Wednesday, 21 September 2016

मानव  को परिवार और समाज में रहते हुए रिश्तों को जीते हुए कई बार कडवी सच्चाइयों से रु- बरु होना पड़ता है .परिवार में समरसता बनाये रखना आसन नही होता है मन में उठते हुए विद्रोहको ठंडा पानी डाल कर जमा कर बर्फ बना देना होता है
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सर्द जज्बात ---
मानव मन के झंझावत को
मन में उमड़े तूफानों को
बांध  तोड़ कर बहना चाहे
सरिता की उद्दात लहर को
किसने समझा ,किसने जाना।

पर्वत से हिम पिघले ,
सरिता बन जीवन देती 
मेरे मन की बर्फ पिघल -
मुझको जीवन दे पायेगी ?


शिखरों पर पड़ी बर्फ तो
 सर्द नदी बन जायेगी ,
हिमनद मन का गर पिघला
लावे सा  बह जायेगा
इस बर्फ की अग्नि में
कितने जीवन जल जायंगे .?
एक जरा सी हलचल से
भूकंप हजारों आयेंगे।

मन में उमड़े तूफानों को ,
यादों के इस झंझावत को ,
सर्द बर्फ से ढक लूं मैं ,
ना ही छेडू ना ही कुरेदूं ,
बस  अंतरमन में रख लूँ मैं .
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इस जीवन संघर्ष को
पर्व मान कर जीलूं मैं
बर्फ बहे ना लावा बनकर
हिमालय सी बन जाऊं मैं
अंतर्मन के तूफानों को
सर्द बर्फ से  ढक दूँ मैं -----आभा --

Tuesday, 20 September 2016

कल  शाम एक बुजुर्ग  शख्स एक सब्जी की  दुकान में  जोर -जोर से बोल रहे थे --ये श्राद्ध व्राद्ध कुछ  नही  ,मैं  एक  वर्ष  का था  मेरी  माँ मुझे  छोड़  के  मर गयी  थी ,अब मैं अस्सी का हूँ  --क्या  अब तक  वो  कहीं  पैदा  नही  हुई  होगी  ---और मैं पितृ मान  के  बामन ,चील कव्वों को खिलाऊं  रबिश ---ये रूढ़ियाँ हैं --मैं बोल पड़ी ,सरजी --पितरों का एक दिन आपके एक वर्ष के बराबर  होता है ,आपकी माँ को गये अभी अस्सी दिन ही हुए हैं  ,हो सकता  है  न  जन्मी  हों कहीं --मैं रैंडम  बोल पड़ी थी  किसी  को  जानती  नही  थी  सो  रुकना  नही चाहती  थी  पर  पीछे  से वो  बोले  --बहनजी  आपको  ये  कैसे  पता  कोई  प्रमाण  है --मैंने  इतना  ही कहा  जी सर  --जैसे ये सत्य   है  आपकी माँ जब  एक वर्ष  के  थे  तभी सिधार  गयीं थी  वैसे ही  ये  भी  सच  है  --पढ़ना  शुरू  कीजिये  --हर  ज्ञान  पुस्तकों  से ही  मिलता  है  --पढ़िए  मनन कीजिये  फिर  रूढ़ियों , संस्कारों  और  परम्पराओं  में  अंतर  कर  पाएंगे  , वैसे  आप  मुझसे  बहुत  बड़े  हैं  सो  माफ़ी  मांगती  हूँ  पर संस्कारों  की  इतनी  बेज्जती  सहन  नही  होती  ,न चाहने  पे  भी  बोल  पड़ती  हूँ ----पता नही  मैंने  गलत  किया  या  सही  --पर  मैं  श्राद्ध पक्ष  को  मानती  हूँ  --कारण  कई  हैं  ---पूरे  वैज्ञानिक  भी  और  सामाजिक  भी  --------------

