Thursday, 27 March 2014

 मेरे बच्चों  और अनुजों  को समर्पित !जो कर्म  करो और फल की इच्छा न करो को ही गीता का उपदेश मानते हैं -----
 कर्मण्येवाधिकारस्ते  मा  फलेषु  कदाचन |
   मा  कर्मफलहेतुर्भुर्मा  ते  संन्गोSस्त्वकर्मणि ||४७ || (अध्याय २                                                                           श्रीमदभगवद्गीता )
तेरा कर्म पे तो अधिकार है फल पे नहीं ,अत: तू फल की इच्छा करके कर्मफल का हेतु भी मत बन | अकर्मणी -कर्म ना करने में भी -संग: माँ अस्तु  -तेरी आसक्ति न हो -अर्थात  यदि फल नहीं तो कर्म  करने की क्या आवश्यकता ऐसी सोच भी न बने ||
 श्री गीता जी के इस श्लोक का प्रत्येक व्यक्ति अपने अनुसार अर्थ कर लेता है | मेरा अनुभव है कि अधिकांशत: इस श्लोक का अर्थ कर्म  करने और उसके फल तक ही लिया जाता है जबकि इसका तो शाब्दिक अर्थ भी वह नहीं है | फल की इच्छा न कर ये तो भगवान कह ही नहीं रहे हैं |और वैसे भी सांसारिक-सामाजिक प्राणी होने पे फल की स्पष्टता और कार्य-पूर्णता पे उसके प्राप्त होने की सम्भावना और कामना ,इसके बिना तो कोई भी कर्म प्रारम्भ ही नहीं हो सकता है | (incentive)प्रेरणा के बिना कोई भी कर्म अराजक ही होगा |  वो तो बच्चों का खेल हो जाएगा जो पार्क में जा के  हंस-खेलके लड़ झगड़ के वापस आ जाते हैं |यदि ध्यान से देखें तो खेलने कूदने की इस निरुद्द्येश्य सी प्रक्रिया में भी  उनका शारीरिक और  मानसिक विकास निरंतर हो रहा है साथ ही सामाजिकता और परस्पर मेलजोल की महत्ता को भी वे सीख रहे हैं |  तो उद्द्येश्य विहीन कर्म भी किसी न किसी को कुछ तो देता ही है |
 गीता का आंशिक व् सीमित ज्ञान ही -बिना फल की इच्छा के कोई कर्म क्यूँ करें ,हम इतने महान नहीं होसकते कि फल को न देखें या फल न हो तो कर्म का क्या फायदा  -जैसी भ्रांतियां पैदा करता है | प्रभु कहाँ कह रहे हैं कि फल की इच्छा न करो -वो तो कह रहे हैं कि - "तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय: ||' अर्थात ये जीवन एक युद्ध का मैदान ही है , अत: संग्राम में  तो तू उतर ही चुका है | दृढ़ता संकल्प और समर्पण के भाव से ,निजी स्वार्थ को त्यागके लोक कल्याण के लिए अपने को झोंक दे इस युद्ध भूमि में |फल तो अवश्यम्भावी है मिलेगा ही ,''हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् |'' | यहाँ तो पूर्ण समर्पण से कर्म करने पे कान्हा ! परलोक सुधरने का लालच भी दे रहे है | एक तरह से कृष्ण जीत के लिए ही उकसा रहे है क्यूँ कि मरना तो कोई भी नहीं  चाहता है , यदि पूरी कोशिश के बाद भी इच्छित फल न मिले तो भी कोई निराशा नहीं दूसरा लोक तो सिद्ध हो ही जाएगा | ऐसा प्रतीत होता है जैसे  प्रभू समझा रहे है कि मनुष्य को किसी भी अवस्था में कर्तव्य  का त्याग  नहीं करना चाहिये ,प्रत्युत उत्साह , लगन और तत्परतापूर्वक  कर्तव्य का पालन ही मनुष्यता है | पशु पक्षी भी तत्परता से अपना कर्म कर रहे है पर भोग योनि में होने के कारण उनके कर्तव्य निश्चित हैं जबकि मनुष्य कुछ नया करने को स्वतंत्र है |  जब प्रभु दूसरे जन्म या दूसरे लोक को सुधारने का भी लालच दे रहे हैं तो इस जन्म में फलकी इच्छा न कर ये कैसे कह सकते हैं ये तो मात्र छलना ही हुई -जो भी ये कहे कि मैं फल की इच्छा से कर्म  नहीं करता हूँ वो एक दिखावा ही है |निरर्थक और निरावश्यक कर्म तो अराजकता ही होगा | हाँ कृष्णा कहते हैं कर्म करने से पूर्व एक नक्शा अपने मन में बना कैसे कर्तव्य का पालन करना है ,तू कितनी दूर तक जाना चाहता है ,कितनी दृढ़ता है तेरे भीतर ,निजी स्वार्थ को पीछे रखके लोक