बैठे- ठाले
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** और माँ लक्ष्मी भारत भ्रमण कर अपने कमल रथ पे सवार होके क्षीरसागर की ओर प्रस्थान कर ही रहीं थीं कि उन्हें आकाश मार्ग से सूर्य रथ पे सवार छठी देवी ,भगवान की मानस कन्या सूर्य की बहन देवसेना को ,सूर्य की दोनों पत्नियों उषा और प्रत्युषा संग पृथ्वी पे आते हुए देखा | उमंग और उल्लास से भरा मिलन ,अपने पतियों की बातें और -और भी बहुत-बहुत -बहुत सी बातें जो सखियों के मिलने पे होती हैं | मैं इनके मधुर मिलन की गवाह बनी भाग के गयी और सबको कुछ पल सुस्ताने का न्यौता दे ,माओं को अपने घर ले आई | पानी, चाय पकौड़े ,बेसन -बूंदी के लड्डू ,पेडे ,फिर भोजन , और गर्मागर्म जलेबी जो भी मैंने बनाया माँ ने स्वाद से खाया और फिर खूब बातें कीं हमने | मेरे मन में बहुत सी शिकायतें थी पर माँ की शरणागती में सब भूल गयी ,हाथ सर पे हो और क्या चाहिये | माँ ने भी कुछ मांगने को नहीं कहा शायद उसे पता ही होगा ये कुछ नहीं मांगेगी |माँ लक्ष्मी को तनिक विश्राम करने को कह तीनों देवियाँ कार्य हेतु निकल गयीं क्यूंकि नहाय - खाय के बाद सारे व्रती घाटों पे पहुंचना प्रारम्भ हो चुके थे , यदि उषा- प्रत्युषा नहीं पहुँच पायीं तो भगवान भुवन भास्कर कैसे पहुंचेंगे और अर्घ्य किसे चढ़ेगा | नवरात्री से लेकर छठ तक सारे अनुष्ठान देवियाँ ही समपन्न करवाती हैं | उषा -प्रत्युषा दोनों बहनें एक सुबह की सिंदूरी आभा ,दूसरी सांझ की सुनहरी लालिमा , दोनों सूर्य की किरणें सूर्य की रौशनी और ऊष्मा सातों रंगों सहित हर पल जगत को उपहार स्वरूप देती ही हैं ,अनथक ,अनुशासन बद्ध कार्य में लीन रहती हैं और माँ लक्ष्मी हर पल हमारे शुभ -मंगल के लिए प्रस्तुत रहती है हमारे पास ,पर हम हिन्दुस्तानियों को माँ को प्रति दिन का कार्य दिखाई ही नहीं देता ,उसे तो हम अपनी बपौती समझ बैठे हैं , माँ भी थकती होगी आराम चाहती होगी ये सोचने की जगह हम , नवरात्र ,दीपावली ,छठ , होई , पुत्र्जीविका ,वत सावित्री ,करवाचौथ ,शीतला अष्टमी ,जैसे कई पर्व माँ के कन्धों पे लाद बैठे हैं ,माँ हैं कि कितने स्वरूपों में प्रगट होके निभाए जा रही हैं-निभाए जा रही है |
*** विश्राम करते माँ लक्ष्मी को देख स्वर्गिक आनंद मिला पर वो शीघ्र ही जाने को तैयार हो गयीं | बोलीं पुत्री तुम्हारे पिता अकेले है क्षीर-सागर में ,मुझे चलना चाहिये , ये कमल विमान में ईंधन भी खत्म होने को है ,देखो तुम्हारी धरती के कचरे ने इसे कितना गंदा कर दिया है , कमलदल कुम्हलाने लगे हैं ,मैं इसके मुरझाने से पहले क्षीरसागर पहुंचना चाहती हूँ | अब मैं भी तो मजबूर थी ,ईंधन के रूप में शुद्ध क्षीर मैं कहाँ से लाऊं और मैं तो वैसे भी टेस्ट न बदले तो टेट्रा पैक