श्राद्ध पक्ष ----जड़ों की ओर जाने का उत्सव ,प्रकृति से प्रेम का उत्सव ,ब्रह्माण्ड से नाता जोड़ने का उत्सव ,इतिहास ,सभ्यता ,संस्कृति को नमन करने और पुनर्संस्थापन का उत्सव ,आओ पुरखों की आराधना करें ----------------------------
अनन्तचतुर्दशी +पूर्णिमा ====गणपति अपने गाँव चले कैसे हमको चैन मिले ,पर पितृ आ गए हैं न ,कितना शुभ संयोग बन पड़ा है ''मानने वालों के लिए '' ।  मेरे पित्रों के भी पितृ --श्रद्धासुमन सभी पितरों को - मेरी माँ का श्राद्ध है -पूर्णिमा श्राद्ध। शास्त्र में लिखा है या नहीं मुझे नहीं ज्ञात ,पर सुना है बेटे ही श्राद्ध कर्म करते है , मैं इस बात को नहीं मानती। माँ पिता ने बेटियों को भी उसी शिद्द्त से पाला है ,उतना ही श्रम किया बेटियों के लिये तो बेटियों को क्यूं नही अधिकार होना चाहिये तर्पण दान का। यदि पितृ उतरे ही हैं इस धरती पे --''चाहे हम उन्हें याद कर रहें हैं तो वो यादों की चुंबकीय तरगें ब्रह्माण्ड में घूमने लगती है और एक आभासीय पितृ मंडल बना देती हैं ''--तो बेटियों के घर भी अवश्य ही आएंगे --तो क्यों हमारे घरों से वो यूँ ही लौट जाएँ ,केवल इसलिए कि हम शादी करके दूसरे घर में आजाती हैं ,पर ब्याही बेटी के घर माबाप आयें और यूँ ही बिना मान सम्मान के लौट जायें तो ये ठीक होगा क्या? वेदों में स्पष्ट कहा गया है ,विवाहोपरांत कन्या अपने मातापिता और वर के मातापिता दोनों का पालन करे। तो सभी युवा ,अधेड़ ,बूढी कन्याओं ,अपने ससुराल पक्ष के साथ ,मायके के पितरों का भी स्वागत करो ,केवल तर्पण 'जल-तिल 'और श्रद्धा से झूम उठते हैं वो। -----
ॐब्रह्मा तृप्यताम् | ॐ विष्णुस्तृप्यताम् | ॐ रुद्र्स्तृप्यताम् | ॐ प्रजापतिस्तृप्यताम् |ॐ देवास्तृप्य न्ताम् | ॐ छ्न्दासि तृप्यन्ताम् | ॐ वेदास्तृप्यन्ताम् |ॐ ऋषियस्तृप्यन्ताम् |ॐ पुराणाचार्यास्तृप्यन्ताम् | ॐ गन्धर्वास्तृप्यन्ताम् | ॐ इतराचार्यास्तृप्यन्ताम् | ॐ संवत्सर:सावयव स्तृप्यताम् |ॐ देव्यस्तृप्यन्ताम् | ॐ अपसरस्तृप्यन्ताम् | ॐ देवानुगास्तृप्यन्ताम् | ॐ नागास्तृप्य न्ताम् | ॐ सागरास्तृप्यन्ताम् | ॐ पर्वतास्तृप्यन्ताम् | ॐ सरितस्तृप्यन्ताम् | ॐ मनुष्यास्तृप्यन्ताम् | ॐ यक्षास्तृप्यन्ताम् | ॐ रक्षांसि तृप्यन्ताम् | ॐ पिशाचास्तृप्यन्ताम् | ॐ सुपर्णास्तृप्यन्ताम् | ॐ भूतानितृप्यन्ताम् | ॐ पशवस्तृप्यन्ताम् | ॐ वनस्पतयस्तृप्यन्ताम् | ॐ औषधयस्तृप्यन्ताम् | ॐ भूतग्रामश्चतुर्विधस्तृप्यताम् | ..............इसके पश्चात्
मरीचिस्तृप्यताम् और ऐसे ही ,अत्री ,अंग्गिरा ,पुलस्त्य, पुल्हस्त्य,क्रतु ,वसिष्ठ ,प्रचेता ,भृगु और नारद ऋषियों का तर्पण ....फिर दिव्य मनुष्य ---जैसे सनक ,सनकादिक ,सनातन ,कपिल ,आसुरि,वोढु,पंचशिख का तर्पण ,...... इसके पश्चात .. सोम ,यम ,अग्नि ,धर्मराज ,मृत्यु ,अनन्त ,वैवस्त ,समस्त रंग ,चित्र ,चित्रगुप्त ,परमेश्वर ...और फिर ...
