कल शाम एक बुजुर्ग शख्स एक सब्जी की दुकान में जोर -जोर से बोल रहे थे --ये श्राद्ध व्राद्ध कुछ नही ,मैं एक वर्ष का था मेरी माँ मुझे छोड़ के मर गयी थी ,अब मैं अस्सी का हूँ --क्या अब तक वो कहीं पैदा नही हुई होगी ---और मैं पितृ मान के बामन ,चील कव्वों को खिलाऊं रबिश ---ये रूढ़ियाँ हैं --मैं बोल पड़ी ,सरजी --पितरों का एक दिन आपके एक वर्ष के बराबर होता है ,आपकी माँ को गये अभी अस्सी दिन ही हुए हैं ,हो सकता है न जन्मी हों कहीं --मैं रैंडम बोल पड़ी थी किसी को जानती नही थी सो रुकना नही चाहती थी पर पीछे से वो बोले --बहनजी आपको ये कैसे पता कोई प्रमाण है --मैंने इतना ही कहा जी सर --जैसे ये सत्य है आपकी माँ जब एक वर्ष के थे तभी सिधार गयीं थी वैसे ही ये भी सच है --पढ़ना शुरू कीजिये --हर ज्ञान पुस्तकों से ही मिलता है --पढ़िए मनन कीजिये फिर रूढ़ियों , संस्कारों और परम्पराओं में अंतर कर पाएंगे , वैसे आप मुझसे बहुत बड़े हैं सो माफ़ी मांगती हूँ पर संस्कारों की इतनी बेज्जती सहन नही होती ,न चाहने पे भी बोल पड़ती हूँ ----पता नही मैंने गलत किया या सही --पर मैं श्राद्ध पक्ष को मानती हूँ --कारण कई हैं ---पूरे वैज्ञानिक भी और सामाजिक भी --------------
श्राद्ध पक्ष ----जड़ों की ओर जाने का उत्सव ,प्रकृति से प्रेम का उत्सव ,ब्रह्माण्ड से नाता जोड़ने का उत्सव ,इतिहास ,सभ्यता ,संस्कृति को नमन करने और पुनर्संस्थापन का उत्सव ,आओ पुरखों की आराधना करें ----------------------------
अनन्तचतुर्दशी +पूर्णिमा ====गणपति अपने गाँव चले कैसे हमको चैन मिले ,पर पितृ आ गए हैं न ,कितना शुभ संयोग बन पड़ा है ''मानने वालों के लिए '' । मेरे पित्रों के भी पितृ --श्रद्धासुमन सभी पितरों को - मेरी माँ का श्राद्ध है -पूर्णिमा श्राद्ध। शास्त्र में लिखा है या नहीं मुझे नहीं ज्ञात ,पर सुना है बेटे ही श्राद्ध कर्म करते है , मैं इस बात को नहीं मानती। माँ पिता ने बेटियों को भी उसी शिद्द्त से पाला है ,उतना ही श्रम किया बेटियों के लिये तो बेटियों को क्यूं नही अधिकार होना चाहिये तर्पण दान का। यदि पितृ उतरे ही हैं इस धरती पे --''चाहे हम उन्हें याद कर रहें हैं तो वो यादों की चुंबकीय तरगें ब्रह्माण्ड में घूमने लगती है और एक आभासीय पितृ मंडल बना देती हैं ''--तो बेटियों के घर भी अवश्य ही आएंगे --तो क्यों हमारे घरों से वो यूँ ही लौट जाएँ ,केवल इसलिए कि हम शादी करके दूसरे घर में आजाती हैं ,पर ब्याही बेटी के घर माबाप आयें और यूँ ही बिना मान सम्मान के लौट जायें तो ये ठीक होगा क्या? वेदों में स्पष्ट कहा गया है ,विवाहोपरांत कन्या अपने मातापिता और वर के मातापिता दोनों का पालन करे। तो सभी युवा ,अधेड़ ,बूढी कन्याओं ,अपने ससुराल पक्ष के साथ ,मायके के पितरों का भी स्वागत करो ,केवल तर्पण 'जल-तिल 'और श्रद्धा से झूम उठते हैं वो। -----