वाला नेस्ले मिल्क ही लाती हूँ ,मुझे तो ये भी नहीं पता कि ये दूध ही है | तबही माँ ने मेरी दुविधा दूर कर दी ,माँ बोली इस बार ट्रेवल एजेंट नया था ,कोई नयी टूर एंड ट्रेवल एजेंसी है उसने विमान उपलब्ध करवाया था ,ये चित्रगुप्त के द्वारपाल रिश्वत लेके किसी को भी स्वर्ग में घुसा देते हैं ,वरना मेरा विमान तो कभी भी नहीं कुम्हलाता था ,अब जाके पूरी व्यवस्था बदलनी पड़ेगी , वरना वहां भी ऐसी ही अराजकता हो जायेगी जैसी यहाँ है |
*** माँ से पूछा मैंने ,कितना माल बाँट आयीं ,किसको माला-माल किया ,किसको दूसरे वर्ष के लिए प्रतीक्षा में छोड़ आयीं ,कहीं पारितोषिक ,तो कहीं उपालम्भ ,कहीं आहें तो कहीं वाह- वाह ! ये टूर तो बहुत अच्छा रहा होगा | तुम कैसे घर में जाना पसंद करती हो?,जब राजा बलि तुम्हें कंधे पे बिठा ले लाया था अपनी माँ की तरह ,तब तुम विष्णुजी को छोड़ के घबराई नहीं थीं | मैं भी तो वर्षों से अपना घर साफ़ करती हूँ ,चमकते हुए गेरू से मार्ग सजाती हूँ उसपे चटख धवल चावल की पीठी से तेरे छोटे छोटे ,पैर बनाती हूँ वो भी कमल के ऊपर ,रंगोली सजाती हूँ ,देवस्थान पे षोडश मात्रिका से लेकर ब्रह्मा,विष्णु महेश ,गणपति सभी के आसन मांडने मांडती हूँ ,फूलों से तेरे चित्र का श्रृंगार करती हूँ बन्दनवार ,तोरण सजाती हूँ ,स्वच्छता और शुद्धता से कई स्वादिष्ट पकवान तेरे निम्मित बनाती हूँ , और विधिवत पूजन करती हूँ दीपमाला करती हूँ ,फिर भी तू मेरे घर कभी नहीं आती ,वो तो मैंने आज तुम्हें किडनैप ही कर लिया तो दर्शन हो गये और सबसे बड़ी बात माँ तू अमावस की घुप्प काली अंधियारी रात्री को ही क्यूँ आती है ? और जिस किसी के घर में एक बार आगयी फिर सदियों के लिए उसी की तिजोरी में काला धन बन के कैद होके क्यूँ रह जाती है ?जबकि हे महामाया ! हे महा लक्ष्मी तेरी जरूरत तो संसार के सभी प्राणियों को बराबर ही है |
अब माँ की बारी थी बोलने की ,वो बोली इतने सारे प्रश्न ,इतनी सारी शंकाएं -- बिटिया मैं न कहीं आती हूँ न जाती हूँ ,मैं तो सदा ही तुम्हारे पास ही हूँ ठीक वैसे ही जैसे माँ अपने पति और अपने बच्चों के लिए हर पल मौजूद रहती है | मैं तो तुम्हारे हाथों में ही रहती हूँ .....कराग्रे वसते लक्ष्मी के रूप में .. तेरे हाथ को मैंने इसीलिए तो कमल के आकार का ही बनाया है न | पर अब लोग भ्रमजाल में फंस गये हैं , वो समझते हैं दिखावा करने पे मैं आऊँगी . पर मैं तो कर्म करने वालों के हाथ में ही हूँ ,जहाँ संतोष है वहां ही हूँ|,काला धन ,तिजोरी ,बड़ी अट्टालिकाएं ,मोटी-मोटी ज्वेलर की दुकान बनी स्त्रियाँ या छरहरी मेकअप की मॉडल जो अपना ही बोझ नहीं संभाल पाती जैसी जगहों पे मैं नहीं हूँ | तू देख बिटिया क्या मैंने गहनों को लादा है अपने ऊपर ,नहीं