Wednesday, 31 December 2014

जाता वर्ष सभी कठिनाइयो को अपने साथ लेता जाए सर्वे भवन्तु सुखिन: का आशीर्वाद दे ______________
जीवन चलने का नाम ! माना कि रुकना मना है ,
पर ,ठहर जाओ ! ठहरो !वर्ष जो जा रहा है ,देखो उसे ,
उसकी पोटली खोलो --बाँध दो उसमे
उड़ते जहाजों के गायब होने की घटनाये
फिर कभी न ये मानवता का दिल न  दहलाएं
कश्मीर की बाढ़ ,और साम्प्रदायिक हिंसाएं
केदारनाथ की त्रासदी भी भूले न थे अभी
फैलिन तूफ़ान को ,बाढ़ की विभीषिका को
सुनामी और सूखे के कहरको
इन सभी राक्षसी मेहमानों को
बांधा तो था हमने उस पोटली में
बलात्कार के चीत्कार को -
भ्रष्टाचार के व्यवहार को -
कन्या भ्रूण के अत्याचार को -
दहशत गर्दों के दुराचार को -
बांध दो बांध दो जाते वर्ष की पोटली में .
ये बहती गंगा का प्रदूषण-
हवाओं में घुलता जहर -
भूख से पेट में पैर गड़ा के सोये बच्चे -
और कंकाल बने माँ -बाप के शरीर -
ये दंगों में बेघर मासूम -
ये शहीदों के कटे सिरों का दर्द -
ये किसानो की आत्म हत्या ,
ये सियासत दानों का झूठा प्रपंच
ये बाबाओं की मक्कारी,
 ये फ़िल्मी दुनिया की निर्लज्जता सारी
सबकुछ बाँध दो जाते वर्ष की पोटली में .
और गांठे खूब कसके और खूब सारी बांधना -
देखना कोई भी छिद्र न हो पोटली में -
कुछ भी नीचे गिर गया तो -
तो जमीन अभी गीली है -
ये विषमताओं का राक्षस रक्त बीज है -
कुछ भी पोटली से सरक गया तो -
तो - तेजी से पनपेगा -
अब कोई दुर्गा नहीं है जो काली को पैदा करे
औ खत्म  करदे इन राक्षसों को ,
 छद्म धर्म निरपेक्षता के ठेकेदारों को
उठा के बाँध दो इस पोटली में
सांस भी न ले पाएं वो आगे से
तो रुको, ठहरो !जश्न से पहले -
इस राक्षस को विदा करो
जश्न मनाओ  ,आगत का स्वागत करो -
पर जाने वाले से भी आशीष लो -!
जो जज्बा मुसीबत के समय होता है -
उसे बनाये रखना !दुश्वारियों को विदा करना
सही सोच और जज्बा देता जाए जाता वर्ष
 मंगल भवनि  अमंगल हारी हो ये नव वर्ष।
और मेटत कठिन कुअंक भाल के हो ये नव वर्ष।।आभा।।







Tuesday, 30 December 2014

बच्चों  के लिए लिखी कुछ लाइने --जो मैं हर छोटी उम्र  बच्चों को थोड़ा अदल -बदल के  देती आ रही  हूँ सर्दी के टास्क के लिये   ----
सर्दी आयी -सर्दी आई ,निकली कंबल और रजाई
 मचा हुआ  हल्ला  टी वी  में  ,देर से आयी जोर की आयी
 आना ही  था मुझको  भइया ,हर वर्ष ही आती हूँ मैं
कोहरा संग -संग लाती हूँ मैं ,कहीं घनेरा ,कहीं अँधेरा
चालीस दिनों का पड़ता चीला ,बिजली की छिपम - छिपाई
तापो सिगड़ी ,अलाव जलाओ ,मत मुहं ढ़क बच्चोसो जाओ
नर्म - नाजुक लवंग लता सी, कन्या हूँ मैं ऋतुराज की
कड़क सर्दी सुन अपना नाम  , लो रूस गयी फिर हिम  गिराई
झूम झपक बरस जाऊं मैं  ,श्वेत धवल हिम बन   झम-झम
कोमल नरम हैं मेरे फाहें , करदें सबका हर्षित मन
भोलू चीखा बर्फ पड़ी है ,नाचे मुनिया छम-छम छम
रंग बिरंगे स्वेटर पहनो ,दस्ताने मोज़े टोपा ओढो।
करो ठीक पुराने स्वैटर ,सी दो- बटन लगादो उनपर
ढूंढो आसपास सब अपने ,जो हैं वंचित देदो जाकर
आँखों में उनके  ख़ुशी मिलेगी ,माँ ने  आशीषें बरसाई
तिलबुग्गा  तिल के लड्डू , मूंगफली ,गाजर का हलुआ
रेवड़ियों की कुट -कु ट से ,सर्दी  की किट किट लजाई
कुट -घुट की गुड की चाय सर्दी का मजा है भाय
घर नहीं हैं जिनके देखो ,उनको जाके कंबल बांटो
तुम सबके प्यारे हो जाओगे ,आशीष अनेकों पा जाओगे।।आभा।।

Monday, 29 December 2014

                                                                                                ''  यादें ''
                                                                                                        *********
 ***** यादें ,बीते वर्ष की ,
बीते वर्षों की ,
यूँ लगता है किसी दूसरे जीवन की
जो ;शायद मेरा ही था -
कुछ साफ़ कुछ धुंधली
अक्सर चली आती हैं --
          वो
अतिथि की तरह आती- जाती हैं
अपनी कीमती पोटली लिये  !और
थमा देती हैं वो पोटली मुझे चुपके से
अक्सर तब -जब मैं चौके में होती हूँ।
हाँ! मिलती हूँ  मैं अक्सर चौके में ही
डरती  हूँ -अतिथी की  है पोटली
कोई चुरा ले कुछ तो !
पोटली दी है संभाल
तिजोरी में दिल की
औ लगी हूँ बनाने मैं चूल्हे पे खाना ,
पर ये क्या ?
 गांठें थी ढीली , बिखर गए मोती
यादो के मोती ,बीते पलों के मोती
बचपन की यादें ,जवानी की यादें
पिता की कहानी वो माँ  की जुबानी
यादें तुम्हारी उन पे मैं वारी
झूलों में झूलूँ बच्चों संग खेलूं
तुम्हारे संग जीवन ,वो गुजरा जमाना
 वही जो था बस अपना
अब है    अफ़साना
पका रही हूँ-  ;चूल्हे में खाना
 गयी बुझ है लकड़ी हुये  कोयले भी ठंडे
धौंकूँगी धौंकनी से ,फूकूंगी जोरों से
पा सांसों की गर्मी भक से जला चूल्हा
औ  चिंगारी बन फैलीं  अतिथि की यादे
चला गया जो भूखा ही -चौके से मेरे
चाय भी न पी पाया --
बनाई तो थी मैंने  नए गुड से
यादों का ये धुंवां
हवन का धुंवां ,सुलगती
गीली लकड़ी का धुंवां
सब लाते हैं आँखों में पानी
बाहर आ गए हैं जलते अंगारे
लेके हाथो में उनको ,डालती हूँ चूल्हे में
कभी  जलीं नहीं  उंगलियां
पर आज न जाने क्यों
आँखें  लगी हैं जलने।
(थोड़े से शब्द , आत्मीय हैं जो मेरे हैं
लगे हैं कुलबुलाने
 आत्मीय बनने को आपके।)  ।। आभा।।

Wednesday, 10 December 2014

घुमन्तु है वो जो  दूधिया बादल
 अक्स मेरा बना के हँसता है अक्सर।
हाँ ! मुझे मैं दिखाई देती हूँ किसी पल उसमे
 औ !तुम भी नजर आते हो पास वहीँ कहीं।
हलचल निर्वात में भी हवाओं की है
बादलों की बदलती  सूरत ,
चुपके से कहानी ये कह जाती हैं।
ऐसे ही जैसे  जिंदगी की हलचल
बचपन पे  बुढ़ापे की ओढ़नी चढ़ाती है।
ये नीला आसमां  ,जमीं  है बादल की
हाँ !  है कुछ ऐसा ही है  रूह  मेरी का रंग।
स्नेह के  दीपक में  प्यार की शिखा की
नीली  लौ से जगमगाती  नीली छत।
हाँ ! जमीं से छत ही तो हो गयी हूँ
 सीख लिया बादलों से  बदलना आकार।
 शक्ति कणो  का कर संचय  हुई सघन
 तिरती हूँ स्वछंद  रिश्तों की डोर से बंधी।
पर सीरत न बादल की बदली न मेरी
सदियों से हम यूँ ही मीठे  पानी ही  हैं।
बरसते हैं तो नदिया झरने बन बहते है
और थक के  खारा समंदर हो जाते हैं।
पवन! जो भटकाता है राह बादल को
औ बदल देता है आकार  उसका
कभी दो पास लाके पुष्प गुच्छ बनता है
 औ पल में ही फूलो को बिखरा जाता है
हाँ मैं ही हूँ वो पवन भी !
हाँ! मैं ही हूँ वो पवन - -खुद को दिशा मुक्त करती हुई।।आभा।

Tuesday, 9 December 2014

गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ बनाया जाय या नहीं पर हम इसे अपनी संततियों को अवश्य पढ़ाएं यदि हमे इस प्रतिस्पर्धात्मक युग में टिके  रहना है और रोगग्रस्त नहीं होना है ------

आज गीता की चर्चा ---- गीता   के विषय में प्रचलित भ्रांतियां- गीता केवल महाभारत में  युद्ध के वक्त अर्जुन को दिया उपदेश है ,गीता  गीता ग्रन्थ ही नहीं है उसे राष्ट्रीय ग्रन्थ  कैसे बनाओगे , गीता बड़ा गूढ़ ग्रन्थ है उसे पढ़ना ही मुश्किल है  ,गीता का सही अनुवाद ही नहीं मिलता है उसे सबने अपनी- अपनी तरह से व्याखित किया है ,गीता सधारण जन के लायक ग्रन्थ ही नहीं है ----- असल में  गीता कोई कठिन और नीरस  योग नहीं है , कोई गूढ़ संस्कृत ग्रन्थ भी नहीं है वो तो जीवन जीने के लिए एक सरस , सरल और सुस्पष्ट कार्यक्रम हैं।
गीता के चौथे अध्याय को पढ़ते हुए पता चलता है कि गीता अनादि ग्रन्थ है उसे समय- समय पे मानव के उपयोग और लाभ हेतु प्रभु  की वाणी मिलती है यथा
''इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान् मनवे प्राह  मनुरिक्ष्वाकवेब्रवीत्।। ''
कृष्ण कह रहे हैं -ये गीता का ज्ञान कभी भी क्षीण होने वाला नहीं है ये तीनों कालों में भी नष्ट नहीं होता ,इसे मैंने पहले विवस्वान (सूर्य )को ,सूर्य ने अपने पुत्र मनु को और मनु ने अपने पुत्र इच्छ्वाकु को दिया इस प्रकार कालांतर में वंश परम्परा से प्राप्त इस ज्ञान को कई मनीषियों ने राजर्षियों ने जाना ,आचरण किया।  पर जब ये गीता योग लुप्त हो गया  तो मैं इसे तुझे बताने आया हूँ ,क्यूंकि तू मुझ को समर्पित है और सच्ची श्रद्धा रखता है।
कहने का अर्थ है कि  गीता केवल महाभारत के द्वारा आया संयोग नहीं है ,ये तो  अनादि काल से प्रभु की लाड़ली पुकार है समस्त मानवता के लिए।  गीता ग्रन्थ हमें बाहर से अंदर प्रस्थान की शिक्षा देता है।  आत्मा का मुख्य उद्द्येश्य अपने को पाना है ,वही गीता सिखाती है।
'ज्ञानाग्नि:सर्वकर्माणि  भस्मसात् कुरुतेअर्जुन ' और 'सर्व  कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ' अर्थात ज्ञान की अग्नि में सब कर्म भस्म हो जाते हैं और और सब कर्मों का अंत ज्ञान में होता है।  अत: कर्मण्येवाधिकारस्ते ,को कर्मयोग नहीं कर्मसन्यास की संज्ञा दी जानी चाहिए। कर्मयोग  ,भक्तियोग और प्रेमयोग  के प्रतिपादन के साथ विभूतियोग ,जैसे अठारह अध्य्याय जीवन को कितना सहज सरल और सम्यक बना देते है ,ये गीता गंगा में डुबकी लगाने के बाद ही अनुभव किया जा सकता है।
''ॐ तत् सदिति निर्देशो '' ॐ  तत् और सत् ब्रह्म को दिखाने  का काम करता है,आरम्भ मध्य और अंत भी यही हैं ,यही भगवान का त्रिविध  'थ्री डाइमेंशनल ' निर्देश है गीता में (अध्याय १७ का २३ वा    श्लोक )
कृष्ण अध्याय १५ के सातवें  श्लोक '' ममैवांशो  जीवलोके जीवभूत: सनातन: ''  में कह  रहे हैं मृत्यु -लोक में जीव ही मेरा सनातन प्रतिनिधि , जो इस बात को जानता है तथा श्रद्धा ,प्रेम , उत्साह ,संयम और विश्वास  साथ कार्यरत   है  ,वही  योगी है।
गीता का  असल तत्व है 'तत्त्वमसि  ' को समझना और साधना। मानव जब' तद्भावभावित:' के चिंतन में आ  है तभी वह 'तत्त्वमसि ' को प्राप्त होता है ,और  है।
गीता  द्वापर में कुरुक्षेत्र में सुनाना ,इस युग के लिए ही सीख थी।  हम सब का जीवन किसी कुरुक्षेत्र से कम नहीं है , यहाँ रोज मर्रा की आपधापी  ,असफलताएँ ,भ्रम ,उलझनें ,कुंठाएं ,विषमताएं और दुःख ,ये सब मानव को अवसाद ग्रस्त कर देते हैं ,इंसान अर्जुन की ही भांति अवसाद ग्रस्त  और  विवेकशून्य हो  जाता है ,जिससे वो कई सारी  शारीरिक व्याधियों से घिर जाता है। ऐसे ही समय गीता इंसान को उबारने में सहायक होती है ,ये जितनी प्रासंगिक तब थी उतनी ही आज भी है। …''''  क्लैब्यं  माँ स्म  पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्धयते।''  तू नपुंसकता कायरताऔर पलायन  को छोड़  और अपना कर्म कर।    ज्ञान से ही हम अर्जुन की तरह ''नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा '' हो जाते है और जीवन को सच्चे अर्थों में जीते हैं।
गीता का १४ वां अध्याय तो शरीर और उसकी क्रियाओं की विस्तार से व्याख्या करता है , सेक्स एडुकेशन को पूरी तरह से समझना हो और वासना ,तृष्णा ,मोह ,विकृतियों को समझना हो यहाँ सबकुछ है ,  शारीरिक और मानसिक  विकृतियां   रेप जैसी कलुषित घटनाएँ भी गीता के पठन पाठन से विलुप्त हो जाएंगी।  पर गीता को शामिल करना होगा जीवन में बचपन से ही।  दिन  भर भाड़ झोंकके ,अनर्गल प्रलाप करके शाम को घर में दारु की बोतल खोल के बैठने वाले जीव से आप गीता पढ़ने की उम्मीद भी नहीं  सकते ,वो तो जोड़ तोड़ की राह पकड़ चुका  है या तो किसी का अंध भक्त है या अंध विरोधी।  वो तो गीता को बच्चों के जीवन में लाने को किसी पार्टी का एजेंडा बताने से भी गुरेज नहीं करेगा ,क्यूँ ? क्यूंकि उसे पता ही नहीं है गीता क्या है ,और क्या कर सकती है।  आज समाज में फैली विकृतियों को जड़ मूल से यदि उखाड़  फेंकना है तो गीता को बचपन को देना ही होगा ,सरकारें सहयोग  करें या न करें  हम  अपनी संतति को गीता दें  ये तो कान्हा की लाड़ली पुकार है ,राष्ट्र-ग्रन्थ बने तो देश का भाग्य ! नहीं तो हर घरमें तो पढ़ी ही जाए ,यही सपना महामना मदनमोहन मालवीय जी का भी था और विवेकानंद ने भी यही सपना देखा था।
अंत में --''मल निर्मोचनम् पुंसां जल स्नानं दिने दिने।
              सुकृग्दीताम्भसि स्नानं संसार मल नाशनम्।।''
''सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दन:।
पार्थो वत्स: सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्।। ''गीता अमृत है ,वह योग नहीं महायोग है ,वह जगद्जननी है ,किसी को निराश नहीं करती ,जब भी कभी निराशा का अँधेरा मन पे छाता  है तो मैं तुरंत गीता के पास जाती हूँ ,वो मुझे आनंद देती है ,घनघोर निराशा में भी मेरी आशा तो गीता ही है और मुझमे जो आभा है है वो भी गीता ही है। जय कन्हैया लाल की ! आभा !