ॐब्रह्मा तृप्यताम् | ॐ विष्णुस्तृप्यताम् | ॐ रुद्र्स्तृप्यताम् | ॐ प्रजापतिस्तृप्यताम् |ॐ देवास्तृप्य न्ताम् | ॐ छ्न्दासि तृप्यन्ताम् | ॐ वेदास्तृप्यन्ताम् |ॐ ऋषियस्तृप्यन्ताम् |ॐ पुराणाचार्यास्तृप्यन्ताम् | ॐ गन्धर्वास्तृप्यन्ताम् | ॐ इतराचार्यास्तृप्यन्ताम् | ॐ संवत्सर:सावयव स्तृप्यताम् |ॐ देव्यस्तृप्यन्ताम् | ॐ अपसरस्तृप्यन्ताम् | ॐ देवानुगास्तृप्यन्ताम् | ॐ नागास्तृप्य न्ताम् | ॐ सागरास्तृप्यन्ताम् | ॐ पर्वतास्तृप्यन्ताम् | ॐ सरितस्तृप्यन्ताम् | ॐ मनुष्यास्तृप्यन्ताम् | ॐ यक्षास्तृप्यन्ताम् | ॐ रक्षांसि तृप्यन्ताम् | ॐ पिशाचास्तृप्यन्ताम् | ॐ सुपर्णास्तृप्यन्ताम् | ॐ भूतानितृप्यन्ताम् | ॐ पशवस्तृप्यन्ताम् | ॐ वनस्पतयस्तृप्यन्ताम् | ॐ औषधयस्तृप्यन्ताम् | ॐ भूतग्रामश्चतुर्विधस्तृप्यताम् | ..............इसके पश्चात्
मरीचिस्तृप्यताम् और ऐसे ही ,अत्री ,अंग्गिरा ,पुलस्त्य, पुल्हस्त्य,क्रतु ,वसिष्ठ ,प्रचेता ,भृगु और नारद ऋषियों का तर्पण ....फिर दिव्य मनुष्य ---जैसे सनक ,सनकादिक ,सनातन ,कपिल ,आसुरि,वोढु,पंचशिख का तर्पण ,...... इसके पश्चात .. सोम ,यम ,अग्नि ,धर्मराज ,मृत्यु ,अनन्त ,वैवस्त ,समस्त रंग ,चित्र ,चित्रगुप्त ,परमेश्वर ...और फिर ...
पीढ़ियों के हिसाब से वसु रूप ,रूद्र रूप और आदित्य रूप मानते हुए पहले पितृ कुल को .फिर मातृ कुल को और सौतेले माँ बाप भाई बहिनों को भी ,......
कितनी खूबसूरत परम्परा है सबका धन्यवाद करने की ,सबको याद करने की ,और सबके प्रति श्रद्धा प्रकट करने की | इस दस मिनट की प्रक्रिया में संसार को तृप्त करके स्वयं तृप्त होने का अहसास हो जाता है ,मन निश्छल हो जाता है और ब्रह्मांड से जुड़ जाता है | सबसे जुडके प्रकृति को अपनायेंगे तो लालच में उसका स्वरुप बिगाड़ने का कार्य कदापि न होगा | पर हम इस छोटी सी ,पवित्र ,पुनीत क्रिया को ढोंग ,कर्मकांड और न जाने क्या-क्या कहके अपने आधुनिक होने का डंका पीटते हैं | विश्व में है कोई धर्म जिसमे दस मिनट में और केवल जल तिल के द्वारा ,सम्पूर्ण ब्रह्मांड के पूर्वजों और प्रकृति को याद करके तृप्त भी किया जाता हो | आप को कैसे पता चलेगा कि पितृ प्रसन्न हुए ,जी हाँ ये कार्य करके आपको जो आत्मिक शांति और संतोष की प्राप्ति होती है वही प्रमाण है| समस्त ब्रह्मांड में सकारात्मक तरंगों का सम्प्रेषण होता है ,बच्चे खुश तो पूर्वज भी खुश |