पीढ़ियों के हिसाब से वसु रूप ,रूद्र रूप और आदित्य रूप मानते हुए पहले पितृ कुल को .फिर मातृ कुल को और सौतेले माँ बाप भाई बहिनों को भी ,......
कितनी खूबसूरत परम्परा है सबका धन्यवाद करने की ,सबको याद करने की ,और सबके प्रति श्रद्धा प्रकट करने की | इस दस मिनट की प्रक्रिया में संसार को तृप्त करके स्वयं तृप्त होने का अहसास हो जाता है ,मन निश्छल हो जाता है और ब्रह्मांड से जुड़ जाता है | सबसे जुडके प्रकृति को अपनायेंगे तो लालच में उसका स्वरुप बिगाड़ने का कार्य कदापि न होगा | पर हम इस छोटी सी ,पवित्र ,पुनीत क्रिया को ढोंग ,कर्मकांड और न जाने क्या-क्या कहके अपने आधुनिक होने का डंका पीटते हैं | विश्व में है कोई धर्म जिसमे दस मिनट में और केवल जल तिल के द्वारा ,सम्पूर्ण ब्रह्मांड के पूर्वजों और प्रकृति को याद करके तृप्त भी किया जाता हो | आप को कैसे पता चलेगा कि पितृ प्रसन्न हुए ,जी हाँ ये कार्य करके आपको जो आत्मिक शांति और संतोष की प्राप्ति होती है वही प्रमाण है| समस्त ब्रह्मांड में सकारात्मक तरंगों का सम्प्रेषण होता है ,बच्चे खुश तो पूर्वज भी खुश |
 ये सनातन धर्म की ही महानता है जिसमें हर वर्ष आज के पूर्वजों के साथ ,सदियों पूर्व के यहाँ तक कि वैदिक काल के पूर्वजों को भी श्रद्धा पूर्वक याद किया जाता है | जहाँ भूत ,प्रेत ,यक्ष ,राक्षस ,गन्धर्व ,नदी ,सागर ,औषधि ,वनस्पति ,पशु -पक्षी सभी को एक साथ जलांजलि देके नमन किया जाता है |
 ये श्राद्ध पर्व जल के महत्व का पर्व है ,जल ही जीवन है उससे पुरखे भी तर जाते हैं ,वैसे तो गंगावतरण में ही गंगा जल से पुरखों के तरने की कथा जल की महत्व को सिद्ध करने के लिए काफी है ,पर हर वर्ष भी हमें स्वच्छ और निर्मल गंगा जल चाहिये ही अपने पित्रों के तर्पण के लिए | गंगा को स्वच्छ रखने के लिए क्या इतना ही काफी नहीं है | पुन: संस्थापन पूरे उत्साह और बिना आडम्बर के होना ही चाहिये इस पर्व का |
पित्रों को  नही  मानते  हैं  कोई  बात  नही , बच्चों को बुजुर्गों को याद करना और सम्मान देने के लिए मनाइये ये त्यौहार। जल को स्वच्छ  और  पवित्र रखने  की कवायद  के  तौर  पे  मनाइये  ये त्यौहार। तिल --सात  भाइयों  की  कहानी सुनी ही  होगी  --एक  तिल के  दाने  को  बाँट  के  खाया  था  ,माँ  के  कहने  पे  और भूख  भी  मिट  गयी  थी  ---तो  कमी में भी एक जुट  रहना  , प्यार  बड़ों  की  बात  का  सम्मान ,संगठित शक्ति --ये बातें संतति  में  स्थान्तरित  हों ,इसलिये  मनाइये  ये  त्यौहार। 
गाय-  कुत्ता= चींटी -कव्वा - ब्राह्मण- जल -तिल -कुश ---करना ही क्या  है  --- तिरिस्कृत से तिरिस्कृत को भी सम्मान देना है बस। 
समस्त  सृष्टि  को  सम्मान  देने  का पर्व  है  ये पितृ पक्ष  ---आभा --
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Saturday, 17 September 2016