न ,मैं तो बहुत ही सरल और साधारण हूँ ,ये तो तुम लोगों ने मुझे चित्रों में और मन्दिरों में मुकुट गहने पहना रखे हैं ,वरना ,इन सबको लाद के क्या मैं हर वक्त काम कर सकती हूँ ? ये तो तुम ही नहीं चाहते कि कोई साधारण व्यक्ति तुम्हारा ईष्ट होवे ,इसीलिये तुम हमें असाधारण बना देते हो | बिटिया कर्म करो , संवेदनशील बनो और अपने प्रति ईमानदार रहो यही मूल मन्त्र है ,असली लक्ष्मी ,तो संतोष ,शील , संवेदना ,करुणा ,अहिंसा ,अस्तेय ,अपरिग्रह और प्राणिमात्र की सेवा ही है | प्रकृति के विनाश से अपनी स्वार्थ सिद्धि ,बाहर गंदगी -अपना घर साफ़ ,अपनी तिजोरी भरी पड़ोसी के यहाँ भूख ,ये तो समृद्धि के लक्षण कभी नहीं हो सकते पर अफ़सोस हम इन्हीं लिप्साओं की ओर भागते जा रहे है ,मनुष्य जीवन तो बहुत अनमोल है इसकी असली श्री -समृद्धि तो अपने को पहचानना है |
******************रामस्य व्रजनं बलेर्नियमनं पाण्डो: सुतानां वनं |
वृष्णिनां निधनं नलस्य नृपते ,राज्यात्परिभ्रंशनम् ||
कारागार निषेवणम् च मरणं संचित्य लंकेश्वरे |
सर्वकाल वशेन नश्यति नर: को वा परित्रायते ||----------राम का वन गमन ,बाली का बंधन ,पांडवों का बनवास ,नल का राज्य से विच्युत होना ,रावण का नाश और मृत्यु ये सब सोच के पता चलता है कि सभी मनुष्य काल गति से बंधे हैं कौन किसे बचा सकता है | जैसे एक माता पिता की सभी संतानें एक सी नहीं होतीं वैसे ही सबका भाग्य भी एक जैसा नहीं हो सकता | पर हाँ जब दुर्गति होती है तो छटपटाहट एक जैसी ही होती है | सो बिटिया मैं तो सभी के पास हूँ जो मुझे पहचान ले वही निर्भय हो जाएगा ,जो मुझे समर्पण कर देगा अपना सबकुछ ,जैसा राजा बलि की प्रजा ने किया था उसके कर्म विकर्म सब मैं देखूंगी |
*** माँ सबकी दीवाली होती है सब एक दिन को ही सही खुश तो होते ही हैं मैंने भी दीप जलाए हैं खुशियाँ बिखेरी हैं आस-पास ,सबको शुभकामनाये भी दी है पर तुझे तो पता है न ,तूने तो अमावस को ही हमारे घर का दीप बुझाया है अजय को हमसे छीन लिया , वो अमावस की ही उषा थी जब प्राची में सुनहरे लाल रथ पे सवार होकेतुम जगती को रोशन करने आयी थीं और मेरे घर के दीप को बुझा गयीं | पर कोई बात नहीं माँ ,तू तो सर्व कारणों की कारण है | तूने ऐसा क्यूँ किया ये तुझे ही मालूम '',समरथ को नहीं दोष गुसाईं '' तू देख माँ ,बच्चे मुझे खुश देखने को और मैं बच्चों की ख़ुशी को खुश होते हैं ,दीप जलाते है ,तेरे स्वागत को तोरण सजाते हैं ,बन्दनवार लगाते है और तुझसे एक ही प्रार्थना करते हैं अजय जहाँ भी हों तेरा हाथ उनके सर पर हो और हमारे सर पे सदैव तेरा हाथ बना रहे ,जब भी कोई गलत राह चलें तू बांह पकड़ के उबार लेना बस इतनी सी विनती है ये तो तुझे माननी ही पड़ेगी | इस पे माँ बोलीं ...
