखना ,
जब मैं आऊँ तुम से मिलने
बाजू वाला हिस्सा देना।
तुम मेरे ही हिस्से हो
तब भी जब तुम पास थे मेरे
अब भी जब तुम पास नहीं हो।
हां मेरे जीवन का हिस्सा
 टूट गया या  खो गया जो
पर फिर क्यों नहीं अधूरी ?
शायद !
हम दोनों हैं इक दूजे का हिस्सा।<><><>आभा <><><>

































Tuesday, 4 August 2015

मानस और आधुनिक कवियों के काव्य से --''रामके वन प्रदेश में जाने का मंतव्य ''-
================
वन प्रदेश में राम का आगमन --यानि जड़ से चेतन की ओर ------
रामजी ने त्रेता युग में हमें संदेश  दिया राजनीती का ,कूटनीति का --शत्रु यदि अराजक है ,सबल है ,संख्या बल में अधिक  है ,तो धैर्य से काम लो। रणनीति ऐसी बनाओ जिसकी आड़ में तुम शत्रु के ठिकाने तक भी पहुंच जाओ और उसे भान भी न हो --इसी रणनीति के तहत ,विश्वामित्र ने राम लक्ष्मण को शिक्षा देके आयुध विद्या में पारंगत किया ,और भी कई विद्याएँ सिखाईं तथा  वन में ताड़का आदि पे उस विद्या का सफल प्रयोग भी किया। राजा जनक  से मैत्री [राजा जनक से एक बार शिवजी के दरबार में वेदांत - शास्त्रार्थ में रावण हार चुका था  तो ये मैत्री रावण को मानसिक रूप से कमजोर करने के लिए कारगर थी ,फिर  जनक एक शक्तिशाली राजा भी थे]  परशुराम से मैत्री --[परशुराम विश्वामित्र सरीखे ही आयुध विद्या में निपुण थे ]की तथा  इसी नीति के तहत वनवास हुआ।वन में रामजी ने सभी ऋषिमुनियों और जनजातियों को अभय किया ,अपने पराक्रम से। रावण जो पंचवटी तक घुस आया था और उसने मारीच ,खर-दूषण ,शूर्पणखा  के अधीन चौकियां और आतंकवादी अड्डे स्थापित किये हुए थे ,उन्हें ध्वस्त किया ,बाकी सभी आतताइयों को मार गिराया बस शूर्पणखा को छोड़ दिया ताकि वो राम की आहट व्  शक्ति का सन्देश रावण को पहुंचा सके।  माँ सीता ने वनवासिनियों को कुटीर उद्योगों में लगाया तथा  स्वयं की रक्षा की शिक्षा भी दी ---
          '' ऊन कात सीता माता ने कपड़े बना लिए थे ,
           रुई और रेशम से सुंदर कुर्ते कई सीए थे। । ''
सीता कृषि की अधिष्ठात्री देवी है।  उसने वनवासियों को उन्नत कृषि के तरीके बताये जिससे उनकी आर्थिकी समुन्नत हुई और जंगल-जंगल ,ग्राम-ग्राम सम्पन्नता छा गयी।
    ''सीता कृषि है जो भी चाहो वह सब माँ से लेलो।
     माथा टेक मांगने वालों -धन निज हाथों से ले लो।। ''
जिससे वनवासियों का आत्मसम्मान बढ़ा।
साथ ही राम -लखन ने छोटी -छोटी नदियों पे बाँध बनाके -उसके जल के बहुविध उपयोग से वनवासियों के जीवन को उन्नत किया ---राम कह रहे हैं ---
''देखो कैसा स्वच्छंद यहां लघु नद है।
इसको भी पुर में लोग बाँध लेते हैं ,
हाँ ! वे इसका उपयोग बढ़ा देते हैं ''---
शत्रु से लड़ने की नीति रीती ;जैसा शत्रु वैसी नीति। बाली रावण का मित्र था तो उसे मार गिराया , सुग्रीव से मित्रता ,लंका में हनुमान को जासूसी करने भेजा और अपना बल दिखाने  का भी निर्देश --हनुमान का विभीषण को अपने पक्ष में करना ,और विभीषण का लाव लश्कर  के साथ राम की सेना में आ मिलना।   हालाँकि कतिपय जगहों पे विभीषण का अंतर्द्वन्द भी दिखाई देता है
      ''कल
जब हम नही केवल
वृद्ध ठंडी शिला सा
इतिहास होगा।
जब हमारे तर्क तक मर जाएंगे ,
तब
हमें क्या कहकर पुकारा जाएगा ?
