एक पुरानी पोस्ट --लिख के भूल गयी और राक्षसों का भी वर्णन करने की बात थी --याद आ गया अब पढ़ के ---अब तो हमारे भीतर का राक्षस ही बलवान होता जा रहा है --उसकी तुलना ही कुछ के साथ करूँगी ---
बैठे ठाले --------
कहते हैं खाली दिमाग शैतान का घर। अरे नहीं ,दिमाग है बाबू ;ऊँचे निर्वात पहाड़ों में भी कुछ न कुछ वायु तो होती ही है ,चाहे कम दबाव का क्षेत्र ही क्यों न हो पर शून्य नहीं होता ----
जी; तो आज इस कम वायु के दबाव वाले हिमालय प्रदेश को त्रिकुट पर्वत [लंका वाले ]घूमने का शौक चर्राया। यूँ ही नहीं ,वरन मेरी नित्य रामचरित मानस के पाठ में लंका कांड चल रहा है। पाठ के बाद मैं समय मिलने पे क्षेपक कथाएँ भी पढ़ लेती हूँ। बस कई दिनों से राक्षस जाती पे मंथन चल रहा था। राक्षस ! शब्द से ही हमारे मन में काला -भुरंड ,दुष्ट पापी व्यक्ति की तस्वीर बनती है पर यकीन मानिये ऐसा है नहीं। यदि केवल तुलसी और वाल्मीकि रावण को ही आधार बनाया जाये तो भी ये स्पष्ट है कि राक्षस जाती शिव भक्त ,संस्कारित ,उच्च शिक्षा प्राप्त और सुंदरता से परिपूर्ण थी। इसकी स्त्रियां विदुषी ,ईश्वर भक्त थीं और परिवार की रीढ़ होती थीं। संस्कृति ,धर्म ,ज्ञान ,विज्ञान ,कला ,संगीत, युद्ध कौशल ,सर्वगुण संपन्न जाती थी ये जिससे मनुष्य तो क्या देवता भी ईर्ष्या करते थे। मंदोदरी ,सुलोचना ,बिन्दुमति ,त्रिजटा ,लंकिनी ,सुरसा ये सभी परम विदुषी और ब्रह्म ज्ञानी स्त्रियां थी। इन्होने रावण ,मेघनाथ ,नरान्तक सभी को समझाने की भरसक कोशिश की --पर कहते हैं न कि स्त्री ही धर्म को सँभालने वाली होती है लेकिन जब पुरुष से धर्म ही लोप हो जाए तो वो किसे संभाले ---तो यही थी वो राक्षसी प्रवृति धर्म का लोप। भक्ष -अभक्ष्य खाने और रोज के मदिरा पान से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती थी ,जब तक स्त्रियां सम्भालतीं पुन: मदिरा पान और मांस का सेवन होता ,उच्च कोटि की जाती तो थी ही अहंकार ,मद ,क्रोध क्रूरता जैसे दुर्गुणों ने घेर लिया। वरना तो जब कुम्भकर्ण को उठाने गया रावण युद्ध के समय तो उसने रावण को खूब लताड़ा कि उसने जगदम्बा भवानी को हरण करने का पाप किया है ,तू इस कुल का नाशक होगा। यही विभीषण ने भी कहा था ,पर रावण कुम्भकर्ण पे रोष न कर पाया -क्यूंकि अब तक परिस्तिथियाँ बदल चुकी थीं। कुम्भकर्ण राम की शरण में जाने को बोल रहा था --
''अजहुँ तात त्यागहु अभिमाना ,भजहुँ राम होइहि कल्याना '
'''बिन विचार तुम कारज ठाना । तातें नहीं होइहि कल्याना '' ॥
और देखिये ------
-''तात राम प्राकृत नर नाही ,पूरण ब्रह्म लखहु मन माहीं।।''---
''त्यागी नीति पथ धर्म तजि ,हरि आनी पर नारि।
राजनीति परमार्थता तुम सब दिनि बिसारि ''॥
''राम रूप गुन सुमिरि मन ,मग्न भयहु क्षण एक ''।
रावण माँगेउ कोटि घट ,मद अरु महिष अनेक ''॥ -----------
