" नवमं सिद्धिदात्री च नव दुर्गा प्रकीर्तिता "
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माँ अपने बच्चों के लिये सिद्धिदात्री ही तो होती है | बच्चे को सदैव ये विश्वास माँ पे होता है कि उसे माँ के आंचल में अपनी मन मांगी मुराद मिल ही जायेगी यदि न भी मिले मन वांछित वस्तु तब भी स्नेह प्यार ममता करुणा का अथाह समुद्र तो है ही जिस पे उसका पूरा अधिकार है जितना चाहे उलीच ले | माँ भगवती जो सकल ब्रह्मांड की माँ हैं हम पे कृपा करें,उनके स्नेह की शीतल छाँव सदैव हमारे ऊपर रहे | अंधियारे पथ में भी सूरज की भांति हमें सही मार्ग उपलब्ध हो माँ की अनुकम्पा से |
हिन्दू मनीषा सदैव से ही शक्ति उपासना का प्रतीक रही है | चार नवरात्र जिनमे दो गुप्त हैं ,मात्रि शक्ति के पूजन अर्चन और नमन के ही द्योतक हैं | जो माँ सृजन पालन संवर्धन कर रही है उसका विनियोग ,उसका श्रृंगार ,उसकी आराधना करने का पर्व | उसको उपहार देने - वन्दना -पूजा -अर्चना -और नमन करने का पर्व ताकि पालन करता को भी अपनी शक्ति का ज्ञान रहे ,कितनी सुंदर व्यवस्था है | नव रात्र में हिन्दुओं के घरों में श्रीदुर्गा सप्तशती पढ़ी जाती है वैसे तो ये नित्य संध्या में पढने वाला ग्रन्थ है ,पर नवरात्रि में अधिकतर इसको पूजा और पढ़ा जाता है | देवी के नौ रूपों की हम पूजा अर्चना करते हैं | आज मैं देवी के इन नव रूपों का कन्या से माँ बनने की प्रक्रिया में ही निरूपण करने की कोशिश कर रही हूँ | माँ मुझे आशीष दें |
यदि हम ध्यान दें तो ये ग्रन्थ कन्या धन की उपयोगिता और संवर्धन की ही कहानी कहता हुआ प्रतीत होता है तथा साथ ही कन्या के बचपन से माँ की गरिमा तक पहुँचने के कठिन और संस्कारित सफर को भो बयाँ करता है | आवश्यकता है समझ के पढने की न कि तोते की तरह दोहराने की |
ये ग्रन्थ हमें स्त्री के गुणों ,क्षमताओं और विभिन्न रूपों से परिचित करवाता है | सिद्दिदात्री बनने के लिए जो सफर तय करना पड़ता है वो आसान नहीं है ,वहां तक पहुँचने के लिए प्रथम सोपान है शैलपुत्री ,जो दुर्गम में रहती है कठिनाइयों से गुजरती है वज्र की तरह कठोर , बर्फ की मानिंद नाजुक और शीतल है ! 'शैशवावस्था ' फिर अनुपम रूपसी पर ब्रह्म चारिणी ,इतने सारे लालची और खोटी नीयत के देवताओं के मध्य रहके भी अपने कौमार्य को अक्षत रखना इसके लिए स्त्री को कितना मजबूत ,कठोर , शक्तिशाली और अपने पे विश्वास रखने वाली होना होगा | सजग ,शक्ति सम्प्पन विद्या बुद्धि और बल से सम्पन्न 'किशोरी'| तृतीय चन्द्रघंटा, जो चंद्रमा के सामान अमृत से पूर्ण शीतल और सबको सुख देने वाली है जिसकी ओर सब आकर्षित हैं क्यूंकि वो चंद्रमा के सामान ही आह्लाद्कारी है ,उसकी उपस्थिति ही सबका दुःख हर लेती है |'तरुणाई ' |अब चतुर्थ अवस्था जब वो माँपिता के आगोश से बाहर निकलती है शादी ,यानि 'दुल्हन 'कुष्मांडा , जो अपने संस्कारों और गुणों के तेज से सबको चमत्कृत करती हुई ,सूरज को भी राह दिखाने की अदभुत क्षमता रखती है | ऐसी विभूति जो अपने रूप श्रृंगार से तो सब को मोहती ही है विदुषी भी है और हर तरह की परिस्थिति में धैर्य और बुद्धिमता का परिचय देती हुई दोनों कुलों की लाज को संभाले रखती है | अब वो माँ है ,स्कन्दमाता -पाँचवा पड़ाव | जो सनत्कुमार जैसे सबप्रकार से योग्य संतान की जन्म दात्री है |जो सृजन ,पालन और संवर्धन करती हुई ,संस्कारों और प्रकृति को अक्षुण रखती है | एक ऐसी कन्या जिसे अपनी कार्य सिद्धि और वंश वृद्धि के लिए महर्षि कात्यायन जैसे ऋषि भी अपनी कन्या बनाने को लालायित रहते है षष्ठं कात्यायिनी च |