जीवेत शरद शतम , जन्मदिन की अनेकों शुभकामनायें मोदीजी। कान्हा आपको शुभस्वास्थ्य दें और शक्तिशाली करें। एक ही जयचन्द और एक ही मानसिंह नही अब तो हजारों की तादात में हैं कुचक्री और साथ में ही पूर्वाग्रहीऔर आस्तीन के सांप भी --कान्हां आपको इनके षडयन्त्रों से बचाये और इनका सामना करने की शक्ति दें।
देश आपकी ओर निहार रहा है ,आगे बढ़ने को उद्द्यत नौजवान का भरोसा हैं आप ,भ्रष्टाचार और लूट-खसोट से कराहती माँ भारती हर स्तर पे व्यवस्था परिवर्तन की बाटजोह रही है। आपके नेतृत्व में माँ भारती का पुनःसंस्थापन हो इसी इच्छा आकांक्षा के साथ एक बार पुनः जन्मदिन की शुभकामनायें सभी परिवारजनों और बन्धु-बांधवों की ओर से।। आभा ॥

Friday, 16 September 2016



न जाने क्यूँ मुझे लग रहा है मैं बारहसींगा बन गयी हूँ ....कई सारे सींग सर पे एक -साथ उग आये है . कितने सींग,और हर एक के सिरे पे एक दिमाग और उतनी ही आँखें ...कई उलझनों को एक साथ सुलझाता दिमाग और लक्ष्य को देखती आँखें...परेशानियां आदमी को बारहसींगा ही बना देता हैं .. परेशानी के जंगल में भटकते हुए कहीं से भी असावधानी हुई तो दुर्घटना घटी यानी उलझ जाओ बेचारे बारहसींगा के सींगों की मानिंद उलझनों के जंगल में .... मारीच विद्वान् था शायद इसी लिए सोनेका बारहसींगा नहीं बना ! क्यापूछते हो क्यूँ ? अरे भई फिर तो खुद ही उलझ जाता न ! जंगल में राम को बहुत दूर न ले जा पाता,,,फिर सीता -हरण भी न होता और सुंदर -कांड भी न होता ,,,सबसे बड़ी बात हम कलयुग वासियों के संबल हनुमानजी भी न होते तो जब हम डरते तो क्या करते ?और .....बूढ़ भये ,बलि ,मेरिहि बार ,की हारि परे बहुते नत पाले || ....किसे उलाहना देते ... हर घटना की और हर पात्र की अपनी एक अहमियत है तो शायद मैं जो ये अपने को बारहसींगा समझने लगी हूँ इसकी भी कोई न कोई अहमियत तो होगी ही .....पर काश मैं सोने का मृग होती ..इतने सारे सींगों पे उग -आयीं आँखें और दिमाग ओरिजनल पे भारी तो न पड़ते . कुछ नहीं बस सर पे थोडा सा दर्द था .....आभा .........
खाना पकाना और खिलाना |आज जब ये मायें और पत्नियाँ काम करने बाहर भी निकल चुकी है -तब भी व्रत पूरी निष्ठा और अनुष्ठान से करती हैं | बेटे के लिए व्रत जब वो शादी के बाद माँ को भूल चुका हो | उस पति के लिए व्रत जो उसे शराब पी के रोज नारकीय जिन्दगी जीने को मजबूर करता हो और रोज कम से कम एक बार अवश्य मूर्खा घोषित करता हो | हर व्रत की कई आंचलिक कहानियाँ और अलग अलग विधियाँ जो चाहे अपनाओ पर संकेत एक ही जिस स्त्री का व्रत टूटा उसके पति- पुत्र और परिवार पे भयानक संकट ! कितना ही आधुनिक हो जाएँ हम और कितना ही पढ़-लिख लें पर इन व्रत-उपासनाओं को छोड़ ही नहीं पाती हैं |शायद परिवार की खुशहाली ही सबसे बड़ी ख़ुशी होती है स्त्रियों के लिये और यही भावना उर्जा भी देती है इन सब अनुष्ठानों को निबाहने की , वरना उम्र तो इन्सान लिखवा के आया है सभी को भान है |
आज जीवितपुत्रिका व्रत है जो आश्विन कृष्णा अष्टमी को पड़ता है ,कई कहानियाँ और कई विधियाँ मनाने की | सुबह सरगी पारायण ,फिर निर्जल व्रत, दूसरे दिन मुहूर्त पड़ने पर व्रत पारायण | एक बात जो मुझे आज ही पता चली कि बनारस में या यूँ कहिये पूरब में इस जियुतिया व्रत के लिए स्त्रियाँ दाहिने हाथ की चूड़ियाँ अनन्तचतुर्दशी के दिन ही निकाल देती है ,नहीं तो पुत्र के प्राण संकट में पड़ जायेंगे , और आश्चर्य ये कि मेरी मेड ने भी चूड़ियाँ उतार दीं और कई प्रोफेसरस की पत्नियों ने भी | यहाँ तक कि एक तो खुद भी डाक्टर हैं |वो स्त्रियाँ जो चूड़ी न पहनने को अपशकुन मानती हैं ,पुत्र की लम्बी उम्र के लिए उन्हें उतारने में भी संकोच नहीं करतीं और इस सारी कवायद से मेरा मकसद भी यही है की पुत्र जब अपनी जिन्दगी में आगे बढ़ गया तो उसके पास माँ के लिए समय नहीं होता है ,रोज फोन पे आवाज सुनने को तरसती माँ को ये कहा जाता है की क्या बात करूँ रोज की रोज | मैं कई माओं को देख रही हूँ जो कई कई दिनों तक बच्चों से बात न होने के कारण बीमार रहने लगीं है ,पर आज भी हर व्रत कर रही हैं चाहे पति के लिए हो या बच्चों के लिए और यही ममतामयी माँ- स्त्री- बेटी -बहन , दोयम दर्जे की नागरिक है और उसके अहसासों को समझने का समय किसी के पास नहीं है चाहे वो एक मेड है या डाक्टर या टीचर ---वो परिवार की खुशहाली के नाम पे अपनी आहुति देती रहेगी क्यूंकि वो धरती है सृजन का दर्द सहने वाली |आभा |
श्राद्ध पक्ष का एक स्वरूप ये भी --सांझी --एक लुप्त होती जा रही परम्परा।
