Monday, 31 March 2014

           " नवमं सिद्धिदात्री च नव दुर्गा प्रकीर्तिता "
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 माँ अपने बच्चों के लिये सिद्धिदात्री  ही तो होती है | बच्चे को  सदैव ये विश्वास माँ पे होता है कि उसे माँ के आंचल में अपनी मन मांगी मुराद मिल ही जायेगी यदि न भी मिले मन वांछित वस्तु तब भी  स्नेह प्यार ममता करुणा का अथाह समुद्र तो है ही जिस पे उसका पूरा अधिकार है जितना चाहे उलीच ले | माँ भगवती जो सकल ब्रह्मांड की माँ हैं हम पे कृपा करें,उनके  स्नेह की शीतल छाँव सदैव हमारे ऊपर रहे | अंधियारे पथ में भी सूरज की भांति हमें सही मार्ग उपलब्ध हो माँ की अनुकम्पा से |
हिन्दू मनीषा सदैव से ही शक्ति उपासना का प्रतीक रही है | चार नवरात्र जिनमे दो गुप्त हैं ,मात्रि शक्ति के पूजन अर्चन और नमन के ही द्योतक हैं | जो माँ सृजन पालन संवर्धन कर रही है उसका विनियोग ,उसका श्रृंगार ,उसकी आराधना करने का पर्व | उसको उपहार  देने - वन्दना -पूजा -अर्चना -और नमन करने का पर्व ताकि पालन करता को भी अपनी शक्ति का ज्ञान रहे ,कितनी सुंदर व्यवस्था है | नव रात्र में हिन्दुओं के घरों में श्रीदुर्गा सप्तशती पढ़ी जाती है वैसे तो ये नित्य संध्या में पढने वाला ग्रन्थ है ,पर नवरात्रि में अधिकतर इसको पूजा और पढ़ा जाता है |  देवी के नौ रूपों की हम पूजा अर्चना करते हैं | आज मैं देवी के इन नव रूपों का कन्या से माँ बनने की प्रक्रिया में ही निरूपण करने की कोशिश कर रही हूँ | माँ मुझे आशीष दें |
यदि हम ध्यान  दें तो  ये ग्रन्थ कन्या धन की उपयोगिता और  संवर्धन की ही कहानी कहता हुआ प्रतीत होता है  तथा साथ ही कन्या के बचपन से माँ की गरिमा तक पहुँचने के कठिन और संस्कारित सफर को भो बयाँ करता है | आवश्यकता है समझ के पढने की न कि तोते की तरह दोहराने की |
 ये ग्रन्थ हमें स्त्री के गुणों ,क्षमताओं और विभिन्न रूपों से परिचित करवाता है | सिद्दिदात्री बनने के लिए जो सफर तय  करना पड़ता है वो आसान नहीं है ,वहां तक पहुँचने के लिए प्रथम सोपान है शैलपुत्री ,जो दुर्गम में रहती है कठिनाइयों से गुजरती है वज्र की तरह कठोर , बर्फ की मानिंद नाजुक और शीतल है ! 'शैशवावस्था ' फिर अनुपम रूपसी पर ब्रह्म चारिणी ,इतने सारे लालची और खोटी नीयत के देवताओं के मध्य रहके भी अपने कौमार्य को अक्षत रखना इसके लिए स्त्री को कितना मजबूत ,कठोर , शक्तिशाली  और अपने पे विश्वास  रखने वाली होना होगा  | सजग ,शक्ति सम्प्पन विद्या बुद्धि और बल से सम्पन्न 'किशोरी'| तृतीय चन्द्रघंटा, जो चंद्रमा के सामान अमृत से पूर्ण शीतल और सबको सुख देने वाली है जिसकी ओर सब आकर्षित हैं क्यूंकि वो चंद्रमा के सामान ही आह्लाद्कारी है ,उसकी उपस्थिति ही सबका दुःख हर लेती  है |'तरुणाई ' |अब चतुर्थ अवस्था जब वो माँपिता के आगोश से बाहर निकलती है शादी ,यानि 'दुल्हन 'कुष्मांडा , जो अपने संस्कारों और गुणों के तेज से सबको चमत्कृत करती हुई ,सूरज को भी राह दिखाने की अदभुत क्षमता रखती है | ऐसी विभूति जो अपने रूप श्रृंगार से तो सब को मोहती ही है विदुषी भी है और हर तरह की परिस्थिति में धैर्य और बुद्धिमता का परिचय देती हुई दोनों कुलों की लाज को संभाले रखती है | अब वो माँ है ,स्कन्दमाता -पाँचवा पड़ाव | जो सनत्कुमार जैसे सबप्रकार से योग्य संतान की  जन्म दात्री है |जो सृजन ,पालन और संवर्धन करती  हुई ,संस्कारों और प्रकृति को अक्षुण रखती है | एक  ऐसी कन्या जिसे  अपनी कार्य सिद्धि और वंश वृद्धि के लिए महर्षि कात्यायन जैसे ऋषि भी अपनी कन्या बनाने को लालायित रहते है षष्ठं कात्यायिनी च |
और सिद्धिदात्री बनने का अंतिम पड़ाव --समय आने पे काली का रूप धारने में सक्षम होना , सत्य ,धर्म , सृष्टि की रक्षा के लिए स्थितिप्रज्ञ होकर अपने पराये सबको दंड देने की क्षमता रखना , असत्य और दानवी शक्ति के विनाश का कारण और कारक होना | इतनी कठोर परीक्षाओं और दुर्गम सफर के पश्चात  वो कन्या सिद्धिदात्री " माँ " बन पाती है | ऐसी ममता की मूरत जो अपनी करुणा से सबका ताप हर लेती है और अपनी विद्वता और तेज  से अपने घर के सूरज को भी सही मार्ग दिखाती है |
  सप्तशती का पाठ करते हुए , देवी  के इन सभी रूपों का पूजन करते हुए समाप्ति में कन्या पूजन का विधान शायद इसीलिए बनाया गया होगा ताकि हम कन्या धन का संवर्धन करने का संकल्प लें | स्त्री जाति अपनी कन्याओं को सिद्धिदात्री बनाये ताकि वो पुरुषों को भी सही मार्ग दिखाने में सक्षम होवें |
 कालान्तर में स्त्री जाति अपनी शक्ति और गौरव को भूल के गुलामी की ओर अग्रसित हुई  तभी  पुरुषत्व का भी ह्रास हुआ | समाज में विकृतियाँ आने लगीं | आज भी हम यदि दुर्गा शप्तशती को पढ़ते हुए उसे अपने जीवन में भी उतारें तो  सामाजिक विकृतियाँ कम हो सकती है |  शायद , इसके लिए मातृशक्ति को ही आगे आना पड़ेगा | उसे ही अपनी पुत्रियों को बचाना होगा और सिद्धिदात्री बनाना होगा ताकि वो आने वाली संतति और अपने आस पास के समाज में गर्व से जीवनयापन करे और समाज के लिए कल्याणकारी हो -ताकि भूचरा: खेचराश्र्चैव ,सहज कुलजा माला डाकिनी शाकिनी ,ग्रह भूत पिशाच ,यक्ष गन्धर्व राक्षस ,इत्यादि उसपे कु दृष्टि डालते ही -'-नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचे हृदि संस्थिते ' की ही तरह नष्ट हो जाएँ |
 आओ मिलके एक ऐसा समाज बनाएं जहाँ नवरात्री पूजन केवल व्यष्टि के लाभ के लिए न होकर समष्टि के लिए कल्याण कारी  होवे | सभी को नवरात्री की शुभकामनाएं |