कल्याण के लिए तेरा हर कर्म हो ,जीत हार सब सोच ले दूर दृष्टि और मजबूत ईमानदार इरादा  फिर निश्चय कर के झोंक दे अपने को कर्म में और कर्तव्यों का पालन करने में | अब फल से ध्यान हटा ले ,मैं दूंगा तुझे फल तेरे पुरुषार्थ , पूर्वजन्मों के कर्मों और प्रारब्ध के अनुसार |यदि तू कर्म करते हुए फल पे ही ध्यान रखेगा तो तेरे मन में द्वन्द बना रहेगा जो कर्तव्य निबाहने में बाधक भी हो सकता है ,तू समय समय पे विचलित भी हो सकता है ,आशातीत माहौल न देख के तू कर्तव्य पथ से भटक भी सकता है और निराश होके हार भी मान सकता है |यदि कर्म फल की आशा ,स्पृहा और आसक्ति को ही ध्येय बना लिया तो मन केवल फल में ही अटक जाता है और फिर येन-केन-प्रकारेण इच्छित फल प्राप्त करने के लिये -चाटुकारिता ,लोभ ,मोह लालच ,मक्कारी झूठ ,फरेब ,धोखा जैसे गुण मनुष्य में सहज ही आ जाते हैं जो व्यक्ति के लिए ही नहीं समष्टि के लिए भी घातक हैं | सो प्रभु कह रहे हैं  तू लाभ हानि सुख दुःख को मेरे हवाले कर और कर्तव्य पथ पे डट जा ________           सुखे दु:खे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ |
                            ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमावाप्स्यसी  ||
जैसे  खेल कूद के पढके   बच्चा घर आता है ,भूख से बेहाल होता है तो माता पिता के संयुक्त प्रयासों से उसके लिए यथायोग्य भोजन तैयार होता है ,अब किस को क्या मिलता है ये उसके प्रारब्ध पे निर्भर करता है | नियति तो साथ ही चलती है पर मनुष्य कुछ नया सोच के  अपने पुरुषार्थ के बल पे कुछ नया करने की कूवत तो रखता ही है  प्रत्यक्षं किम प्रमाणम -.यज्ञं में जितनी समिधा उतनी ही अग्नि | अपनी नियति के साथ ही कर्मों का फल और दंड सब मिलेगा सो भगवन कह रहे हैं !  अपने कर्मों को कल्याणकारी बना और डट जा मैदान में ,तिनका भर भी संदेह अपनी क्षमता पे मत करना और किसी भी परिस्थिति में निराश न होना | जब तेरे माता पिता तेरे लिए इतने परेशान रहते है और तुझे सबकुछ देने की कोशिश करते हैं तो मैं तो जगत का पिता हूँ ,सब मुझ पर छोड़ दे | कर्मों का फल तुझे अवश्य ही मिलेगा ,हाँ! तू कर्मफल के विषय में सोच के उसका हेतु मत बन वो भी तेरे पुण्यों को क्षीण ही करेगा ,तुझे तो पता ही नहीं है मैं तुझे क्या देना चाहता हूँ | तू कुछ मांग रहा है और मैं उससे भी अधिक देना चाहता हूँ पर तेरी मांग मुझे रोक देगी -सो फल मुझ पे छोड़ |  यही समझाना चाह रहे हैं प्रभु इस श्लोक में कि ' मा फलेषुकदाचन '  फल पे अधिकार मत मान ,फल तो निश्चित ही है पर भविष्य के गर्भ में है , अन्धकार से प्रकाश में जाने पे किसके हिस्से कितना  आये और कौन कहाँ तक पहुंचे ये देश काल परिस्थिति पुरुषार्थ और कुछ हद तक प्रारब्ध पे निर्भर करता है | तो जब हमारे हिस्से कर्तव्य निर्वाह ही है ,फल को  पाने की ईमानदार चेष्टा ही है तो क्यूँ न हम कर्मों पे ही ध्यान दें |" हानि लाभ जीवन मरण यश अपयश विधि हाथ ,या गुरु वशिष्ठ से पंडित ग्यानी सोध के लगन धरी करम गति टारे नाहि टरी "ये हमें अकर्मण्य बनाने के लिए नहीं लिखे गये हैं | ये सूक्त वाक्य हमें प्रेरित करते है शुभकर्मों की ओर | हम कुंडली ,लगन ,मुहूर्त ,ग्रह,नक्षत्र के पाखंड में न फसें और जीवन संग्राम में अपने कर्तव्य को निभाते हुए '' मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोअस्त्वकर्मणि ||  न होवें ,वरन कर्तव्य करने को ही अपना अधिकार मानें ,फल तो मिलेगा ही बस उसे प्रभु पे छोड़ दें यही हमारे बस में है | अंग्रेजी में भी कहते हैं "Hope for the best but prepare for the worst " .