भाद्रपक्ष की पूर्णिमा से १६ दिनों का उत्सव सांझी का। जब सारे मंगल कार्य ,खरीददारी ,शकुनों के गाने बजाने बंद हों। कुवारी कन्याओं द्वारा मनायेजाने वाला त्यौहार ,''सांझी ''अपनी अलग ही रंगीनी लेके आता है। हरियाणा ,यू पी ,उत्तराखंड के कुछ भागों में ,बुंदेलखंड ,मालवा ,महाराष्ट्र के कुछ भागों में और राधा रानी की ब्रज भूमी में सांझी खेली जाती है। कुवारी कन्याएं गोबर से दीवाल लीपती हैं और फिर उसमे रंगों से सांझी देवी की मूर्ति बनाती हैं। कन्याओं की प्रतियोगिता भी रखी जाती है जिसकी सांझी सबसे अच्छी होगी उसको पुरूस्कार। लडकिया फूल ,किनारी ,गोटा ,सितारे ,कुमकुम ,कौड़ियां ,कांच के रंगबिरंगे टुकड़े ,लाल पीली चमकीली पन्नियाँ ,बिंदियाँ मोर पंख ,आदि जिसके पास जो भी सजावट का सामान हो उससे सांझी देवी को सजाती हैं ,गेरू ,दाल की पीठी ,रोली हल्दी ,रंग ,सभी प्रयोग में लाती है सांझी के साथ ,दही हांड़ी ,माला ,मोर ,घोडा ,बिंदी ,हाथी ,स्वस्तिक ,ॐ जैसे और कई चित्र भी उकेरे जाते हैं और दीवार पे एक बड़ा सा कोलार्ज बन जाता है।
एकम को सांझी ,दूज को बिजौला ,तीज को तराजू ,चौथ को चौपड़ ,पंचम को पांच कुंवारे ,सातम को स्वस्तिक ,आठम को आठ पंखुड़ियों वाला फूल ,नवमी को डोकरा डोकरी ,दशमी को पंखा ,ग्यारस को किलकोट ,और फिर अमावस तक किला कोट की साजसज्जा ----कंगूरे ,बेलें ,ढल तलवार ,बैलगाड़ी ,घुड़सवार ,चाँद -सूरज ,कंगन ,बूंदे ,हार पाजेब ,लड्डू ,फल ,सब्जी ----अंगड़ाई लेते कुंवारे मन की साजसज्जा का त्यौहार। कन्याओं की भावनाओं को वाणी देता है ---संध्या समय सांझी देवी की आरती होती है। कन्याएं छेद वाली मटकी में दीप जलाती हैं ,इसे झाँझी कहते है जिसकी शोभा संध्या समय देखते ही बनती है। और फिर गान मुहल्ले की कन्याओं का समूह गान नृत्य।
असल में सांझी एक बाल लोकोत्सव है। कन्या संरक्षण और संवर्धन से भी जुड़ा है ये त्यौहार।
पितृपक्ष में कन्याओं के महत्व को बताते हुए फिर ही नवरात्रि आती है। लोक संस्कृति ----बाल सुलभ रचनात्मक प्रवृतियों का पारम्परिक मूर्त रूप ले लेती है सांझी में --आपके घर में कन्याएं होंगी तबही सांझी की रंगीनी बिखरेगी। आज हरियाणा में लिंग अनुपात सबसे कम है वहां कभी सांझी बड़ी धूमधाम से मनाया जाता था।
ब्रज में तो ये राधा कृष्ण के रास का त्यौहार भी है ,साँझ को जब कृष्ण गैया चराके लौटते थे तो सभी गोपियाँ अपने गली द्वार सजा देतीं थी। आज भी ब्रज में मंदिरों में प्रतिदिन आश्विन प्रतिपदा से अमावस तक सांझी सजती है।
साँझा के कई लोक गीत हैं। अपनी अपनी जगह के अपने अपने लोक गीत। ---सूरदास की सांझी ----''श्यामा संग रंग सो राधे ,रचना रची सुहाई।
सेवा कुञ्ज सुहावनी किन्ही ,लता पता छवि पायी।
मरकट मोर चकोर कोकिला ,लागत परमसुखराई।
----चित्र विचित्र बनाव के चुनि -चुनि फूले फूल ,
सांझी खेलहिं मिल जुल सखी सब ,नव जीवन समतूल।
----खेल खेल में कलात्मक गतिविधियों द्वारा बच्चों को कैसे संस्कारित करना यह लोक समुदाय अच्छी तरह समझता था। शायद तभी कुछ ऐसे अवसर जुटायें गये जिन पर बालक बालिकायें अपनी सृजनात्मक प्रवृत्तियों को तुष्ट भी कर सकें और उन्हें अपनी परम्पओं का भान भी हो सके।
सांझी तेरे फूल
पचासी तेरे डोढ़ा
मोरे भैया गोरे
बुन्देल भैया गोरे
भइयाजी की पीढरी
बेलना अनबेली
भाभी जी के नैन
क झकझोरे
भाभी की गोद भतीजो सोके
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सेंझी के आस पास रहे चमली को झूला
मेरी मां जशोधा पटिया पारे
भाभज मांग संवारे
पैरोतुम पेरो मोमबत्ती बाई जीना
तेरे बाप बडेन ने बैठे गढाए
भैयन ने पेहराए
बार बार में मोती गाए लए
सिन्दूर भर लई मांग
से घाला के आसे पासे रहे चमेली कोझूला----------------------
पौराणिक कथाओं में ब्रह्मा के मानस पुत्र पीललम ऋषि की पत्नी 'सांझी' थी, जिसे मां दुर्गा भी कहते हैं। सांजी, संजा, संइया और सांझी जैसे भिन्न-भिन्न प्रचलित नाम अपने शुद्ध रूप में संध्या शब्द के द्योतक हैं।
एक लोक मान्यता के अनुसार- 'सांझी' सभी की 'सांझी देवी' मानी जाती है। संध्या के समय कुंआरी कन्याओं द्वारा इसकी पूजा-अर्चना की जाती है। संभवतः इसी कारण इस देवी का नाम 'सांझी' पड़ा है।---------अब धीरे धीरे ये लोक त्यौहार विलुप्ति के कगार पे है। एक तो अब बच्चों के पास समय ही नहीं है। फिर गोबर मिटटी भी कहां उपलब्ध है शहरों में ,लेकिन कुछ मंदिरों या घरों को छोड़ दें तो गाँवों में भी अब सांझी देवी नहीं बिठाई जाती।
गौ वंश का संवर्धन ,कन्या का महत्व,बालसुलभ रचनात्मकता को खेल खेल में मूर्त रूप देना ,छोटे छोटे गाने लिखना और गाना --कितना कुछ तो है इस त्यौहार में --क्या साँझा देवी की पुनर्स्थापना --सांझे रूप में नहीं हो सकती।
मेरी माँ दीपावली में बनाती थी ये सब चित्र ,गेरू से लेप के दीवारों को ,चावल की पीठी से संझा देवी और उसके चाण -बाण। पर अब हम बाजार कागज की खरीद लाते हैं और उसी पूजन में थक जाते हैं ,हम प्रगतिशील हो चले हैं आधुनिक ------
------आज माँ से बनवाई हुई संझा देवी की तस्वीर [जो अपने लिए बनवाई थी ,ताकि जब मैं बनाऊं तो गड़बड़ न हो [मिल गयी तो यादें ताजा हो गयीं

