{बैठे ठाले का फितूर }
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कुहासा -घना अँधेरा - शून्यता - मन और मस्तिष्क में संघर्ष ! मन शांत रहना चाहता है पर मस्तिष्क का मानना है अँधेरा शांति नहीं है यहाँ तो अंदर कहीं उथल -पुथल है उससे उबरना होगा शून्य में जाने की आजादी है पर !पर अन्धकार में नहीं | दिमाग को आराम करने का फरमान जारी कर दिया है पर अतीत के झरोखों से यादों के जुगनू अमावस में सितारों की मानिंद टिम-टिम ,झिलमिल कर रेशमी अँधेरे को पुखराजी हनक देते हैं और अंधियारे में सुनहरी यादों की नदी बहने लगती है |जीवन है अगर जहर तो पीना ही पड़ेगा | मन निष्क्रिय रहने पे अड़ा है और दिमाग कहता है भाई पेट तो भर लिया मुझे भी तो भूख लगती है --मैं भूखा हूँ ! भोजन लाओ --चलो कोई हल्का सा भोजन किया जाए और गुन-गुन करने लगा यादों में बसा एक लोकगीत ---
अंगना में कुइयां राजा डूब के मरूंगी !
ससुरा बोल बोलेंगे तो कछु न कहूँगी ,
सासू बोल बोले घुंघटा खोल के लडूंगी ||
बचपन में खूब मस्त होके अनेकों बार डांस किया इस गाने पे पर आज याद आया तो सोचने लगी __________
तब होते थे न हर आंगन में कुऐं | क्या प्रबन्धन था पानी का ,जितना चाहिये उतना लो ,ताजा -ताजा मीठा पानी ,न आर ओ का झंझट न बिसलरी का रोना | आंगन के कुऐं में ही नहाना धोना सुबह मर्दों का उनके जाने पे औरतों का सब समय बद्ध चरण बद्ध काम | पर शायद किसी सास -ननदों की मारी को जब कुछ न सुझा होगा तो उसने ससुराल वालों को डराने को और पति का प्यार पाने को ही ने ही ये गाना गाया होगा |
ननदोई आंगन में बरसे कुछ न कहूंगी
ननद बोल बोले चूनर फाड़ के लडूंगी ||
क्या संस्कार थे लड़ाई में भी ससुर और ननदोई का मान रखना | कुंए में छलांग लगाने का डर दिखा कर सबको सूत में साधना और अपना काम निकलना क्या इनोवेटिव आइडिया था |
आंगन में कुआँ होने से तकरार होने पे सही में ,छलांग मारने का खतरा तो बना ही रहता होगा |भय तो बना ही रहता होगा किसी के भी रूठ के कुऐं में समा जाने का शायद ये आंगन और कुऐं का भय ही परिवारों को एक डोर में बांधे रखता था | तुलसी बाबा ने भी कहा है ---
भय बिन होय न प्रीति गुसाईं ......
इसी लिए मनमुटाव को बढ़ने नहीं दिया जाता होगा और तकरार नहीं तो प्यार और मनुहार | क्या साजिश थी कुओं की और प्यार की ! कुआँ कहे मैं हूँ तो ही प्यार है , प्यार कहे मैं हूँ तो ही परिवार है और आंगन कहे अरे अहमकों मैं हूँ तभी तक तुम दोनों हो आंगन नहीं तो कुआँ नहीं -,कुआँ नहीं तो भय नहीं- भय नहीं तो प्यार नहीं और प्यार नहीं तो परिवार नहीं | संयुक्त परिवार के लिए एक आंगन और एक कुआँ जरुरी है |
धीरे- धीरे जब कलयुग ने अपने पैर फैलाने शुरू किये तो उसे अहसास हुआ आदमी को आदमी से अलग करना है अब विलेज नहीं ग्लोबल विलेज बनाना है तो प्यार को ख़त्म करो, मनुष्य को अपने लिए जीना सिखाओ | उस के लिए सबसे पहले संयुक्त परिवार से एकल परिवार (नुक्लियर फैमिलीज्यादा आधुनिक लगता है )
पे आओ और जब तक ये आंगन हैं ये कुऐं हैं प्यार कैसे खत्म होगा तो पहला हमला कुऐं पर | प्यार को बनाये रखने के लिए ये ही ब्लेकमेलिंग का जरिया हैं | घरों के आंगन से कुऐं ऐसे गायब हुए जैसे गधे के सर से सींग | फिर उनके बड़े भाई तालाबों को नजर लगी कलयुग की, ये भी तो गाँव को भय की और प्यार की डोर में बांधते है तो लैंड माफिया को कहा गया इन्हें पाटने को | अब पानी पाइप से आयेगा तो झगड़े होंगे प्यार और परिवार ख़त्म और साजिशें काम कर गयीं | अब जैसे चाहे जियो किसी को गरियाओ ,लतियाओ क्या फर्क पड़ता है कोई कुआँ थोड़े ही है जो कोई छलांग मार देगा और जान दे देगा |वैसे अब जान देने के बहुत से तरीके हैं पर कुऐं से अच्छा कोई कहाँ ?
