श्राद्ध पक्ष का एक स्वरूप ये भी --सांझी --एक लुप्त होती जा रही परम्परा।
भाद्रपक्ष की पूर्णिमा से १६ दिनों का उत्सव सांझी का। जब सारे मंगल कार्य ,खरीददारी ,शकुनों के गाने बजाने बंद हों। कुवारी कन्याओं द्वारा मनायेजाने वाला त्यौहार ,''सांझी ''अपनी अलग ही रंगीनी लेके आता है। हरियाणा ,यू पी ,उत्तराखंड के कुछ भागों में ,बुंदेलखंड ,मालवा ,महाराष्ट्र के कुछ भागों में और राधा रानी की ब्रज भूमी में सांझी खेली जाती है। कुवारी कन्याएं गोबर से दीवाल लीपती हैं और फिर उसमे रंगों से सांझी देवी की मूर्ति बनाती हैं। कन्याओं की प्रतियोगिता भी रखी जाती है जिसकी सांझी सबसे अच्छी होगी उसको पुरूस्कार। लडकिया फूल ,किनारी ,गोटा ,सितारे ,कुमकुम ,कौड़ियां ,कांच के रंगबिरंगे टुकड़े ,लाल पीली चमकीली पन्नियाँ ,बिंदियाँ मोर पंख ,आदि जिसके पास जो भी सजावट का सामान हो उससे सांझी देवी को सजाती हैं ,गेरू ,दाल की पीठी ,रोली हल्दी ,रंग ,सभी प्रयोग में लाती है सांझी के साथ ,दही हांड़ी ,माला ,मोर ,घोडा ,बिंदी ,हाथी ,स्वस्तिक ,ॐ जैसे और कई चित्र भी उकेरे जाते हैं और दीवार पे एक बड़ा सा कोलार्ज बन जाता है।
एकम को सांझी ,दूज को बिजौला ,तीज को तराजू ,चौथ को चौपड़ ,पंचम को पांच कुंवारे ,सातम को स्वस्तिक ,आठम को आठ पंखुड़ियों वाला फूल ,नवमी को डोकरा डोकरी ,दशमी को पंखा ,ग्यारस को किलकोट ,और फिर अमावस तक किला कोट की साजसज्जा ----कंगूरे ,बेलें ,ढल तलवार ,बैलगाड़ी ,घुड़सवार ,चाँद -सूरज ,कंगन ,बूंदे ,हार पाजेब ,लड्डू ,फल ,सब्जी ----अंगड़ाई लेते कुंवारे मन की साजसज्जा का त्यौहार। कन्याओं की भावनाओं को वाणी देता है ---संध्या समय सांझी देवी की आरती होती है। कन्याएं छेद वाली मटकी में दीप जलाती हैं ,इसे झाँझी कहते है जिसकी शोभा संध्या समय देखते ही बनती है। और फिर गान मुहल्ले की कन्याओं का समूह गान नृत्य।
असल में सांझी एक बाल लोकोत्सव है। कन्या संरक्षण और संवर्धन से भी जुड़ा है ये त्यौहार।
पितृपक्ष में कन्याओं के महत्व को बताते हुए फिर ही नवरात्रि आती है। लोक संस्कृति ----बाल सुलभ रचनात्मक प्रवृतियों का पारम्परिक मूर्त रूप ले लेती है सांझी में --आपके घर में कन्याएं होंगी तबही सांझी की रंगीनी बिखरेगी। आज हरियाणा में लिंग अनुपात सबसे कम है वहां कभी सांझी बड़ी धूमधाम से मनाया जाता था।
ब्रज में तो ये राधा कृष्ण के रास का त्यौहार भी है ,साँझ को जब कृष्ण गैया चराके लौटते थे तो सभी गोपियाँ अपने गली द्वार सजा देतीं थी। आज भी ब्रज में मंदिरों में प्रतिदिन आश्विन प्रतिपदा से अमावस तक सांझी सजती है।
साँझा के कई लोक गीत हैं। अपनी अपनी जगह के अपने अपने लोक गीत। ---सूरदास की सांझी ----''श्यामा संग रंग सो राधे ,रचना रची सुहाई।
सेवा कुञ्ज सुहावनी किन्ही ,लता पता छवि पायी।
मरकट मोर चकोर कोकिला ,लागत परमसुखराई।
----चित्र विचित्र बनाव के चुनि -चुनि फूले फूल ,
सांझी खेलहिं मिल जुल सखी सब ,नव जीवन समतूल।
----खेल खेल में कलात्मक गतिविधियों द्वारा बच्चों को कैसे संस्कारित करना यह लोक समुदाय अच्छी तरह समझता था। शायद तभी कुछ ऐसे अवसर जुटायें गये जिन पर बालक बालिकायें अपनी सृजनात्मक प्रवृत्तियों को तुष्ट भी कर सकें और उन्हें अपनी परम्पओं का भान भी हो सके।
सांझी तेरे फूल
पचासी तेरे डोढ़ा
मोरे भैया गोरे
बुन्देल भैया गोरे
भइयाजी की पीढरी
बेलना अनबेली
भाभी जी के नैन
क झकझोरे
भाभी की गोद भतीजो सोके
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सेंझी के आस पास रहे चमली को झूला
मेरी मां जशोधा पटिया पारे
भाभज मांग संवारे
पैरोतुम पेरो मोमबत्ती बाई जीना
तेरे बाप बडेन ने बैठे गढाए
भैयन ने पेहराए
बार बार में मोती गाए लए
सिन्दूर भर लई मांग
से घाला के आसे पासे रहे चमेली कोझूला----------------------
पौराणिक कथाओं में ब्रह्मा के मानस पुत्र पीललम ऋषि की पत्नी 'सांझी' थी, जिसे मां दुर्गा भी कहते हैं। सांजी, संजा, संइया और सांझी जैसे भिन्न-भिन्न प्रचलित नाम अपने शुद्ध रूप में संध्या शब्द के द्योतक हैं।
एक लोक मान्यता के अनुसार- 'सांझी' सभी की 'सांझी देवी' मानी जाती है। संध्या के समय कुंआरी कन्याओं द्वारा इसकी पूजा-अर्चना की जाती है। संभवतः इसी कारण इस देवी का नाम 'सांझी' पड़ा है।---------अब धीरे धीरे ये लोक त्यौहार विलुप्ति के कगार पे है। एक तो अब बच्चों के पास समय ही नहीं है। फिर गोबर मिटटी भी कहां उपलब्ध है शहरों में ,लेकिन कुछ मंदिरों या घरों को छोड़ दें तो गाँवों में भी अब सांझी देवी नहीं बिठाई जाती।
गौ वंश का संवर्धन ,कन्या का महत्व,बालसुलभ रचनात्मकता को खेल खेल में मूर्त रूप देना ,छोटे छोटे गाने लिखना और गाना --कितना कुछ तो है इस त्यौहार में --क्या साँझा देवी की पुनर्स्थापना --सांझे रूप में नहीं हो सकती।
मेरी माँ दीपावली में बनाती थी ये सब चित्र ,गेरू से लेप के दीवारों को ,चावल की पीठी से संझा देवी और उसके चाण -बाण। पर अब हम बाजार कागज की खरीद लाते हैं और उसी पूजन में थक जाते हैं ,हम प्रगतिशील हो चले हैं आधुनिक ------
------आज माँ से बनवाई हुई संझा देवी की तस्वीर [जो अपने लिए बनवाई थी ,ताकि जब मैं बनाऊं तो गड़बड़ न हो [मिल गयी तो यादें ताजा हो गयीं