********************लक्ष्मी कौस्तुभ पारिजात सहज: सूनु: सुधाभ्योनिधे -
देवेन प्रणय प्रसादविधिना मूर्ध्ना धृत: शंभुना ,
अद्ध्या प्युज्क्षति: नैव दैवविहितं क्षेन्यम क्षपावल्लभ:
केनान्येन विलन्ग्ध्यते विधिगति: पाषाण रेखा सखी || ....लक्ष्मी -कौस्तुभमणि-पारिजात ,कल्पवृक्ष का भाई ,अमृत रूपी समुद्र का पुत्र -चन्द्रमा -जिसे देवाधिदेव महादेव ने प्रेम तथा प्रसन्नता से अपने मस्तक पे धारण कर रखा है ,तो भी दैवी विधान स्वरूप प्राप्त क्षीणता को वो आज भी नहीं त्यागता है | बिटिया पत्थर की रेखा सी साथिनी इस दैवगति को कौन लाँघ सकता है | इसलिए धैर्य धरो बिटिया और जो कर्म है उसे पूरी लगन से करो |
***पर माँ एक बात तो बताओ , तुम सभी ऐश्वर्यों की दाता हो तो क्या विदेशों में भी जाती हो ,वहां पे भी हिन्दुस्तानी तुम्हें ऐसे ही पूजते हैं ,अन्य सभ्यताएं किसे पूज के समृद्ध हो रही हैं ,तुम्हें तो हमने अपनी थाती मान रखा है फिर भी हमारे यहाँ कितनी गंदगी , गरीबी असभ्यता जबकि दुनियाँ के वो देश जो कभी भी लक्ष्मी पूजा नहीं करते वो सभ्य साफ़-सुथरे ,समृद्ध ये क्या विडंबना है माँ |
*** तब माँ बोली बिटिया -पुत्री ,हम तो तुमसे पहिले ही कह दिएँ थे ,की;; कराग्रे वसते लक्ष्मी '' वे लोग अपने हाथों पे विश्वास करते हैं ,अपनी समृद्धि के साथ-साथ अपने देश की समृद्धि भी चाहते है ,अल्लम-गल्लम करते हैं पर देश को लूट के खा पचा नहीं जाते , उन्होंने यदि जंगल काटे तो उतने ही लगाये भी ,अपनी नदियों को साफ रखा ,तालाबों को झीलों में परिवर्तित कर दिया ,और अपना कूड़ा साफ़ करके बाहर फेंकने की आदतों से तोबा करी ,तबही ऐसे देश धरती के स्वर्ग बन गये हैं | यदि हिन्दुस्थान में भी'' अपनाहाथ जगन्नाथ और कराग्रे वसते लक्ष्मी'' के मन्त्र को लोग अपना लें तो इस भूमि को स्वर्ग बनने से कौन रोक सकता है और ये कहके माँ ये जा और वो जा ,मुझे प्रणाम करने का मौका भी नहीं दिया ,मुझे पता है ,जब कभी बाहर से लौटने में देर हो जाती थी तो अजय कितना असहज हो जाते थे तब मैं भी यूँ ही भागी हुई घर आती थी ,क्षीर सागर पे जगतपिता विष्णुजी भी तो असहज हो रहे होंगे |
***मध्यम और निम्न मध्यम परिवारों की दीपावली ! सब जानते है --पती -पत्नी का बजट में जुगाड़ बाजी ,( अब तो खैर ई ऍम आई है ),पत्नी को घर का रंग-रोगन करना है ,हो सके तो इस दीवाली पर्दे भी बदलेंगे ,पिछली बार भी रह गये थे ,पड़ोसन ने तो सब कुछ कर लिया है ,तो यहाँ भी पत्नी अपने को गोटेवाली साड़ी पहने कमर में चाबी का