और अपने को भूलने के लिये मद और महिष का भक्षण किया क्यूंकि इसके बिना वो राक्षस नहीं बन सकता था। मद और मांस के भक्षण से सारी संवेदनाएं नष्ट होके बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। पर फिर भी युद्ध क्षेत्र में विभीषण उसको प्रणाम करने आया तो कुम्भकर्ण बोला ---
''सुन सुत भयहु काल बस रावण ----------------------------
धन्य धन्य तैं धन्य विभीषण ,भयहु तात निशिचर कुल भूषण ''॥
बंधु वंश तैं कीन्हि उजागर ,भजेहु राम शोभा सुखसागर ''॥ ------------
उसपे नशा छाने लगा तो विभीषण से बोला ---
''कर्म वचन मनकपट तजि ,भजहु तात रघुवीर।
जाहु न निजपर सूझ मोहि ,भयहु कालवश वीर ''॥ ---
स्वयं ही अनुज को कह दिया अब तुम जाओ अब मुझे अपना परया कुछ नहीं सूझ रहा ,मैं काल के वश हो गया हूँ ,तुम रामजी के चरणो में जाओ ,शायद इस तरह से उसे ये भी मालूम था कि छोटे भाई के कारण वंश का समूल नाश नहीं होगा। आज केवल कुम्भकर्ण के माध्यम से मांस मदिरा के दोषों का वर्णन जिसने एक ज्ञान विज्ञान युक्त जाती को विनाश की ओर धकेल दिया।
आज हमारे देश में भी मांस और मदिरा की खूब वकालत हो रही है ,क्या हम इतिहास से सबक ले सकते हैं या धर्मग्रन्थ और इतिहास केवल भ्रम फ़ैलाने के लिए उपयोग में लाते हैं हम। ----
कल फिर एक और राक्षस का वर्णन और गुण -अवगुण को समझने की कोशिश ---यूँ ही स्वांत:सुखाय के लिए फिर निर्वात मन भी तो त्रिकूट पर्वत पे ही है सुंदर पर्वत की चोटी में अशोक वाटिका में ---॥ आभा।।
कहते हैं खाली दिमाग शैतान का घर। अरे नहीं ,दिमाग है बाबू ;ऊँचे निर्वात पहाड़ों में भी कुछ न कुछ वायु तो होती ही है ,चाहे कम दबाव का क्षेत्र ही क्यों न हो पर शून्य नहीं होता ----
जी; तो आज इस कम वायु के दबाव वाले हिमालय प्रदेश को त्रिकुट पर्वत [लंका वाले ]घूमने का शौक चर्राया। यूँ ही नहीं ,वरन मेरी नित्य रामचरित मानस के पाठ में लंका कांड चल रहा है। पाठ के बाद मैं समय मिलने पे क्षेपक कथाएँ भी पढ़ लेती हूँ। बस कई दिनों से राक्षस जाती पे मंथन चल रहा था। राक्षस ! शब्द से ही हमारे मन में काला -भुरंड ,दुष्ट पापी व्यक्ति की तस्वीर बनती है पर यकीन मानिये ऐसा है नहीं। यदि केवल तुलसी और वाल्मीकि रावण को ही आधार बनाया जाये तो भी ये स्पष्ट है कि राक्षस जाती शिव भक्त ,संस्कारित ,उच्च शिक्षा प्राप्त और सुंदरता से परिपूर्ण थी। इसकी स्त्रियां विदुषी ,ईश्वर भक्त थीं और परिवार की रीढ़ होती थीं। संस्कृति ,धर्म ,ज्ञान ,विज्ञान ,कला ,संगीत, युद्ध कौशल ,सर्वगुण संपन्न जाती थी ये जिससे मनुष्य तो क्या देवता भी ईर्ष्या करते थे। मंदोदरी ,सुलोचना ,बिन्दुमति ,त्रिजटा ,लंकिनी ,सुरसा ये सभी परम विदुषी और ब्रह्म ज्ञानी स्त्रियां थी। इन्होने रावण ,मेघनाथ ,नरान्तक सभी को समझाने की भरसक कोशिश की --पर कहते हैं न कि स्त्री ही