घर में ,विद्यालय में प्रत्येक बच्चे को बचपन से सिखाया जाता है कि झूठ नहीं बोलना चाहिए और साथ ही माता पिता ,शिक्षक घर के बड़े छोटी -छोटी बातों पे अनजाने में ही झूठ बोलना भी सिखाते हैं जैसे -शिक्षक बच्चों को निरीक्षण होने पे ऐसा मत कहना, वैसा मत कहना या बच्चे की कुछ वस्तु खो जाने पे घर में ना बताना वरना स्कूल की बदनामी होगी | ऐसे ही घर में ये माँ को मत बताना ,ये पिता को मत बताना ,लैंड लाइन पे किसी का फ़ोन आने पे मना करदो घर में नहीं हैं या नहा रहे हैं या मम्मी खाना बना रही है ,या फिर छुट्टी के लिए बहाने -- | ये सब बातें अनजाने में होती हैं और कब व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाती हैं पता भी नहीं चलता | अब प्रश्न ये उठता है की क्या बिना झूठ के जीवन यापन संभव है ? और यदि नहीं तो - इन छोटी -छोटी बातों को नजरअंदाज ही कर दिया जाए | हम को ये भी मालूम है कि बूंद -बूंद सों घट भरे --तो क्या छोटे -छोटे झूठ की आदत बड़े के लिए मार्ग प्रशस्त नहीं करती है |इन्सान छोटे -छोटे झूठ क्यूँ बोलता है ? इसके सबके अपने तर्क हो सकते हैं | मेरे विचार में अच्छा दिखने की , किसी झंझट में न पड़ने की ईच्छा ,आरामतलबी या कुछ हद तक आलस्य और लापरवाह नजरिया कारण हो सकता है और भी कारण हैं | साधारण से दिखने वाले और किसी का नुकसान नही हो रहा है इस विचार को पालते हुए छोटे -छोटे झूठों से कब हम किसी का बड़ा नुकसान कर देते है साथ ही हम कब अपनी संतति को अपसंस्कृत कर देते है पता भी नहीं चलता | जब यही सब आचरण नयी पीढ़ी हमारे सामने दुहराती है तो हम नए ज़माने की हवा को दोष देते हैं | सुधार बड़ों को ही करना पड़ेगा अपने में सजग और चेतन रह के अभी देर नहीं हुई है |और शायद सुधार के लिए कभी भी देर नहीं होती है ,हर वक्त माकूल है |...............आभा
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