Monday, 8 December 2014

 रेप होने पे , मीडिया इतना संवेदनशील है  कि डिस्कशन के लिए पूजा बेदी और शोभा डे  को( अपना टी आर पी बढ़ाने के लिए  ) टी वी  पे लाकर बहस करवाता है , क्या ये सही में समस्या का हल ढूंढने की कोशिश कर रहे है।  हर रेप के बाद कुछ लोगों को बिठा के  अनर्गल प्रलाप करवाना ,और एक दूसरे की सरकारों पे छींटा कशी  करवाना।
मुझे पिछले महीने दो तीन बार टैक्सी से अकेले यात्रा करनी पड़ी ,तो अपने जानकार की टैक्सी को ही बुलाया उसपे भी हर आधे घंटे पे कोई न कोई फोन करदेता था खैर खबर को , कहाँ पहुंची ,सोना मत --वही सब हिदायतें जो मैं किसी को ऐसी स्थिति   में    देती।  पर जब रात  को ३. ३०  बजे की फ्लाइट थी और दिल्ली की ही कैब लेनी थी तो कोई भी मुझे अकेले भेजने को तैयार न हुआ। हरिद्वार और यमुनानगर से भाई केवल आधे घंटे की दूरी तक मुझे छोड़ने जाने के लिए  ५-७ घंटे की दूरी  तय करके  आने को तैयार थे पर अकेले आधे घंटे की कैब  में भेजने को तैयार नहीं थे। इधर मुझे सबकी परेशानी दिखाई दे रही थी। जिस  परिवार को  मुझे छोड़ने की जिम्मेदारी दी गयी वो रात  को ८ बजे अपने आफिस नॉएडा से द्वारका अपने घर पहुंचा सुबह ६ बजे उसे उठके फिर से बच्चों को स्कूल छोड़ते हुए नॉएडा जाना होता है ,ऐसे में उसे रात तक जगाना मुझे बहुत परेशान कर रहा था ( हालाँकि वो हमेशा ही मेरी सारी परेशानियों में सब से आगे बढ़ के मेरे साथ रहता है ,और मुझे अपनों से भी अधिक प्यारा  है )-तो मैंने १० बजे ही एयर पोर्ट पे जाना तय किया ताकि बच्चों को रात तक न जगना पड़े -पर एक परिवार का शिड्यूल तो डिस्टर्ब हुआ ही। जब हम बुजुर्ग महिलाओं के लिए ही घर वाले इतना परेशान हो जाते हैं तो बच्चियों की सुरक्षा के लिए तो भगवान  पे ही भरोसा है ,अपने डैनों में छिपा के भी नहीं रख सकते।  हम  टैक्स देते है ताकि हमे देश में सुख सुविधा मिले। पर क्या कभी वो मिल पाएगी ,क्या कभी बच्ची  हो या बुजुर्ग - महिला के बाहर जाने पे घरवाले निश्चिन्त होक सो सकेंगे ,जब तक सुरक्षित पहुंचने की खबर न आ जाए।  रोज ही रेप हो रहे हैं दिल्ली में कोई कोईरेप इतना भाग्यवान होता है कि  मीडिआ  की नजरे उस पे इनायत हो जाती हैं और गर्म गर्म बहस होने के बाद इस मुद्दे को फाइलों में पैक  कर दिया जाता है किसी नयी दुर्घटना के लिए किन्हीं दूसरी मॉडल्स या फ़िल्मी सितारों के साथ बहस के लिए।  हम संवेदनहीनता के युग में जी रहे है , अभिशप्त हैं अपनी बेटियों -माओं को सुरक्षित न रखने के लिए। और संवेदनहीनता की पराकाष्ठा वहां होती है जब किसी माननीय जज का डिसीजन आता है की ८४ वर्ष की महिला के साथ रेप को रेप नहीं माना  जा सकता  क्यूंकि वो रजोनिवृत्त हो चुकी होती है।
जब तक हम रेप साबित होने पे दो चार रेपिस्टों को सरे आम कड़ी से कड़ी सजा नहीं देंगे तब तक स्थिति के सुधरने की आशा बेमानी है।

Monday, 24 November 2014

      श्रद्धांजली
       *********
उर में भावों की उछल-कूद
दुःख तम से आलोकित जीवन
स्मृतियों के चल- चित्र सजा
मानस मेरा वह  काव्य रचे
हों ध्वनित जहाँपे बीते क्षण
औ वर्तमान संभाव्य बने |
लूटा सुहाग तूने मेरा
दारुण -प्रचंड उर में भर के ,
तंम  सागर में   जीवन नैया
पर  आदेश लेखनी को दो दो  !
संसृति की तपती धरती को
ये राम-कृष्ण संभाव्य बने |
हों ध्वनित जहाँ पे बीते क्षण
औ वर्तमान संभाव्य बने |
दो आशीष  मुझे प्रियतम
 जब गाऊं  गान प्रभाती का
तीनों काल ध्वनित  होंवें
औ राम कृष्ण संभाव्य बने |
सागर की उठती- गिरती लहरें
  मेरी  साँसों   का   नर्तन होवें
हिमगिरि के मस्तक की  किरणों में
मेरे आखर की चमक रहे |
उर के छाले    वरदान बनें
गाने को गान प्रभाती का
ये राम -कृष्ण संभाव्य बने |
झर चुके वृक्ष के पीले पत्ते
 चर-मर ,चर गान सुनाते हैं
औ राह भविष्य को दिखलाने
मिल मिट्टी में  खाद बनाते है
यादों के  पावस निर्झर बन
आगत को पोषित करने
सरिता बन बह जाऊं मैं
मिट सागर में मिल जाऊं मैं |
गाने को गान प्रभाती का
दो आशीष  मुझे प्रियतम
 वर्तमान के कोरे कागज पे
भूतकाल का गान सजे, औ
 राम-कृष्ण संभाव्य बनें |
वरदान लेखनी को दे दो
निविड़ निशा से तपते  उर को
प्राची की इंगुरी आभा दूँ -
सरिता की अल्हड गति औ
नव सुमनों-विहगों का गान मधुर
भर- भर अंजुरी  उलीच चलूं
 फिर भी न उऋण मैं  हो पाऊं
जो प्रेम दिया तूने मुझको
निर्बल का संबल बन कर मै
प्राणों में अंगारे भर दूँ
जब गाऊं गान प्रभाती का
तो वो भविष्य का गान बने
तीनों काल ध्वनित होवें
औ राम कृष्ण संभाव्य बने || आभा || ...२५ नवम्बर ,अजय की पुण्यतिथि ... जो चले गये उनकी तलाश में तो उनके लोक में ही जाना होगा ज्वाल-रथ पे चढ़ के ,पर ये सौभाग्य  और शुभ घड़ी  कब मिलेगी ईश्वर किसी को भी नहीं बताता है ,सत्य को आवरण में रखा है उसने | जो कल तक एक जगह थे वो आज कई दिलों में रहते हैं यही सत्य है |















Friday, 21 November 2014

                 ''रात का सम्पुट बनी मैं ''
                 *******************
बैठ कर जब अग्नि रथ पे  ,
मेघ के द्रुत अश्व साधे ,
राह अनजानी गये तुम
गगन मेरा हुआ तब से ,
रात का सम्पुट बनी मै |
बादलों की क्यारियों की
 नर्म -नाजुक  सी गली में
ढूंढने प्रिय पद  के आखर
रात का सम्पुट बनी मैं |
मखमली जगमग निशाके
आंचल में झिलमिल तारकों में
ढूढने अपना सितारा --
रात का सम्पुट बनी मैं |
हैं वहां पे कृष्ण भी औ -
राम भी तुमको मिले  क्या ?
माँ भी तुम को मिली होंगी !
चाँद-तारों  के रथों पर
बैठ मुझको देखते तुम ?
देखने को इक झलक औ
ढूंढने अपना सितारा
रात का सम्पुट बनी मैं |
चाँद मेरा प्रिय बना अब
चांदनी मेरी सहेली
जगमगाते झिलमिलाते
सप्त ऋषि की राह पकड़े
रात का सम्पुट बनी मैं |
रात  भर सोती न जगती
शेष कितनी राह सोचूं
दलदली या है रेतीली
 है बारिशें या धूल  आंधी
बिजलियाँ है  कड़कड़ाती
 या कि बर्फीली हवा है
ढूढने  को शेष राहें
जानने रब की सदायें
तारकों की झलमिलों को
भरती हुई  अपने  हृदय में
रात का सम्पुट ही हूँ मैं -
रत का सम्पुट ही हूँ मैं ||आभा||









Tuesday, 18 November 2014

बैठे ठाले की बकवास -( निरर्थक  बहती नदी के प्रवाह से रोड़े इकट्ठे करना -और कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा -भानमती ने कुनबा जोड़ा ) यूँ भी आवश्यक नहीं है हर बात का कुछ अर्थ हो कभी बेमतलब की बकवास में भी सौन्दर्य ढूँढना आना चाहिये  ____________
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बुद्धि और अनुभूति ; दो जुड़वां बहनें ,फूलों सी नाजुक ,पराग सी महकती ,चिड़ियों सी चहचहाती सबकी लाड़ली एक सागर की चंचल लहर तो एक पर्वत सी कठोर ,एक सागर की गहराई तो एक पहाड़ की ऊंचाई |दोनों के बिना जीवन ही ठप्प | हर किसी के साथ हैं ,हर वक्त -तो कहाँ रहती हैं ये ? एक हमारे  मस्तिष्क और एक हृदय  में ,जी हाँ यही घर हैं दोनों बहनों के या कहिये दूसरी पहचान है इनकी |
हृदय और मस्तिष्क यानि बुद्धि और अनुभूति दोनों एक दूसरे के पूरक हैं  पर  एक पथ पे नहीं चलते |एक व्यवहारिक तो दूसरी भावप्रवण | बुद्धि  को यदि कहें कि इस रेखा को छोटा करो तो झट से एक दूसरी रेखा खींच देगी  उसके बराबर ,लो हो गया काम चुटकियों में ,|किसी वस्तु को हल्का और भारी मापा जा सकता है ,गति की सीमा बताई जा सकती है  | किसी वस्तु के होने न होने ,प्राचीन या अर्वाचीन को कार्बन डेटिंग से या ऐतिहासिक विश्लेषण से नियत किया जा सकता है पर एक रेखा पे आरम्भ से अंत  तक व्याप्त सजीवता का परिचय ,उसमे फैले सौन्दर्य और विद्रूप ,सत्य और अनन्त ,उसके बनने में कितनी बार रबर लगा के उसे मिटना भी पड़ा , रेखा के वैभव ,और उसे खींचने वाले हाथों का स्पर्श ,क्या ये भी दूसरी रेखा को दिया जा सकता है ? यही है बुद्धि और अनुभूति की चाल | अनुभूति हर बिंदु को परख के सोच के ,अपने संस्कारों में ढाल के  व्यष्टि -समष्टि का ध्यान करके फिर रेखा को खींचेगी, छोटी बड़ी हो पर उसका सौन्दर्य बरकरार रहे ,उसके अहसासों  को महसूस किया जा सके पर बुद्धि हानि लाभ देखेगी ,नियम कायदे कानून देखेगी फार्मूला देखेगी और हो गया काम  | इसी लिए ये कहा जाता है किसी भी फैसले में दिल को अवश्य शामिल करो | सोचें हम यदि मन -मस्तिष्क   ये दोनों साथ हो लें तो जीवन सत्य की सुगन्धि से महक जाये | सत्य यही है ,हम उसे अपने अनुसार ग्रहण करते हैं और वो व्यष्टि हो जाता है |तेरा सत्य ,मेरा सत्य जो हमारी  सीमा में तो सापेक्ष है पर अपनी  सीमा में निरपेक्ष | हम अपना सत्य दूसरे को बताना चाहते हैं और अगला व्यक्ति उसे अपनी बुद्धि ,दृष्टि और अनुभव के अनुसार तोलता है ,उसमे अपने स्वार्थ ,संस्कार ,उपादेयता और ग्राह्यता और रूचि  को मिला के उसे अलग ही रूप में ढाल लेता है क्यूंकि सबके पास ये जो दो बहने बुद्धि और अनुभूति हैं वो उनके संस्कारों में ही पली बढ़ी हैं न |
एक घटना एक वस्तु ,एक श्रुति हमने उसे किस रूप में पाया ,दूसरा उसे किस रूप में देखेगा ---दृष्टिकोण की भिन्नता भ्रान्ति उत्पन्न करती है ,और अक्सर विवाद की स्थिति पैदा हो जाती है ,ऐसे में हमारी ये दोनों बहने यदि अपना कार्य ठीक से मिलजुल के करें तो ! पर ऐसा अक्सर होता नहीं है |जबकि सत्य तो अपनी जगह अखंड है ,निर्विवाद है | बाह्य जगत में परिवर्तन होते रहते हैं ये सत्य है तो अंतर्जगत की संवेदनाएं भी देश काल और परिस्थितियों के अनुरूप परिवर्तनशील हैं ये भी उतना ही बड़ा सच है |
व्यष्टि जो देखना चाहता है वही देखता है ,बुद्धि की ये चाल है वो तुरत पे यकीन करती है ,एक रेखा के नीचे दूसरी रेखा हो गयी छोटी बड़ी |पर हृदय का क्षेत्र अनुभूति से संचालित होता है जहाँ हम एक रेखा में गहरे और गहरे उतरते हैं और छोटी बड़ी करने के लिए उसी रेखा पे आगे बढ़ते है | ज्ञान में एक ही वस्तु की हर व्यक्ति भिन्न-भिन्न व्याख्या करेगा ,दृष्टिकोण भिन्न होगा पर धरातल एक ही होगा |  एक ही मंच पे कई प्रस्तुति कार्यक्रम बुद्धि की क्रिया और, आनंद की अनुभूति हृदय की कथा |
सुख को ग्रहण करने की ,दुःख की तीव्रता को  महसूस करने की सबकी अपनी अलग क्षमता होती है | अपने दुःख की तीव्रता को हम अधिक महसूस कर सकते हैं पर अपने किसी आत्मीय के उसी  दुःख को हम उस तीव्रता से नहीं लेते और वही दुःख  किसी तीसरे व्यक्ति का हो तो तीव्रता और भी कम महसूस होती है | जहाँ तक संवेदना का प्रश्न है ,हम सब एक ही रेखा पे खड़े हैं अनुभूति की रेखा | अपने हाथ पे काँटा चुभे या अपना हाथ जलने की अनुभूति  दूसरे के राख हो जाने के अहसास से भी अधिक होती है | अनुभूति जितनी निकट उतनी तीव्र | पर दूसरे के लिए भी संवेदना है तो है ही |
बुद्धि के कमाल से हम नीले को काला या पीतल को सोना कह सकते हैं पर रेत को चांदी नहीं कह सकते ,जबकि अनुभव कर सकते हैं  चांदी का , धूप में  चमकते  हुए  रेतीले फलक के विस्तार में |   किसी के हाथ में काँटा चुभने पे उसे भ्रान्ति हुई है पीड़ा की, यह कह के नहीं बहला  सकते हैं उसे ,यही  पीड़ा है  जिसे बुद्धि ने जाना अनुभूति ने माना, यही सत्य है ,पर मेरे लिए क्यूंकि मैंने  झेला |बुद्धि नेति नेति करके अलग करती है , अणु को परमाणु में बाँटती है |जबकि हृदय संयोजन का काम करता है | मस्तिष्क जीवन चक्र  के बिन्दुओं को जोड़ के सामंजस्य बिठाता है पर इस कर्म में बनी परिधि में सजीवता के  रंग तो हृदय ही भरता है  जीवन के इन बिन्दुओं को जोड़ने का अहसास खुशनुमा हो या दुःख भरा ,श्रृंगार  का कोई भी पक्ष -संयोग या वियोग ,यही काव्य भी है और यही सौन्दर्य भी है | जहाँ हृदय है वहां काव्य है और जहाँ काव्य है वहां सत्य है -सौन्दर्य है -सजीवता है -अनुभूति है  और है जीजिविषा हर कालखंड का अनेकता भरा सौन्दर्य और उससे प्रतिपादित अखंडित सत्य , सौन्दर्य को परिभाषित करना अपने आप में एक दुरूह कार्य है ,उलझन भरा |  मन मस्तिष्क ,बुद्धि अनुभूति ,एक पथ पे बमुश्किल ही चल पाते है , बुद्धि अनुभूति एक ही धरातल पे पर आसमान अलग अलग दोनों के ,शायद यह भी इनकी सुन्दरता ही है कि फिर भी साथ ही रहती हैं ये दोनों बहने ,लड़ती झगडती पर एक दूसरे को प्यार करती | बस यूँ ही अपने दांत टूटने के दर्द को जब महसूस किया तो पता चला दूसरे के दांत टूटने पे उसे सूजी की खीर बनाके देना ही संवेदना नहीं होती जा के पैर न पड़ी बिवाई सो क्या जाने पीर पराई कितने सोच समझ के बनाया गया मुहावरा है ,किसी भुक्त भोगी ने ही बनाया होगा ,पर मैं तो सौन्दर्य को ढूंढती हूँ हर बात में सो कह देती हूँ भाई मेहंदी से फूल पत्ती बना लो या आलता लगा लो ,बिवाइयां भी खिल जायेंगी ,बुद्धि और अनुभूति दोनों ही खुश ||आभा ||