और सिद्धिदात्री बनने का अंतिम पड़ाव --समय आने पे काली का रूप धारने में सक्षम होना , सत्य ,धर्म , सृष्टि की रक्षा के लिए स्थितिप्रज्ञ होकर अपने पराये सबको दंड देने की क्षमता रखना , असत्य और दानवी शक्ति के विनाश का कारण और कारक होना | इतनी कठोर परीक्षाओं और दुर्गम सफर के पश्चात वो कन्या सिद्धिदात्री " माँ " बन पाती है | ऐसी ममता की मूरत जो अपनी करुणा से सबका ताप हर लेती है और अपनी विद्वता और तेज से अपने घर के सूरज को भी सही मार्ग दिखाती है |
सप्तशती का पाठ करते हुए , देवी के इन सभी रूपों का पूजन करते हुए समाप्ति में कन्या पूजन का विधान शायद इसीलिए बनाया गया होगा ताकि हम कन्या धन का संवर्धन करने का संकल्प लें | स्त्री जाति अपनी कन्याओं को सिद्धिदात्री बनाये ताकि वो पुरुषों को भी सही मार्ग दिखाने में सक्षम होवें |
कालान्तर में स्त्री जाति अपनी शक्ति और गौरव को भूल के गुलामी की ओर अग्रसित हुई तभी पुरुषत्व का भी ह्रास हुआ | समाज में विकृतियाँ आने लगीं | आज भी हम यदि दुर्गा शप्तशती को पढ़ते हुए उसे अपने जीवन में भी उतारें तो सामाजिक विकृतियाँ कम हो सकती है | शायद , इसके लिए मातृशक्ति को ही आगे आना पड़ेगा | उसे ही अपनी पुत्रियों को बचाना होगा और सिद्धिदात्री बनाना होगा ताकि वो आने वाली संतति और अपने आस पास के समाज में गर्व से जीवनयापन करे और समाज के लिए कल्याणकारी हो -ताकि भूचरा: खेचराश्र्चैव ,सहज कुलजा माला डाकिनी शाकिनी ,ग्रह भूत पिशाच ,यक्ष गन्धर्व राक्षस ,इत्यादि उसपे कु दृष्टि डालते ही -'-नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचे हृदि संस्थिते ' की ही तरह नष्ट हो जाएँ |
आओ मिलके एक ऐसा समाज बनाएं जहाँ नवरात्री पूजन केवल व्यष्टि के लाभ के लिए न होकर समष्टि के लिए कल्याण कारी होवे | सभी को नवरात्री की शुभकामनाएं |
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माँ अपने बच्चों के लिये सिद्धिदात्री ही तो होती है | बच्चे को सदैव ये विश्वास माँ पे होता है कि उसे माँ के आंचल में अपनी मन मांगी मुराद मिल ही जायेगी यदि न भी मिले मन वांछित वस्तु तब भी स्नेह प्यार ममता करुणा का अथाह समुद्र तो है ही जिस पे उसका पूरा अधिकार है जितना चाहे उलीच ले | माँ भगवती जो सकल ब्रह्मांड की माँ हैं हम पे कृपा करें,उनके स्नेह की शीतल छाँव सदैव हमारे ऊपर रहे | अंधियारे पथ में भी सूरज की भांति हमें सही मार्ग उपलब्ध हो माँ की अनुकम्पा से |
हिन्दू मनीषा सदैव से ही शक्ति उपासना का प्रतीक रही है | चार नवरात्र जिनमे दो गुप्त हैं ,मात्रि शक्ति के पूजन अर्चन और नमन के ही द्योतक हैं | जो माँ सृजन पालन संवर्धन कर रही है उसका विनियोग ,उसका श्रृंगार ,उसकी आराधना करने का पर्व | उसको उपहार देने - वन्दना -पूजा -अर्चना -और नमन करने का पर्व ताकि पालन करता को भी अपनी शक्ति का ज्ञान रहे ,कितनी सुंदर व्यवस्था है | नव रात्र में हिन्दुओं के घरों में श्रीदुर्गा सप्तशती पढ़ी जाती है वैसे तो ये नित्य संध्या में पढने वाला ग्रन्थ है ,पर नवरात्रि में अधिकतर इसको पूजा और पढ़ा जाता है | देवी के नौ रूपों की हम पूजा अर्चना करते हैं | आज मैं देवी के इन नव रूपों का कन्या से माँ बनने की प्रक्रिया में ही निरूपण करने की कोशिश कर रही हूँ | माँ मुझे आशीष दें |
यदि हम ध्यान दें तो ये ग्रन्थ कन्या धन की उपयोगिता और संवर्धन की ही कहानी कहता हुआ प्रतीत होता है तथा साथ ही कन्या के बचपन से माँ की गरिमा तक पहुँचने के कठिन और संस्कारित सफर को भो बयाँ करता है | आवश्यकता है समझ के पढने की न कि तोते की तरह दोहराने की |