Thursday, 27 March 2014

 मेरे बच्चों  और अनुजों  को समर्पित !जो कर्म  करो और फल की इच्छा न करो को ही गीता का उपदेश मानते हैं -----
 कर्मण्येवाधिकारस्ते  मा  फलेषु  कदाचन |
   मा  कर्मफलहेतुर्भुर्मा  ते  संन्गोSस्त्वकर्मणि ||४७ || (अध्याय २                                                                           श्रीमदभगवद्गीता )
तेरा कर्म पे तो अधिकार है फल पे नहीं ,अत: तू फल की इच्छा करके कर्मफल का हेतु भी मत बन | अकर्मणी -कर्म ना करने में भी -संग: माँ अस्तु  -तेरी आसक्ति न हो -अर्थात  यदि फल नहीं तो कर्म  करने की क्या आवश्यकता ऐसी सोच भी न बने ||
 श्री गीता जी के इस श्लोक का प्रत्येक व्यक्ति अपने अनुसार अर्थ कर लेता है | मेरा अनुभव है कि अधिकांशत: इस श्लोक का अर्थ कर्म  करने और उसके फल तक ही लिया जाता है जबकि इसका तो शाब्दिक अर्थ भी वह नहीं है | फल की इच्छा न कर ये तो भगवान कह ही नहीं रहे हैं |और वैसे भी सांसारिक-सामाजिक प्राणी होने पे फल की स्पष्टता और कार्य-पूर्णता पे उसके प्राप्त होने की सम्भावना और कामना ,इसके बिना तो कोई भी कर्म प्रारम्भ ही नहीं हो सकता है | (incentive)प्रेरणा के बिना कोई भी कर्म अराजक ही होगा |  वो तो बच्चों का खेल हो जाएगा जो पार्क में जा के  हंस-खेलके लड़ झगड़ के वापस आ जाते हैं |यदि ध्यान से देखें तो खेलने कूदने की इस निरुद्द्येश्य सी प्रक्रिया में भी  उनका शारीरिक और  मानसिक विकास निरंतर हो रहा है साथ ही सामाजिकता और परस्पर मेलजोल की महत्ता को भी वे सीख रहे हैं |  तो उद्द्येश्य विहीन कर्म भी किसी न किसी को कुछ तो देता ही है |
 गीता का आंशिक व् सीमित ज्ञान ही -बिना फल की इच्छा के कोई कर्म क्यूँ करें ,हम इतने महान नहीं होसकते कि फल को न देखें या फल न हो तो कर्म का क्या फायदा  -जैसी भ्रांतियां पैदा करता है | प्रभु कहाँ कह रहे हैं कि फल की इच्छा न करो -वो तो कह रहे हैं कि - "तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय: ||' अर्थात ये जीवन एक युद्ध का मैदान ही है , अत: संग्राम में  तो तू उतर ही चुका है | दृढ़ता संकल्प और समर्पण के भाव से ,निजी स्वार्थ को त्यागके लोक कल्याण के लिए अपने को झोंक दे इस युद्ध भूमि में |फल तो अवश्यम्भावी है मिलेगा ही ,''हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् |'' | यहाँ तो पूर्ण समर्पण से कर्म करने पे कान्हा ! परलोक सुधरने का लालच भी दे रहे है | एक तरह से कृष्ण जीत के लिए ही उकसा रहे है क्यूँ कि मरना तो कोई भी नहीं  चाहता है , यदि पूरी कोशिश के बाद भी इच्छित फल न मिले तो भी कोई निराशा नहीं दूसरा लोक तो सिद्ध हो ही जाएगा | ऐसा प्रतीत होता है जैसे  प्रभू समझा रहे है कि मनुष्य को किसी भी अवस्था में कर्तव्य  का त्याग  नहीं करना चाहिये ,प्रत्युत उत्साह , लगन और तत्परतापूर्वक  कर्तव्य का पालन ही मनुष्यता है | पशु पक्षी भी तत्परता से अपना कर्म कर रहे है पर भोग योनि में होने के कारण उनके कर्तव्य निश्चित हैं जबकि मनुष्य कुछ नया करने को स्वतंत्र है |  जब प्रभु दूसरे जन्म या दूसरे लोक को सुधारने का भी लालच दे रहे हैं तो इस जन्म में फलकी इच्छा न कर ये कैसे कह सकते हैं ये तो मात्र छलना ही हुई -जो भी ये कहे कि मैं फल की इच्छा से कर्म  नहीं करता हूँ वो एक दिखावा ही है |निरर्थक और निरावश्यक कर्म तो अराजकता ही होगा | हाँ कृष्णा कहते हैं कर्म करने से पूर्व एक नक्शा अपने मन में बना कैसे कर्तव्य का पालन करना है ,तू कितनी दूर तक जाना चाहता है ,कितनी दृढ़ता है तेरे भीतर ,निजी स्वार्थ को पीछे रखके लोक कल्याण के लिए तेरा हर कर्म हो ,जीत हार सब सोच ले दूर दृष्टि और मजबूत ईमानदार इरादा  फिर निश्चय कर के झोंक दे अपने को कर्म में और कर्तव्यों का पालन करने में | अब फल से ध्यान हटा ले ,मैं दूंगा तुझे फल तेरे पुरुषार्थ , पूर्वजन्मों के कर्मों और प्रारब्ध के अनुसार |यदि तू कर्म करते हुए फल पे ही ध्यान रखेगा तो तेरे मन में द्वन्द बना रहेगा जो कर्तव्य निबाहने में बाधक भी हो सकता है ,तू समय समय पे विचलित भी हो सकता है ,आशातीत माहौल न देख के तू कर्तव्य पथ से भटक भी सकता है और निराश होके हार भी मान सकता है |यदि कर्म फल की आशा ,स्पृहा और आसक्ति को ही ध्येय बना लिया तो मन केवल फल में ही अटक जाता है और फिर येन-केन-प्रकारेण इच्छित फल प्राप्त करने के लिये -चाटुकारिता ,लोभ ,मोह लालच ,मक्कारी झूठ ,फरेब ,धोखा जैसे गुण मनुष्य में सहज ही आ जाते हैं जो व्यक्ति के लिए ही नहीं समष्टि के लिए भी घातक हैं | सो प्रभु कह रहे हैं  तू लाभ हानि सुख दुःख को मेरे हवाले कर और कर्तव्य पथ पे डट जा ________           सुखे दु:खे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ |
                            ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमावाप्स्यसी  ||