Thursday, 15 September 2016

 गणपति विसर्जन की शुभकामनायें --मोरिया रे बप्पा मोरिया रे ---

अगले बरस तू जल्दी आ ---- गणेश बैठे हैं  स्वर्ग में ,अपनी प्रतिकृतियों का विसर्जन देख रहे हैं --सोच रहे हैं इंसान  भी क्या  है ,हर तरह की मूर्ति बना डाली। घास -फूस, सब्जी- फल , दाल -मसाले ,हीरे -जवाहरात और न जाने क्या -क्या। श्रद्धा  की बयार  बह रही  है  धरती पे --रंग-गुलाल उड़ाते ,नाचते गाते अगले बरस तू जल्दी आ बोलते भक्त। बप्पा सोचने लगे जल्दी कैसे आऊंगा , भादों सुदी गणेश चतुर्थी तक तो प्रतीक्षा करनी ही पड़ेगी ,पर भक्त का क्या है वो तो कुछ  भी  मांग सकता है , अब कल से अनन्त भगवान का धागा बंधेगा तो सब उनसे मांगने लगेंगे ,चलो कुछ दिन लम्बी तान के सोऊंगा ,पर फिर सोचा -- गणपति तुझे चैन कहाँ ,ब्रह्मा विष्णु महेश , देवी ,पितृ कोई भी पूजे जाएँ ,पहल तो गौरा के गणेश से ही होगी --चाहे मूर्ति का हो ,तस्वीर हो  ,गोबर या  सुपारी का हो --मुझे तो  रहना ही होगा और फिर खुद ही बड़बड़ाये --''क्या जरूरत थी कार्तिकेय से जीतने की --अब वो  आराम से  रहते  है  सरकारी कर्मचारी  की  तरह  और  मैं --मल्टीनेशनल कम्पनी के एम्प्लॉय की तरह ट्वेंटीफोर इंटु सैवन  काम कर  रहा  हूँ।  ----और दनदनाती  हुई माँ गौरा का प्रवेश ,माँ बहुत गुस्से में है --गणपति घबरा  ही  गये ,माँ तो कभी इतने गुस्से  में  नही  रहतीं  ---क्या  हुआ  मम्मा , किसी ने कुछ कह दिया ? ---
बेटा तूने देखा नही इंसान ने चॉकलेट के गणपति बनाये हैं ?
हाँ माँ मैं यही देख रहा हूँ तब से --आज तो विसर्जन भी है ,देख मेरी कितनी रंग बिरंगी मूर्तियां है।
हाँ देख रही हूँ ,मूर्ति  और पूजा  से  अधिक  पूजा  करने  कौन  बड़ा सेलिब्रिटी  आया  और  किसने  कितना  चढ़ावा चढ़ाया इसपे निगाह है।
जिस मूर्ति पे बड़े लोग जा  रहे  हैं  उसकी  ज्यादा  पूछ  है  --ये  समाज  को  एकसूत्र में  पिरोने  का  उत्सव  था  पर  अब  हर  गली  मुहल्ले  के  अपने  गणपति  हो  गये ---ये  मानव  जो  न  करे  वो  कम  --केवल  फायदा  नुक्सान  सोचता  है  और पूजा  भी  इसीलिये करता  है।
गणपति  बोले  कोई  बात  नही  माँ कुछ  तो  इनमें  सच्चे  भक्त  भी  हैं  और  फिर  इस  पखवाड़े  में  ही  सही  ,कुछ  लोग  तो  नियम  से  चले  ---इतने  ही  लोग  काफी  हैं  समरसता  के  लिये ,ये  धर्म  का  ह्रास  न  होने  देंगे --पर  ये  तो  आपके  क्रोध  का  कारण  नही  हो  सकता।  अब  माँ को याद  आया  वो  तो  क्रोधित  थीं ,बोलीं --बेटे  इसलिये  ही  तो  तुम प्रथम-पूज्य  हो  ,अपनी बुद्धि  और  चातुर्य  से  मेरा  क्रोध  हर  लिया  ---
और  फिर  बोलीं --ये  मानव  सारी  सृष्टि  को  तहस  -नहस  कर  दिया। लालच  और  सुविधाओं  को  छोड़ने  को  तैयार  नही  और  गो ग्रीन , पॉल्यूशन फ्री , इकोफ्रैंडली के नाम पे उटपटांग  करतब  करने लगता  है  --अब बर्दाश्त  के  बाहर  हो  गया  है।
गणेश ने  पूछा --माँ बताओ तो क्या हुआ ?
 ----तुम्हें तो पता है  किसी मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा  जब होती है तो देवता अपना अंश उसमे स्थापित करते हैं --इस मूर्ति  को  जीवित  मान के  ही  उसकी  पूजा  अर्चना ,प्रसाद ,शयन सब  होता  है  ---जहां ये  सदैव  नही  हो सकता  --वहां  सकाम संकल्प ले के ,अल्पावधि  के  लिए  ही प्राणप्रतिष्ठा  होती  है  --जैसे  गणपति  या दुर्गा पूजन में ---- और एक निश्चित अवधि के बाद मूर्ति विसर्जन होता है।
है माँ मैं ये जानता  हूँ  ---पर  क्रोधित क्यूँ हो आप ?
 देख लाला --तालाबों में या कृत्रिम तालाबो  में विसर्जन  तो  ठीक  है ,वो सब  भूमि  में  मिल जाएगा  --पर ये  चॉकलेट  के  गणपति  बना  के  ,उसे  दूध  में  घोल के  गरीबों  को  पिला दो  ---क्या  आधुनिकता  की  होड़  में  या  अलग  कहलाने  की  ललक  में  ये  मानव  ये  भूल  गया  कि गणपति  की   इतने  दिनों  तक  तुमने  घर के  सदस्य  की  तरह  देख भाल  की  है  --उसे  घोल  के पी  जाओ ---जिसे  इतने  दिनों  तक  चेतन  माना  हो  उसे  घोल  के  पी  जाओ  --- काश  इन आधुनिक  कहलाने  वाले  लोगों  से  कोई  कहे  --गरीबों  को  चॉकलेट  का  दूध  पिलाना  है  तो  रोज  पिलाओ  न  भई ,ये  मेरे लाला  के  अंश  के  साथ  क्यूँ तमाशा  कर  रहे  हो  ---
इकोफ्रैंडली के लिए पेड़ लगाओ ,सुविधाओं को कम करो ,दिन में दो घण्टे ही सही ,बिना AC के रहो ,कुछ  देर पैदल चलो ,मांस मदिरा का सेवन कम करो ,और भी कई  तरीके  हैं  पॉल्यूशन कम करने के --- ये संस्कारों  के  साथ  खिलवाड़  न  करो  ----  मन्त्रों  में  शक्ति  होती  है  उसे  समझो ,प्राणप्रतिष्ठा  की  हुई  मूर्ति  को  घोल  के  पीना  याने  ---अपने  परिवार  के  सदस्य  का भक्षण  करना  ---हे  मानव  अलग  दिखने  की चाहत  में  न  स्वयं  के  लिए  न  दूसरे  के  लिए  मुसीबतें  बुला ---
सबसे  सुंदर   तो वो  दृश्य  होगा जब  एक  जगह  के  लोग  मिलजुल  के  गणपति  की  मिटटी  की  मूरत  बनाएंगे  ---उसके  विसर्जन  से  न  पॉल्यूशन  होगा  न  गन्दगी फैलेगी।
गणपति समझ चुके थे ये माँ का प्यार  बोल  रहा  है  --माँ  को  समझाते  हुए  बोले  ---माँ  ये  कलयुग  है  --दिखावे  का  युग  ,यहां  कुछ  भी  हो  सकता  है  ---- -