Sunday, 16 November 2014



 ...................बाल्मीकि रामायण से .................................
ऐसे हैं मेरे राम -- उन्हें इतिहास पुरुष कहें ,पूर्वज कहें या ब्रह्म कहें , राम का जीवन संस्कारी व्यक्ति की पिटारी ही है , जीवन के हर मोड़ पे एक सीख | ऐसा ही एक प्रसंग बाल्मीकि रामायण में है ______ राम लंका विजय के पश्चात सीता सहित अयोध्या आ रहे हैं , विमान से राम ने अयोध्या के दर्शन भी कर लिए हैं , वे भारद्वाज मुनि के आश्रम में विश्राम हेतु ठहरे हैं पर मन में कुछ द्वंद चल रहा है , वो सोच रहे हैं ----
-संगत्या भरत: श्रीमान् राज्येनार्थी स्वयं भवेत |
प्रशास्तु वसुधां सर्वामखिलाम रघुनन्दन:|| .....
चौदह वर्ष का समय कुछ कम नहीं होता ,मैं तो यहाँ उलझनों में फंसा हुआ था पर अयोध्या में भरत कैकेयी की संगती में है |यदि कैकयी की संगती और और चिर काल तक राज्य वैभव के संसर्ग में रहने से भरत राज्य को नहीं छोड़ना चाहते हों तो मैं उनके रास्ते में नहीं आऊंगा , कहीं वन में जा बसूँगा और तपस्वी जीवन व्यतीत करूंगा || क्या हैं किसी और धर्म में ये उच्च आदर्श ?
भरत के मन की बात को जानने के लिए राम हनुमान को नियुक्त करते हैं --वे हनुमानजी से कहते हैं ,कि तुम जाओ ,पहले निषाद राज से मिलना उन्हें बताना कि मैं आ रहा हूँ ,फिर अयोध्या जाके भरत से मिलना ,उन्हें हमारी कुशलता का समाचार देना , हमारे वापिस आने के विषय में बताना ,यहाँ की पूरी घटनाओं को भरत जी को सुनना ,और उस वक्त उनके चेहरे पे आने वाले भावों को ,उनकी मुख मुद्रा को ,उनके बर्ताव को बहुत बारीकी से समझना ,फिर आके मुझे बताना ,मैं समझ बूझ के निर्णय करूंगा |_____
भरतस्तुत्वया वाच्य: कुशलं वचनान्मम |
सिद्धर्थं शंस मां तस्मै सभार्यं सहलक्ष्मणम् ||
..................................................
ऐतत्छ्रुत्वा यामाकारं भजते भरतस्तत |
स च ते वेदितव्य: स्यात् सर्वं यच्चापि मां प्रति ||
राम कहते हैं ,हनुमान भरत से बातचीत करके उसके मनोभावों और उसकी मुद्राओं को समझने की कोशिस करना --- यद्यपि मुझे भरत पे पूरा विश्वास है पर हो सकता है भरत के मनोभाव बदल गये हों ,क्यूंकि ----
-सर्वकामसमृद्धम हि हस्त्यश्वरथसंकुलम् |
पित्रिपैतामहं राज्यं कस्य नावर्तयेन्मन:||
समस्त भोगों से युक्त ,रथ हाथी घोड़ों से युक्त बाप-दादों का राज्य और कैकई जैसी स्त्री का संग किसी का भी मन बदलने में सक्षम होता है | ____यहाँ पे राम बाप दादाओं की सम्पत्ति का दोष भी गिना रहे हैं ,ये भी सन्तति के लिए एक सीख रामजी की ओर से कि यदि स्वयं के पराक्रम से अर्जित सम्पत्ति नहीं है तो भरत जैसे सदाचारी ,मर्यादा का पालन करने वाले के भी मन को पलटते देर नहीं लगती |
क्या कहीं और मिल सकती है ऐसी मिसाल जहाँ चौदह वर्ष के बनवास के बाद भी भाई के लिए ऐसी सोच हो ! मैं सोचती हूँ -- ऐसा क्या हुआ कि राज्य न रहने पे अब हम एक दूसरे के मकान- दुकान पे ही कब्जा करने लगे हैं ,और छोटी -छोटी सम्पत्ति के लिए लड़ मर रहे हैं |
असल में हम अपनी जड़ों से कट गये | हम राम के होने की , ईसा पूर्व और ईसा बाद की जिरह में फंस गये | अपने श्रुति और उपनिषद के ज्ञान पे प्रश्न चिन्ह ला बैठे और महज कुछ सैकड़ा वर्ष पहले जो इतिहास लिखा गया उसे ही सच मान बैठे | हम ये भूल गये कि हमें तो अपने झड़ दादा ,नकड़ दादा ,का भी नाम नहीं मालूम ,और हमारे खानदान की १० पीढ़ियों का इतिहास भी नहीं लिखा हुआ है ,तो क्या वो भी नहीं थे | हमे अपनी संस्कृति अपने साहित्य और अपने पूर्वजों पे प्रश्न करना छोड़ना होगा ,अपनी विरासत ,रामकृष्ण की सीखों को मानते हुए उनका सकारात्मक विश्लेषण करना होगा | ये राम कृष्ण ,हमारे आराध्य ही नहीं हमारे इतिहास पुरुष भी हैं ,जो जीवन जीने का सही तरीका हमें बता रहे हैं आज भी ,गीता और मानस के रूप में |आभा || 

Monday, 3 November 2014

            ''  स्फोट ''
            ********
 कृष्ण का बोध होना
अस्तित्व का तिरोहित हो जाना
खिलना फूल का  -बिखरना सुगंध का
 टकराना सागर किनारे से लहर का
  भीग  जाना दूर तक फैली रेत का
  और मिटा देना  अपना अस्तित्व
राह देने को दूसरी लहर को
बादल का बरस जाना बिखर जाना
समुद्र से लेकर उसका धन
देना पहाड़ को , बर्फ हो  जाना
पुनरपि नदी का संघर्ष
चलते जाना अनथक, सागर से मिलन को
बिखरने में सुख
मिटने का आह्लाद
कारा से  आजादी
परम् स्वतंत्रता
असीम आनंद
स्व का अनन्त विस्तार
कृष्ण का बोध होना
यानि स्फोट होना आत्मा में
कृष्ण ही हो जाना ||आभा ||


               ''  नेह ''
                *******
*** कि , जब   भी   चुरुगन   के   पंख   होते   हैं  मजबूत
       मेरी बालकनी से भरता है  उड़ान वो, पंख फड़फड़ाते हुए --
                 मेरे जीवन में चलती  है  बसंती बयार |
कि ,जब भी  पोंछती हूँ किसी बच्चे की  आँख से बहते आंसू
वो      खिलखिला      देता       है      ताली      बजा      के --
                 चंदामामा    खेलते हैं मेरे आंगन में  |
कि, झरता है नेह   आंचल से झर-झर जब भी
 मन के जुगनू आंगन में टिमटिमाते हैं |
कि , बांटती  हूँ  दर्द किसी का जब भी
  जीवन में इक  सूर्य नया   उग आता है |
कि , जब भी खिलाती हूँ खाना   किसी भूखे को
 अंगना में  डोलने लगता है प्रेम का डोला |
         कि , किसी बूढ़े रिक्शेवाले के रिक्शे में बैठ के .
          चढाई में उतर जाती हूँ जब भी
         उसकी आँखों की चमक से, मन में सुकूं होता है |
         कि , लाल बत्ती पे   भीख मांगते किसी बच्चे को
         पैसे की जगह चाकलेट पकडाने पे
वो ले आता है  पूरे झुण्ड कोअपने
सभी को  एक-एक  चाकलेट देने का सुख
उनकी आखों की चटकीली ख़ुशी
मन प्रेम का निर्झर  ही बन जाता है ||आभा ||



        