जैसे  खेल कूद के पढके   बच्चा घर आता है ,भूख से बेहाल होता है तो माता पिता के संयुक्त प्रयासों से उसके लिए यथायोग्य भोजन तैयार होता है ,अब किस को क्या मिलता है ये उसके प्रारब्ध पे निर्भर करता है | नियति तो साथ ही चलती है पर मनुष्य कुछ नया सोच के  अपने पुरुषार्थ के बल पे कुछ नया करने की कूवत तो रखता ही है  प्रत्यक्षं किम प्रमाणम -.यज्ञं में जितनी समिधा उतनी ही अग्नि | अपनी नियति के साथ ही कर्मों का फल और दंड सब मिलेगा सो भगवन कह रहे हैं !  अपने कर्मों को कल्याणकारी बना और डट जा मैदान में ,तिनका भर भी संदेह अपनी क्षमता पे मत करना और किसी भी परिस्थिति में निराश न होना | जब तेरे माता पिता तेरे लिए इतने परेशान रहते है और तुझे सबकुछ देने की कोशिश करते हैं तो मैं तो जगत का पिता हूँ ,सब मुझ पर छोड़ दे | कर्मों का फल तुझे अवश्य ही मिलेगा ,हाँ! तू कर्मफल के विषय में सोच के उसका हेतु मत बन वो भी तेरे पुण्यों को क्षीण ही करेगा ,तुझे तो पता ही नहीं है मैं तुझे क्या देना चाहता हूँ | तू कुछ मांग रहा है और मैं उससे भी अधिक देना चाहता हूँ पर तेरी मांग मुझे रोक देगी -सो फल मुझ पे छोड़ |  यही समझाना चाह रहे हैं प्रभु इस श्लोक में कि ' मा फलेषुकदाचन '  फल पे अधिकार मत मान ,फल तो निश्चित ही है पर भविष्य के गर्भ में है , अन्धकार से प्रकाश में जाने पे किसके हिस्से कितना  आये और कौन कहाँ तक पहुंचे ये देश काल परिस्थिति पुरुषार्थ और कुछ हद तक प्रारब्ध पे निर्भर करता है | तो जब हमारे हिस्से कर्तव्य निर्वाह ही है ,फल को  पाने की ईमानदार चेष्टा ही है तो क्यूँ न हम कर्मों पे ही ध्यान दें |" हानि लाभ जीवन मरण यश अपयश विधि हाथ ,या गुरु वशिष्ठ से पंडित ग्यानी सोध के लगन धरी करम गति टारे नाहि टरी "ये हमें अकर्मण्य बनाने के लिए नहीं लिखे गये हैं | ये सूक्त वाक्य हमें प्रेरित करते है शुभकर्मों की ओर | हम कुंडली ,लगन ,मुहूर्त ,ग्रह,नक्षत्र के पाखंड में न फसें और जीवन संग्राम में अपने कर्तव्य को निभाते हुए '' मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोअस्त्वकर्मणि ||  न होवें ,वरन कर्तव्य करने को ही अपना अधिकार मानें ,फल तो मिलेगा ही बस उसे प्रभु पे छोड़ दें यही हमारे बस में है | अंग्रेजी में भी कहते हैं "Hope for the best but prepare for the worst " .
बहुत से लोग दूसरे जन्म में क्या होगा ये किसने देखा है सो इसी जन्म में सारे भोग भोगने के लिए प्रयत्न रत रहते हैं | अब ये दूसरे जन्म की और पाप पुण्य की अवधारणा भी बहुत जटिल है | पर कुछ तो है जो सदियों से है | यदि प्रकृति को ईश्वरीय शक्ति मान के उसकी पूजा का विधान  , अमुक वृक्ष को काटने से ये पाप होता है और वृक्षारोपण से ये पुण्य होता है , हर नदी की एक अपनी कहानी अपनी पवित्रता  ,पर्वतों की परिक्रमा और संरक्षण और उससे मिलने वाला पुण्य ,अमुक जीव शुभ है अमुक अशुभ है ,औषधि युक्त वनस्पति को तोड़ने का विधान  , ये सब न किया गया होता तो मनुष्य जैसे स्वार्थी जीव ने तो अब तक प्रकृति को नष्ट ही कर दिया होता ,और ये डर भारत में ही नहीं हर देश की संस्कृति और संस्कारों में परिलक्षित होते हैं | मानव स्वाभाव की भीरुता और स्वार्थपरता की वृत्तियों और मनोविज्ञान को सूक्ष्मता से  पहचान के ही पाप- पुण्य ,डर और इहलोक- परलोक की रचना की गयी होगी |  जब हम अपना सौ प्रतिशत देके कोई कर्म करते हैं ,निष्ठा से कर्तव्य निभाते है तब भी मनोवांछित नहीं मिलता है तो प्रारब्ध को मानना ही पड़ता है | यही प्रारब्ध की संकल्पना हमें  कर्म में प्रयुक्त होने ,और अच्छा करने ,व्  परलोक सिद्ध करने की प्रेरणा देती है |
प्रभु कह रहे हैं -अपने कर्मों को कल्याणकारी बना ,उठ अपनी पूरी शक्ति से इस जीवन संग्राम को जीतने  और अपनी नियति को सुधारने के लिए कार्य कर , फल तुझे मैं दूंगा फिर जो भी मिले उससे तेरा कल्याण ही होगा ,वही तेरे लिए उपयुक्त होगा -कम या ज्यादा |
  अर्जुन ने भगवान् का शिष्य बनना स्वीकार कर लिया और अपने को पूर्ण रूप से समर्पित कर दिया
कार्पणयदोषोपहत स्वभाव: पृच्छामि त्वां  धर्मसम्मूढ़चेता: |
यच्छ्रेय:स्यानिश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम ||
            तब भगवान् ने उसकी शंकाओं का समाधान किया ,गीता का ज्ञान दिया ,गीता को हम जिस रूप में देखें वो वैसा ही अर्थ देती है | उपर्युक्त श्लोक में अर्जुन पहले धर्म के विषय में पूछते हैं ,दूसरी बार में अपने कल्याण की कामना करते हैं ,तीसरी बार में शिष्य बन जाते है और चौथी बार में शरणागत हो जाते है | अब शरणागत का उद्धार तो प्रभु करते ही हैं पर भगवान् की  सहृदयता और गुरुता है कि वो अर्जुन को उपदेश देने के ,अपना विराट रूप दिखाने के और उसकी सभी शंकाओं का समाधान करने के बाद भी -उसे क्या करना है ? कौन सा मार्ग अपनाना है ? ये उसी पे छोड़ देते है ___
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्यागुह्यतरं  मया |
विमृशयैत द्षेशेण यथेच्छसि तथा कुरू ||  यह गुह्य से भी गुह्य शरणागती का ज्ञान मैंने तुझे कह दिया | अब तू इस पर अच्छी तरह से विचार करके जैसा चाहता है वैसा कर | यहाँ भगवान ने अर्जुन को निराकार से साकार में खींच लिया |क्यूंकि निराकार में साकार का कोई अर्थ नहीं है पर साकार में निराकार भी समाहित है |
 मेरे विचार में -कर्मण्ये वाधिकारस्ते -ये श्लोक ही प्रेरित करता है गीता पढने के लिए और इस गीता गंगा मे अवगाहन करने पे डूबने का खतरा भी नहीं रहता | कर्तव्य के निर्वाहन में यदि कुछ ऊँच-नीच हो गयी हो तो भी भगवान मौजूद है हाथ पकड़  बाहर निकालने के लिए --
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणम् व्रज |
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिश्यामी माँ शुच  || इसका अर्थ ये भी नहीं है कि भगवान कर्तव्य निर्वाहन में कुछ भी करने की छूट दे रहे हैं ,वो तो कह रहे है तू सब धर्मों को छोड़ के मेरी शरणागती ले ले ,अब जो भगवान की शरणागती में है वो असंगत तो कर ही नहीं सकता | माँ शुच ! मेरी शरणागती ले मैं तेरे पापों को हर लूँगा |
अब एक और दीगर बात है यहाँ पे 'सर्वधर्मान्परीत्यज्य '  विश्व के अन्य धर्म तो उस समय थे ही नहीं -तो इससे यही निश्चित होता है कि प्रभु धर्म कर्तव्यों के निर्वाह को ही कह रहे हैं और यदि सभी कर्म प्रभु को पूर्ण समर्पित होके ही किये जाएँ तो फल तो मीठा और कल्याणकारी ही होगा | कर्म के सिद्धांत को और फलकी इच्छा को जानने के लिए  हमें गीता पढनी ही होगी |  पढो गीता ,गुणों गीता ही केवल पुनीता !  