राष्ट्र संकट के समय मैं
मैं आक्रमण के साथ था ,
राज्य पाने के लिए ------[संशय की एक रात ]---
----साथ ही रावण के कुल गुरु --[रावण के प्रपितामह को माँ पार्वती ने पाला  था --वो शिव का धर्म पुत्र था ,इस नाते शिव रावण के मुहंबोले पड़ दादा भी थे ] शंकरजी की आराधना -पूजा ,अभियान से पहले उनका आह्वान कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करना ये रामजी के सफल राजनीतिज्ञ और कूटनीतिज्ञ होने के लक्षण थे। सागर के एक तरफ रावण की लंका थी दूसरी और सागर का राज्य था ,उसे भी साम-दाम दंड भेद से अपनी तरफ करके सहायता के लिए तैयार किया और राम सेतु बनवाया।ऐसी  ही कई कूटनिक चालें हैं जो रामजी का  चतुर और प्रखर राजनीतिज्ञ होना  दर्शाती हैं --ये राम चरित्र को गंभीरता से पढ़ने और मनन करने से ही अनुभव होगा।  
रावण शक्तिशाली शत्रु था ,उसने एक बार कौशल के राजा को मार के कौशल पे अधिकार भी जमाया था।  अत: उसको पराजित करने के लिए राम को अपनी नीति बनाने के लिए समय चाहिए था ---वो उन्हें चौदह वर्ष के वनवास के रूप में मिला , इस नीति को बनाने में उनके साथ कैकई और सीता भी शामिल थीं। उन्होंने नीति ऐसी बनाई ताकि रावण वन प्रदेश में ही उलझा रहे और उधर अयोध्या में दोनों भाई निष्कंटक राज कर सकें।
------------आज भी रामचरित मानस से  देश के नीतिनियन्ता लाभ उठा सकते हैं ,एक सन्देश तो स्पष्ट ही है ----पूरी तैयारी के साथ शत्रु को उसके घर में घुस के मारो और नेस्तनाबूत कर दो।  घरमे घुस के भारत ने बंगलादेश के समय मारा पर नेस्तनाबूत न कर पाया ---अब समय है --और रामजी का आदेश भी शत्रु को उसके घर में घुस के मारो और नेस्तनाबूत कर दो ---बस यूँ ही साकेत और संशय की एक रात को उलट - पलट रही थी तो लिखने का मन हो आया ----



Wednesday, 29 July 2015

-----------वो बतकहियां हमारी ---------
 आम से जीवन की बतकहियां ,किसी ख़ास से अपने को जोड़ती हुई ,वो ख़ास हमारा हीरो था ,उसकी कई किताबें हमने साथ बैठ के पढ़ीं --बस यूँ ही भावुकता भरे कुछ क्षण -----जो बस मेरे लिए खास हैं ---
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अक्सर बरामदे में शाम की चाय पे जीवन क्या है ?कैसा है ?क्यों है ?पे चर्चा होती जब मेरी और अजय की तो अंत में टकराहट पे आके रूकती। वो कहते आभा आदमी कितना सुखी है ये मत देखो उसे मौत कैसी मिलती है ये देखो। जीवन भर सुखों के झूले पे झूलता रहे , अंतिम समय बिस्तर पे पड़ जाए , बैड - सोल हो जाएँ ,त्रिशंकु बनके लटक जाए मौत और जिंदगी के बीच में या फिर  मिनटों में बैठे-बैठे प्राण पखेरू उड़ जाएँ। यदि काम करते हुए आदमी जाए तो उससे सुखी कोई नहीं ,और मैं टकरा जाती ,आपको तो मौत के क्षण ही दिखाई देते हैं जीवन की सफलता या सुख  को परिभाषित करने के लिए । ये भी कोई बात हुई ;जीवन भर जो सफल सुखी और संपन्न रहा है ,वो तो सुखी ही कहलायेगा न। पर अजय ये कभी मानने को ही तैयार नहीं होते थे ,उनका कहना था एक व्यक्ति यदि जिंदगी भर जूझ रहा है ,बीमार भी है पर फिर भी कर्मठ है ,कर्मठ संतानें देता है राष्ट्र को और अंत में चैन से प्राण निकल जाते हैं तो उससे बढ़कर भाग्यवान कोई नहीं। लेकिन साथ ही ये भी ,ऐसा उस ही व्यक्ति के साथ होगा जिसके मन में किसी के लिए कलुष न हो ,जिसने मानवता के लिए अधिक नहीं तो कुछ तो किया हो ,जिसमे इतना साहस हो  कि उसे पता है कि फलां शख्स मुझसे हद दर्जे हा द्वेष रखता है , पर उससे मिलके माफ़ी मांग सके कि कही मेरी ही तो कोई गलती तो  नहीं थी और साथ ही सबको माफ़ करने की कूवत रखता हो ,जिसे लोभ न हो --वही फटाफट मृत्यु पाता  है।
मुझे लगता ये इंसान किस मिट्टी का बना है ,झूठ  ,धोखा ,फरेब ,निंदा सबकुछ पचा जाता है ,किसी के लिए मन में कोई द्वेष ही नहीं और सभी चालबाजों और धोखेबाजों को भी ख़ुशी बाँट रहा है। क्यों दूर कर रहे हो नकारात्मकता ,आपने क्या ठेका लिया है ,बिना बात में उस लफंगे लम्पट से माफ़ी मान ली ,जब कोई आपने कुछ किया नहीं ,कोई दोष  नहीं तो किस बात की माफ़ी ?
सीधे इतने कि खुद बीमार हैं पर किसी का फोन आ जाए मेरी माँ बीमार है ,बीबी को बच्चा होना है ,तो चल देंगे उठ के ,खुद की  तबियत ठीक नहीं है ,पर कोई  बड़ी उम्र साथी अकेला है [अक्सर इस उम्र में कोई न कोई अकेला होता है और बच्चे भी जीविकोपार्जन के लिए चले जाते हैं ]तो चलदेंगे उसकी खैर-खबर लेने --चलो उसे थोड़ी देर की ही ख़ुशी दे आते हैं और ये तब जब उस आदमी ने हमेशा डिपार्टमेंट में अजय की काट करी हो ,अरे उसका उसके साथ मेरा मेरे साथ।  मैं अक्सर किलसती  भी थी ,देखो इतना सीधा सरल होना भी अच्छा नहीं होता ,लोग तुम्हारी राह में दोस्त बनके रोड़ा अटकाते हैं ,पर वो कभी नहीं माने ,कहते मेरा भाग्य थोड़े ही कोई छीन लेगा।

कुछ दिनों से अजय ने जिन भी लोगों के लिए वो सुनते थे कि वो मुझ से कुछ द्वेष रखते हैं ,उनसे फोन पे बात शुरू की ,मेरे पूछने पे बोले संवाद बहुत बड़ी शह है ,वो मेरे लिये कलुष लिए बैठा है ,मुझे पता चला तो मैं क्यों न अपने लिए उसकी नकारात्मकता मिटाऊं। और धीरे -धीरे सभी से उन्होंने संवाद किया ,किसी को चाय पे बुलाया ,किसी को खाने पे। मैंने इसे गंभीरता से लिया ही नहीं। जब काम ज्यादा बढ़ गया तो रोकने की कोशिश   भी की ; क्यों कर रहे हो ? कुछ लोग ऐसे जो जॉब शुरू होने से लेकर अब तक जान के पीछे पड़े थे [और मैं तो आज भी उनका चेहरा नहीं देखना चाहती ]सभी से रिश्ते सहज और सौहार्दयपूर्ण कर लिये ---मैं समझ ही न पायी कि आत्मा निर्मल होना चाहती है और -------------------
''एक सुबह ,६ बजे --ताजा गुड बनवाया था ,वो गुड की चाय कभी नहीं पीते थे पर जुकाम था तो मैंने अदरख गुड की चाय बनाई --आज उठने में देर हो गयी कहके चाय के लिए उठाया तो एक सिप लेके बोले थोड़ा कमजोरी हो रही है ,कुछ देर और सो जाऊं और बस कहते कहते रामजी की चिड़िया रामजी के पास। ''------------
अजय के  जाने के कुछ समय बाद जब होश आया तो पता चला सही में भाग्यशाली वही है जिसको अपने जाने का अहसास भी न हो ,पल भर में उड़ जाए ,चेहरे पे भी न शिकन न डर। --जब जरा मनन करने लगी तो पाया ,पिताजी ,माँ ,श्वसुरजी --मेरे आगे ये सभी शख्श ऐसे रहे जो चेतनावस्था में चलते-फिरते चले गए --और ये सब वही लोग थे जो सीधे ,सच्चे और सरलमना थे।