Tuesday, 28 October 2014

                          बैठे- ठाले
                          *******

** और माँ लक्ष्मी भारत भ्रमण कर  अपने कमल रथ पे सवार होके   क्षीरसागर की ओर प्रस्थान कर ही रहीं थीं कि उन्हें आकाश मार्ग से सूर्य रथ पे सवार छठी देवी ,भगवान की मानस कन्या सूर्य की बहन देवसेना को ,सूर्य की दोनों पत्नियों उषा और प्रत्युषा संग पृथ्वी पे आते हुए देखा |   उमंग और उल्लास  से भरा मिलन ,अपने पतियों की बातें और -और भी बहुत-बहुत -बहुत सी बातें   जो सखियों के मिलने पे होती हैं | मैं इनके मधुर मिलन की गवाह बनी भाग के गयी और सबको कुछ पल सुस्ताने का न्यौता दे ,माओं को अपने घर ले आई | पानी, चाय पकौड़े ,बेसन -बूंदी के लड्डू ,पेडे ,फिर भोजन , और गर्मागर्म जलेबी जो भी मैंने बनाया माँ  ने स्वाद से खाया और फिर खूब बातें कीं हमने | मेरे मन में बहुत सी शिकायतें थी पर माँ की शरणागती में सब भूल गयी ,हाथ सर पे हो और क्या चाहिये | माँ ने भी कुछ मांगने को नहीं कहा शायद उसे  पता ही होगा ये कुछ नहीं मांगेगी |माँ लक्ष्मी को तनिक विश्राम करने को कह तीनों देवियाँ कार्य हेतु निकल गयीं क्यूंकि नहाय - खाय  के बाद सारे व्रती घाटों पे पहुंचना प्रारम्भ हो चुके थे , यदि उषा- प्रत्युषा नहीं पहुँच पायीं तो भगवान भुवन भास्कर कैसे पहुंचेंगे और अर्घ्य किसे चढ़ेगा |   नवरात्री से लेकर छठ तक सारे अनुष्ठान देवियाँ ही समपन्न करवाती हैं | उषा -प्रत्युषा दोनों बहनें   एक सुबह की सिंदूरी आभा ,दूसरी सांझ की सुनहरी लालिमा , दोनों सूर्य की किरणें सूर्य की रौशनी और ऊष्मा   सातों रंगों सहित हर पल जगत को उपहार स्वरूप देती ही हैं ,अनथक ,अनुशासन बद्ध कार्य में लीन रहती हैं और माँ लक्ष्मी हर पल हमारे शुभ -मंगल के लिए प्रस्तुत रहती है हमारे पास ,पर हम हिन्दुस्तानियों को माँ को  प्रति दिन का कार्य दिखाई ही नहीं देता ,उसे तो हम अपनी बपौती समझ बैठे हैं , माँ भी थकती होगी आराम चाहती होगी ये सोचने की जगह हम , नवरात्र ,दीपावली ,छठ , होई , पुत्र्जीविका ,वत सावित्री ,करवाचौथ ,शीतला अष्टमी ,जैसे कई पर्व माँ के कन्धों पे लाद बैठे हैं ,माँ हैं कि  कितने  स्वरूपों में प्रगट होके  निभाए जा रही हैं-निभाए जा रही है |
*** विश्राम करते माँ लक्ष्मी को देख स्वर्गिक आनंद मिला पर वो शीघ्र ही जाने को तैयार हो गयीं |  बोलीं पुत्री तुम्हारे पिता अकेले है क्षीर-सागर में ,मुझे चलना चाहिये , ये कमल विमान में ईंधन भी खत्म होने को है ,देखो तुम्हारी धरती के कचरे ने इसे कितना गंदा कर दिया है , कमलदल कुम्हलाने लगे हैं ,मैं इसके मुरझाने से पहले क्षीरसागर पहुंचना चाहती हूँ | अब मैं भी तो मजबूर थी ,ईंधन के रूप में  शुद्ध क्षीर  मैं कहाँ से लाऊं और मैं तो वैसे भी टेस्ट न बदले तो टेट्रा  पैक वाला नेस्ले मिल्क ही लाती हूँ ,मुझे तो ये भी नहीं पता कि ये दूध ही है | तबही माँ  ने मेरी दुविधा दूर कर दी ,माँ बोली इस बार ट्रेवल एजेंट नया था ,कोई नयी टूर एंड ट्रेवल एजेंसी है उसने विमान उपलब्ध करवाया था ,ये चित्रगुप्त के द्वारपाल रिश्वत लेके किसी को भी स्वर्ग में घुसा देते हैं ,वरना मेरा विमान तो कभी भी नहीं कुम्हलाता था ,अब जाके पूरी व्यवस्था बदलनी पड़ेगी , वरना वहां भी ऐसी ही अराजकता हो जायेगी जैसी यहाँ है |
***  माँ से पूछा मैंने ,कितना माल बाँट आयीं ,किसको माला-माल किया ,किसको दूसरे वर्ष के लिए प्रतीक्षा में छोड़ आयीं ,कहीं पारितोषिक ,तो कहीं उपालम्भ ,कहीं आहें तो कहीं वाह- वाह ! ये टूर तो बहुत अच्छा रहा होगा | तुम  कैसे  घर में  जाना पसंद करती हो?,जब राजा बलि तुम्हें कंधे पे बिठा ले लाया था अपनी माँ की तरह ,तब तुम विष्णुजी को छोड़ के घबराई नहीं थीं | मैं भी तो वर्षों से अपना घर साफ़ करती हूँ ,चमकते हुए गेरू से मार्ग सजाती हूँ उसपे चटख धवल चावल की पीठी से तेरे छोटे छोटे ,पैर बनाती हूँ  वो भी कमल के ऊपर ,रंगोली सजाती हूँ ,देवस्थान पे षोडश मात्रिका से लेकर ब्रह्मा,विष्णु महेश ,गणपति सभी के आसन मांडने मांडती हूँ ,फूलों से तेरे चित्र का श्रृंगार करती हूँ  बन्दनवार ,तोरण सजाती हूँ ,स्वच्छता और शुद्धता से कई स्वादिष्ट पकवान तेरे निम्मित बनाती हूँ , और विधिवत पूजन करती हूँ  दीपमाला करती हूँ ,फिर भी तू मेरे घर कभी नहीं आती ,वो तो मैंने आज तुम्हें किडनैप ही कर लिया तो दर्शन हो गये  और सबसे बड़ी बात माँ तू अमावस की घुप्प काली अंधियारी रात्री को ही क्यूँ आती है ? और जिस किसी के घर में एक बार आगयी फिर सदियों के लिए उसी की तिजोरी में काला धन बन के कैद होके  क्यूँ रह जाती है ?जबकि हे महामाया ! हे  महा लक्ष्मी  तेरी जरूरत तो संसार के सभी प्राणियों को बराबर ही है |
अब माँ की बारी थी बोलने की ,वो बोली इतने सारे प्रश्न ,इतनी सारी  शंकाएं -- बिटिया मैं न कहीं आती हूँ न जाती हूँ ,मैं तो सदा ही तुम्हारे पास ही हूँ ठीक वैसे ही जैसे माँ अपने पति  और अपने बच्चों के लिए हर पल मौजूद रहती है | मैं तो तुम्हारे हाथों में ही रहती हूँ .....कराग्रे वसते लक्ष्मी के रूप में .. तेरे हाथ को मैंने इसीलिए तो कमल के आकार का ही बनाया है न | पर अब लोग भ्रमजाल में फंस गये हैं ,  वो समझते हैं दिखावा करने पे मैं आऊँगी . पर मैं तो कर्म करने वालों के हाथ में ही हूँ ,जहाँ संतोष है वहां ही हूँ|,काला धन ,तिजोरी ,बड़ी अट्टालिकाएं ,मोटी-मोटी ज्वेलर की दुकान बनी स्त्रियाँ या छरहरी मेकअप की मॉडल जो अपना ही बोझ नहीं संभाल पाती  जैसी जगहों पे मैं नहीं हूँ | तू देख बिटिया क्या मैंने गहनों  को लादा है अपने ऊपर ,नहीं न ,मैं तो बहुत ही सरल और साधारण हूँ ,ये तो तुम लोगों ने मुझे चित्रों में और मन्दिरों में मुकुट गहने पहना रखे हैं ,वरना ,इन सबको लाद के क्या मैं हर वक्त काम कर सकती हूँ ? ये तो तुम ही नहीं चाहते कि कोई साधारण व्यक्ति तुम्हारा ईष्ट होवे ,इसीलिये तुम हमें असाधारण बना देते हो | बिटिया कर्म करो , संवेदनशील बनो और अपने प्रति ईमानदार रहो यही मूल मन्त्र है ,असली लक्ष्मी ,तो संतोष ,शील , संवेदना ,करुणा ,अहिंसा ,अस्तेय ,अपरिग्रह और प्राणिमात्र की सेवा ही है | प्रकृति के विनाश से अपनी स्वार्थ सिद्धि ,बाहर गंदगी -अपना घर साफ़ ,अपनी तिजोरी भरी पड़ोसी के यहाँ भूख ,ये तो समृद्धि के लक्षण कभी नहीं हो सकते पर अफ़सोस हम इन्हीं लिप्साओं की ओर भागते जा रहे है ,मनुष्य जीवन तो बहुत अनमोल है इसकी असली श्री -समृद्धि तो अपने को पहचानना है |
******************रामस्य व्रजनं बलेर्नियमनं पाण्डो: सुतानां वनं |
                                     वृष्णिनां निधनं नलस्य नृपते ,राज्यात्परिभ्रंशनम् ||
                                     कारागार निषेवणम् च मरणं संचित्य लंकेश्वरे |
                                     सर्वकाल वशेन नश्यति नर: को वा परित्रायते ||----------राम का वन  गमन ,बाली का बंधन ,पांडवों का बनवास ,नल का राज्य से विच्युत होना ,रावण का नाश और मृत्यु ये सब सोच के पता चलता है कि सभी मनुष्य काल गति से बंधे हैं कौन किसे बचा सकता है | जैसे एक माता पिता की सभी संतानें एक सी नहीं होतीं वैसे ही सबका भाग्य भी एक जैसा नहीं हो सकता | पर हाँ जब दुर्गति होती है तो छटपटाहट एक जैसी ही होती है | सो बिटिया मैं तो सभी के पास हूँ जो मुझे पहचान ले वही निर्भय हो जाएगा ,जो मुझे समर्पण कर देगा अपना सबकुछ ,जैसा राजा बलि की प्रजा ने किया था उसके कर्म विकर्म  सब मैं देखूंगी |
***  माँ सबकी दीवाली होती है सब एक दिन को ही सही  खुश तो होते ही हैं  मैंने भी दीप जलाए हैं खुशियाँ बिखेरी हैं आस-पास ,सबको शुभकामनाये भी दी है पर तुझे तो पता है न ,तूने तो अमावस को ही   हमारे घर का दीप बुझाया है अजय को हमसे छीन लिया ,  वो अमावस की ही उषा थी जब प्राची में सुनहरे लाल रथ पे सवार होकेतुम जगती को रोशन करने आयी थीं और मेरे घर के दीप को बुझा गयीं | पर कोई बात नहीं माँ ,तू तो सर्व कारणों की  कारण है | तूने ऐसा क्यूँ किया ये तुझे ही मालूम '',समरथ को नहीं दोष गुसाईं ''  तू देख माँ ,बच्चे मुझे खुश देखने को और मैं बच्चों की ख़ुशी को खुश होते हैं ,दीप जलाते है ,तेरे स्वागत को तोरण सजाते हैं ,बन्दनवार लगाते है और तुझसे एक ही प्रार्थना करते हैं अजय जहाँ भी हों तेरा हाथ उनके सर पर हो और हमारे सर पे सदैव तेरा हाथ बना रहे ,जब भी कोई गलत राह चलें तू बांह पकड़ के उबार लेना बस इतनी सी विनती है ये तो तुझे माननी ही पड़ेगी | इस पे माँ बोलीं ...
********************लक्ष्मी कौस्तुभ पारिजात सहज:  सूनु: सुधाभ्योनिधे -
                                        देवेन प्रणय प्रसादविधिना मूर्ध्ना धृत: शंभुना ,
                                        अद्ध्या प्युज्क्षति: नैव दैवविहितं  क्षेन्यम क्षपावल्लभ:
                                          केनान्येन  विलन्ग्ध्यते विधिगति: पाषाण रेखा सखी || ....लक्ष्मी -कौस्तुभमणि-पारिजात ,कल्पवृक्ष का भाई ,अमृत रूपी समुद्र का पुत्र -चन्द्रमा -जिसे देवाधिदेव महादेव ने प्रेम तथा प्रसन्नता से अपने मस्तक पे धारण कर रखा है ,तो भी दैवी विधान स्वरूप प्राप्त क्षीणता को वो आज भी नहीं त्यागता है | बिटिया पत्थर की रेखा सी साथिनी  इस दैवगति को कौन लाँघ सकता है | इसलिए धैर्य धरो बिटिया और जो कर्म है उसे पूरी लगन  से करो |
***पर माँ एक बात तो बताओ , तुम सभी ऐश्वर्यों की दाता हो तो क्या विदेशों में भी जाती हो ,वहां पे भी हिन्दुस्तानी  तुम्हें ऐसे ही पूजते हैं ,अन्य  सभ्यताएं किसे पूज के  समृद्ध हो रही हैं ,तुम्हें तो हमने अपनी थाती मान  रखा है फिर भी हमारे यहाँ कितनी गंदगी , गरीबी  असभ्यता जबकि दुनियाँ के वो देश जो कभी भी लक्ष्मी पूजा नहीं करते वो   सभ्य  साफ़-सुथरे ,समृद्ध ये क्या विडंबना है माँ |
*** तब माँ बोली बिटिया -पुत्री ,हम तो तुमसे पहिले ही कह दिएँ थे ,की;; कराग्रे वसते लक्ष्मी '' वे लोग अपने हाथों पे विश्वास करते हैं ,अपनी समृद्धि के साथ-साथ अपने देश की समृद्धि भी चाहते है ,अल्लम-गल्लम करते हैं पर देश को लूट के खा पचा नहीं जाते , उन्होंने यदि जंगल काटे तो उतने ही लगाये भी ,अपनी नदियों को साफ रखा ,तालाबों को झीलों में परिवर्तित कर दिया ,और अपना  कूड़ा साफ़ करके बाहर फेंकने की आदतों से तोबा करी ,तबही ऐसे देश धरती के स्वर्ग बन गये हैं | यदि  हिन्दुस्थान में भी'' अपनाहाथ जगन्नाथ और कराग्रे वसते लक्ष्मी'' के मन्त्र को लोग अपना लें तो इस भूमि को स्वर्ग बनने से कौन रोक सकता है और ये कहके माँ ये जा और वो जा ,मुझे प्रणाम करने का मौका भी नहीं दिया ,मुझे पता है ,जब कभी  बाहर से लौटने में  देर हो जाती थी  तो अजय कितना असहज हो जाते थे तब मैं भी यूँ ही भागी हुई घर आती थी ,क्षीर सागर पे जगतपिता विष्णुजी भी तो असहज हो रहे होंगे |
***मध्यम और निम्न मध्यम परिवारों की दीपावली ! सब जानते है --पती -पत्नी का बजट में जुगाड़ बाजी ,( अब तो खैर ई ऍम आई है ),पत्नी को घर का रंग-रोगन करना है ,हो सके तो इस दीवाली पर्दे भी बदलेंगे ,पिछली बार भी रह गये थे ,पड़ोसन ने तो सब कुछ कर लिया है ,तो यहाँ भी पत्नी अपने को गोटेवाली साड़ी पहने कमर में चाबी का छल्ला पहने ,इधर-उधर आती जाती व्यस्त दिखाती है ,कुछ देर में आंगन ,देहरी या छत तक भी हो आती है ताकि पड़ोसी देख लें कि दिवाली का काम हो रहा है ,बच्चे बाप का मुहं तकते हैं ,क्यूंकि यही शख्श है जो उनके लिए उपहार और पटाखे लाएगा | पती इस जुगाड़ में कि यदि इस बार चांदी के बजाय सोने का सिक्का आ जाये तो बुरे दिनों के लिए कुछ तो बचत हो जाये ,दिए भी जल जाएँ कुछ मिठाई भी आजाये और पटाखे भी छूट जाएँ तो मजा ही आ जाये |रात को दीपमाला ,ताकि मैया आयें तो किसी दूसरे के घर न पहुंच जाएँ , सबको पता है ये मिट्टी के दिये घंटे दो  घंटे में बुझ जायेंगे ,पर गृहणी ,पूजा में अखंड दीपक जला के सारी रात ऊंघती - जागती बिताती हुई ,अब आई मैया तब आई ,पर मइया तो पिछले बरस भी नहीं आई थी ,सैकड़ों घर यूँ ही प्रतीक्षा करते रह गये |
*** पर मायूस कोई नहीं है ,दीपावली में सभी खुश थे | मैया ने इस वर्ष दस्तक नहीं  दी तो कोई बात नहीं ,कोई कमी रह गयी होगी ,दूसरे वर्ष और कर्जा लेके और धूम-धाम से मनाएंगे | ये ख़ुशी है कि, दीवाली अच्छी रही | मध्यम वर्ग के घर में एक दिनी समृद्धि | ख़ुशी ,उल्लास,  आनंद  की सीधी - साधी मध्यमवर्गीय कल्पना ,एक रंगरोगन युक्त  सजा हुआ सा घर ,सजी संवरी पत्नी ,टिपटॉप पती ,खुश ,हंसते -खेलते बच्चे ,और भरपेट सुस्वादु भोजन ,रोशनी की जगमगाहट इतनी की मुहल्ले के सामने नजरें नीची न हों बस | घर में ही स्वर्ग हो गया |  सुखी जीवन और स्वर्ग  की मूल  भारतीय कल्पना इससे अधिक है ही क्या , हाँ  यदि सही में  स्वर्ग में हैं  तो   स्त्री को दो चार काम करने वालियां और  पुरुष को दो चार अप्सराएं बस हो गया रामराज्य |
*** और अब छठ के लिए जाते सजे-धजे परिवारों को देख रही हूँ | सोच रही हूँ भारतभूमि ,पर्व और उत्सवों की भूमी है , और सभी पर्व नव-धान्य आने पे या बुआई होने के बाद के खाली समय में रखे गये ,ताकि मिलके थकान उतारी जाये ,गीत संगीत की सभाएं हों ,आपसी प्यार बढ़े और समाज में समरसता आये ,पर आज ,न तो खेती को उत्तम माना जाता है , न समरसता रह गयी है ,हर व्यक्ति स्वार्थी है ,दूसरा जाये भाड़ में मुझे क्या पड़ी वाली मानसिकता और खासकर बड़े और सभ्य कहलाने वाले शहरों में ,दिखावे की सामूहिकता और दिखावे की मित्रता , व्यक्तिनिष्ठ समाज में दिखावा ही दिखावा हो गया है ,ऐसे में क्या ये पर्व आज भी सुकून का माध्यम हैं ,शायद हाँ चाहे कुछ देर के लिए ही सही इंसान अपने को भूल जाता है || ........ बस यूँ ही बैठे ठाले की बकवास ,खाली दिमाग शैतान का घर || आभा ||