अनन्तचतुर्दशी +पूर्णिमा ====गणपति अपने गाँव चले कैसे हमको चैन मिले ,पर पितृ आ गए हैं न ,कितना शुभ संयोग बन पड़ा है ''मानने वालों के लिए '' । मेरे पित्रों के भी पितृ --श्रद्धासुमन सभी पितरों को - मेरी माँ का श्राद्ध है -पूर्णिमा श्राद्ध। शास्त्र में लिखा है या नहीं मुझे नहीं ज्ञात ,पर सुना है बेटे ही श्राद्ध कर्म करते है , मैं इस बात को नहीं मानती। माँ पिता ने बेटियों को भी उसी शिद्द्त से पाला है ,उतना ही श्रम किया बेटियों के लिये तो बेटियों को क्यूं नही अधिकार होना चाहिये तर्पण दान का। यदि पितृ उतरे ही हैं इस धरती पे --''चाहे हम उन्हें याद कर रहें हैं तो वो यादों की चुंबकीय तरगें ब्रह्माण्ड में घूमने लगती है और एक आभासीय पितृ मंडल बना देती हैं ''--तो बेटियों के घर भी अवश्य ही आएंगे --तो क्यों हमारे घरों से वो यूँ ही लौट जाएँ ,केवल इसलिए कि हम शादी करके दूसरे घर में आजाती हैं ,पर ब्याही बेटी के घर माबाप आयें और यूँ ही बिना मान सम्मान के लौट जायें तो ये ठीक होगा क्या? वेदों में स्पष्ट कहा गया है ,विवाहोपरांत कन्या अपने मातापिता और वर के मातापिता दोनों का पालन करे। तो सभी युवा ,अधेड़ ,बूढी कन्याओं ,अपने ससुराल पक्ष के साथ ,मायके के पितरों का भी स्वागत करो ,केवल तर्पण 'जल-तिल 'और श्रद्धा से झूम उठते हैं वो। -----
ॐब्रह्मा तृप्यताम् | ॐ विष्णुस्तृप्यताम् | ॐ रुद्र्स्तृप्यताम् | ॐ प्रजापतिस्तृप्यताम् |ॐ देवास्तृप्य न्ताम् | ॐ छ्न्दासि तृप्यन्ताम् | ॐ वेदास्तृप्यन्ताम् |ॐ ऋषियस्तृप्यन्ताम् |ॐ पुराणाचार्यास्तृप्यन्ताम् | ॐ गन्धर्वास्तृप्यन्ताम् | ॐ इतराचार्यास्तृप्यन्ताम् | ॐ संवत्सर:सावयव स्तृप्यताम् |ॐ देव्यस्तृप्यन्ताम् | ॐ अपसरस्तृप्यन्ताम् | ॐ देवानुगास्तृप्यन्ताम् | ॐ नागास्तृप्य न्ताम् | ॐ सागरास्तृप्यन्ताम् | ॐ पर्वतास्तृप्यन्ताम् | ॐ सरितस्तृप्यन्ताम् | ॐ मनुष्यास्तृप्यन्ताम् | ॐ यक्षास्तृप्यन्ताम् | ॐ रक्षांसि तृप्यन्ताम् | ॐ पिशाचास्तृप्यन्ताम् | ॐ सुपर्णास्तृप्यन्ताम् | ॐ भूतानितृप्यन्ताम् | ॐ पशवस्तृप्यन्ताम् | ॐ वनस्पतयस्तृप्यन्ताम् | ॐ औषधयस्तृप्यन्ताम् | ॐ भूतग्रामश्चतुर्विधस्तृप्यताम् | ..............इसके पश्चात्
मरीचिस्तृप्यताम् और ऐसे ही ,अत्री ,अंग्गिरा ,पुलस्त्य, पुल्हस्त्य,क्रतु ,वसिष्ठ ,प्रचेता ,भृगु और नारद ऋषियों का तर्पण ....फिर दिव्य मनुष्य ---जैसे सनक ,सनकादिक ,सनातन ,कपिल ,आसुरि,वोढु,पंचशिख का तर्पण ,...... इसके पश्चात .. सोम ,यम ,अग्नि ,धर्मराज ,मृत्यु ,अनन्त ,वैवस्त ,समस्त रंग ,चित्र ,चित्रगुप्त ,परमेश्वर ...और फिर ...