        

Friday, 14 March 2014

          "" मौसम की ह्लचल  होली का व्यंग ""
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 मौसम का असर सभी प्राणियों पे पड़ता ही है | बदलती हवा में अब वाइरस जनित रोग अपरिहार्य हैं ,कोई सौभाग्य शाली ही इनसे बच पाता  होगा | और वाइरस भी एक से एक खतरनाक ,जिनकी कोई दवा ही ईजाद नहीं हुई है -अपना जीवन चक्र पूरा करेंगे ही और खुद ही समाप्त होंगे | कुछ के लिए तो टीके ईजाद हो गये हैं पर अधिकतर से बचाव का तरीका तो सावधानी , शक्तिऔर सुरक्षा ही है ,आज कल हिन्दुस्थान की फिजां में ऐसा  ही एक  वाईरस  तिर रहा है | चुनावी वाईरस ! जो   पूरे  देश को  खतरनाक तरीके से प्रभाव में ले चुका है | ये वाईरस छिट -पुट में तो देश में रहता ही है हमेशा, पर   हर पांच वर्ष में विकराल रूप धारण कर लेता है  | ये चुनाव आयोग की एक सूचना से फैलता है और धीरे-धीरे सभी को अपनी चपेट में ले लेता है | इससे बचाव का कोई तरीका नहीं है | वैज्ञानिक अभी तक कोई टीका नहीं ईजाद कर पाए हैं | कितना ही बचियेआप इसकी चपेट में आयेंगे ही |
     आपको यदि लिखने का शौक है तो लेखनी खुद ब खुद रंग जायेगी  चुनावी माहौल में |  होली के त्यौहार की आहट से  फगुनाये हुए लोग , बुरा न मानने की परम्परा और चुनावी माहौल ,बौराने के लिए और क्या चाहिए | सो मैंने सोचा  होली की इस  बुरा न मानने   की  सदियों पुरानी सांस्कृतिक परम्परा की बहती धारा में मैं भी हाथ धो लू |  अथ नेता चर्चा कथा !  ॐ नमो शुद्धम |  ( "नमो "से जो भी अर्थ लगाना  है, लगायें  ;पाठकगण स्वतंत्र हैं  ) शुद्ध होलूं ,ये जो कथा  है इसमें लेखनी के अशुद्ध होने की सम्भावना रहती ही है | तो साहब चर्चा है आजकल के सबसे चर्चित चेहरों की -ये  -हर गली ,कूचे ,मुहल्ले ,गाँव ,कस्बे ,शहर ,में छाये है | धूर्त ,मक्कार ,लम्पट ,भ्रष्टाचारी ,गुंडे , वोट रूपी मछली पे आँख गडाए श्वेत वस्त्र धारी बगुला भगत ,पलटूराम ,हरी लाल सफ़ेद टोपीवाले ,गमछेवाले , फूलवाले ,हाथ वाले ,हाथी वाले ,साईकलवाले ,झाडू वाले और भी न जाने कितने ,तीर ,कुर्सी ,साबुन ,कैंची अनेकों रूप रंग के नेते, हाथ जोड़ के घूम -घूम के भोली- भाली जनता को समझाने निकले है | बाबूजी पांलागी ,अम्मा सर पे हाथ रखदो बस ,भैया इबके नौकरी पक्की ,लाडो इब जो मुझे जितावेगी तो खूब घूमियो सड़कों पे कोई डर ना रहेगा | भाभीजी अभी तो आपके वोटों का ही सहारा है ,देखो जीते तो बिजली -पानी -गैस -सब सस्ते | अपने बेटे को अच्छे स्कूल में पढ़नाजी | अम्मा -बापू का बड़े हस्पताल में इलाज फ्री होगा हमारी सरकार में ,और न जाने क्या- क्या प्रलोभन | झूठे ,बेईमान ,ढोंगी ,अहंकारी ,अराजक ,दम्भी ,देश को बेच- खाके डकार न लेने वाले सफेदपोश ---वाह इतनी उपमाएं तो कालिदास ने भी न दी होंगी मेघदूत में , वैसे एक शब्द ही काफी है, नेताजी !चले जा रहे है प्रचार के लिए | कमोबेश सभी का अहंकार और विश्वास  से दीप्त  चेहरा ,पीछे -पीछे चमचों की फ़ौज | सबके मन में एक ही विचार आज जो भी हो ज्यादा से ज्यादा मीडिया कवरेज लेना है | नाम हो या बदनाम , येन -केन -प्रकारेण सभी चैनलों में आज के दौरे को बहस का मुद्दा बनना ही चाहिए | नेताजी का चमचों को निर्देश -भाई जनता के बीच खड़े होकर जूता फेंको ,टमाटर फेंको , गालपर रैपट मरवाओ या होली का मौसम है स्याही से मुहं काला नीला करवाओ , पर आज के कार्यक्रम की चर्चा होनी ही चाहिए | कुछ तूफानी सोचो और करो |   जनता की याददाश्त बहुत कमजोर होती है | हम कुछ दिनों भी ख़बरों से बाहर हुए तो राम नाम सत  हो जाएगा | मन में दृढ निर्णय ,मैं ही मैं हूँ ,सच्चा  ईमानदार ,बाकी सब झूठ और ऐसा सोचते -सोचते  नेताजी चले जा रहे हैं चले जा रहे हैं ,तरह -तरह के प्रपंच ,कभी सजे हुए मंचों पे चढ़ रहे हैं ,कभी बस में ,कभी ट्रेन में कभी जहाज से निकल सीधे लोकल ट्रेन  में ,कभी नाव में ,कभी नुक्कड़ बहस ,कभी चाय पे चर्चा ,कभी टेम्पो में  सारे नियमों को तोड़ते हुए ,अहं का स्थाई भाव चेहरे पे ,पीछे पीछे  लगभग दौड़ते हुए कैमरा ,माइक ,और बैग लादे सबसे पहली एक बाईट लेने को आतुर मीडिया पर्सन (जिन्हें पहले पत्रकार कहा जाता था ,अब पेड मीडिया के नाम से पहचाने जाते हैं और अपने आकाओं के लिए काम करते हैं ) |   साथ में बेचारे  पुलिस और सुरक्षागार्ड भी ,भागते हुए इनके साथ कदमताल करते हुए नजर आते है ,अब वो आमजनता के लिए हैं  या इन खास लोगों के लिए ये तो उन्ही को पता होगा |
  अगर कोई प्रश्न मन में उठ रहा हो तो उसका समाधान करने की कोशिश होगी ,कथावाचक का अपनी कलम से संबोधन !या वाइरस का प्रभाव होने के कारण गर्वोक्ति |  मन ने प्रश्न उछाला - महाराज  !  आप तो कह रहे थे कि इस  वाइरस ने सभी को ग्रस लिया है पर हमपे तो कोई लक्षण इस बीमारी का है नहीं ?  कथा वाचक ने बड़े गर्व से इधर उधर देखा ,अपने आसपास की हवाको महसूस किया ,और समाधान - सारे दिन फेस -बुक पे राजनीती पढते-पढ़ते दिमाग का दही जम  जाता है | टी वी का स्विच ऑन करो तो नुक्कड़ बहस ,कौन बनेगा प्रधान-मंत्री ,बड़ा-मुद्दा ,बीच बहस में , पोलखोल और न जाने क्या क्या | आज एक ने स्टिंग किया | दूसरे ने पोल खोली | तीसरे ने  गाली दी | फिर पलटवार हुआ , कोई पप्पू ,कोई पलटू ,कोई फेंकू | और सबसे बड़ा लक्षण इस बीमारी का तीसरा मोर्चा जो कमोबेश गर्जी-फर्जी लोगों का जमावड़ा होता है | यही नहीं हर पांच वर्ष में बेचारे गांधीजी और नाथूराम को जीवित करने की कोशिश | अब तो पटेल भी लाइन पे आ लगे हैं | और मेरी कलम तू जो  राजनीती जानती ही नहीं है ,इस मुद्दे पे चर्चा कर रही है वो क्या ये साबित नहीं करता की सभी चपेट में आ चुके हैं | ये  छद्म परिवेशों और ढोंगों के अंदर रहके जनता को  बेवकूफ बनाने की प्रवृति या जनता को बेवकूफ ही समझना भी इस बीमारी का ही एक लक्षण है |पर एक बात जो सब राजनितिज्ञ भूल जाते है --जनता जितनी शीघ्र  मूर्ख बनती है ,उतनी ही शीघ्रता और चतुरता से अपनी मूर्खता के आवरण को  उतार भी फेंकती  है | उसे लफ्फाजी ,नौटंकी ,दार्शिनिक बातों में अब कोई रूचि नहीं है | ये विकसित और मजबूत होते लोकतंत्र की जनता है | यहाँ घर -घर अनुभवी बुजुर्ग हैं ,प्रौढ़ता पूर्ण जवानी है ,जोश, उमंग ,बुद्धि- विवेक युक्त युवाओं की फ़ौज है ,जो यदि एक बार बहक जाए तो शीघ्र ही चैतन्य भी हो जाती  है | वो बहकी भी देश को सुधारने के लिए ही थी और अबकी बार वोट देगी, तो भी  देश के लिए ही |
  अब देश का भविष्य तो लिखा ही जाना है |  तो हर कथा की तरह इस में भी अन्त में प्रार्थना --प्रभु जनता को सद्बुद्धि देना |  इस बार जाति ,सम्प्रदाय ,सेकुलर , सम्प्रदायिक ,प्रलोभन या और किसी भी  कच्चे लालच में जनता न फंसे  | बहुमत की सरकार आये | प्रभु राजनीतिग्यों को भी सद बुद्धि दे कि वो विकास के मुद्दे को प्रमुख मुद्दा बनाएं |  सबसे बड़ी  और अहं बात पार्टियों के बड़े -बूढ़े अबकी बार किसी भी योग्य व्यक्ति की टांग खींचने को अपना मकसद न बनाएं और देश को आगे ले जाने में सहायता करें | देश को विश्व गुरु बनाने की बात कहने वाले   पहले अपना हित साधने के लालच को छोड़ें   पार्टी को मजबूत करें  | इसबार किसी कठपुतली को सिहासन पे बिठाने की जुगत न भिड़ानी पड़े |  अबकी बार बहुमत की सरकार | मजबूत प्रधानमंत्री |  देश हित में सभी देश भक्त मिल जाएँ | यदि ऐसा न हुआ तो इस बीमारी के जो लक्षण अभी जनता में अभी ( dormant  )  सुप्त अवस्था में हैं  हैं वो पांच वर्षों तक नेताओं में dormant और जनता में एक्टिव हो जायेंगे |मैं जानती हूँ ये दिवा स्वप्न है पर सपने देखना भी बीमारी का ही एक लक्षण है ,मैं तो इतना ही देख रही हूँ पता नहीं किस -किस नेता ने तो अपने को प्रधानमंत्री की कुर्सी पे देखना भी शुरू करदिया है और दौड़ में बहनजियाँ ,दीदियाँ ,और आम्मायें भी शामिल है | और छुटभइये तो अपने आकाओं को देवी देवता भी बताने लगे है | ताकि सनद रहे |  अब कथावाचक के व्हाट्सआप में कई मैसेज आ चुके हैं , हो सकता है कोई जरुरी भी हो  | प्रभु कृपा बनी रहे | कथा ऐसी ही थी | होली का उत्सव है सो कुछ भी लिखने और करने पे माफ़ी होती है | ॐ तत्सीदति |   इति श्री चुनाव वाइरस कथा | ..........
 