ये ग्रन्थ हमें स्त्री के गुणों ,क्षमताओं और विभिन्न रूपों से परिचित करवाता है | सिद्दिदात्री बनने के लिए जो सफर तय करना पड़ता है वो आसान नहीं है ,वहां तक पहुँचने के लिए प्रथम सोपान है शैलपुत्री ,जो दुर्गम में रहती है कठिनाइयों से गुजरती है वज्र की तरह कठोर , बर्फ की मानिंद नाजुक और शीतल है ! 'शैशवावस्था ' फिर अनुपम रूपसी पर ब्रह्म चारिणी ,इतने सारे लालची और खोटी नीयत के देवताओं के मध्य रहके भी अपने कौमार्य को अक्षत रखना इसके लिए स्त्री को कितना मजबूत ,कठोर , शक्तिशाली और अपने पे विश्वास रखने वाली होना होगा | सजग ,शक्ति सम्प्पन विद्या बुद्धि और बल से सम्पन्न 'किशोरी'| तृतीय चन्द्रघंटा, जो चंद्रमा के सामान अमृत से पूर्ण शीतल और सबको सुख देने वाली है जिसकी ओर सब आकर्षित हैं क्यूंकि वो चंद्रमा के सामान ही आह्लाद्कारी है ,उसकी उपस्थिति ही सबका दुःख हर लेती है |'तरुणाई ' |अब चतुर्थ अवस्था जब वो माँपिता के आगोश से बाहर निकलती है शादी ,यानि 'दुल्हन 'कुष्मांडा , जो अपने संस्कारों और गुणों के तेज से सबको चमत्कृत करती हुई ,सूरज को भी राह दिखाने की अदभुत क्षमता रखती है | ऐसी विभूति जो अपने रूप श्रृंगार से तो सब को मोहती ही है विदुषी भी है और हर तरह की परिस्थिति में धैर्य और बुद्धिमता का परिचय देती हुई दोनों कुलों की लाज को संभाले रखती है | अब वो माँ है ,स्कन्दमाता -पाँचवा पड़ाव | जो सनत्कुमार जैसे सबप्रकार से योग्य संतान की जन्म दात्री है |जो सृजन ,पालन और संवर्धन करती हुई ,संस्कारों और प्रकृति को अक्षुण रखती है | एक ऐसी कन्या जिसे अपनी कार्य सिद्धि और वंश वृद्धि के लिए महर्षि कात्यायन जैसे ऋषि भी अपनी कन्या बनाने को लालायित रहते है षष्ठं कात्यायिनी च |
और सिद्धिदात्री बनने का अंतिम पड़ाव --समय आने पे काली का रूप धारने में सक्षम होना , सत्य ,धर्म , सृष्टि की रक्षा के लिए स्थितिप्रज्ञ होकर अपने पराये सबको दंड देने की क्षमता रखना , असत्य और दानवी शक्ति के विनाश का कारण और कारक होना | इतनी कठोर परीक्षाओं और दुर्गम सफर के पश्चात वो कन्या सिद्धिदात्री " माँ " बन पाती है | ऐसी ममता की मूरत जो अपनी करुणा से सबका ताप हर लेती है और अपनी विद्वता और तेज से अपने घर के सूरज को भी सही मार्ग दिखाती है |
सप्तशती का पाठ करते हुए , देवी के इन सभी रूपों का पूजन करते हुए समाप्ति में कन्या पूजन का विधान शायद इसीलिए बनाया गया होगा ताकि हम कन्या धन का संवर्धन करने का संकल्प लें | स्त्री जाति अपनी कन्याओं को सिद्धिदात्री बनाये ताकि वो पुरुषों को भी सही मार्ग दिखाने में सक्षम होवें |
कालान्तर में स्त्री जाति अपनी शक्ति और गौरव को भूल के गुलामी की ओर अग्रसित हुई तभी पुरुषत्व का भी ह्रास हुआ | समाज में विकृतियाँ आने लगीं | आज भी हम यदि दुर्गा शप्तशती को पढ़ते हुए उसे अपने जीवन में भी उतारें तो सामाजिक विकृतियाँ कम हो सकती है | शायद , इसके लिए मातृशक्ति को ही आगे आना पड़ेगा | उसे ही अपनी पुत्रियों को बचाना होगा और सिद्धिदात्री बनाना होगा ताकि वो आने वाली संतति और अपने आस पास के समाज में गर्व से जीवनयापन करे और समाज के लिए कल्याणकारी हो -ताकि भूचरा: खेचराश्र्चैव ,सहज कुलजा माला डाकिनी शाकिनी ,ग्रह भूत पिशाच ,यक्ष गन्धर्व राक्षस ,इत्यादि उसपे कु दृष्टि डालते ही -'-नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचे हृदि संस्थिते ' की ही तरह नष्ट हो जाएँ |
आओ मिलके एक ऐसा समाज बनाएं जहाँ नवरात्री पूजन केवल व्यष्टि के लाभ के लिए न होकर समष्टि के लिए कल्याण कारी होवे | सभी को नवरात्री की शुभकामनाएं |