 अभी कलाम सर का जाना देखा तो ये सारी बतकहियां चलचित्र की भांति घूम गयी आँखों के आगे ,मानो अभी की ही बात हो ,एक सीधे ,सच्चे सरल ,आदमी का जाना क्या होता है --पल भर में कार्य करते हुए प्राण पखेरू उड़ गए ---सही में यही व्यक्ति भाग्यशाली होता है। अजय तुम ठीक कहते थे।
काश मैं भी इतनी ही सहज हो पाऊं।  कोशिश  तो कर रही हूँ पर अभी ऐंठ है कहीं मन में ,कुछ गांठें हैं जो खुलती नहीं ,,कुछ लोग जिन्होंने तुम्हें   धोखा दिया मेरी माफ़ी की जद में नहीं आते --शायद मैं उतनी सरलमना नहीं हूँ और कोई बिरला ही हो सकता है ऐसा।
''मैं रोती नहीं वारती मानस  मोती हूँ ''---जाने वाले अब हमारे दिलों में हैं अपनी राह पे  चलने को प्रेरित करते हुए ----





















Monday, 20 July 2015

[              [सावन --शिवार्चन को समर्पित ऋतु ]
सावन  में  ,सभी को बाबा विश्वनाथजी का आशीष मिले
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**** शिव को समर्पित ऋतु ,शिव ,जो सत्य है ,वही शिव है -वही सुंदर है | ,सत्य नेति -नेति करके जो शेष बचे ,ज्ञान से परे __जो केवल होने का अहसास मात्र है जब! सब कुछ मिल जाए -वही शिव है जिसे ब्रह्मा -विष्णु महेश सब पूजते हैं ,जिसे राम भी अपना आराध्य मानते हैं -___
" लिंग थापी विधिवत करी पूजा |शिव सामान प्रिय मोहि न दूजा "-----
मानस में तुलसी ने प्रत्येक काण्ड का प्रारंभ शिवार्चन से ही किया है _________
_"भवानीशंकरौवन्दे श्रद्धा विश्वास रुपिणौ |
याभ्यां बिना न पश्यन्ति सिद्धा: स्वान्तःस्थमीशवरम " ||_____
शिव ---जिसके स्वरूप को जानने के लिए कृष्ण भी हिमालय पर्वत पे गए तपस्या करने और उमा का आशीष लेके आये ---
कृष्ण कहते है ---
नमोस्तु ते शाश्वत सर्वयोनो 
ब्रह्माधिपं त्वामृषयो वदन्ति 
तपश्च सत्त्वं च रजस्तमश्च 
त्वामेव सत्यं च वदन्ति संत:।। 
शिव जिसको सृष्टि में केवल कृष्ण ही जानते है ---
न ही शक्तो भवं ज्ञातुं मद्विध:परमेश्वरम्।
ऋते नारायणात् पुत्र शंखचक्रगदाधरात्।। 
शिव जो ब्रह्मा विष्णु इंद्र ,भूत पिशाच सबके आराध्य हैं --
ब्रह्मा विष्णु सुरेशानां स्रष्टा च प्रभुरेव च। 
ब्रह्माद्य पिशाचान्ता यं ही देवा उपासयते।।---
शिव जिसके बिना हम अपने अंत:करण में स्थित ईश्वर को देख ही नहीं सकते |
***कंकर -कंकर में है शंकर | शिवोहम -शिवोहम | सारी जगति ,जगती के सारे क्रिया कलाप सब शिव का ही स्वरूप हैं ,शिव को ही समर्पित हैं और शिव की ही अर्चना हैं | गौर वर्ण शिव ,__________
शंखेन्द्वाममतीव सुन्दरतनुम् शार्दूलचर्माम्बरं |
कालव्यालकरालभूषणधरं गंगा शशांक प्रियम ||
काशीशं,कलिकल्मशौघशमनम कल्याणकल्पद्रुमं |
नौमीयम ! गिरिजापतिं गुणनिधिम कन्दर्पहं शंकरम।।
***यही तो है शिव का स्वरूप जो दैनिक जीवन को चरितार्थ करता हुआ ,विपरीत में भी शांत और स्थिर रहने का मार्ग दिखाता है | सुंदर गौर वर्ण ,कमल से नयन , आजन बाहू ,कोमल गात संग में , उमा -पार्वती -अम्बिका भवानी -जिनकी सुन्दरता --
''छबि गृह दीप शिखा जनु बरईं '' है