Monday, 10 March 2014

                                 { जे बी कोई बात सै }
                                  ***************
जौ तुम हमें जिबायो चाहत अनबोले ह्वै रहिये |
कोई यदि खीज के स्त्री जाति से ऐसी बात कहे तो क्या वो मूर्ख नहीं होगा | कभी हम स्त्रियाँ भी चुप रह सकती हैं और यदि कोई ऐसी बात हो जो किसी को नहीं बतानी हो तो चुप रहना मुश्किल ही नहीं असम्भव होता है |ये तो जग जाहिर है कि महिलाओं के पेट में कोई बात नहीं पचती | वैसे पचती तो पुरुषों के पेट में भी नहीं है ,अब अपने नारद मुनि को ही लें इधर की उधर और चुगली करने में सिद्दहस्त | शायद इस चुगलखोरी की विधा के जन्मदाताओं में से  नारद मुनि भी एक रहे होंगे |  पुरुष किसी बात को समय और जरूरत के अनुसार उगलते हैं ,नारद जी की तरह - लाभ भी और फसाद भी दोनों हों, आम के आम गुठली के दाम | स्त्री ठहरी सरलमना ,वो कुछ भी गुप्त रखने में विशवास नहीं करती है ,भाई कुछ सुना  है तो सबही को मजा लेने दो न ,वैसे भी स्त्रियाँ समाज को साथ लेके ही चलती है वरना इतने  सारे रिश्ते नाते निबाहना क्या हंसी खेल है ?
  बात ! कानाफूसी कहिये या चुगलखोरी कहिये या बात को न पचा सकने की महज आदत , स्त्री को जैसे ही  पता चली कि समझो  ''कहीं चटकी कली  कोई मैं ये समझा बहार  आयी '' की तरह हवाओं में तिरने लगती है |  हर जगह पे एक अदद सहेली ऐसी होती हैं जिन्हें हम चलता फिरता खबरनवीस कहते हैं कैसे अपने पूरे  खेत की फसल ( territory) की वो खबर रखती  हैं ,एक -एक घर की खबर और फिर घूम -घूम के कानाफूसी ,चुगली | मुझे कभी समझ नहीं आता कैसे इतनी सारी गुप्त खबरें ये निकाल लाती हैं  जो एक गुप्तचर के  लिए भी संभव नहीं है और खूबसूरत विडंबना यह की दूसरी सखी को बताने से पहले ये  रहस्यमयी जुमला ( जो  तकिया कलम की तरह बोला जाता है, प्रोटोकाल की तरह चलता है )  ''किसी को मत बताना -बस मैं तुम्हें ही बता रही हूँ '' |
 मैं कई बार पूछ लेती हूँ --बहना जब तुम इसे नहीं पचा पा रही हो तो मुझे क्यूँ चखा रही हो ? और स्वादिष्ट हुई तुम्हारी रेसिपी तो मैं दूसरे को क्यूँ न चखाऊँ | मनुहार ! अरे; वो तो मुझे पता है कि तुम  कानाफूसी नहीं करती हो और दूसरे के फटे में पैर डालने की तुम्हारी आदत नहीं है |   ये भी कोई बात हुई  मैं इस स्त्री सुलभ गुण से वंचित हूँ तो सारा कचरा- कबाड़ा संजो के रखूं ! पर यकीन जानिये  यदि सही में आप ऐसे हैं जो सबकी सुनके शांत रहते हैं ,कानाफूसियों का गदर नहीं मचाते ,यदि आपमें हुनर   है कि सागर पी जाओ और लब सूखे रहें तो अपने अधिवास में आपको बहुत सारे मित्र मिल जायेंगे जो हर तबके और हर गुट के होंगे | बात इतनी सी है कि सबको अपना -अपना गुबार निकालने  को एक ऐसे व्यक्ति की दरकार है जिसमे नारद पना न हो ,जो काठ-कबाड़ सब पचा जाए और बरपिंग भी न हो | और स्त्री जाति में तो ऐसे नमूने की बहुत पूछ होती है | पर आश्चर्य की बात है ये भी तो कि कानाफूसियों वाली बहने ऐसी सहेली को भी ढूंढ ही लेती हैं |
  अब मैं इस लेख को लिखने का और इतनी कवायद का आशय भी स्पष्ट कर दूँ ---असल में स्त्री जाति अपने मन में ,दिल में या पेट में कोई बात नहीं पचा पाती  है तो इसमें उसका कोई दोष नहीं है | ये तो हमारे धर्मराज युधिष्ठर महाराज का कमाल है | महाभारत में एक प्रसंग है जब कर्ण वध के पश्चात श्री कृष्ण पांडवों को उसका श्राद्ध करने को कहते हैं और जलांजलि देने का आग्रह करते है तो पांडवों के प्रश्न करने पे कुंती ये तथ्य उजागर करती है की कर्ण उसका बड़ा पुत्र और पांडवों का  बड़ा भाई  है |  अग्रज वध के शोक दुःख और ग्लानि से युधिष्ठर प्रलाप करने लगते है वो अपने बड़े भाई को खोने का महान दुःख सहन नहीं कर पाते और अपनी माँ  की करनी की सजा सारी स्त्री जाति को देदेते हैं ----- वो कहते हैं ---
                पापे नासों माया श्रेष्ठो भ्राता ज्ञातिर्निपातित: |
                अतो मनसि यद गुहिय्म स्त्रीणांतन्न भविष्यति  || महाभारत ;स्त्री पर्व ;सप्तविंशोअध्याय ||२९ ||
  मुझ पापी ने ये रहस्य की मेरा भाई है कर्ण न जानने के कारण अपने बड़े भाई को मरवा दिया | आज से मैं शाप देता हूँ की स्त्री जाति अपने मन में कोई रहस्य न छुपा पाएगी |
और जी तब से लेकर आज तक स्त्री जाति इस शाप  के बोझ तले दबी हुई है |विडंबना ! वो युधिष्ठर जो कुंती के कहने पे ''जो लाये हो आपस में बाँट लो ''अपनी माँ को यह न कह पाया की माँ यह स्त्री है कोई वस्तु नहीं कि हम बाँट लें .या जो चौपड़ में अपने भाइयों को हार के द्रौपदी के चीर हरण को देखते रहे --किस मुहं से कुंती के बहाने सम्पूर्ण स्त्री जाति को शाप दे सकते हैं ? पर वो धर्मराज के पुत्र थे ,एक खानदानी ठसक भी होती है भाई ! 'समरथको नहीं दोष गुसाईं ' | तो बड़े बाप का बेटा शाप तो दे ही सकता है फिर शाप देना और शाप को ढोना तो हमारी सांस्कृतिक विरासत है |
 पर क्या कोई और शाप कलयुग तक टिक पाया है ? फिर ये ही क्यूँ ? मेरी बहनों चुगली ,कानाफूसी ,सरगोशी सब बंद | हम आज की नारियां हैं किसी पुरुष के शाप को ढोने को क्यूँ विवश होयें ?  तो हुआ फैसला   अब से एक कान से सुनेंगी और दूसरे से निकाल देंगी |मन ,दिल और पेट तक बातों को पहुँच ने ही न देंगी --मैं मानती हूँ की ये एक ऐसी विधा है जो आनंद दायक है ---
       '' ज्यूँ गूंगे मीठे फल को रस अंतर्गत ही भावै  |
     ''  परम स्वाद सब ही सु निरंतर अमित तोष उपजावै " ||
पर कितना ही गूंगे के गुड़ का स्वाद हो चुगली तो फिर चुगली ही है |  जे बी कोई बात सै ||   .......आभा ......
     





