Friday, 16 September 2016



न जाने क्यूँ मुझे लग रहा है मैं बारहसींगा बन गयी हूँ ....कई सारे सींग सर पे एक -साथ उग आये है . कितने सींग,और हर एक के सिरे पे एक दिमाग और उतनी ही आँखें ...कई उलझनों को एक साथ सुलझाता दिमाग और लक्ष्य को देखती आँखें...परेशानियां आदमी को बारहसींगा ही बना देता हैं .. परेशानी के जंगल में भटकते हुए कहीं से भी असावधानी हुई तो दुर्घटना घटी यानी उलझ जाओ बेचारे बारहसींगा के सींगों की मानिंद उलझनों के जंगल में .... मारीच विद्वान् था शायद इसी लिए सोनेका बारहसींगा नहीं बना ! क्यापूछते हो क्यूँ ? अरे भई फिर तो खुद ही उलझ जाता न ! जंगल में राम को बहुत दूर न ले जा पाता,,,फिर सीता -हरण भी न होता और सुंदर -कांड भी न होता ,,,सबसे बड़ी बात हम कलयुग वासियों के संबल हनुमानजी भी न होते तो जब हम डरते तो क्या करते ?और .....बूढ़ भये ,बलि ,मेरिहि बार ,की हारि परे बहुते नत पाले || ....किसे उलाहना देते ... हर घटना की और हर पात्र की अपनी एक अहमियत है तो शायद मैं जो ये अपने को बारहसींगा समझने लगी हूँ इसकी भी कोई न कोई अहमियत तो होगी ही .....पर काश मैं सोने का मृग होती ..इतने सारे सींगों पे उग -आयीं आँखें और दिमाग ओरिजनल पे भारी तो न पड़ते . कुछ नहीं बस सर पे थोडा सा दर्द था .....आभा .........

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