इसपर भी जोगी जटिल अकाम मन नग्न अमंगल वेष | घोर विपरीततायें जैसे संसार को हर पल याद दिला रहे है शिव कि जीवन हलाहल है , पर विष रोक लो कंठ में ही ,न अपनेशरीर को विष की बेली बनने दो और न ही विष को समाज पे उगलो , कि वो कंठ में जाय और दवा बन जाए ताकि रोग दूर हों और तुम भी नीलकंठ का सुंदर मनभावन रूप ले के जियो | कितनी अदभुत सीख है ,पर कहाँ हम देख पाते हैं हम तो केवल जल चढ़ा के ही कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं |
*** आस्तीन में ही नहीं शिव के तो गले में और सर पे भी सर्पों की माला है | हम तो आसपास आस्तीन का एक सांप होने से ही विचलित हो जाते हैं ,पर जहाँ धोखे ही धोखे हो ---अपने भोलेपन में भोले बाबा ने वर दिया भस्मासुर को वो उन्ही को भस्म करने की सोचने लगा ,रावण ने शिव के आराध्य राम से ही बैर मोल ले लिया ,
दक्ष ने अपने घमंड में जग करता को नहीं पहचाना ,यहाँ तक कि सती ने भी राम की परीक्षा के समय दुराव किया -तो भी विवेक रूपी समुंद्र को आनंद देने वाले ,पाप रूपी घोर अन्धकार का नाश करने वाले ,तीनों तापों को हरने वाले ,मोह रूपी बादल को छिन्न -भिन्न करने वाले ,वैराग्य रूपी कमल के सूर्य कभी विचलित नहीं हुए अपितु संसार के कल्याण हेतु समाधिष्ट होगये और समाधि की अवधि पूर्ण होने पे सकल जगत के कल्याण के कार्यों में प्रविष्ठ हुए | क्या शिव का ये स्वरूप क्षमा सिखाने के लिए ही नहीं है ?पर कहाँ सीख पाते हैं हम ?
*** शिव के वस्त्र ,व्याघ्र चर्म और वल्कल वस्त्र जो कहीं से भी सुखदायी नहीं हैं ,हर परिस्थिति में समायोजित होने और प्रसन्न रहनेकी सीख देते से प्रतीत होते हैं | मस्तक पे आधा चन्द्रमा , कलंकित को भी आश्रय देने की सीख सर्पों का संग यानी आप चन्दन बन जाओ और अपने शीतल व्यवहार से अपने दुश्मनों को भी शांत करने की कला सीखो ! कमंडल अर्थात संचय की प्रवृति का त्याग ,केवल जीने लायक संचय, जटाओं में गंगा ( गंगा को अपने वेग और पवित्रता पे बड़ा अभिमान था ,वो स्वर्ग से नीचे नहीं आना चाहती थीं उन्होंने शिव की जटाओं में समाना स्वीकार किया क्यूंकि गंगाजी को पूरा विश्वास था कि वो अपने वेग से शिव को पातळ में ढकेल देंगी पर शिव ने उन्हें संभाला और सात धाराओं में बाँट दिया ) शिव की दृढ़ता ,कठोरता संयम और तीक्ष्ण बुद्धिमता की एक झलक ,कठिनाई में भी विवेक मत खोओ ,स्थिर बुद्धि और दृढ संकल्प हर परिस्थिति में राह दिखाते हैं पर कहाँ समझ पाते हैं हम ?| समस्त कठिनाइयों को ,अशुभ को ,अशौच को , भय विद्वेष कलंक को ,दुःख -दाह को ,आत्मसाध कर सरल ,शांत ,निर्लिप्त ,बैरागी और लोककल्याणकारी जीवन शैली --यही शिव है ! जो जगतपिता है कल्याणकारी है ,जो दूसरे के हित हेतु विषपान करता है ------
जरत सकल सुर वृन्द विषम गरल जेंहि पान किया |
तेहिं न भजसि मन मंद को कृपालु संकर सरिस ||