छल्ला पहने ,इधर-उधर आती जाती व्यस्त दिखाती है ,कुछ देर में आंगन ,देहरी या छत तक भी हो आती है ताकि पड़ोसी देख लें कि दिवाली का काम हो रहा है ,बच्चे बाप का मुहं तकते हैं ,क्यूंकि यही शख्श है जो उनके लिए उपहार और पटाखे लाएगा | पती इस जुगाड़ में कि यदि इस बार चांदी के बजाय सोने का सिक्का आ जाये तो बुरे दिनों के लिए कुछ तो बचत हो जाये ,दिए भी जल जाएँ कुछ मिठाई भी आजाये और पटाखे भी छूट जाएँ तो मजा ही आ जाये |रात को दीपमाला ,ताकि मैया आयें तो किसी दूसरे के घर न पहुंच जाएँ , सबको पता है ये मिट्टी के दिये घंटे दो घंटे में बुझ जायेंगे ,पर गृहणी ,पूजा में अखंड दीपक जला के सारी रात ऊंघती - जागती बिताती हुई ,अब आई मैया तब आई ,पर मइया तो पिछले बरस भी नहीं आई थी ,सैकड़ों घर यूँ ही प्रतीक्षा करते रह गये |
*** पर मायूस कोई नहीं है ,दीपावली में सभी खुश थे | मैया ने इस वर्ष दस्तक नहीं दी तो कोई बात नहीं ,कोई कमी रह गयी होगी ,दूसरे वर्ष और कर्जा लेके और धूम-धाम से मनाएंगे | ये ख़ुशी है कि, दीवाली अच्छी रही | मध्यम वर्ग के घर में एक दिनी समृद्धि | ख़ुशी ,उल्लास, आनंद की सीधी - साधी मध्यमवर्गीय कल्पना ,एक रंगरोगन युक्त सजा हुआ सा घर ,सजी संवरी पत्नी ,टिपटॉप पती ,खुश ,हंसते -खेलते बच्चे ,और भरपेट सुस्वादु भोजन ,रोशनी की जगमगाहट इतनी की मुहल्ले के सामने नजरें नीची न हों बस | घर में ही स्वर्ग हो गया | सुखी जीवन और स्वर्ग की मूल भारतीय कल्पना इससे अधिक है ही क्या , हाँ यदि सही में स्वर्ग में हैं तो स्त्री को दो चार काम करने वालियां और पुरुष को दो चार अप्सराएं बस हो गया रामराज्य |
*** और अब छठ के लिए जाते सजे-धजे परिवारों को देख रही हूँ | सोच रही हूँ भारतभूमि ,पर्व और उत्सवों की भूमी है , और सभी पर्व नव-धान्य आने पे या बुआई होने के बाद के खाली समय में रखे गये ,ताकि मिलके थकान उतारी जाये ,गीत संगीत की सभाएं हों ,आपसी प्यार बढ़े और समाज में समरसता आये ,पर आज ,न तो खेती को उत्तम माना जाता है , न समरसता रह गयी है ,हर व्यक्ति स्वार्थी है ,दूसरा जाये भाड़ में मुझे क्या पड़ी वाली मानसिकता और खासकर बड़े और सभ्य कहलाने वाले शहरों में ,दिखावे की सामूहिकता और दिखावे की मित्रता , व्यक्तिनिष्ठ समाज में दिखावा ही दिखावा हो गया है ,ऐसे में क्या ये पर्व आज भी सुकून का माध्यम हैं ,शायद हाँ चाहे कुछ देर के लिए ही सही इंसान अपने को भूल जाता है || ........ बस यूँ ही बैठे ठाले की बकवास ,खाली दिमाग शैतान का घर || आभा ||