     

Saturday, 8 March 2014

                   { Women's day }
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8 मार्च ____बसंत का मौसम ; आम पे आयी बौर की तरह बौराया हुआ -फागुनी हवा की बासन्ती छुवन सा मादक -कोयल की कूक सा मधुर -दुल्हन सी सजी प्रकृति सा पावन और सुंदर ! शायद इस बासन्ती मौसम में ही विमेंस -डे की सार्थकता है इन्हीं भावों को संज्ञान में लेकर इसे ८ मार्च में रखा गया होगा |
पर क्या सही में नारी को किसी विशेष दिवस की दरकार है | अपनी पहचान और सार्थकता सिद्ध करने के लिए शायद नहीं बिलकुल नहीं | विश्व को यदि न भी देखें तो भारत में ही नारी जाति ने अपने उत्कर्ष का परचम हर जगह लहराया है |घर से लेकर आसमान तक ,हर जगह नारी ने अपनी जगह बनायी है और वो निरंतर संघर्ष शील है ,आगे बढ़ने को तत्पर | वो किसी विशेष दिन या तिथि का इंतजार नहीं करती है अपने संघर्ष को जारी रखने के लिए या सफलता का स्वाद चखने के लिए | पर हाँ नारी के उद्भव को प्रचारित और प्रसारित करने का ये समय एक अच्छा जरिया हो सकता है | बहुत पहले ८ मार्च को मैंने एक कविता -कविसम्मेलन में पढ़ी थी | आज उसे अपने आस -पास की दो स्त्रियों को समर्पित कर रही हूँ ---मेरी बिटिया जो मेरा गर्व है ---और मेरी मुहं बोली बहिन ( ननद ) मीनू --जो अभी ही देहरादून M.K.P.में पहली महिला अध्यक्ष चुनी गयी --छोटी उम्र में पति को खो के ,दो बेटियों को संस्कारवान और घर का गुरुर बनाना और जिस विद्यालय में शिक्षा ली वहां का अध्यक्ष पद लेना समाज सेवा और विद्वता के बल पे, मुझे तुम पे गर्व है ___
क्या समय चुना है ----- ८ मार्च !
Womens day --Womens day .
ऋतुराज बसंत ने दस्तक दी ,प्रकृति ने ली अंगडाई है
आमों की बौरों में देखो ,कोयल ने कूक मचाई है |
प्रकृति की इस नव मनुहार से-जब जगति सारी सरसाई है
तब स्त्री को बहकाने को-झूठा सम्मान दिलाने को -
ये मदमस्त ऋतू ही चुनी गयी ,Women's day --Women's day .
प्रकृति ही जब बौराई हो -नारी तो बौरा ही जायेगी
संवेदना में- प्रकृति है , नारी -सहज भाव और मधुरानन ,
प्रेम प्रीत की सरिता है नारी ,श्रृजनशील ओ आकुल मन
है सरल हृदय! पर प्रणय पूर्ण, इसको छलना क्या मुश्किल है ?
नारी अपने अंतर मन में ,इस प्रकृति की ही छाया है -
प्रतिकृति वसंत-ऋतू की है , अर फागुन की मादकता है |
जब प्रकृति ही बौराई हो छाया क्यूँ न बौराएगी ?
बहकाना क्या मुश्किल होगा ?सबला को अबला करना होगा |
८ मार्च नारी के नाम ,सम्मान और नारे बाजी !
हो रही कहीं कुछ मीटिंगें ,अर झड़ी लगी है नारों की
सजधज आधुनिकाएं कुछ ,जोर जोर से थीं कहतीं -
स्वतंत्रता हमें चाहिए ,हम चाहती है रहना स्वतंत्र |
घूमें -फिरें कहीं जाएँ ,कुछ पहनें कुछ भी खाएं ,
अपनी मर्जी की मालिक हैं हम पर हक़ बस अपना ही है |
क्या ? आजादी नारे बाजी है ,सड़कों पे धूम मचाना है -
उस पे फिर आगे बढने को आरक्षण का ढोल बजाना है ?
तुम पुरुषों से कम हो नारी ! ये विश्वास दिलवाने को तुमको ,
Women's day इक जरिया है ,आरक्षण एक नजरिया है |
क्या साबित करना चाहती हो ,सच आरक्षित होना चाहती हो |
मन से स्वतंत्र है जो नारी ,अपने में सक्षम वो होती है ,
चुपचाप कठिन परिश्रम से ,दूर चाँद तक हो आती है |
दो चार जगह मीटिंग करके ,अखबारमें नाम आ जाने से ,
शक्ति नहीं बन पाए यदि ,तो नारी व्यंजन बन जाती है |
है बात जरा कड़वी! पर बहना- व्यंजन होता;स्वतंत्र नहीं ,
जब जिसका जी आये उस पे; वो ही, उस को, चक्खा करता |
क्यूँ बहकावे में आ कर के, तुम सबला से अबला बन जाओ ,
तुम शक्ति स्वरूप हो नारी ,भगवती अम्बे दुर्गा हो |
प्रभु ने शक्ति संग तुमको कोमलता ओ सुन्दरता का वरदान दिया ,
तुममे ही जग समाहित है -तुम श्रद्धा विश्वास की मूरत हो |
दे जन्म पुरुष को तुमने ही ,पौरुष अपना सौंप दिया उसको ,
निज को समझो निज को जानो ,अपने अस्तित्व को पहचानो |
आगे बढ़ ना पाए नारी ,अबला सबला में फंस जाए -
Women's day का रच प्रपंच नारी को बहकाया जाता है |
निज को लाचार दिखाने का ,अबला ओ बेबस समझने का
ये अभियान छोड़ना ही होगा ,अभियान छोड़ना ही होगा |
Women's day है सार्थक जो कन्या भ्रूण न मारा जाए ,
बेटी बहुओं की इज्जत घर बाहर ना लूटी जाए -सिक्कों में न तोली जाए |
हो सामान अधिकार सभी ,आरक्षण की नारी को दरकार न हो
अबला नहीं तुम सबला होWomen's day इक छलना है |
और अंत में --
रौद्र वेष में आये नारी तो उसको काली समझो
सौम्य वेष में आये नारी तो उसको कल्याणी समझो
नारी तेरे रूप अनेक ,समझ न पाए ऋषि मुनि जिसको -
मत उसको अबला समझो ........................................आभा .......Women's day तो रोज ही होता है सुबह की चाय की से शुरू होती है उसकी दिनचर्या और हर पल घर के लिए ही समर्पित होती है | कहते हैं न बिन घरनी घर भूत का डेरा ,जिसने अपनी पत्नी को खो दिया है उससे पूछिये क्या होता है ,सो चालिये आज Women's day को एक दिन ही सही अपनी पत्नी के मन को पढ़ के देखिये ....देखिये ये रोशनी के साथ क्यूँ धुंआ उठा चिराग से ...|
Women's day तो रोज ही होता है सुबह की चाय की से शुरू होती है उसकी दिनचर्या और हर पल घर के लिए ही समर्पित होती है | कहते हैं न बिन घरनी घर भूत का डेरा ,जिसने अपनी पत्नी को खो दिया है उससे पूछिये क्या होता है ,सो चालिये आज Women's day को एक दिन ही सही अपनी पत्नी के मन को पढ़ के देखिये ....देखिये ये रोशनी के साथ क्यूँ धुंआ उठा चिराग से ...