Wednesday, 1 October 2014

नवरात्री स्पेशियल .................
....गर्ज-गर्ज क्षणं मूढ़ मधु यावत्पिबाम्यहम् |
 देवी की गर्जना और फिर महिषासुर का वध ,देवी का स्तवन |
प्रत्येक अध्याय में देवी का ध्यान --उनके रूप श्रृंगार का वर्णन ,,,यहाँ तक कि सप्तम , एकादश अध्याय  और मूर्ति रहस्य में तो शरीर शौष्ठव का भी वर्णन |  रूप,रंग गुण ,शक्ति ,विद्या  बुद्धि ,करुणा- ममता  की स्वामिनी जिसका आज भी वर्ष में दो बार स्तवन किया जाता है और उसको पाने के लिये उपवास यज्ञ ,तप पूजा का सहारा लिया जाता है , माँ   -जिसके स्वरूप को जानने  के लिए देव, दानव,मनुष्य गन्धर्व  सभी लालायित रहे ,पर, ;'यस्या:स्वरूपं ब्रह्मादयो न जानन्ति तस्मादुच्यते अज्ञेंया ' किसी से भी नहीं जानी जा सकी ,यहाँ तक कि आज भी स्त्री के मन को जानने की कोशिश  ही हो रही है | वो लक्ष्य भी है पर अलक्ष्य है .वो सामने है पर अनन्त है ,उसका पार पाना मुश्किल है ,वो सीता राधा ,दुर्गा ,काली , और दुर्गा के नौ के नौ रूपों में अजा है | वो एक स्त्री एक ही वक्त में पूरे परिवार के लिए उपलब्ध है कई रिश्तों और कई नामों में सजी हुई ,बंधी हुई  समर्पित एक होती हुई भी नैका इसीलिए दुर्गा सप्तशती में उसे --''अज्ञेयानन्तालक्ष्याजैका नैकेती''  कहा गया | वो दुर्गा जो  ''मंत्राणाम् मात्रिका देवी शब्दानां ज्ञान रूपिणी ,ज्ञानानां चिन्मयातीता शून्यानां  शून्य साक्षिणी '' है  | सभी शक्ति -रूप- गुण -और जय के चाहने वाले जिसका स्तवन कर रहे हैं, वो  माँ दुर्गा , सभी स्त्रियों में व्याप्त है --बस हम उसे मन्दिरों और ऊँचे पर्वतों में ढूंढते हैं | वहां भी है वो ,पर विग्रह रूप में ; असल में तो वो घर- घर में व्याप्त है |गरीब के घर में भी और अमीर के घर में भी ,प्यार बरसाती हुई ,माँ ,प्रेयसी ,पत्नी ,भगिनी ,पुत्री के रूप में |
 घर में रहने वाली भगवती को  यदि पैदा होने दें ,कन्या भ्रूण हत्या को देवी वध  ही मानें , कन्या को अष्टमी नवमी में हलवा  खिलाने की जगह उसे पढ़ायें .प्यार दें , दूसरे दर्जे का नागरिक न मानें , दहेज न लेने, न देने का प्रण लें , और ससुराल  उसके लिए  पती का घर नहीं उसका घर है ,जिसकी वो ही स्वामिनी है ऐसा अहसास करवाएं ,तो माँ दुर्गा स्वयं ही प्रसन्न हो जायेंगी |
यजुर्वेद में कन्या  पालन का उतना ही महत्व बताया गया है जितना पुत्र  का है ---
''अर्थ ते योनिऋर्त्वियोयतो जातोSरोचथा: |
तं ज्ञानन्नग्नSआ रोहाथा नो वधया रयीम् ||''....भावार्थ ...हे माता- पिताऔर आचार्यों तुम लोग पुत्र और कन्याओं को ,ब्रह्मचर्य और अच्छी शिक्षा से युक्त करो ताकि वे सुखदायक ,सत्यनिष्ठ ,सदाचारी संतान बने और समाज को सुखी करें |
''चिदंसि तया देवतया अंगीरस्वद्द ध्रुवा सीद |
परिचिदसि तया देवतया अन्गिरस्वद्द  ध्रुवा सीद ||'' भावार्थ .. सभी माता पिता और पढाने  वाली विदुषी स्त्रियों को चाहिये की कन्याओं को सम्यक बुद्धि मती करें और अखंडित ब्रह्मचर्य और विद्या से युक्त कन्याएं अपने तुल्य वरों के साथ स्वयम्बर विवाह करके गृहस्थ आश्रम का सेवन करें |  साथ ही कन्याओं को भी सीख है -
''सविता ते शरीराणी मातु रुपस्थ आ वपतु |
तस्मै पृथिवि शं भव ||----भावार्थ ---हे कन्या तेरे लिए उचित है की जिन माता पिता ने तुम्हें और तुम्हारे वर को जन्म दिया है तुम उन्हें न भूलो और उनके सुख का कारक बनो |

वैदिक काल में स्त्रियों का  बराबरी का स्थान था ,पर ऋचाओं में संतान न कहके कन्या और पुत्र कहा जाना  ये दिखाता है की मूल्यों का क्षरण ,सभ्य होने के साथ-साथ ही होना प्रारम्भ हो गया था तथा  उन्हें स्थापित करने की आवश्यकता भी तभी से महसूस होने लगी थी |
स्त्री जाति  का जननी होना उसकी सबसे बड़ी शक्ति थी लेकिन यही उसकी सबसे बड़ी कमजोरी भी बन गयी ,अपनी संतानों के लिए त्याग करते- करते वो अपने अस्तित्व को ही भुला बैठी और अपनी कन्या को भी अपने जैसा ही बना बैठी ,वो भूल गयी ,वो केवल जननी या पालन करने वाली ही नहीं है उसका एक स्वतंत्र अस्तित्व भी है , वो गृहस्थी को चलाने के लिए एक औजार बन के रह गयी एक ऐसा औजार जिसको देखभाल की भी आवश्यकता नहीं होती है ,और यहीं से क्षरण प्रारम्भ हुआ ,उसके अस्तित्व पे जंग लगना शुरू हो गया |वो स्त्री जो  दुर्गा भी  है जिसके श्रृंगार और रूप के स्तवन के मन्त्रों से शास्त्र भरे पड़े हैं --यथा ---''कनकोत्तमकान्ति: सा सुकान्तिकनकाम्बरा |देवी कनक वर्णाभा कनकोत्तमभूषणा  || और एक कदम आगे श्रृंगार में केश भी लाल ही होगये ..." रक्ताम्बरा रक्तवर्णा रक्तसर्वांगभूषणा | रक्तायुधा रक्तनेत्रा रक्तकेशाति भीषणा || "  वो स्त्री मिर्च -मसालों और बच्चों की गंध से भरी हुई एक चलती फिरती मशीन हो के  रह गयी जिसके कार्य की ,जिसकी कर्तव्य निष्ठा की ,जिसके संस्कारों की तारीफ़ तो होती है ,पर उसकी ओर देखने का समय किसी के पास नहीं है |   हमारी जननी को  संतानों को पालते ,घर बाहर के कार्य निबटाते अपने पे ध्यान देने का समय ही न मिलता और वो जननी हो के ही संतुष्ट हो गयी , घर में भी उसकी देखभाल करने वाला या उसके अस्तित्व की याद दिलाने वाला कोई न रहा , शायद स्त्री का यही रूप उपयोगी भी था , रूप - श्रृंगार उसे अपने   लिए सोचने का समय देता  और परिवार के लिए ये स्थिति असहज हो जाती | बस ऐसे ही धीरे -धीरे कुचालें रची गयीं ,देवी के रूप का स्तवन करने वाली आर्यों की संताने अपने घर की स्त्रियों के श्रृंगार को   अर्थ और समय   का दुरूपयोग प्रचारित करने लगीं , देवों के मध्य उच्च सिंहासन पे बैठी जग जननी को कालान्तर में घूंघट और फिर पर्दे में कर दिया गया, फिर स्त्री शिक्षा को अनुपयोगी कहा जाने लगा ,ऐसा भी दौर आया कि -रामायण बांच ले, खाना पका ले और क्या चाहिये | सती  प्रथा ,भ्रूण हत्या ,यानि जब हम चाहें तो स्त्री हो और हम न चाहें तो मर जाये | आज भी  इस सूचना-प्रसारण के युग में जब संचार माध्यमों का बोलबाला है - (स्त्री शिक्षा पे ध्यान देना  प्रारम्भ भी  हुआ है )स्त्रियाँ  अपने अस्तित्व के प्रति कुछ तो जागरूक हुई भी  हैं  अपना वर्चस्व स्थापित भी कर रही है  और सदियों का विद्रोह कहीं कहीं तो लावा बनके भी बह रहा है- ,कई गाँव कई जातियां कई इलाके ऐसे हैं जहाँ कन्या को नवरात्री में  ढूँढ के हलवा पूरी तो खिलाई जाती है पर अपने घर में उसका पैदा होना सहन नहीं है ,कन्या भ्रूण हत्या बदस्तूर जारी है , कन्या को  खुलके सांस लेने की आजादी नहीं है ,वो बंधुआ जीव है |
तो क्या स्त्री को अपना पुन:संस्थापन ,स्वयं ही नहीं करना चाहिये | वो श्रृजना है ,शक्ति है ,वो विष्णु को भी सुला देती है ,ऐसी वो निद्रा देवी जो विष्णु के सोने पे जगत की रक्षा हेतु शक्ति ,दुर्गा ,काली सब बन  सकती है .वही शक्ति  समस्त  जगत की स्त्रियों में व्याप्त है | अपने अस्तित्व को झंझोड़ने की आवश्यकता है |स्त्री   ममता  की मूरत  माँ - भगिनी - पुत्री ,प्रेयसी  है  तो  विदुषी सरस्वती भी है  ,  शक्ति   भी है ,  दुर्गा भी है जो   शेर पे भी सवार  है ,यानि साहस और  वीरता में उसका कोई सानी नहीं है ,प्यार देने वाली भार्या है तो  स्नेहिल सखी भी है ,वो घर और संसार दोनों को सम्यक रूप से चला सकती है |आज आवश्यकता इस ही बात की है कि स्त्री अपने अंदर बैठी नवदुर्गा  की शक्ति को पहचाने ,संस्कार और आडम्बर में अंतर को समझे और नए मूल्यों का प्रतिष्ठापन करे | सम्यक ,सोच ,सम्यक दृष्टि और सम्यक इरादा | यदि कन्या भ्रूण हत्या ,दहेज , कन्या शिक्षा ,और कन्या व्यक्तित्व विकास के लिए माँ संकल्पित हो जाये तो समाज में निश्चित ही सुधार आएगा |
शुम्भ-निशुम्भ आज भी समाज में मौजूद हैं , किसी भी युवती को देख के जिनकी लार टपकने लगती है और उसे हासिल करने की कुचालें रचने लगते हैं |  हमको ही अपने को इस योग्य बनाना होगा ताकि इन राक्षसों का मर्दन कर सकें |अपनी  संतानों को  संस्कार देने होंगे ताकि पुत्र और कन्या दोनों के लिए  सामान अधिकार और सामान मौके हों |  नवरात्री में देवी पूजा ,कलश स्थापना  हरियाली के साथ चंडीपाठ और नौ पारायण  रामायण का सही उद्येश्य ,अपने पुत्रों को संस्कारी बनाना और कन्या को अधिकारी बनाना हो तबही पूजा सफल होगी |  नवरात्री की शुभकामनायें सभी को | माँ दुर्गा कल्याण करें ,घर में मंगल हो ,देश में मंगल हो ,शुरुवात मुझसे हो -जय माता की |आभा |..










