Saturday, 1 March 2014

                   {  प्रभुता पाहि काहू मद नाही }
महाभारत में दो सहेलियों की कलह की एक बानगी ________
एक दूसरे के वस्त्र पहनने की छोटी सी घटना और दो सहेलियां दुश्मन बन गयीं
 कस्माद गृहणसि में वस्त्रं शिष्या भूत्वा ममासुरी |
समुदाचारहीनाया न ते साधु भविष्यति ||
अरे दानव की पुत्री तू आचार शून्य ,मेरे वस्त्र पहनने के लायक नहीं है | देवयानी  (आचार्य  शुक्राचार्य की पुत्री, )ब्राह्मण और गुरु पुत्री होने की श्रेष्ठता के मद में   , शर्मिष्ठा( दैत्य-राज वृषपर्व की पुत्री )को अपने वस्त्र लेते हुए देख के बोली | अब शर्मिष्ठा कहाँ चुप रहने वाली थी वो भी तुर्की ब तुर्की बोली  गुरु हो ,ब्राह्मण हो तुम्हारे पिता का सम्मान  देव -दैत्य -और मनुष्य सभी करते हैं पर रहते तो मेरे पिता के दरबार में ही हैं  -----
       आसीनं च शयानं च  पिता ते पितरं मम |
        स्तौति वन्दीवचाभीक्षणम नीचै: स्थित्वा विनीतवत ||
अरी मेरे पिता बैठे हों या सो रहे हों ,तेरा पिता विनीत मुद्रा में सदा खड़ा रहता है |-----
 याचतस्त्वंही दुहिता सतुवतःप्रतिगृह्णत: |
.................................................................सुताहं स्तूयमानस्य ददतोअप्रतिगृह्णत: ||
तू भिखमंगे की बेटी है ,तेरा बाप स्तुति करता है और दान लेता है | मैं उनकी बेटी हूँ जिनकी स्तुति की जाती है और जो दान देते हैं | ---------------ये कलह कथा को पढने से  सहज ही अनुमान  हो जाता है की समाज आदिकाल से ही ऐसा ही है ,मनुष्य की प्रवृतियाँ ,श्रेष्ठ विशिष्ठ या अति विशिष्ठ होने का दम्भ माननीयों में ही नहीं उनकी संतानों में भी हमेशा मिलता है | इसे कलयुग की देन मानना कलयुग के साथ अन्याय होगा |
   बस ऐसे ही बैठे बिठाये आजकल जो एक दूसरे पे विशेषण उछाल रहे हैं लोग उस पे ये घटना याद आ गई|पद का गुरुर और पदच्युत होने की आशंका जो न करवाये या जो न कहलवाए वही कम |ऐसे में भाषाकी लगाम कौन खींचेगा |  

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