धर्म को सँभालने वाली होती है लेकिन जब पुरुष से धर्म ही लोप हो जाए तो वो किसे संभाले ---तो यही थी वो राक्षसी प्रवृति धर्म का लोप। भक्ष -अभक्ष्य खाने और रोज के मदिरा पान से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती थी ,जब तक स्त्रियां सम्भालतीं पुन: मदिरा पान और मांस का सेवन होता ,उच्च कोटि की जाती तो थी ही अहंकार ,मद ,क्रोध क्रूरता जैसे दुर्गुणों ने घेर लिया। वरना तो जब कुम्भकर्ण को उठाने गया रावण युद्ध के समय तो उसने रावण को खूब लताड़ा कि उसने जगदम्बा भवानी को हरण करने का पाप किया है ,तू इस कुल का नाशक होगा। यही विभीषण ने भी कहा था ,पर रावण कुम्भकर्ण पे रोष न कर पाया -क्यूंकि अब तक परिस्तिथियाँ बदल चुकी थीं। कुम्भकर्ण राम की शरण में जाने को बोल रहा था --
''अजहुँ तात त्यागहु अभिमाना ,भजहुँ राम होइहि कल्याना '
'''बिन विचार तुम कारज ठाना । तातें नहीं होइहि कल्याना '' ॥
और देखिये ------
-''तात राम प्राकृत नर नाही ,पूरण ब्रह्म लखहु मन माहीं।।''---
''त्यागी नीति पथ धर्म तजि ,हरि आनी पर नारि।
राजनीति परमार्थता तुम सब दिनि बिसारि ''॥
''राम रूप गुन सुमिरि मन ,मग्न भयहु क्षण एक ''।
रावण माँगेउ कोटि घट ,मद अरु महिष अनेक ''॥ -----------
और अपने को भूलने के लिये मद और महिष का भक्षण किया क्यूंकि इसके बिना वो राक्षस नहीं बन सकता था। मद और मांस के भक्षण से सारी संवेदनाएं नष्ट होके बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। पर फिर भी युद्ध क्षेत्र में विभीषण उसको प्रणाम करने आया तो कुम्भकर्ण बोला ---
''सुन सुत भयहु काल बस रावण ----------------------------
धन्य धन्य तैं धन्य विभीषण ,भयहु तात निशिचर कुल भूषण ''॥
बंधु वंश तैं कीन्हि उजागर ,भजेहु राम शोभा सुखसागर ''॥ ------------
उसपे नशा छाने लगा तो विभीषण से बोला ---
''कर्म वचन मनकपट तजि ,भजहु तात रघुवीर।
जाहु न निजपर सूझ मोहि ,भयहु कालवश वीर ''॥ ---
स्वयं ही अनुज को कह दिया अब तुम जाओ अब मुझे अपना परया कुछ नहीं सूझ रहा ,मैं काल के वश हो गया हूँ ,तुम रामजी के चरणो में जाओ ,शायद इस तरह से उसे ये भी मालूम था कि छोटे भाई के कारण वंश का समूल नाश नहीं होगा। आज केवल कुम्भकर्ण के माध्यम से मांस मदिरा के दोषों का वर्णन जिसने एक ज्ञान विज्ञान युक्त जाती को विनाश की ओर धकेल दिया।
आज हमारे देश में भी मांस और मदिरा की खूब वकालत हो रही है ,क्या हम इतिहास से सबक ले सकते हैं या धर्मग्रन्थ और इतिहास केवल भ्रम फ़ैलाने के लिए उपयोग में लाते हैं हम। ----
कल फिर एक और राक्षस का वर्णन और गुण -अवगुण को समझने की कोशिश ---यूँ ही स्वांत:सुखाय के लिए फिर निर्वात मन भी तो त्रिकूट पर्वत पे ही है सुंदर पर्वत की चोटी में अशोक वाटिका में ---॥ आभा।।
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