Wednesday, 3 September 2014

  शिक्षक दिवस की पूर्व संध्या पर --एक व्यंग -(लेखिका का पूरा खानदान शिक्षक बिरादरी को बिलोंग करता       *************************है  सो माफ़ी नामा कोई नहीं )*******************************
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आज अख़बार में पढ़ा ,''मशीनी युग में घट रहे मवेशी '' उपयोग में न आने के कारण गधों की जनसंख्या घटी |  तब से सोच रही हूँ कि हमारे बचपन में  गधे का बच्चा अधिकतर बुजुर्गों और मास्साबों का तकिया कलाम हुआ करता था|शायद ! तब की बात और थी सही के गधे प्रचुर मात्रा में थे , घर -स्कूलों के बाहर गधे चरते रहते थे , गधों की बहुत पूछ थी ,यहाँ तक कि कृष्णचन्द्र  की "एक गधे की आत्म कथा और एक गधे की वापसी "    तो आज की कई बेस्ट-सेलर  से कई गुना ज्यादा बिकी और पढ़ी गयी (तब १००० कॉपी बिकने पे बेस्ट =सेलर का रिवाज नहीं था न ) ,"मेरा गधा गधों का लीडर" गाना चार्ट -बस्टर हुआ ,"इधर भी गधे हैं उधर भी गधे हैं जिधर देखता हूँ गधे ही गधे हैं " ओम प्रकाशजी की ये कविता तो  हर बच्चे का  मंच -भय ( stage phobia ya stage fright )  से उबरने में मददगार होती थी |और तो और संगीत की कक्षा में जरा सा स्वर से इधर-उधर होने पे हमारे अंधे गुरूजी ( तब सरकारी स्कूलों में संगीत के मास्साब प्रज्ञा चक्षु ही हुआ करते थे ) सरे आम डांट लगाते थे क्या गरधब राग अलाप रही हो ढेंचू-ढेंचू  और हमारे स्वर को  सुन के कई बार तो बाहर चरते गधे ढेंचू-ढेंचू रेंकने भी लगते थे | शायद बुजुर्गों और मास्साबों का ये तकिया कलाम उन फ़ील्ड में चरते गधों को इतना पसंद आया कि उन्होंने परमपिता-परमेश्वर को अर्जी दी कि प्रभु ये मनुष्य नाम का प्राणी ,गधे के बच्चों को बहुत सम्मान देता है , इस स्कूल में तो मास्साब अक्सर ही बच्चों को गधे का बच्चा बोलते हैं ,कई बार तो हम खिड़की से अंदर झांकते हैं कहीं हमारा बच्चा सही में तो स्कूल में नहीं घुस गया |बड़े लोग अक्सर पीछे से एक - दूसरे   को गधे का बच्चा बोलते हैं , पुस्तकों में हमें नेता की उपाधि मिल गयी है और तो और प्रभु अब तो कोई अपनी बात मनवाना चाहे तो लोग ये भी कहते हैं कि "भाई मर्जी तो गधे की होती है "( स्टिंग ओपरेशन की सी डी भी प्रभु को दिखा दी गयी इन सब बातो के प्रूफ के रूप में  ) !तो हे नयी देह देने वाले स्वामी! जब राग गरधब ,मर्जी गधे कि ,बच्चा गधे का ,नेता  गधा -अभिनेता गधा तो  आप क्यूँ न हमारे बच्चों को ही  इंसानी चोला देके इनके घर भेज देते ,कम से कम आत्मा को तो ये सुकून रहेगा की हाँ मैं तो गधा ही हूँ ,प्रभु गीता में कहा हैं आपने कि आत्मसाक्षात्कार ही मोक्ष का मार्ग है ,तो यदि हम इन्सान बन गये तो अपने को पहचान भी सकेंगे ,| बात सोलह-आने सच थी ,तो भई अर्जी मंजूर हो गयी |इधर असली गधों की आबादी घटी ,उधर सबके घरों में कमोबेश एक गधा या गधी पैदा होना शुरू हुआ |  भाइयों और बहनों जो  आजकल इतने ज्यादा स्टबबर्न  लोग  सड़कों में घूम रहे हैं वो गधे  हमारे बुजुर्गों और मास्साबों  के आशीर्वाद का ही प्रतिफल हैं | असल में गाली और आशीर्वाद दोनों ही फलीभूत होते हैं ,आशीर्वाद ? कोई हाथ जोड़े- पाँव छुए तो मजबूरी है , पर गाली तो मन और दिल  से निकलती है और फट से लग जाती है ,अस्तु अवचेतन मन से ,अज्ञानता वश या मजाक में भी बुजुर्गों को अपनी अगली  पीढ़ी को वो नहीं बोलना चाहिये जो वो उसे नहीं देखना चाहते हैं |आज के समाज में हर जगह बैठे ,सोचते ,चरते ,गरियाते ,लिखते, छपते गधों की फ़ौज का  पूरा-पूरा उत्तरदायित्व  गधे का बच्चा वाली गाली को ही है चाहे वो प्यार से दी गयी हो या   गुस्से से | तो भाई  जानवर घटे नहीं हैं वो बस चोला बदल के आ गये है |इधर की आबादी उधर | एक गधे का छोटा सा प्यारा सा बच्चा जो  ,अपनी मर्जी का मालिक है  ,थोड़ा सा स्टबबर्न थोडा सा जिद्दी है  , कठिन परिस्थितियों का बोझा ढोता ,दिन रात काम के बोझ तले दबा ,सुबह निकला शाम को घर आता है हम सभी के भीतर है जिसे लोटने के लिए हरी घास का मैदान या धूल भरी पगडंडी भी नसीब नहीं है ,और लोटा वो तो अब घरों से ऐसे नदारत है जैसे गधे के सर से सींग |
    जंतु-प्रेमी (ऐनिमल-लवर ) होने के कारण मेरी ये प्रार्थना है कि असली गधे का बच्चा भी संरक्षित हो ,ताकि आने वाली पीढ़ी को ये तो पता चले कि गधे का बच्चा कितना प्यारा दिखाई देता था | स्वर्ग में तो देवी ने  गधे अपने पास संरक्षित कर ही रखे है "शीतला माता के वाहन के रूप में " पर पृथ्वी लोक में भी असली गधे संरक्षित होने ही चाहिएं ,वरना असली नकली में भेद कैसे होगा | |आभा ||




Wednesday, 27 August 2014

आज की चर्चा लव -जिहाद
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लव-जिहाद ---कई वर्षों से ये शब्द सुनाई दे रहा है |, एक छोटा सा  घाव जिसका  समय पे उपचार न हो सका और वो  कैंसर बन गया | लव हिंदी या उर्दू में जिसका अर्थ ही थोडा या अंशमात्र   हो  ---ये प्यार का विकृत स्वरुप है ,जिसका अर्थ ही  प्यार न होकर infatuation यानि आवेश में बह जानाहै  | प्यार को   किसी व्यक्ति विशेष या जाती विशेष से जोड़ के नहीं देखा जा सकता ,प्यार को परिभाषित करने की कोई तकनीक नहीं है ,ये गवईं गाँव से लेकर ,मिडिल,लोअर मिडिल ,अपर हिन्दू -मुस्लिम -सिख इसाई ,किसी से भी हो सकता है |पर मर्यादा ,सामाजिक असंतुलन ,बदनामी ,ये सब भी सदैव ही जुड़ जाते है इससे | वरना तो प्यार शकुन्तला को हुआ ,प्यार रुक्मणी को हुआ ,प्यार संयुक्ता  को हुआ ,और प्यार सावित्री को भी हुआ | तो लव को प्यार समझने की भूल न करें |
 जिहाद के नाम पे धर्म परिवर्तन के लिए लड़कियों को जो बहकाया जा रहा है (यदि ऐसा है तो ) ये कई वर्षों से सुनने में आ रहा है ,और कुछ उदाहरण भी सामने आ रहे हैं ,इस पर अवश्य ही संज्ञान लिया जाना चाहिये और रोक लगनी चाहिये | आज छोटे -और मंझोले शहरों के बच्चे इंटरनेट से जुड़ के बड़े-बड़े सपने देखते हैं ( जो उस उम्र की हकीकत है ) और येन -केन प्रकारेण उनको पूरा करना चाहते हैं | इसी का लाभ ये नफरत फ़ैलाने वाले सो काल्ड धर्म के ठेकेदार ,हेट-मोंगर्स उठाते हैं | लड़कियां क्यूंकि वर्जनाओं में पली होती हैं तो वो सबसे कमजोर कड़ी होती हैं प्रहार करने के लिए | फिर ,शिक्षा का आभाव , दहेज ,बड़ी शादी ,ससुराल की प्रताड़ना और शादी के बाद भी बंदिश ,इस सब से मुक्ति का सपना और सुंदर जिन्दगी ,माँ-बाप के सर पे कर्जे का बोझ नहीं ,जैसे कई कारण होते हैं कि लडकियाँ इस कुचाल को समझ नहीं पाती है |लड़कियों को छिछोरी और कम अक्ली बोलने  या माता- पिता के पालन-पोषण और संस्कारों को कोसने से कुछ नहीं होता है |किसी भी सोची समझी साजिश की हवा चलती है ,तब न संस्कार काम आते हैं न धर्म की वर्जनाएं |
कहते हैं किसी  व्यक्ति से बदला लेना हो तो उसके बेटे को दोस्त बना के बिगाड़ दो ,वो बिना कुछ करे तबाह हो जाएगा ,और किसी कौम से बदला लेना हो तो उसकी लड़कियों को भ्रष्ट कर दो ,कौम की कौम खत्म हो जायेगी | पर लोग ये भूल जाते हैं की वार उल्टा भी पड़ सकता है | अब लव जिहाद को ही लीजिये यदि तारा जैसी लड़कियां हों तो  कुचक्री परिवार ही तबाही के कगार पे आ जायेंगे | मेरा तो मानना है कि हिन्दुस्थान में हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे के विरोधी ही ये सब करवा रहे है ,और दोनों जातियों के कमजोर और ईजी मनी ,या बिना मेहनत के सुखसुविधा चाहने वाले नवयुवक-नवयुवतियां इसमें फंस रहे हैं |वरना तो ये लव-जिहाद मुस्लिम सम्प्रदाय के लिये भी दुःख दायक ही है | एक तरह से देखा जाय तो उनके लडकों को भी पैसे देके और तरह-तरह के प्रलोभन देके बहकाया जाता है इस सब के लिए |फिर मुल्ला मौलवी मदरसों के दरवाजे आधुनिकता के लिए नहीं खोलते हैं | उन्हें बचपन से ही सिखाया जाता है हलाल का खाना ,धर्म को फैलाना ,कौम का विस्तार ,जिहाद पे जन्नत और बहतर हूरें | मेरे सम्पर्क में कई पढ़े लिखे जहीन मुस्लिम नवयुवक हैं जो देश और समाज की उन्नति में निर्णायक भूमिका निभा रहे हैं ,और अपने धर्म का भी सम्मान करते हैं | उन्होंने अपने को बंद नहीं रखा | हम लोगों ने सदियों पहले जब और धर्म-सम्प्रदाय इस दुनिया में आये भी नहीं थे ,इन पण्डे ,पुजारियों से मुक्ति पा ली थी ,ये सब हमारे कर्मकांडों के साधन मात्र हैं ,हमें साधने वाले साधक नहीं ,फिर भी  हमारे बच्चे राम-कृष्ण-हनुमान -माँ के भक्त हैं जब कि हिन्दू धर्म में धार्मिक होने का कोई आग्रह भी नहीं है ,तो एक ऐसे  सम्प्रदायमें  जहाँ पे सबकुछ पवित्र कुरान और मुल्ला मौलवियों की परिधि में घूमता हो  बच्चे यदि कट्टर हों तो उनकी क्या गलती |पर  उनकी ये ही कट्टरता कुछ  हिन्दुओं को भी कट्टर होने पे मजबूर कर रही है |
जहाँ तक लव जिहाद की बात है तो इसका तोड़ राजनीति से , नेताओं से , टी,वी के  बेदिमागी और एरोगेंट एंकर के प्रोग्राम में जा के नहीं निकाला जा सकता | दोनों समाजों  के प्रबुद्ध लोग ,बड़े बूढ़े ,और धार्मिक गुरु ,मिल बैठें ,देश में भाईचारे और सौहार्द्य की सोचे ,दोनों देखें  कि दोनों के ही घर में आग फ़ैल रही है ,जिस देश का खाते हैं उसके लॉ ऑफ़ लैंड को मानें ,तबही इस साजिश से पार पाया जा सकता है | कुछ हद तक ,साजिश का खुलासा होने पे सख्त  कानूनी प्रक्रिया और दंड भी समाधान हो सकता पर उम्मीद कम है क्यूंकि जहाँ से बलात्कार जैसे जुर्म में न्याय में देरी है वहां शादी पे कहाँ पूछ होगी |
लव जिहाद में धोखा देके शादी करना ही नहीं ,प्यार में फंसा के शादी करना फिर  शादी के समय और बाद में दहेज या किसी भी रूप में पैसों की डिमांड करना और अपनी कुत्सित मानसिकता से लडकी को प्रताड़ित करना  ये भी धोखाधड़ी ही है ,इन सब धोखों को क्रिमिनल एक्ट मानना पड़ेगा | सबसे बड़ी बात , सूडो -सेक्युलरों  से और वोट की राजनीती से सावधान रहने की आवश्यकता है |   देश में बहुत सी समस्याएं हैं और देश पुनर्निर्माण की दहलीज पे खड़ा है ,विकास होगा तो हर कौम -धर्म और सम्प्रदाय का होगा ,देश आगे न बढ़े ,और चुनिन्दा विकसित देशों की दादा गिरी चलती रहे ,इसीलिए इस तरह की घटनाओं के लिए बाहरी देशों से पैसा आता है | इस अनैतिक पैसे के आवागमन को  रोकना सरकारों का काम है जिस पे पिछली सरकारों ने ध्यान ही नहीं दिया |आतंकवाद ,लव-जिहाद ये सब विदेशी पैसे पे ही फल फूल रहे हैं |  पैसे आने के ये चैनल बंद होने ही चाहियें |
सबसे बड़ी बात ,जो लडकियाँ लव जिहाद की शिकार बनी है ,वो टी.वी. अख़बारों में अपनी आप बीती बयान  कर रही हैं ,हम रोज किसी न किसी चैनल पे ये देख रहे हैं और प्रिंट मीडिया में पढ़ रहे हैं ,तो क्या हमारी लडकियाँ इतनी नासमझ हैं की अभी भी फसेंगी इस कुचाल में ,या दूसरे  समाज के नवयुवक बिलकुल ही दिमाग से पैदल हैं कि इस का अंजाम देख के भी इस कुचक्र  में फसेंगे | शायद दोनों ही और के समझदार लोगों को मिल बैठ के निष्कर्ष निकलना होगा ताकि प्यार बदनाम न हो और विश्वास बना रहे |

Friday, 22 August 2014

आज अजय ५८ वर्ष के हो गये ,कल ही तो कान्हा का जन्मोत्सव मनाया था और आज अजय का। क्या हुआ वो मेरे पास नहीं हैं तो ,कान्हा भी तो मेरे मन में ही हैं न। तुम हो हमारे साथ अजय ;आज भी कल भी हमेशा , मन के झरोंखों से झांकते ,हर सुख में खिलखिलाते हर दुःख में गले लगाते ,देख तो पाते हो तुम हमें ऊपर से ,बस हम ही ढूंढते रह जाते है तुम्हें , श्रधान्जली अजय ,जन्मदिन की बधाई ,तुम तो कान्हा के पास चले गये मेरी भी अर्जी आई है उसे भी देख लेना ---
( हर क्षण सपना ;सपने में बस तुम )
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सपनों के उपवन में जब भी तुमसे मिलती हूँ ,
किसलय के अधरों की आभा सी बन खिलती हूँ .
सपनो के मनहर झुरमुट ,सघन वन ये मानस मेरा,
यादों के ढहते पर्वत , नयनों से झरते झरने।
मैं जीवन से हार रही या मन निर्मल होना चाहे ,
आत्म हवन अविरल अकम्पित ,
श्रृंगार शून्य तन ,दुःख व्रती मन।
पर ,नहीं हारती ;सूने पथ की राही हूँ ,
मैं रोती नहीं !वारती -मानस मोती हूँ।
जब उपवन में दिख जाता है कोई काँटा ,
दुःख दर्द विरह की कसक और बढ़ जाती है ,
चुपके से आकर, कानों में कुछ कह जाते तुम !
अपने प्रांतर में कांटे ही क्यूँ देखूं मैं ?
हर डाली मैं मुस्कान तुम्हारी आली है
हर क्यारी में पद- चिन्ह तुम्हारे दिखते हैं
शीतल शबनम की बूंदें प्यास जगाती हैं .
सवप्न सरित की लचकीली लहरों
 से
मन प्रांगण का उपवन सिंचित हो जाता है
शांत किन्तु गंभीर वह नि:स्वन तेरा ,
भ्रमरों सा गुंजित होता है मन में मेरे ,
बन कली हवा में झूम-झपक इठलाती मैं
तितली सी खिलती औ पंछी सी गाती हूँ।
जो पौध कीचकों की रोपी थी- संग तेरे ,
बंसी की धुन सी बजती है अब उपवन में
अनियंत्रित भावों से हृदय निनादित होता है ,
सपनों के उपवन में मैं जब तुमसे मिलती हूँ।
दृग युगल सींचते हैं मेरी इस बगिया को
अवसादों के पारिजात गलीचा बुनते हैं
मधुर समीर मह- मह महका देता आंगन
वेदना विदग्ध सपनों को बहलाती हूँ।
मेरा प्रेम नहीं सम्मोहन की हाला
ये प्रेम नहीं विरह -कटु -रस का प्याला
मैं चढके नभ की ऊँची चोटी पर ,
व्यथित चित्त को बोध युक्त कर पाती हूँ
मैने आतप हो जान लिया
विरहा में जल ज्ञान लिया
तन -मन का वह पावन नाता
वह अंतिम सच पहचान लिया
मैने आहुती बन कर देखा
यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है
मिलने के पल दो चार यहाँ
तप यज्ञ कल्प तक चलता ह
सपनों के उपवन में मैं ;जब भी तुमसे मिलती हूँ
हर किसलय के अधरों की आभा सी बन कर खिलती हूँ। ------आभा --