Wednesday, 5 March 2014

{बैठे ठाले का फितूर }
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कुहासा -घना अँधेरा - शून्यता - मन और मस्तिष्क में संघर्ष ! मन शांत रहना चाहता है पर मस्तिष्क का मानना है अँधेरा शांति नहीं है यहाँ तो अंदर कहीं उथल -पुथल है उससे उबरना होगा शून्य में जाने की आजादी है पर !पर अन्धकार में नहीं | दिमाग को आराम करने का फरमान जारी कर दिया है पर अतीत के झरोखों से यादों के  जुगनू अमावस में सितारों की मानिंद टिम-टिम ,झिलमिल कर रेशमी अँधेरे को पुखराजी हनक देते हैं और अंधियारे में सुनहरी यादों की नदी बहने लगती है |जीवन है अगर जहर तो पीना ही पड़ेगा | मन निष्क्रिय रहने पे अड़ा है और दिमाग कहता है भाई पेट तो भर लिया मुझे भी तो भूख लगती है --मैं भूखा हूँ ! भोजन लाओ --चलो कोई हल्का सा भोजन किया जाए और गुन-गुन करने लगा यादों में बसा एक लोकगीत ---
 अंगना में कुइयां राजा डूब के मरूंगी !
 ससुरा बोल बोलेंगे तो कछु न कहूँगी ,
सासू बोल बोले घुंघटा खोल के लडूंगी ||
बचपन में खूब मस्त होके अनेकों बार डांस किया इस गाने पे पर आज याद आया तो सोचने लगी __________
तब होते थे न हर आंगन में कुऐं |  क्या प्रबन्धन था पानी  का ,जितना चाहिये उतना लो ,ताजा -ताजा मीठा पानी ,न आर ओ का झंझट न बिसलरी का रोना | आंगन  के कुऐं में ही नहाना धोना सुबह मर्दों का उनके जाने पे औरतों का सब समय बद्ध चरण बद्ध काम | पर शायद किसी सास -ननदों की मारी  को जब कुछ न सुझा होगा तो उसने ससुराल वालों को डराने को और पति का प्यार पाने को ही ने ही ये गाना गाया होगा |
ननदोई आंगन में बरसे कुछ न कहूंगी
ननद बोल बोले चूनर फाड़ के लडूंगी ||
क्या संस्कार थे लड़ाई में भी ससुर और ननदोई का मान रखना | कुंए में छलांग लगाने का डर दिखा कर सबको सूत में साधना और अपना काम निकलना क्या इनोवेटिव आइडिया था |
     आंगन में कुआँ होने से तकरार होने पे सही में ,छलांग मारने का खतरा तो बना ही रहता होगा  |भय तो बना ही रहता होगा किसी के भी रूठ के कुऐं में समा जाने का  शायद ये आंगन और कुऐं का भय ही परिवारों को एक डोर में बांधे रखता था  | तुलसी बाबा ने भी कहा है ---
   भय बिन होय न प्रीति गुसाईं ......
    इसी लिए मनमुटाव को बढ़ने नहीं दिया जाता होगा और तकरार नहीं तो प्यार और मनुहार | क्या साजिश थी कुओं की और  प्यार की ! कुआँ कहे मैं हूँ तो ही प्यार है , प्यार कहे मैं हूँ तो ही परिवार है और आंगन कहे अरे अहमकों मैं हूँ तभी तक तुम दोनों हो आंगन नहीं तो कुआँ नहीं -,कुआँ नहीं तो भय नहीं- भय नहीं तो प्यार  नहीं और प्यार नहीं तो परिवार नहीं | संयुक्त परिवार के लिए एक आंगन और एक कुआँ जरुरी है |
धीरे- धीरे  जब कलयुग ने अपने पैर फैलाने शुरू किये तो उसे अहसास हुआ आदमी को आदमी से अलग करना है अब विलेज नहीं ग्लोबल विलेज बनाना है तो प्यार को ख़त्म करो, मनुष्य को अपने लिए जीना सिखाओ | उस के लिए सबसे पहले संयुक्त परिवार से एकल परिवार (नुक्लियर फैमिलीज्यादा आधुनिक लगता है )
पे आओ और जब तक ये आंगन हैं ये कुऐं हैं प्यार कैसे खत्म होगा तो पहला हमला कुऐं पर | प्यार को बनाये रखने के लिए ये ही ब्लेकमेलिंग का जरिया हैं | घरों के आंगन से कुऐं ऐसे गायब हुए जैसे गधे के सर से सींग | फिर उनके बड़े भाई  तालाबों को नजर लगी कलयुग की, ये भी तो गाँव को  भय की और प्यार की डोर में बांधते है तो लैंड माफिया को कहा गया इन्हें पाटने को | अब पानी पाइप से आयेगा तो झगड़े होंगे प्यार और परिवार ख़त्म और साजिशें काम कर गयीं | अब जैसे चाहे जियो किसी को गरियाओ ,लतियाओ क्या फर्क पड़ता है कोई कुआँ थोड़े ही है जो  कोई छलांग मार देगा और जान  दे देगा |वैसे अब जान देने के बहुत से तरीके हैं पर कुऐं से अच्छा कोई कहाँ ?
बाकि बचा एक आंगन , दो में से दो गया सिफर ,वो बेचारा भी कब तक टिकता ,अब तो बड़े शहरों में एक पूरी पीढ़ी ऐसी गुजर गयी है जिसने  आंगन को केवल फिल्मों में ही देखा है और गानों में ही सुना है ....
 मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम  है ?पर साजिश रची गयी बेचारे ,आंगन के खिलाफ और गाना ही उलट गया मेरे छोटे से घर में आंगन का क्या काम है | छोटे शहरों में मिल जाते है भूले बिसरे कहीं आंगन या गाँव में बड़े रसूखदारों के यहाँ घेर पर उनमे कुआं नहीं है |
आंगन की यादें भी कितनी सुहानी हैं | बचपन से अब तक कितने आंगन कितनी यादें |कभी अमरूद, आडू का पेड़ आंगन में ,तो कभी आम लीची का |वो गोबर मिट्टी से चौक पुरना और पानी के छींटे डाल बाबले के झाड़ू से साफ़ करना ,माड़ने मांडना ऐपन बनाना ,रंगोली बनाना | गेहूं धो के सुखाने का हड़कम्प और गिलहरियों , चिड़ियों को चुगते देखने का आनंद |आचार के मर्तबान तो पूरे आंगन में धूप के साथ -साथ चलते थे | वो मूढे सरकाते हुए धूप के साथ बालों को सुखाते हुए बिनाई- सिलाई करना |कभी आँवले-नीम्बू काले नमक में रचे हुए सूख रहे है तो कभी उबटन के लिए संतरों के छिलके | रजाई- कम्बल रोज ही धूप देखते थे दिन में उनपे धूप में आराम करो शाम को गर्मागर्म भीतर ,सारा दिन कैसे गुजर गया पता ही न चला धूप सेकनेसे न कोई जुकाम का वाईरस  न सीलन | मुफ्त की विटामिन डी और कैल्शियम |  गर्मियों की शामें तो आंगन में और भी मस्ती की हो जाती थीं जब अमलतास की डालियाँ पीले फूलों के कुंडल और झुमके पहन के इठलाती  ,मोगरे ,बेला ,चमेली की कलियाँ चटखती और संध्या का आगाज देख रातकी रानी के साथ मिलके खुशबू की साजिशें रची जातीं ताकि गर्मी भूल पूरा परिवार खुशबू से सराबोर रहे | जलती तपती दोपहरी में जब आंगन के गुलमोहर के सुर्ख फूल हवा चलने से सनसनाते तो यूँ लगता मानो दुल्हन की रेशमी सुर्ख चुनर लहरा रही है और नीला अम्बर गा उठता ....हुजूर  इस कदर भी न इतरा के चलिए खुले आम आंचल न लहरा के चलिए .....प्रकृति की ये सरगोशियाँ सारा ताप हर लेती थीं | तो साहब अब तो आंगन हैं नहीं महानगरों में | ये अइयाशियाँ भी आंगन के साथ ही खत्म | कहने को अब ज्यादा अमीरी है मध्यम और उच्चमध्यम वर्ग में पर आंगन की अइयाशियाँ तो नहीं हैं तो प्यार -मुहब्बत - मनुहार भी नहीं है ,सांझा कुछ नहीं है तो स्वार्थ भी बढ़ ही रहा है ,डिप्रेशन है ,विटामिन डी की कमी के रोग हैं और न जाने क्या क्या है | पर अब न आंगन हैं न होंगे | हम महानगर वालों को बालकोनी से ही संतोष करना पड़ेगा | अब सौतन कभी भी न गाएगी ....मैं तुलसी तेरे आंगन की ...अब तो वो बालकोनी में भी न बैठेगी सीधे घर में ही घुस आएगी |और... अंगना में बाबा दुआरे पे माँ ,कैसे आउं गोरी तुहारे घर मा ...गाने का सुख भी न होगा बच्चू जब अंगना ही नहीं है तो घर में कैसे घुसोगे --जाओ -जाओ काफी शाप में ही मिलो अब ज्यादा चोंचलों की जगह ही नहीं है |
 जो बीत गया सो बीत गया  | परिवर्तन प्रकृति का नियम है | पर कुछ यादें ऐसी होती हैं जो जेहन में छप जाती हैं और जब मन निढाल हो तो दिमाग को बहलाने के काम आती हैं  | हल्का दिमागी भोजन ताकि सनद रहे | ..........आभा .........