बाकि बचा एक आंगन , दो में से दो गया सिफर ,वो बेचारा भी कब तक टिकता ,अब तो बड़े शहरों में एक पूरी पीढ़ी ऐसी गुजर गयी है जिसने आंगन को केवल फिल्मों में ही देखा है और गानों में ही सुना है ....
मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है ?पर साजिश रची गयी बेचारे ,आंगन के खिलाफ और गाना ही उलट गया मेरे छोटे से घर में आंगन का क्या काम है | छोटे शहरों में मिल जाते है भूले बिसरे कहीं आंगन या गाँव में बड़े रसूखदारों के यहाँ घेर पर उनमे कुआं नहीं है |
आंगन की यादें भी कितनी सुहानी हैं | बचपन से अब तक कितने आंगन कितनी यादें |कभी अमरूद, आडू का पेड़ आंगन में ,तो कभी आम लीची का |वो गोबर मिट्टी से चौक पुरना और पानी के छींटे डाल बाबले के झाड़ू से साफ़ करना ,माड़ने मांडना ऐपन बनाना ,रंगोली बनाना | गेहूं धो के सुखाने का हड़कम्प और गिलहरियों , चिड़ियों को चुगते देखने का आनंद |आचार के मर्तबान तो पूरे आंगन में धूप के साथ -साथ चलते थे | वो मूढे सरकाते हुए धूप के साथ बालों को सुखाते हुए बिनाई- सिलाई करना |कभी आँवले-नीम्बू काले नमक में रचे हुए सूख रहे है तो कभी उबटन के लिए संतरों के छिलके | रजाई- कम्बल रोज ही धूप देखते थे दिन में उनपे धूप में आराम करो शाम को गर्मागर्म भीतर ,सारा दिन कैसे गुजर गया पता ही न चला धूप सेकनेसे न कोई जुकाम का वाईरस न सीलन | मुफ्त की विटामिन डी और कैल्शियम | गर्मियों की शामें तो आंगन में और भी मस्ती की हो जाती थीं जब अमलतास की डालियाँ पीले फूलों के कुंडल और झुमके पहन के इठलाती ,मोगरे ,बेला ,चमेली की कलियाँ चटखती और संध्या का आगाज देख रातकी रानी के साथ मिलके खुशबू की साजिशें रची जातीं ताकि गर्मी भूल पूरा परिवार खुशबू से सराबोर रहे | जलती तपती दोपहरी में जब आंगन के गुलमोहर के सुर्ख फूल हवा चलने से सनसनाते तो यूँ लगता मानो दुल्हन की रेशमी सुर्ख चुनर लहरा रही है और नीला अम्बर गा उठता ....हुजूर इस कदर भी न इतरा के चलिए खुले आम आंचल न लहरा के चलिए .....प्रकृति की ये सरगोशियाँ सारा ताप हर लेती थीं | तो साहब अब तो आंगन हैं नहीं महानगरों में | ये अइयाशियाँ भी आंगन के साथ ही खत्म | कहने को अब ज्यादा अमीरी है मध्यम और उच्चमध्यम वर्ग में पर आंगन की अइयाशियाँ तो नहीं हैं तो प्यार -मुहब्बत - मनुहार भी नहीं है ,सांझा कुछ नहीं है तो स्वार्थ भी बढ़ ही रहा है ,डिप्रेशन है ,विटामिन डी की कमी के रोग हैं और न जाने क्या क्या है | पर अब न आंगन हैं न होंगे | हम महानगर वालों को बालकोनी से ही संतोष करना पड़ेगा | अब सौतन कभी भी न गाएगी ....मैं तुलसी तेरे आंगन की ...अब तो वो बालकोनी में भी न बैठेगी सीधे घर में ही घुस आएगी |और... अंगना में बाबा दुआरे पे माँ ,कैसे आउं गोरी तुहारे घर मा ...गाने का सुख भी न होगा बच्चू जब अंगना ही नहीं है तो घर में कैसे घुसोगे --जाओ -जाओ काफी शाप में ही मिलो अब ज्यादा चोंचलों की जगह ही नहीं है |
जो बीत गया सो बीत गया | परिवर्तन प्रकृति का नियम है | पर कुछ यादें ऐसी होती हैं जो जेहन में छप जाती हैं और जब मन निढाल हो तो दिमाग को बहलाने के काम आती हैं | हल्का दिमागी भोजन ताकि सनद रहे | ..........आभा .........