जिस भीषण हलाहल से देव- दानव सब जल रहे थे उसको जिन्होंने स्वयं पान किया ,रे मन तू उस शंकरजी को क्यूँ नहीं भजता --उनके सामान कृपालु और कौन है | सावन की इस   पावन ऋतु  में अपने आराध्य शिव को उनके स्वरूप की विशेषताओं और कल्याणकारी भावनाओं को अपने अंदर उतारने का संकल्प ! यही है आजका मेरा सावन का  शिवार्चन | हर हर महादेव ,बम -बम भोले |
*** पर शिव के अर्चन का कोई विशेष दिन विशेष ऋतु  ही क्यूँ ? क्यूँ न प्रतिदिन हम उन्हें ध्यायें ? हाँ ! हम प्रति दिन प्रतिपल शिव के ध्यान में रहें पर कभी अतिरिक्त ऊर्जा की भी आवश्यकता होती है |ये मानव मन बहुत शीघ्र विचलित हो जाता है इस की नीव बहुत ही कमजोर है ,अब एक मजबूत और पक्के मकान के लिए तो नीव का मजबूत होना बहुत आवश्यक है तो समय समय पे ये व्रत -त्यौहार हमारी नीव को पुख्ता करने का ही कार्य करते हैं ताकि हम आंधी तूफान और भूकम्प में भी डगमगाएं नहीं,चिन्तित न हों ,विचलित न हों | कलयुग में तो विचलित करने वाली घटनाएँ साथ-साथ ही चलती है | मीरा का जीवन नहीं हिला -नीव पक्की थी ,ध्यान की भक्ति की नीव थी मजबूत ! जैसे हम मोबाइल को रोज चार्ज करते हैं वैसे ही मन की चार्जिंग भी बहुत जरुरी है |मन को परमात्मा से कनेक्ट करना ,ये व्रत त्यौहार हमारे जीवन में सौकेट का काम करते हैं ,अपने मन की डोरी लगाइए और कई दिनों के लिए चार्ज हो जाइए | भगवान कहाँ खाते हैं वो तो भाव के ही भूखे हैं ,शिव ही सत्य है ये भाव कहीं गहरे हमारे भीतर पैंठ रहा है | हम शिवोहम को पहचान पा रहे हैं | नेति नेति करना हमें आने लगा है हम ज्ञान से परे जाने लगे हैं फिर जो बचता है वही कल्याणकारी शिव है।
पार्वती पति हर हर शंकर ,कण -कण शंकर ,शिवोहम ||
*** सावन  कल्याणकारी हो ,मंगलमयी हो ,स्वयं से स्वयं की पहचान करवाए .. सावन में कांवड़ आने वाले दिनों में ----

दक्ष प्रजापति मंदिर हरिद्वार ---------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

Friday, 17 July 2015

'' हरेला / गुप्त नवरात्रि''
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शुभकामनायें और मेरी मीठी यादें ----------आषाढ़ मॉस की शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक ,गुप्त नवरात्र का पर्व होता है ,दो नवरात्रि गुप्त रखी गयी हैं आषाढ़ और माघ मास की ,इनमे भी भगवती महिसासुरमर्दनि की पूजा अर्चना होती है और हरियाली भी बोई जाती है। शारदीय और वासंतिक नवरात्रि में तो ,दशहरे और रामजन्म की धूम होती है पर अन्य दोनों में देवी की मौन आराधना का निर्देश है ,साथ ही तांत्रिक साधनाओं के लिए भी ये गुप्त नवरात्रि का समय उपयुक्त माना  गया है ,हो सकता है ,इस समय में पृथ्वी  के  वायुमंडल और चुंबकीय क्षेत्र  में  कुछ  विशेष  तरंगें बनती हों  जो मंत्रों की ध्वनि तरंगों से झंकृत होके विशेष सिद्धि देती हों ------आम आदमी और विशेषत: भयंकर बुद्धिजीवी वर्ग इन बातों को मूर्खता मानता है ,पर मेरे जैसे बहुत हैं जो विशवास और परम्परा के धरातल पर खड़े रहते हैं बिना आडंबर और ढोंग के। 