Wednesday, 14 September 2016

हर रोज हो हिंदी दिवस ----

हिंदी -------मेरी भारत माँ के  माथे की बिंदी , सुंदर ,चटकीली ,इंद्रधनुध की रंगत वाली ,उषा -प्रत्युषा के आँचल  में बिखरे रंगों को समेटे और अधिक गहरी  हो गयी है रंगत जिसकी ---ऐसी  है  वो  हिंदी  मेरी भारत माँ के  माथे  की बिंदी।
वहै मुसक्यानि, वहै मृदु बतरानि, वहै
लड़कीली बानि आनि उर मैं अरति है।
वहै गति लैन औ बजावनि ललित बैन,
वहै हँसि दैन, हियरा तें न टरति है।------------  
हियरा  में  लागि ज्यूँ  कटार --बस यूँ  ही   समाई  है हिंदी   भारतीयों  की  आत्मा  में  अपनी  बड़ी  बहन  संस्कृत  के  साथ  ---सर्जरी  करो  तो  भी  न  निकलेगी  ०००। 
संस्कृत  जब  कठिन  लगी  तो  वो  प्राकृत  में  ढली  पर  वो  लोच  न  आयी  तो  हिंदी  में  ढली। हिंदी ; इसने  तो  सनातनी  बड़े-बूढ़ों  की  तरह  सभी  बाहरी भाषाओं  को  अपना  लिया।  प्रांतीय भाषाओं  में  आज  कुछ  हिंदी  से  प्रभावित  हैं  कुछ  संस्कृत  से। 
क्षेत्रीय एवं प्रांतीय भाषाएँ , हिंदी  की  सहेलियां  हैं  ,
उसके  आँचल  में  टँके हुए  रंगबिरंगे सितारे  है। 
अवधि, ब्रज, भोजपुर ,कौरवी ,गढ़वाली ,तमिल तेलगु कन्नड़ ,बंगला 
असमी पंजाबी ,गुजराती  मराठी ,कुमाउनी ,आदि  भाषा -बोलियां , कई  सहेलियां  है  हिंदी  की। 
अब तो अंग्रेजी भी  सहेली बन गयी है।
और उर्दू वो तो छोटी बहन  ही है ,
बस इसीलिये है हिंदी ,
मेरी माँ के माथे की बिंदी ,
  मेरे भारत  के  गौरवशाली मस्तक का ,टीका।  
इसे क्षेत्रीयता  या  क्षेत्रीय  भाषाओं से नही                    

केवल और केवल वोट के लालची ,नेताओं से खतरा  है  ---अन्य प्रांतीय और  क्षेत्रीय भाषाएँ तो 
तरह तरह की रंग बिरंगी बिंदियां है।जैसे  हर पोशाक के लिये उससे मिलती जुलती बिंदी वैसे ही हर क्षेत्र के लिये एक बोली उस क्षेत्र की मिठास और रंगीनी को जज्ब करती हुई। हिंदी भाषी लोग और क्षेत्रीय जनता जाने कब  ये  समझेगी  --
ये एक दिनी सम्मान ,हिंदी के  महत्व के लिए नही 
हिंदी बोलने वालों को  बहकाने  के  लिए  है। 
काश  हम  अपनी माँ के माथे  से  बिंदी  कभी न मिटने दें। 
पर  रूढियां ---
हिंदी दिवस तो तबही जब हिंदी राष्ट्र को एक सूत्र  में  पिरोने  वाली  बड़ी बहन का रूप लेगी ,तथा अन्य भाषाएँ  उसके  झंडे तले  फलेफूलेंगी। 
वन्दनीय हो जन जन की ,
जगमगाये जीवन  में  हिंदी  
हर रंग  इसका न्यारा  
हर  आकार  इसका प्यारा  
पूरब  से  पच्छम तक 
उत्तर से  दक्खन तक ,
हर  भाषा  में  रंग  हो  इसका  
हर  भाषा  इसकी  सहोदरी।     -----



Sunday, 11 September 2016

एक पुरानी पोस्ट  --लिख के  भूल गयी और राक्षसों का भी वर्णन करने की बात  थी  --याद  आ गया  अब पढ़ के ---अब  तो  हमारे  भीतर  का  राक्षस  ही  बलवान  होता  जा  रहा  है  --उसकी  तुलना  ही  कुछ  के  साथ  करूँगी  ---