Wednesday, 13 August 2014

                     {(पड़ोसन)}
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***एक बेहद जरुरी ,व्यर्थ सी चर्चा | पड़ोसन; पती की भाभीजी -पत्नीकी मुंहबोली बहन ( कभी छोटी, कभी बड़ी ) | पड़ोसन ; गोलगप्पे के   खट्टे -मीठे पानी के चटकारे सी कभी तीखी ,कभी मीठी महसूस होती हुई |पड़ोसन ;जो घर की बगिया से  बेधडक हरी सब्जी तोड़ले और आपके पती भी इस कार्य में उसका योगदान दे के अपने के खुशनसीब समझें | पड़ोसन ; कभी जी को जलाती कभी खुश करती हुई सी  बिलकुल सोलह साल की उम्र की भांति जो अपनी होते हुए भी कभी  अपनी नहीं होती पर सब से प्रिय होती है | पड़ोसन ;दरवाजों और खिडकियों के पीछे से झांकता एक पवित्र और आवश्यक रिश्ता |
***पड़ोसन ;पत्नी द्वारा  एप्रूवड वो सुन्दरी जिसके आने से घर की नैतिक ईंटें खिसक जायेंगी ये डर किसी पत्नी को नहीं होता |
***कान से समाचार जानने की कस्बाई संस्कृति अब समाप्त हो चुकी है अब तो टीवी है सोसियल मीडिया है पर फिर भी पड़ोसन ने इस संस्कृति को गंवई-गाँव से लेकर शहरों और महानगरों की बड़ी सोसाइटियों में भी सहेज के रखा है | पड़ोसन ;जो चौबीस घंटे में किसी भी समय आपके घर की घंटी बजा सकती है और यदि दरवाजा उढ़का हुआ है तो धडल्ले से खोल के भीतर आ सकती है |मेरी पड़ोसनें ,मेरी सखी से अधिक मेरे पती की भाभीजी  रही हैं | अपने घर परिवार की अन्तरंग बातें और समस्याओं के समाधान सब  अपने इस देवर से ही मिलते थे इनको ,मैं तो केवल चाय पिलाने तक ही सिमित थी |वैसे हमारे घरो की ये पुरानी  परम्परा और संस्कार हैं की पड़ोसन को पूरा सम्मान देना है | पड़ोसनों की उम्र या  रूप रंग नहीं देखे जाते ,इनके तो कानों और इनके शब्दों से ही इनकी पहचान होती है | जितने बड़े और स्वस्थ कान होंगे उतनी ही खबरें झरेंगी मुंह  से |मेरी एक पड़ोसन तो बहुत ही निराली थीं ---कुछ ऊंचा सुनती थीं - मध्यम स्वर में बोलती थीं  पर जाने कैसे जमाने भर के घरों की अन्तरंग बातें उन्हें मालूम होती थीं | मुझे बहुत -बहुत गर्व रहा कि मैं उनकी पड़ोसन रही |
***पर कुछ पड़ोसनें मेरी तरह की भी होती हैं जिन्हें किसी के घर की अन्तरंग बातों में कोई- कोई रूचि नहीं होती ,किसी के घर में घुसने की आदत नहीं होती ,जिन्हें  किसी की बातें सुनके भी उनके बीच में छिपा अर्थ समझ नहीं आता और जिनके लिए इशारे तो काला अक्षर भैंस बराबर होती हैं | ऐसी  पड़ोसन की कहीं कोई पूछ नहीं होती ,जो  कोई चुगली ,छुईं न  खाती  हो ,गप्पी -झप्पी न हो ,तो उसके घर कोई भी पड़ोसन क्यूँ आये  ? आएगी  जी ,हर पड़ोसन आएगी  ! बस हमें कुछ आकर्षण पैदा करना पड़ेगा ,सिलाई ,कढ़ाई,बिनाई ,पाक-कला ,व्रत- त्यौहार ,और गाने बजाने नाचने के गुर सीखने और सिखाने के लिए तैयार रहना पड़ेगा |नये नये मौसमी और ट्रेडीशनल व्यंजनों से पड़ोसिनों का स्वागत करना पड़ेगा |कुछ धार्मिक ,दार्शनिक और साहित्यिक बातें जो आपको हटके बनायें , सबसे बड़ी ट्रिक -हम जैसे नीरस लोगों को सबकी मदद के लिये हर वक्त तैयार रहना पड़ेगा , पड़ोसन बहनें  किसी भी पार्टी या उत्सव के लिए हमारी नयी वाली साडी और ज्वैलरी मांगे तो ख़ुशी -ख़ुशी देने को तैयार रहना पड़ेगा ; तभी, मेरी जैसी नीरस पड़ोसिनों को भी चटखारे वाली पड़ोसिनें मिलेंगी | अन्यथा महानगरों की चाल में तो आप निपट अकेले हो जायेंगे ,कौन पूछेगा आपको | तो ये शब्द  जो पड़ोसन कहलाता है बहुत ही सुंदर और उपयोगी रिश्ता है |पर यदि कालचक्र उल्टा घूमे और आपकी ग्रह-चाल ख़राब हो इस रिश्ते के कोप से अपने को बचाना बहुत मुश्किल होता है |आपको अपनी सारी समझदारी उड़ेल देनी पड़ती है वरना तो इस रिश्ते के पास आपके सारे राज होते हैं --- मेरा तो  मानना है - पड़ोसन को अपनी प्रिय सखी मानें ,उससे सारी  खबरें बड़े मनोयोग  से सुनें पर उन्हें पचा  जाएँ , अपने कोई भी राज या कमजोरी अपनी इस सखी के  हाथ न लगने दें ,वरना तो महिमा घटी समुद्र की रावण बस्यो पडोस !आपको पता है श्रवण -मनन और निविध्यासन द्वारा साक्षात्कार का सामर्थ्य प्राप्त होता है पड़ोसिनों को | ये खबरनवीस आसपास  की  खबरों का  संकलन और संचालन करते -करतेभावातीत अवस्था में रहा करती हैं | अपने स्व को भूल के ,खबरों का अहर्निश जाप करते हुए मधुमय आनन्द को प्राप्त रहती हैं हर वक्त | ऐसी पड़ोसनों को साधने का एक ही गुर ,लो प्रोफाइल , कभी भी उन्हें ये न महसूस होने दो कि तुम उनसे बीस हो हमेशा सोलह ,बारह या दस पे ही दिखाओ अपने को, चाहे- स्त्री सुलभ डाह आपको कितना ही कष्ट क्यूँ न दे ,जरा सी चूक हुई ,सावधानी हटी और दुर्घटना घटी  | असल में समय पे तो पडोसी ही काम आता है ,वास्तव में दान ,पुन्य ,यश ,नाम धन सब फीका है एक अच्छी पड़ोसन के आगे | पर  पड़ोसन से अपनी रक्षा भी जरुरी है |वो बेचारी आपसे प्रेम करती है ( चाहे दिखावेका ) और खबरची का रोल बड़ी पवित्रता से निभाती है |वह माया का ही एक रूप है ,निर्गुण फांस लिए कर डोले ,बोले मधुरी बानी | कितने मकान  बदलने ,कई  सोसाइटियों  में रिहायश पे कई विभिन्नताओं के मध्य एक ही समानता रही-  मिलती जुलती पड़ोसनें |कमोबेश एक जैसे स्वरूप वाली ,समता और न्याय का निरूपण करती सी |  जीवन क्षण भंगुर है पर उसमें एक अदद पड़ोसन की सख्त जरूरत है ,तो आज ही खटखटाइये अपने पड़ोस का दरवाजा और जान - पहचान  बढाइये अपनी  पड़ोसन से |वरना तो आज रिश्ते सड़ी सुपारी की मानिंद हो गये हैं जरा सा सरौता लगा नहीं और कट के गिर पड़े |  ***आभा ***

Friday, 27 June 2014

हसीन तस्सवुर सामने हो ,ख्यालों में चढ़ ही जाता है                        कल्पना का जादू
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 ये कौन चित्रकार है  ? क्या मानव की कूची इतने सुंदर रंगों को उकेर सकती है  ? समुद्र की सम्पदा_______ सौन्दर्य ,चटकीले रंग ,अल्हड़ चाल ,नटखट अंदाज ,भोलापन और शातिर जिजीविषा सभी कुछ तो है यहाँ |   कुदरत के इस हुस्नों- इश्क के बागीचे में सैर करने निकलने  पे  अक्सर अक्ल बारीक हो जाती है ,दृश्यों की शाब्दिक आहट कान पहचानने लगते हैं बेजुबान आँखें ,बेजुबान कान प्रकृति के हर रूप का ,हर बार  , पहले प्यार की पहली   छुवन सा अहसास करवाते है |बहुत मुश्किल होता है अपने अंतर्जगत के भावों को कैनवास पे उकेरना | कहीं न कहीं कुछ छोड़ना ही पड़ता है  पर कुदरत ने इसमें कहीं कोई कमी ही नहीं छोड़ी ,जल ,जंगल ,आसमान सभी तरफ उस नटवरनागर की तूलिका से हुई  रंगों की बौछार को हम प्राची में सूर्योदय से सायं दिवस के अवसान तक अनुभव करते हैं |
     इंसान उस चित्रकार की सबसे अद्भुत कलाकृति | बस ऐसे ही बैठे-बिठाये यादों के झरोखों में अपनी कुछ यात्राओं में कुदरत के हसीन नजारों में टहल रही थी तो विचारों ने उछल कूद शुरू की | सोचने लगी  ये वादियाँ ,ये सुबह ,ये शाम ,ये बेइंतहा खुबसूरत कुदरत के नजारे इन्हें देखने ,समझने और सराहने की सही शुरुआत उम्र के किस पडाव से शुरू होकर यहाँ तक पहुँचती है | हर उम्र के अपने अहसास होते है ,आज जो मैं इस कुदरत के समक्ष बेजुबान ,नतमस्तक हूँ, क्या  ? बचपन में भी  ऐसा ही था ; शायद नहीं |
    इस  हसीन तस्सवुर की  रूमानियत का अहसास होता है कब ! शायद सोलहवें साल की बंदिशों  वाली उम्र आने को होती है तब ,जब खुद की शख्शियत , खुद से ज्यादा हसीन और किसी को नहीं देखना चाहती  | जब बिना किसी कारण ही , पढते -लिखते  ,खेलते  -कूदते  और माँ का हाथबटाते हुए एक नशा सा रहता है हर बढ़ते बच्चे पे |,बंदिशें ,लड़कों पे कम लड़कियों पे ज्यादा  | और इसी बहाने यादों के जुगनू टिमटिमाने लगे मन के जंगल में जो शायद कमोबेश सबकी यादों में एक से ही जगमगाते होंगे |
  सोलहवें साल का वो नाजुक सा दौर ,जो सबसे ज्यादा अपना होते हुए भी अपना नहीं होता | दरवाजों और खिडकियों के पीछे से चुगली करने वालों जैसा , चुपके से सुनना  और मुहं फेर लेना लापरवाही से हर आहट पे बेवजह ही चौंकने  और अनजान आने वाले का इन्तजार करता जैसा  ,बस ऐसा ही चोरी छिपे का रिश्ता होता है अपने साथ | पिता से सहमा हुआ ,माँ से छुपता हुआ ,बेख़ौफ़ पर सहमा हुआ; मन में उठता हुआ काव्य संसार ,सृजन की उत्कंठा | ये उम्र भी तो प्रकृति के सब रंगों में सबसे जुदा ,सबसे चटकीला ,सबसे खूबसूरत रंग है , तभी  तो कुदरत के साथ तार इसी उम्र में जुड़ते है | कहानियाँ ,कविताएँ लिखी जाती हैं और फाड़ी जाती है ,ताकि कोई देख न ले और पढाई के वक्त उटपटांग करने के आरोप में डांट न पड़े | हाँ ! कभी प्रतियोगिता हो तो आप कुछ अच्छा सा लिखने के लिय फ्री होते है --जैसे ''पंछी मुझको भाते हैं ,चूं चूं चूं चूं करते हैं ,मंगल गाना गाते हैं ""  ये उम्र होती है जब चाँद -सितारों को जल चढाने का नहीं छूने का मन होता है  आंगन  में जगमगाते जुगनुओं को अनायास ही झोली में भरने का मन होता है | और मेरे  जैसे कुछ जन्मजात कलाकार ( अब तक का सबसे बड़ा जोक ठीक स्टैंडिंग कॉमेडी जैसा ) जो पहाड़ों , नदी झरनों , या समुद्र के किनारे  रिहायश पा जाएँ इस उम्र में तो समझिये प्रकृति और कलाकार में अंतर करना ही मुश्किल हो जाता है दोनों का एक दूसरे में निरूपण हो जाता है महादेवी की इन पंक्तियों की मानिंद _____
           सिन्धु का उच्छ्वास घन है ,
           तड़ित तम  का विकल मन है ,
          भीति क्या नभ है व्यथा का ,
          आंसुओं से सिक्त आंचल !
स्वर प्रकम्पित कर दिशाएँ ,
मीड,सब भू की शिराएँ ,
गा रहे आंधी प्रलय ,
तेरे लिये ही आज मंगल !
काश उस नटवर नागर ने मुझे भी थोड़ी सी कलाकारों वाली नाजुकी अंदाज दिया होता |शायद उसको जान पाती अधिक और अधिक ,पर जो भी उसने दिया खूब दिया और कह दिया  बाकी बचा हुआ प्रकृति में तलाश |आभा |