Monday, 3 March 2014

घर में ,विद्यालय में प्रत्येक बच्चे को बचपन से सिखाया जाता है कि झूठ नहीं बोलना चाहिए और साथ ही माता पिता ,शिक्षक घर के बड़े छोटी -छोटी बातों पे अनजाने में ही झूठ बोलना भी सिखाते हैं जैसे -शिक्षक बच्चों को निरीक्षण होने पे ऐसा मत कहना, वैसा मत कहना या बच्चे की कुछ वस्तु खो जाने पे घर में ना बताना वरना स्कूल की बदनामी होगी | ऐसे ही घर में ये माँ को मत बताना ,ये पिता को मत बताना ,लैंड लाइन पे किसी का फ़ोन आने पे मना करदो घर में नहीं हैं या नहा रहे हैं या मम्मी खाना बना रही है ,या फिर छुट्टी के लिए बहाने -- | ये सब बातें अनजाने में होती हैं और कब व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाती हैं पता भी नहीं चलता | अब प्रश्न ये उठता है की क्या बिना झूठ के जीवन यापन संभव है ? और यदि नहीं तो - इन छोटी -छोटी बातों को नजरअंदाज ही कर दिया जाए | हम को ये भी मालूम है कि बूंद -बूंद सों घट भरे --तो क्या छोटे -छोटे झूठ की आदत बड़े के लिए मार्ग प्रशस्त नहीं करती है |इन्सान छोटे -छोटे झूठ क्यूँ बोलता है ? इसके सबके अपने तर्क हो सकते हैं | मेरे विचार में अच्छा दिखने की , किसी झंझट में न पड़ने की ईच्छा ,आरामतलबी या कुछ हद तक आलस्य और लापरवाह नजरिया कारण हो सकता है और भी कारण हैं | साधारण से दिखने वाले और किसी का नुकसान नही हो रहा है इस विचार को पालते हुए छोटे -छोटे झूठों से कब हम किसी का बड़ा नुकसान कर देते है साथ ही हम कब अपनी संतति को अपसंस्कृत कर देते है पता भी नहीं चलता | जब यही सब आचरण नयी पीढ़ी हमारे सामने दुहराती है तो हम नए ज़माने की हवा को दोष देते हैं | सुधार बड़ों को ही करना पड़ेगा अपने में सजग और चेतन रह के अभी देर नहीं हुई है |और शायद सुधार के लिए कभी भी देर नहीं होती है ,हर वक्त माकूल है |...............आभा 

Saturday, 1 March 2014

            {  श्रधान्जली अजय }
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   आया है मुझे फिर याद वो जालिम
   गुजरा     जमाना     बचपन     का
हाथों में तुम्हारा हाथ लिए
पीरुल से भरे उस जंगल में
चीड़ के लम्बे पेड़ों  तले
दो कदम पहाड़ों पे चढ़ना
औ चार कदम रपट जाना
वो हाथ बढ़ा कर खींच लिया
औ दिया सहारा था मुझ को |
 चल रहा  पवन था  सनन -सनन
 मुदित  बहुत था !  देख हमें
अनगिनत बार रपट चढ़ के
पेड़ों का लिए हुए संबल
 पहुँच शिखर पे जाते जब
तो बैठ वहीँ साँसे गिनते औ -
घाटी में नीचे ताका करते -
दुनियाँ में बस हमीं खुश हैं -
ये भाव घुमड़ते थे मन में |
छेंती को, रंगते- रंगते -
रंग  कितने जीवन में आये
वो रंग गये हैं धुंधला अब
उड़ चले  समय बन के तुम भी  |
सिक्के के दो पहलू सी
अब जीवन मंच पे रहती हूँ
इक पहलू में सारे करतब
 इकमें यादों का सागर है
यादों के रंग न धुंधले हों
इन यादों को रंगती रहती हूँ |
कितने जीवन कितनी यादें
क्या सब सपनों में आ सकते हैं ?
मेरी अनंत की यात्रा को
साकार बना ये सकते है!
वो मेरी स्वर्णिम पालकी
बस सजने ही वाली है
फिर अनंत की यात्रा है
फिर  मिलने की तैयारी है |
यादें सुख-दुःख  की संघर्षों की
अपनों की परिवेशों की
सब साथ लिए ही आऊंगी
फिर शिखरों पर जो चढना है |
यादों के रंग न फीके हों
हर वक्त मैं चेतन रहती हूँ
रंगीन मेरी इन यादों संग
जीने की कोशिश करती हूँ -जीने की कोशिश करती हूँ ............आभा ........











                   {  प्रभुता पाहि काहू मद नाही }
महाभारत में दो सहेलियों की कलह की एक बानगी ________
एक दूसरे के वस्त्र पहनने की छोटी सी घटना और दो सहेलियां दुश्मन बन गयीं
 कस्माद गृहणसि में वस्त्रं शिष्या भूत्वा ममासुरी |
समुदाचारहीनाया न ते साधु भविष्यति ||
अरे दानव की पुत्री तू आचार शून्य ,मेरे वस्त्र पहनने के लायक नहीं है | देवयानी  (आचार्य  शुक्राचार्य की पुत्री, )ब्राह्मण और गुरु पुत्री होने की श्रेष्ठता के मद में   , शर्मिष्ठा( दैत्य-राज वृषपर्व की पुत्री )को अपने वस्त्र लेते हुए देख के बोली | अब शर्मिष्ठा कहाँ चुप रहने वाली थी वो भी तुर्की ब तुर्की बोली  गुरु हो ,ब्राह्मण हो तुम्हारे पिता का सम्मान  देव -दैत्य -और मनुष्य सभी करते हैं पर रहते तो मेरे पिता के दरबार में ही हैं  -----
       आसीनं च शयानं च  पिता ते पितरं मम |
        स्तौति वन्दीवचाभीक्षणम नीचै: स्थित्वा विनीतवत ||
अरी मेरे पिता बैठे हों या सो रहे हों ,तेरा पिता विनीत मुद्रा में सदा खड़ा रहता है |-----
 याचतस्त्वंही दुहिता सतुवतःप्रतिगृह्णत: |
.................................................................सुताहं स्तूयमानस्य ददतोअप्रतिगृह्णत: ||
तू भिखमंगे की बेटी है ,तेरा बाप स्तुति करता है और दान लेता है | मैं उनकी बेटी हूँ जिनकी स्तुति की जाती है और जो दान देते हैं | ---------------ये कलह कथा को पढने से  सहज ही अनुमान  हो जाता है की समाज आदिकाल से ही ऐसा ही है ,मनुष्य की प्रवृतियाँ ,श्रेष्ठ विशिष्ठ या अति विशिष्ठ होने का दम्भ माननीयों में ही नहीं उनकी संतानों में भी हमेशा मिलता है | इसे कलयुग की देन मानना कलयुग के साथ अन्याय होगा |
   बस ऐसे ही बैठे बिठाये आजकल जो एक दूसरे पे विशेषण उछाल रहे हैं लोग उस पे ये घटना याद आ गई|पद का गुरुर और पदच्युत होने की आशंका जो न करवाये या जो न कहलवाए वही कम |ऐसे में भाषाकी लगाम कौन खींचेगा |