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कुहासा -घना अँधेरा - शून्यता - मन और मस्तिष्क में संघर्ष ! मन शांत रहना चाहता है पर मस्तिष्क का मानना है अँधेरा शांति नहीं है यहाँ तो अंदर कहीं उथल -पुथल है उससे उबरना होगा शून्य में जाने की आजादी है पर !पर अन्धकार में नहीं | दिमाग को आराम करने का फरमान जारी कर दिया है पर अतीत के झरोखों से यादों के जुगनू अमावस में सितारों की मानिंद टिम-टिम ,झिलमिल कर रेशमी अँधेरे को पुखराजी हनक देते हैं और अंधियारे में सुनहरी यादों की नदी बहने लगती है |जीवन है अगर जहर तो पीना ही पड़ेगा | मन निष्क्रिय रहने पे अड़ा है और दिमाग कहता है भाई पेट तो भर लिया मुझे भी तो भूख लगती है --मैं भूखा हूँ ! भोजन लाओ --चलो कोई हल्का सा भोजन किया जाए और गुन-गुन करने लगा यादों में बसा एक लोकगीत ---
अंगना में कुइयां राजा डूब के मरूंगी !
ससुरा बोल बोलेंगे तो कछु न कहूँगी ,
सासू बोल बोले घुंघटा खोल के लडूंगी ||
बचपन में खूब मस्त होके अनेकों बार डांस किया इस गाने पे पर आज याद आया तो सोचने लगी __________
तब होते थे न हर आंगन में कुऐं | क्या प्रबन्धन था पानी का ,जितना चाहिये उतना लो ,ताजा -ताजा मीठा पानी ,न आर ओ का झंझट न बिसलरी का रोना | आंगन के कुऐं में ही नहाना धोना सुबह मर्दों का उनके जाने पे औरतों का सब समय बद्ध चरण बद्ध काम | पर शायद किसी सास -ननदों की मारी को जब कुछ न सुझा होगा तो उसने ससुराल वालों को डराने को और पति का प्यार पाने को ही ने ही ये गाना गाया होगा |
ननदोई आंगन में बरसे कुछ न कहूंगी
ननद बोल बोले चूनर फाड़ के लडूंगी ||
क्या संस्कार थे लड़ाई में भी ससुर और ननदोई का मान रखना | कुंए में छलांग लगाने का डर दिखा कर सबको सूत में साधना और अपना काम निकलना क्या इनोवेटिव आइडिया था |
आंगन में कुआँ होने से तकरार होने पे सही में ,छलांग मारने का खतरा तो बना ही रहता होगा |भय तो बना ही रहता होगा किसी के भी रूठ के कुऐं में समा जाने का शायद ये आंगन और कुऐं का भय ही परिवारों को एक डोर में बांधे रखता था | तुलसी बाबा ने भी कहा है ---
भय बिन होय न प्रीति गुसाईं ......
इसी लिए मनमुटाव को बढ़ने नहीं दिया जाता होगा और तकरार नहीं तो प्यार और मनुहार | क्या साजिश थी कुओं की और प्यार की ! कुआँ कहे मैं हूँ तो ही प्यार है , प्यार कहे मैं हूँ तो ही परिवार है और आंगन कहे अरे अहमकों मैं हूँ तभी तक तुम दोनों हो आंगन नहीं तो कुआँ नहीं -,कुआँ नहीं तो भय नहीं- भय नहीं तो प्यार नहीं और प्यार नहीं तो परिवार नहीं | संयुक्त परिवार के लिए एक आंगन और एक कुआँ जरुरी है |
धीरे- धीरे जब कलयुग ने अपने पैर फैलाने शुरू किये तो उसे अहसास हुआ आदमी को आदमी से अलग करना है अब विलेज नहीं ग्लोबल विलेज बनाना है तो प्यार को ख़त्म करो, मनुष्य को अपने लिए जीना सिखाओ | उस के लिए सबसे पहले संयुक्त परिवार से एकल परिवार (नुक्लियर फैमिलीज्यादा आधुनिक लगता है )
पे आओ और जब तक ये आंगन हैं ये कुऐं हैं प्यार कैसे खत्म होगा तो पहला हमला कुऐं पर | प्यार को बनाये रखने के लिए ये ही ब्लेकमेलिंग का जरिया हैं | घरों के आंगन से कुऐं ऐसे गायब हुए जैसे गधे के सर से सींग | फिर उनके बड़े भाई तालाबों को नजर लगी कलयुग की, ये भी तो गाँव को भय की और प्यार की डोर में बांधते है तो लैंड माफिया को कहा गया इन्हें पाटने को | अब पानी पाइप से आयेगा तो झगड़े होंगे प्यार और परिवार ख़त्म और साजिशें काम कर गयीं | अब जैसे चाहे जियो किसी को गरियाओ ,लतियाओ क्या फर्क पड़ता है कोई कुआँ थोड़े ही है जो कोई छलांग मार देगा और जान दे देगा |वैसे अब जान देने के बहुत से तरीके हैं पर कुऐं से अच्छा कोई कहाँ ?