   

Friday, 20 June 2014

                      (एक मूर्खता पूर्ण व्यंग उट्र-उट्र ___)
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 कालिदास का मूर्ख से विद्वान बनना , वो भी संस्कृत के महा पंडित ,कवि ,नाटककार ,कहानी कार  और महाकाव्य के रचयिता के रूप में ,  महज कुछ ही वर्षों के अंतराल में ! मेरी मूर्खता ये कभी भी नहीं पचा पाती है| तब  भी नहीं जब मैं पढ़ते हुए  ,कालिदास को अपने रगों में बहते हुए महसूस कर सकती हूँ |   विद्योत्मा को नीचा दिखाने के लिए, पंडितों की कुचाल  के कारण, कालिदास जैसे मूर्ख (जो जिस डाल पे बैठा था उसे ही काट रहा था ) का प्रादुर्भाव साहित्य जगत में हुआ | जो शादी के बाद मूर्खता का भेद खुल जाने  और लताड़े जाने पे विद्वान् बनने चल दिया | स्त्री द्वारा लताड़े जाने पे तो सूर और तुलसी भी प्रसिद्ध हुए पर वे जन्मजात मूर्ख नहीं थे | कलिदास ठहरे निपट मूर्ख फिर उम्र के इस पड़ाव पे आके कुछ गिने चुने सालों में इतने विद्वान कैसे हो गये ! क्या  विद्योत्मा ने ही   किसी खूबसूरत से अंडरग्राऊंड महल में  कालिदास को छिपा दिया कुछ समय के लिए ,और ओवरहालिंग करके पंडित सा दिखने लायक बनादिया जैसे आजकल कई संस्थानों में  पुस्तक  की सहायता से मन्त्र पढ़ के शादी ब्याह ,हवन और कथा करवाने वाले पंडित हो जाते हैं ,और हम इन मूर्ख भाड़े के पंडितों   के पैर छू के आशीर्वाद भी लेते हैं , जो हमे धोखा दे रहे हैं !  पर प्रश्न ये उठता है कि केवल काम चलाऊ पंडित बने कालिदास   तो इस अतुलनीय  साहित्य का रचयिता कौन था ? क्या सही में ऐसे चमत्कारों का काल था वो कि निपट मूर्ख ( जैसा कि उनको दिखाया गया था पंडितों से मिलने से पहले ) कुछ ही समय में प्रकांड पंडित बन महाकाव्यों का रचयिता बन जन -जन के मन पे छा जाए |या फिर ये भी हो सकता है कि कालिदास विद्वान हों और उन्होंने विद्योत्मा के समीप जाने के लिए मूर्ख होने का स्वांग रच के उस वक्त के प्रकांड पंडितों को मूर्ख बनाया हो | या फिर , एक बार शादी होने पे और पती की मूर्खता का भांडा फूटने पे बदनामी के डर से और पंडितों को नीचा दिखाने के लिए कालीदास के कहीं चले जाने की अफवाह उड़ाकर ,उनको पंडित बनाकर पेश किया गया और उनके नाम से कई ग्रन्थों की रचना विद्योत्मा ने ही की , नेपथ्य में रह के | राजघराने में विदूषी स्त्री सब कुछ करने में सक्षम थी !  बात कुछ भी रही हो पर हमें तो मेघदूत ,रघुवंशम  ,अभिज्ञानशाकुन्तलम,विक्रमोर्यवशियम्,मालविकाग्निमित्र,कुमारसंभव ,ऋतुसंहार जैसे महाकाव्य ,खंडकाव्य ,नाटक ,कविता और कहानियाँ मिलीं और साथ ही मिला पुरुरवा - उर्वशी यक्ष ,शकुन्तला ,अलकापुरी जैसे नामो का सानिध्य जो मन के किसी कोने में हमेशा के लिए अंकित हो गये  | मेघ और यक्ष के  वार्तालाप में जंगल ,नदी पर्वत सागर गाँव ,पनघट शहर के ऊपर  उड़ते  बादल को सही दिशाबोध करवाना शायद  अपने तरह का सबसे पहला टूरिस्ट -गाइड या नक्शा रहा होगा जो गूगल मैप से भी अधिक पारदर्शी है| एक ओर  पनघट पे आयी सुमुखियों के भी दर्शन करता चलता है तो दूसरी ओरदिशा और दूरी का सही आकलन करवाता है | पर प्रश्न यही है कि एक निपट मूर्ख इतना विद्वान कैसे बन गया या उस कालखण्ड में भी आज के नेताओं की तरह  अपने को बुद्धिजीवी और विद्वत दिखाने की ललक में राजवंश भाड़े के लेखक और साहित्यकार रखा करते थे लेकिन दूसरे की रचना में वो आत्मा की शुद्धता और अहसासों की गहराई कैसे हो सकती है | कैसे बिना अपने अनुभव के कोई इतना महान साहित्य दे सकता है और फिर वही ' इंगणी-मिगणि मेरा बाखरा की तिन्नी सिंगणि ' कोई निपट मूर्ख कैसे कूछ समय में इतना विद्वान् हो सकता है ,चाहे कितना भी परिश्रम कर ले -एक निश्चित स्तर तक ही सफलता मिलेगी | ये सही में शोध का विषय है | बचपन से सोचते -सोचते मैं तो इसी निर्णय पे पहुंची हूँ कि कालीदास  मूर्ख नहीं थे | --- मेरी ये रचना केवल उन साहित्य प्रेमियों  को  समर्पित जो कालिदास की रचनाओं की बारिश में भीग चुके हैं  और समय -समय पे उनका स्नेह लेते रहते है ,क्यूंकि वही मेरे प्रश्न का मर्म समझ पायेंगे |-----मेघदूत और बाल्मीकि रामायण में बहुत समानतायें हैं प्रस्तुत है एक छोटी सी बानगी ------मेघदूत में यक्ष ने  यक्षणी के  नेत्रों को  मछली के उछलने से हिलते, नील कमल के सदृश उपमा  दी है यथा '' त्वय्यासन्ने नयनमुपरिस्पन्दि शङ्के मृगाक्ष्या ,मीनक्षोभाच्चलकुवलय श्रीतुलामेष्यतीति॥'' यही उपमान वाल्मीकि ने रामायण में विरह विधुरा सीता के लिए प्रस्तुत करवाया है यथा ___ 'प्रास्पन्दतैकं नयनं सुकेश्या मीनाहतं पद्मममिवातिताम्रम।'' ___दोनों एक ही कोटि के कवि थे | लेकिन दोनों के उत्थान की कहानी का विरोध भास शायद जन मानस को भ्रमित करने के लिए ही है क्यूंकि वाल्मीकिजी ने  अपने परिचय में ,अपने को प्रचेताओं का पुत्र बताया है ,तो डाकू वाली कथा ख़ारिज हुई और कालिदास तो मूर्ख हो ही नहीं सकते ये मेरा मानना है | इति शुभम | कभी कभी जासूसी पिक्चर देख के साहित्य में घुस के जासूसी करने का मन होता है तो मैं मन को नहीं मारती हूँ क्यूँ कि अनर्गल प्रलाप करने वालों के कारण ही तो मनोविज्ञान और मनोवैज्ञानिक का जन्म हुआ || आभा ||






Thursday, 22 May 2014

'' आज बैठे ठाले का फितूर -बेमतलब की बकवास                नहीं गीता से स्नेह लेने की इच्छा ''
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"गिरते हैं जब खयाल तो गिरता है आदमी ,जिसने इसे संभाला वो ही संभल गया " | और आदमी को संभालने के लिए गीता से इतर और कुछ हो सकता है क्या ? गीता कथाओं का ग्रन्थ नहीं है ये तो चिंतन है ,दर्पण में अपने को देखने की प्रक्रिया | ये माँ गंगा की भांति पतित पावनी -"कृष्ण कृपा संजीवनी " है |
कृष्ण अपने कई रूपों में ,जीवन के हर  पल और हर कर्म के लिए हमारे साथ हैं पुत्र से धर्म-प्रवर्तक   समाज-सुधारक तक | श्रृंगाररस  के संयोग वियोग दोनों पक्षों में  पूरा जीवन समाहित है और वहां प्रत्येक स्थान पे कृष्ण मौजूद हैं हमारे साथ | गीता के  स्पर्श  मात्र से ही कान्हा  की समीपता का अहसास होता है -हर श्लोक माँ के सामान बच्चे की ऊँगली थाम के जीवन की कठिनाइयों से पार ले जाता सा प्रतीत होता है |
तनाव से बाहर निकलने को ,अशांति को शांत करने को ,गीता को पढना ,समझना और जीना ही एक मात्र साधन है |  दूसरे अध्याय का ४८ श्लोक -----
   योगस्थ: कुरू कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय |
   सिद्धयसिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ||_____से यदि दिन का प्रारम्भ हो इसे  प्रात:काल पढ़ के जीवन में उतारा जाय तो मजबूत दिनचर्या का मांगलिक आधार बन जाएगा एक प्रबोधात्मक प्रेरणा ,पुरुषार्थ के प्रति जागरूकता ,जहाँ योग शब्द को प्रभु ने मन की समता से जोड़ा है ,कर्म  के अहंकार से दूर ,कृपा भाव से कर्म  , मैं इस कर्म को या कर्म से क्या दे सकता हूँ न कि मुझे क्या मिलेगा |यही गीता की दिव्यता है जो भी कर्म कुशलता और निष्ठा से किया जा रहा है  वो योग है तुझे कर्म के कर्तव्य की दृष्टि हो देने वाला तो मैं हूँ | सुबह सवेरे अपने कर्मों को प्रारम्भ करने से पहले का श्लोक --फिर किसी भी गलती की सम्भावना ही नहीं |
 भोजन से पहले का श्लोक ____यज्ञशिष्टशिनसंतो मुच्यन्ते सर्व किल्बिषे |
        अध्याय ३ का १३ _______  भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पच्न्त्यात्मकारणात् ||
                                                                      और
       अध्याय ४ का २४ -_______ब्रह्मार्पणम् ब्रह्म ह्यविरब्रह्माग्नो  ब्रह्मणा हुतं |
                                                 ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं  ब्रह्मकर्म समाधिना     ||______और अधिक नहीं इन दो श्लोकों को ध्यान करके यदि भोजन का इंतजाम हो और भोजन किया जाए तो कोई भी भूखा न रहे | कोमल कन्हैया कठोर वाणी में आदेश देते हैं कि केवल घी और आहुति के होम को ही यज्ञ नहीं कहतेहैं ,यद्यपि ये भी यज्ञहै  अपितु खिला के खाना और परोपकार की भावना ही असली यज्ञहै   ,गो ग्रास , श्वान के लिए ,पक्षी के लिए यहाँ तक किसांप के लिए दूध  भी क्यूंकि वो भी प्रकृति का शोधक तत्व है तेरे निवाले से जाना चाहिए | समत्व भाव ,परोपकार ,प्रकृति संरक्षण और जितना चाहे बस उतना ही लो प्रकृति से -अपरिग्रह ,सब भोजन यज्ञ में ही निहित है | "त्वमेव वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पयेत " आस्था ,श्रधा ,विश्वास ,समर्पण --यदि गोविन्द को समर्पित करके खाओगे तो भक्ष्य ही खाओगे जो तुम्हारे लिए अमृत होगा ,चिन्तन में श्याम सलोना होगा , तो मीरा के विष की तरह हर पदार्थ अमृत हो जाएगा |दुराग्रह की स्थिति नहीं ,चिन्तन की स्थिति यदि केवल भाव बदलने से प्रभाव बदल जाए तो क्या बुराई है ईश्वरी भाव होगा तो विराट उदारता होगी ,शुद्धता होगी और फिर मन और देह का सारा कूड़ा कचरा बह  जाएगा |''आहारौ शुद्धौ सत्य शुद्धि ,जैसा मन वैसा अन्न '', भीतर सात्विक भाव तो आरोग्यता ,तो हुई न गीता भोजन से पहले आचमन करने वाली गंगा | गीता में कार्य स्थल पे जाने से पहले से लेकर दिन भर के कार्यों के विश्लेष्ण तक के सभी श्लोक हैं जो जीवन के लिए मन्त्रों का कार्य करते हैं और निष्काम कर्म,जागरूकता और कर्तव्य निष्ठा से जीवन को  सुगम बनाने का मार्ग प्रशस्त करते है | आवश्यकता है गीता को एक बनिया के बहीखाते ,एक शिक्षक के हाजिरी - रजिस्टर या एक शेयर ब्रोकर के शेयरों की तरह प्रति दिन देखने की |
 और पूरे दिन भर की भाग दौड़ ,आपा-धापी और थकन के बाद रात्रि में बिस्तर पे जाने से पहले कान्हा का दुलार तो देखिये वे कहते हैं ___------
                                                 सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणम् व्रज |
                                                 अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि  मा शुच: ||
कितना दुलार ,कितना लाड करते है कन्हैया ,कोई भी भूल है उसे अपना तनाव न बना तू तो बस मेरी शरण में आजा पगले ,'मा शुच':., मैं देखूंगा तेरे सब पापों को ,५०१५० वर्ष पूर्व कहा गया ये वाक्य किसी मत ,सम्प्रदाय या पन्थ का नहीं है | ये तो उस विराट परमात्मा की एक प्यारी सी ममत्व भरी लाडली वात्सल्यमय पुकार है |वो कह रहा है मेरे लाडले ,दिन भर के क्रिया कलापों में जो तेरे कर्तव्य नहीं थे ,जैसे ईर्ष्या ,राग द्वेष वो भी तूने अपने ऊपर लाद लिए उतार  फेंक इस कलुष को ,मुझ पे विश्वास  कर ,जैसे माँ कीचड़ में सने अपने बच्चे को धो के साफ़ करदेती है वैसे ही मैं भी तुझे अभय देता हूँ तू मेरी ये लाड़ली पुकार तो सुन ! मेरा तो बन !  मेरी शरण तो आ ! यह श्लोक दिव्य  आह्वान  है कान्हा का मानवता के लिए,' मा शुच' की लाडली पुकार ,अज्ञान के आवरण को उतारफेंक और मेरे पास आ ,जहाँ परमात्मा है वहां सत् है शुचिता है ,निर्भयता है और सुमति है
 मेरे जीवन को तो गीता का ही सहारा है ,कृष्ण मेरे प्राण हैं ,उनकी लाडली पुकार मेरे लिए अभय का संकेत है |
गीता निर्भय जीवन की प्रेरणा है ,जिज्ञासू को जागृत करती है ,खंडन नहीं परम्पराओं का प्रतिष्ठापन है सब कुछ भूल के गोविन्द की विराट गोद में विश्राम है |
 गीता हमे स्वयं पे विश्वास और क्षमा दोनों सिखाती है ताकि हमपे ताकत हो ये कहने की कि ____
 जिन्दगी का सफर मैंने यूँ आसां कर लिया ,
कुछ से माफ़ी मांग ली कुछ को माफ़ कर दिया ||आभा ||