बहुत से लोग दूसरे जन्म में क्या होगा ये किसने देखा है सो इसी जन्म में सारे भोग भोगने के लिए प्रयत्न रत रहते हैं | अब ये दूसरे जन्म की और पाप पुण्य की अवधारणा भी बहुत जटिल है | पर कुछ तो है जो सदियों से है | यदि प्रकृति को ईश्वरीय शक्ति मान के उसकी पूजा का विधान  , अमुक वृक्ष को काटने से ये पाप होता है और वृक्षारोपण से ये पुण्य होता है , हर नदी की एक अपनी कहानी अपनी पवित्रता  ,पर्वतों की परिक्रमा और संरक्षण और उससे मिलने वाला पुण्य ,अमुक जीव शुभ है अमुक अशुभ है ,औषधि युक्त वनस्पति को तोड़ने का विधान  , ये सब न किया गया होता तो मनुष्य जैसे स्वार्थी जीव ने तो अब तक प्रकृति को नष्ट ही कर दिया होता ,और ये डर भारत में ही नहीं हर देश की संस्कृति और संस्कारों में परिलक्षित होते हैं | मानव स्वाभाव की भीरुता और स्वार्थपरता की वृत्तियों और मनोविज्ञान को सूक्ष्मता से  पहचान के ही पाप- पुण्य ,डर और इहलोक- परलोक की रचना की गयी होगी |  जब हम अपना सौ प्रतिशत देके कोई कर्म करते हैं ,निष्ठा से कर्तव्य निभाते है तब भी मनोवांछित नहीं मिलता है तो प्रारब्ध को मानना ही पड़ता है | यही प्रारब्ध की संकल्पना हमें  कर्म में प्रयुक्त होने ,और अच्छा करने ,व्  परलोक सिद्ध करने की प्रेरणा देती है |
प्रभु कह रहे हैं -अपने कर्मों को कल्याणकारी बना ,उठ अपनी पूरी शक्ति से इस जीवन संग्राम को जीतने  और अपनी नियति को सुधारने के लिए कार्य कर , फल तुझे मैं दूंगा फिर जो भी मिले उससे तेरा कल्याण ही होगा ,वही तेरे लिए उपयुक्त होगा -कम या ज्यादा |
  अर्जुन ने भगवान् का शिष्य बनना स्वीकार कर लिया और अपने को पूर्ण रूप से समर्पित कर दिया
कार्पणयदोषोपहत स्वभाव: पृच्छामि त्वां  धर्मसम्मूढ़चेता: |
यच्छ्रेय:स्यानिश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम ||
            तब भगवान् ने उसकी शंकाओं का समाधान किया ,गीता का ज्ञान दिया ,गीता को हम जिस रूप में देखें वो वैसा ही अर्थ देती है | उपर्युक्त श्लोक में अर्जुन पहले धर्म के विषय में पूछते हैं ,दूसरी बार में अपने कल्याण की कामना करते हैं ,तीसरी बार में शिष्य बन जाते है और चौथी बार में शरणागत हो जाते है | अब शरणागत का उद्धार तो प्रभु करते ही हैं पर भगवान् की  सहृदयता और गुरुता है कि वो अर्जुन को उपदेश देने के ,अपना विराट रूप दिखाने के और उसकी सभी शंकाओं का समाधान करने के बाद भी -उसे क्या करना है ? कौन सा मार्ग अपनाना है ? ये उसी पे छोड़ देते है ___
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्यागुह्यतरं  मया |
विमृशयैत द्षेशेण यथेच्छसि तथा कुरू ||  यह गुह्य से भी गुह्य शरणागती का ज्ञान मैंने तुझे कह दिया | अब तू इस पर अच्छी तरह से विचार करके जैसा चाहता है वैसा कर | यहाँ भगवान ने अर्जुन को निराकार से साकार में खींच लिया |क्यूंकि निराकार में साकार का कोई अर्थ नहीं है पर साकार में निराकार भी समाहित है |
 मेरे विचार में -कर्मण्ये वाधिकारस्ते -ये श्लोक ही प्रेरित करता है गीता पढने के लिए और इस गीता गंगा मे अवगाहन करने पे डूबने का खतरा भी नहीं रहता | कर्तव्य के निर्वाहन में यदि कुछ ऊँच-नीच हो गयी हो तो भी भगवान मौजूद है हाथ पकड़  बाहर निकालने के लिए --
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणम् व्रज |
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिश्यामी माँ शुच  || इसका अर्थ ये भी नहीं है कि भगवान कर्तव्य निर्वाहन में कुछ भी करने की छूट दे रहे हैं ,वो तो कह रहे है तू सब धर्मों को छोड़ के मेरी शरणागती ले ले ,अब जो भगवान की शरणागती में है वो असंगत तो कर ही नहीं सकता | माँ शुच ! मेरी शरणागती ले मैं तेरे पापों को हर लूँगा |
अब एक और दीगर बात है यहाँ पे 'सर्वधर्मान्परीत्यज्य '  विश्व के अन्य धर्म तो उस समय थे ही नहीं -तो इससे यही निश्चित होता है कि प्रभु धर्म कर्तव्यों के निर्वाह को ही कह रहे हैं और यदि सभी कर्म प्रभु को पूर्ण समर्पित होके ही किये जाएँ तो फल तो मीठा और कल्याणकारी ही होगा | कर्म के सिद्धांत को और फलकी इच्छा को जानने के लिए  हमें गीता पढनी ही होगी |  पढो गीता ,गुणों गीता ही केवल पुनीता !  


        

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