वर्ष ऋतु ,गढ़वाल में गुप्त-नवरात्रि और कुमाऊं में हरेला ---प्रकृति पूजन का कितना सुंदर तरीका। हरेला पर्व में --गेहूं,जौ ,मक्का ,उड़द ,सरसों ,भट्ट गहत का अंकुरण कर हरेला उगाया जाता है और गढ़वाल में यवांकुरण ---गुप्त नवरात्रि में हमारे घर में पंडित जी आते थे पाठ करने और उस कमरे में हम बच्चे वर्जित होते थे बस केवल आरती के वक्त प्रवेश कर सकते थे ,बाकी दोनों नवरात्रि पाठ माँ पिताजी ही करते थे। 
हमारी  टीचर थी मुन्नी जोशी और  सुरेखा पन्त ,वो हरेला मनाती थी ,,उत्तरकाशी में टीचर्स हॉस्टल कैम्प्स में सड़क के पास ही था ,तो आते जाते उनके रूम से आरती की आवाजें ,खूब आती थीं इन नौ दिनों में। उन्हीसे हरेला के विषय में पता चला। हम बच्चों के मजे हो जाते थे। और भी कई   कुमाउनी टीचर थी जो मिलके हरेला मनाती थी , माँ -पिताजी उन सबके  अघोषित  लोकल गारजन थे तो हमारी बड़ी पूछ होती थी ,घर में नवरात्रि पूजन की स्थापना  और बगल में हरेला का समापन 
--- निःसंदेह काम दोनों जगह का हम बच्चों को ही करना होता था,विशेषत:नौवें दिन किसी पेड़ की टहनी जिससे गुड़ाई की जाती है[----] वो लाना ,और अपनी हरियाली के लिए अरंडी के पत्ते लाना  ,पर उस उम्र में काम करना भी उत्सव से कुछ कम नहीं होता था ,वो भो व्रत,पर्वों का काम।  जब हरेला हमको आशिषः  स्वरुप मिलता था तो पैर से सिर की ओर छुआ के[जैसे हल्दी हाथ में हल्दी लगती है ]आशीष  दिया जाता था ,''जी रये जागि राये --------और उसकी अंतिम पंक्ति कुछ ऐसी थी की जब तुम्हारे दांत न हों तब भात पीस के खाओ और लाठी के सहारे चलो ''--इतनी बड़ी जिंदगी का आशीष --उस वक्त बड़ा मजा आता था ,हम लाठी के सहारे चलने का स्वांग भी भरते थे तब।  वो तो जब त्यौहारो को समझने की उम्र आई तो पता चला कितनी समृद्ध परम्पराएँ हैं हम उत्तराखंडियों की ---हरियाली से जुड़े त्यौहार ,पेड़ लगाओ ,संरक्षित करो ,अन्न की पूजा गुणवत्ता ,स्वच्छ्ता ,और ऋतुओं का सम्मान।  मैं गुप्त नवरात्रि में यवांकुर नहीं डालती हूँ --पर हरेला को देख आज भी ऊर्जा का संचार होता है --सभी उत्तराखंड और देश वासियों को भी ''हरेला ''पर्व की शुभकामनायें --हरेला तो सभी अपने घरों में बो सकते हैं --अब तो ग्लोबल हो गया है सबकुछ ,जब करवा चौथ सभी मना सकते हैं तो हरेला भी मनाइये ,अच्छा लगेगा ,वर्षा ऋतु में नव सृजन ,नव अंकुर और फिर ''जीवेत: शरद शतम ''--सौ शरद देखने का आशीष ------सभी को आंचलिक पर्व '' हरेला पर्व ''और ''आषाढी नवरात्रि'' की शुभकामनाये ---''जी रये, जागि रये
धरती जस आगव, आकाश जस चाकव है जये
सूर्ज जस तराण, स्यावे जसि बुद्धि हो
दूब जस फलिये,
सिल पिसि भात खाये, जांठि टेकि झाड़ जाये।''-----''ऐंकारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका।
क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोऽस्तु ते।
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यदि वृक्ष ,हरियाली बच्चों के साथ वन सम्पदा में जानवरों को भी आशीष मिले और सुरक्षित रिहायश मिले तो हरेला की खूबसूरती और उपयोगिता में चार चाँद लग जाएँ।