पीढ़ियों के हिसाब से वसु रूप ,रूद्र रूप और आदित्य रूप मानते हुए पहले पितृ कुल को .फिर मातृ कुल को और सौतेले माँ बाप भाई बहिनों को भी ,......
कितनी खूबसूरत परम्परा है सबका धन्यवाद करने की ,सबको याद करने की ,और सबके प्रति श्रद्धा प्रकट करने की | इस दस मिनट की प्रक्रिया में संसार को तृप्त करके स्वयं तृप्त होने का अहसास हो जाता है ,मन निश्छल हो जाता है और ब्रह्मांड से जुड़ जाता है | सबसे जुडके प्रकृति को अपनायेंगे तो लालच में उसका स्वरुप बिगाड़ने का कार्य कदापि न होगा | पर हम इस छोटी सी ,पवित्र ,पुनीत क्रिया को ढोंग ,कर्मकांड और न जाने क्या-क्या कहके अपने आधुनिक होने का डंका पीटते हैं | विश्व में है कोई धर्म जिसमे दस मिनट में और केवल जल तिल के द्वारा ,सम्पूर्ण ब्रह्मांड के पूर्वजों और प्रकृति को याद करके तृप्त भी किया जाता हो | आप को कैसे पता चलेगा कि पितृ प्रसन्न हुए ,जी हाँ ये कार्य करके आपको जो आत्मिक शांति और संतोष की प्राप्ति होती है वही प्रमाण है| समस्त ब्रह्मांड में सकारात्मक तरंगों का सम्प्रेषण होता है ,बच्चे खुश तो पूर्वज भी खुश |
ये सनातन धर्म की ही महानता है जिसमें हर वर्ष आज के पूर्वजों के साथ ,सदियों पूर्व के यहाँ तक कि वैदिक काल के पूर्वजों को भी श्रद्धा पूर्वक याद किया जाता है | जहाँ भूत ,प्रेत ,यक्ष ,राक्षस ,गन्धर्व ,नदी ,सागर ,औषधि ,वनस्पति ,पशु -पक्षी सभी को एक साथ जलांजलि देके नमन किया जाता है |
ये श्राद्ध पर्व जल के महत्व का पर्व है ,जल ही जीवन है उससे पुरखे भी तर जाते हैं ,वैसे तो गंगावतरण में ही गंगा जल से पुरखों के तरने की कथा जल की महत्व को सिद्ध करने के लिए काफी है ,पर हर वर्ष भी हमें स्वच्छ और निर्मल गंगा जल चाहिये ही अपने पित्रों के तर्पण के लिए | गंगा को स्वच्छ रखने के लिए क्या इतना ही काफी नहीं है | पुन: संस्थापन पूरे उत्साह और बिना आडम्बर के होना ही चाहिये इस पर्व का |
पित्रों को नही मानते हैं कोई बात नही , बच्चों को बुजुर्गों को याद करना और सम्मान देने के लिए मनाइये ये त्यौहार। जल को स्वच्छ और पवित्र रखने की कवायद के तौर पे मनाइये ये त्यौहार। तिल --सात भाइयों की कहानी सुनी ही होगी --एक तिल के दाने को बाँट के खाया था ,माँ के कहने पे और भूख भी मिट गयी थी ---तो कमी में भी एक जुट रहना , प्यार बड़ों की बात का सम्मान ,संगठित शक्ति --ये बातें संतति में स्थान्तरित हों ,इसलिये मनाइये ये त्यौहार।
गाय- कुत्ता= चींटी -कव्वा - ब्राह्मण- जल -तिल -कुश ---करना ही क्या है --- तिरिस्कृत से तिरिस्कृत को भी सम्मान देना है बस।
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