बैठे ठाले --------
कहते हैं खाली दिमाग शैतान का घर। अरे नहीं ,दिमाग है बाबू ;ऊँचे निर्वात पहाड़ों में भी कुछ न कुछ वायु तो होती ही है ,चाहे कम दबाव का क्षेत्र ही क्यों न हो पर शून्य नहीं होता ----
जी; तो आज इस कम वायु के दबाव वाले हिमालय प्रदेश को त्रिकुट पर्वत [लंका वाले ]घूमने का शौक चर्राया। यूँ ही नहीं ,वरन मेरी नित्य रामचरित मानस के पाठ में लंका कांड चल रहा है। पाठ के बाद मैं समय मिलने पे क्षेपक कथाएँ भी पढ़ लेती हूँ। बस कई दिनों से राक्षस जाती पे मंथन चल रहा था। राक्षस ! शब्द से ही हमारे मन में काला -भुरंड ,दुष्ट पापी व्यक्ति की तस्वीर बनती है पर यकीन मानिये ऐसा है नहीं। यदि केवल तुलसी और वाल्मीकि रावण को ही आधार बनाया जाये तो भी ये स्पष्ट है कि राक्षस जाती शिव भक्त ,संस्कारित ,उच्च शिक्षा प्राप्त और सुंदरता से परिपूर्ण थी। इसकी स्त्रियां विदुषी ,ईश्वर भक्त थीं और परिवार की रीढ़ होती थीं। संस्कृति ,धर्म ,ज्ञान ,विज्ञान ,कला ,संगीत, युद्ध कौशल ,सर्वगुण संपन्न जाती थी ये जिससे मनुष्य तो क्या देवता भी ईर्ष्या करते थे। मंदोदरी ,सुलोचना ,बिन्दुमति ,त्रिजटा ,लंकिनी ,सुरसा ये सभी परम विदुषी और ब्रह्म ज्ञानी स्त्रियां थी। इन्होने रावण ,मेघनाथ ,नरान्तक सभी को समझाने की भरसक कोशिश की --पर कहते हैं न कि स्त्री ही धर्म को सँभालने वाली होती है लेकिन जब पुरुष से धर्म ही लोप हो जाए तो वो किसे संभाले ---तो यही थी वो राक्षसी प्रवृति धर्म का लोप। भक्ष -अभक्ष्य खाने और रोज के मदिरा पान से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती थी ,जब तक स्त्रियां सम्भालतीं पुन: मदिरा पान और मांस का सेवन होता ,उच्च कोटि की जाती तो थी ही अहंकार ,मद ,क्रोध क्रूरता जैसे दुर्गुणों ने घेर लिया। वरना तो जब कुम्भकर्ण को उठाने गया रावण युद्ध के समय तो उसने रावण को खूब लताड़ा कि उसने जगदम्बा भवानी को हरण करने का पाप किया है ,तू इस कुल का नाशक होगा। यही विभीषण ने भी कहा था ,पर रावण कुम्भकर्ण पे रोष न कर पाया -क्यूंकि अब तक परिस्तिथियाँ बदल चुकी थीं। कुम्भकर्ण राम की शरण में जाने को बोल रहा था --
''अजहुँ तात त्यागहु अभिमाना ,भजहुँ राम होइहि कल्याना '
'''बिन विचार तुम कारज ठाना । तातें नहीं होइहि कल्याना '' ॥
और देखिये ------
-''तात राम प्राकृत नर नाही ,पूरण ब्रह्म लखहु मन माहीं।।''---
''त्यागी नीति पथ धर्म तजि ,हरि आनी पर नारि।
राजनीति परमार्थता तुम सब दिनि बिसारि ''॥
''राम रूप गुन सुमिरि मन ,मग्न भयहु क्षण एक ''।
रावण माँगेउ कोटि घट ,मद अरु महिष अनेक ''॥ -----------
और अपने को भूलने के लिये मद और महिष का भक्षण किया क्यूंकि इसके बिना वो राक्षस नहीं बन सकता था। मद और मांस के भक्षण से सारी संवेदनाएं नष्ट होके बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। पर फिर भी युद्ध क्षेत्र में विभीषण उसको प्रणाम करने आया तो कुम्भकर्ण बोला ---
''सुन सुत भयहु काल बस रावण ----------------------------
धन्य धन्य तैं धन्य विभीषण ,भयहु तात निशिचर कुल भूषण ''॥
बंधु वंश तैं कीन्हि उजागर ,भजेहु राम शोभा सुखसागर ''॥ ------------
उसपे नशा छाने लगा तो विभीषण से बोला ---
''कर्म वचन मनकपट तजि ,भजहु तात रघुवीर।
जाहु न निजपर सूझ मोहि ,भयहु कालवश वीर ''॥ ---
स्वयं ही अनुज को कह दिया अब तुम जाओ अब मुझे अपना परया कुछ नहीं सूझ रहा ,मैं काल के वश हो गया हूँ ,तुम रामजी के चरणो में जाओ ,शायद इस तरह से उसे ये भी मालूम था कि छोटे भाई के कारण वंश का समूल नाश नहीं होगा। आज केवल कुम्भकर्ण के माध्यम से मांस मदिरा के दोषों का वर्णन जिसने एक ज्ञान विज्ञान युक्त जाती को विनाश की ओर धकेल दिया।
आज हमारे देश में भी मांस और मदिरा की खूब वकालत हो रही है ,क्या हम इतिहास से सबक ले सकते हैं या धर्मग्रन्थ और इतिहास केवल भ्रम फ़ैलाने के लिए उपयोग में लाते हैं हम। ----
कल फिर एक और राक्षस का वर्णन और गुण -अवगुण को समझने की कोशिश ---यूँ ही स्वांत:सुखाय के लिए फिर निर्वात मन भी तो त्रिकूट पर्वत पे ही है सुंदर पर्वत की चोटी में अशोक वाटिका में ---॥ आभा।।