बाकि बचा एक आंगन , दो में से दो गया सिफर ,वो बेचारा भी कब तक टिकता ,अब तो बड़े शहरों में एक पूरी पीढ़ी ऐसी गुजर गयी है जिसने आंगन को केवल फिल्मों में ही देखा है और गानों में ही सुना है ....
मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है ?पर साजिश रची गयी बेचारे ,आंगन के खिलाफ और गाना ही उलट गया मेरे छोटे से घर में आंगन का क्या काम है | छोटे शहरों में मिल जाते है भूले बिसरे कहीं आंगन या गाँव में बड़े रसूखदारों के यहाँ घेर पर उनमे कुआं नहीं है |
आंगन की यादें भी कितनी सुहानी हैं | बचपन से अब तक कितने आंगन कितनी यादें |कभी अमरूद, आडू का पेड़ आंगन में ,तो कभी आम लीची का |वो गोबर मिट्टी से चौक पुरना और पानी के छींटे डाल बाबले के झाड़ू से साफ़ करना ,माड़ने मांडना ऐपन बनाना ,रंगोली बनाना | गेहूं धो के सुखाने का हड़कम्प और गिलहरियों , चिड़ियों को चुगते देखने का आनंद |आचार के मर्तबान तो पूरे आंगन में धूप के साथ -साथ चलते थे | वो मूढे सरकाते हुए धूप के साथ बालों को सुखाते हुए बिनाई- सिलाई करना |कभी आँवले-नीम्बू काले नमक में रचे हुए सूख रहे है तो कभी उबटन के लिए संतरों के छिलके | रजाई- कम्बल रोज ही धूप देखते थे दिन में उनपे धूप में आराम करो शाम को गर्मागर्म भीतर ,सारा दिन कैसे गुजर गया पता ही न चला धूप सेकनेसे न कोई जुकाम का वाईरस न सीलन | मुफ्त की विटामिन डी और कैल्शियम | गर्मियों की शामें तो आंगन में और भी मस्ती की हो जाती थीं जब अमलतास की डालियाँ पीले फूलों के कुंडल और झुमके पहन के इठलाती ,मोगरे ,बेला ,चमेली की कलियाँ चटखती और संध्या का आगाज देख रातकी रानी के साथ मिलके खुशबू की साजिशें रची जातीं ताकि गर्मी भूल पूरा परिवार खुशबू से सराबोर रहे | जलती तपती दोपहरी में जब आंगन के गुलमोहर के सुर्ख फूल हवा चलने से सनसनाते तो यूँ लगता मानो दुल्हन की रेशमी सुर्ख चुनर लहरा रही है और नीला अम्बर गा उठता ....हुजूर इस कदर भी न इतरा के चलिए खुले आम आंचल न लहरा के चलिए .....प्रकृति की ये सरगोशियाँ सारा ताप हर लेती थीं | तो साहब अब तो आंगन हैं नहीं महानगरों में | ये अइयाशियाँ भी आंगन के साथ ही खत्म | कहने को अब ज्यादा अमीरी है मध्यम और उच्चमध्यम वर्ग में पर आंगन की अइयाशियाँ तो नहीं हैं तो प्यार -मुहब्बत - मनुहार भी नहीं है ,सांझा कुछ नहीं है तो स्वार्थ भी बढ़ ही रहा है ,डिप्रेशन है ,विटामिन डी की कमी के रोग हैं और न जाने क्या क्या है | पर अब न आंगन हैं न होंगे | हम महानगर वालों को बालकोनी से ही संतोष करना पड़ेगा | अब सौतन कभी भी न गाएगी ....मैं तुलसी तेरे आंगन की ...अब तो वो बालकोनी में भी न बैठेगी सीधे घर में ही घुस आएगी |और... अंगना में बाबा दुआरे पे माँ ,कैसे आउं गोरी तुहारे घर मा ...गाने का सुख भी न होगा बच्चू जब अंगना ही नहीं है तो घर में कैसे घुसोगे --जाओ -जाओ काफी शाप में ही मिलो अब ज्यादा चोंचलों की जगह ही नहीं है |
जो बीत गया सो बीत गया | परिवर्तन प्रकृति का नियम है | पर कुछ यादें ऐसी होती हैं जो जेहन में छप जाती हैं और जब मन निढाल हो तो दिमाग को बहलाने के काम आती हैं | हल्का दिमागी भोजन ताकि सनद रहे | ..........आभा .........
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