Monday, 31 October 2016

दीदी दिवाली का इनाम का देइबो --सोनी की उत्सुकता।
अभी क्यों बताऊं ,कल दूंगी देख लेना --
नाही ऐसा न करो ,बता दो।
क्यूँ फिर कल तेरी  पाने की ख़ुशी कम नही हो जायेगी।
नाही दिदिया ऐ बात नाही ,जो कछु भी देबो ऐसा देबो जे हमारी लौंडी [मुझे ये शब्द पसंद नही है पर हरदोई के आसपास यही बोलते हैं शायद बिटिया को ] के काम का रहीं।
क्यों तेरी बेटी जहां काम कर रही है वहां से मिलेगा न उसे ,मैं तो तुझे ही दूंगी , तेरी भी तो दीवाली है।
नाही दिदिया ए बात नाही ,हमरो तो चलि जाबो ,लौंडी को ब्या है -
अरे तेरी बेटी तो पन्द्रह वर्ष की है ,कोई जरूरत नही अभी उसका ब्याह करने की ,पर क्या मेरा समझाना काम आएगा। गरीब की बेटी ,बचपन से ही कमाने लगी है ,अब एक लड़का मिल गया गाँव में। लड़का पढ़ रहा है --[मुझे विशवास नही हुआ ] घर जमीन है खेती बारी है , लरकी जात ,समय खराब है ,कब ऊँचनीच हो जाए ,लड़की का बाप कमाता नही बीमार भी है ,आठ बच्चों में तीन भाइयों और तीन बहनों की शादी हो गयी। अब ये लड़की है ,आँख बन्द होने से पहले अपने घर चली जाए ,पढ़ लिख के भी यही काम करेगी ,कम से कम घर तो मिल जाएगा --फिर लौंडा  जो चाहे करे --उससे घर की इज्जत पे फर्क नही पड़ता --इज्जत की रखवाली तो लड़की ही है ------
गरीब को कैसे समझाओ ,उनकी सोच तो एक ही सांचे में ढल चुकी है। उन्हें लगता है पढ़-लिख के कुछ और बनने वाली लड़कियां तो मेमसाब लोगों की ही हो सकती हैं। ये काम चुने हुए सांसद कर सकते हैं या एनजीओ पर ये सब अपना घर भरने और अपने राजनैतिक एजेंडा चलाने में व्यस्त हैं ,हम जैसे लोग भरसक प्रयत्न करते हैं पर सहारा तो नही दे सकते ---
दहेज की मांग भी है क्या ?
हाँ दिदिया गाड़ी मांगो है।
गाड़ी ! मतलब ? मोटरसाइकल।
हां वही --
अब कहिये बेटी बचाओ बेटी पढाओ --इनके लिए तो बेटी बोझ ही है --मैंने कहा दहेज लेना तो जुर्म है --तो बोली दीदी ,लड़की को कभी नही छोड़ेगा ये लिखवा लिया है --तीन भाई हैं कर्जा लेके देंगे ,मुसलमानों में तो दूकान लिखवाते हैं अपने नाम ये तो गाडी ही मांग रहा है ---
पढ़ेगा समाज तभी तो आगे बढ़ेगा --ये केवल टीवी का ऐड  है और कुछ नही ---सोलह वर्ष वाली पीढ़ी भी नही पढ़ रही तो सुधार कैसे होगा ---राजनीतिज्ञों को अपने घरेलू झगड़ों और महागठबंधन बनाने की कवायद के अलावा कुछ दीखता ही नही ---कैसे  शुभदीवाली ---



''बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जित: ।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत ॥ ''
जीवात्मा आप ही आप का शत्रु है और आप ही आपका मित्र। और कोई हमारा शत्रु या मित्र हो ही नही सकता। इन्द्रियां अपने काबू में हैं तो आप आपने मित्र और नही तो शत्रु।
---शुभ धनतेरस में गीता का श्लोक क्यूँ !
जी --दीवाली का समय कचर-बचर खा लिया और शरीर ने विद्रोह कर दिया ,पर जीभ न मानी ; यानी इन्द्रियों से कंट्रोल गया और फिर थोड़ा और स्वाद --अब एसिड --नींद नही ,हलक में ऊँगली डाल के सारा खट्टा पानी बाहर निकालने की नौबत और फिर क्या कहते हैं वो --कचर-बचर की धमकी तो थी ही ''दांत खट्टे कर दूंगा '' पर हम भी डटे थे मैदान में अबके आईयो बट्टा मारूँ वाली मुद्रा में --भई त्यौहारी सीजन है - खाएंगे भी नही ,पर जब पंसेरी लगी तो चारों खाने चित --अब दांत खट्टे ,कुछ खाने लायक नही-- --जी ! तभी गीता का उपर्युक्त श्लोक उतर आया मन के एक कोने में और मुस्कुराने लगा --बिटिया '' हैका पढाई बल गीता अर अफ्फु चली रीत्ता ''--लालच बुरी बला है --बन गयी न अपनी शत्रु खुद ही --गीता पढ़ती है तो हर वक्त अमल कर तभी फायदा है --वरना तो उन्नीस का पहाड़ा है जब जरूरत हो गुणा किया ( किताब खोली ) और श्लोक हाजिर।
गीता जीवन के हर पल के लिये सूत्र देती है ,पर कहाँ समझ पाते हैं हम ,इंसान हैं न अर्जुन की तरह अपने को भूले हुए --
कचर-बचर खाना है तो खाओ ,अपने शत्रु अपने आप होना क्या होता है मालूम चल जाएगा ----
शुभधनतेरस --धन को भी बर्बाद मत करना ,अपनी कमाई है बाजार को मत सौंपो ,वक्त बेवक्त काम आएगी।
पिछले वर्ष की लड़ियाँ लगा लो इस वर्ष तो मिटटी के दियों की रोशनी ही ---
कुछ दिए उन शहीदों के नाम भी जिनके घर अमावस गहरा गयी है।
सभी को धनतेरस की शुभकामनायें।।आभा।।
खेल -खेल में सीखें थीं 
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आज याद जब भी आती है ,बचपन की दुनिया अपनी 
रोम -रोम में थिरकन होती, ख़्वाबों में खो जाती हूँ ,
कितनी छोटी, सहज ,सुरीली ,दुनियाँ थी वो बचपन की
ख़ुशी आस -पास तिरती थी ,छोटी छोटी बातों में ,
पल -पल जोश ,उमंग भरा था ,खेल -खेल में सीखें थीं ,
महंगे -महंगे खेल खिलौने ,इनकी हमको चाह न थी .
ढूंढ़ -ढांड कर गिट्टू आंगन से  ,आंगन में ही   खेल जमा
उछाल हवा में पाँचों गिट्टू इक्की दुक्की ,झपकू ,पंजा
बुद्धि  नजर हाथ  का  संतुलन शायद हम  यहीं पे सीखे |
पत्थर के टुकड़ों को चुन कर ,पिट्ठू -गरम बना लेते थे 

गेंद   नही  तो  क्या , कपड़ा  ऊन  सुई धागा लेकर 
सब बच्चों ने मिलजुल कर ,सतरंगी इक गेंद बना ली 
जुगाड़  और  काम चलाना ,कम  खर्च बाला नशीं 
फुर्ती ,शक्ति और  संतुलन ,कितनी  सीखें  थी  इस सब  में |
आइस -पाइस छुपम छुपाई ,आस -पास ही भागम -भगाई
विष अमृत , -टिप्पी टॉप खेलते ,रंगों में हम रंग जाते थे

आसपास  की  हर हरकत  पे ; ध्यान  लगाना  ;चौकन्ना  रहना ,
शायद  जासूसी  के कुछ  गुर  अवश्य  ही  इन खेलों  से  आये |
एक पहिया साइकिल का ,एक डाल से लकड़ी तोड़ी ,
सड़कों पे पहिया चल पड़ता ,वो पल गर्वीली ख़ुशी के होते

पहिये  के  नीचे  तार  या लकड़ी  ,और सडक  पर  भागम-  भाग 
क्या  अनोखा संतुलन ,नजर  न  भटके  सीखी  बात
जीवन की गाड़ी के पहिए आज भी यूँ ही चलते -

आधार  आज  भी जीवन  को  अनुभव  के  तारों  से  देते  |
चिड़िया उड़ ,तोता उड़ ,रोटी उड़  पे कौन उड़ बोला !
ताली बजी आउट हुआ ,ध्येय पे ध्यान ये हमने सीखा

अर्जुन सी  हो  नजर ध्यान  लक्ष्य पे रहे हमेशा 
कभी नही फिर वाणी  फिसलेगी ,बुद्धि ध्येय पे ही टिकेगी |
टप -टप टप ,स्टेपू पे यादों के बादल बरस रहे हैं ,
संतुलन हम यही से सीखे  ! एक टांग से टपना  हो या 

दोनों से   लेनी  हों   छलांग ,लाइन  पे  न  पड़े पैर ,
एक से सात  घरों  को टपना और अपना अधिकार  बनाना 
मेहनत  से  कुछ  मिलने  की  ख़ुशी को ,सबसे पहले यहीं पे जाना | 
और चौपड़ की बिसात पे ,बड़ों को भी खेलते देखा ,
कौड़ी -कौड़ी माया जोड़ी ,कौड़ी का भी मोल है समझा
ऊँची कूद भी हाथ पाँव को जोड़-जाड के कूद गये 

पाला  --लगे लम्बी  व्  ऊँची कूद  ,बस नजर लक्ष्य पर रखनी होगी 
अपनी परीक्षा  आप  ही  लेके  ,बारम्बार कोशिशे करनी
कभी गिरे कभी कूद गए पर सीखेंगे ये जिद न छोड़ी |
कभी न मांगे हमने माँ से, महंगे -महंगे खेल खिलौने ,
अलमस्त बचपन में हम सब ,सखियों संग ,झूला झूले
पढ़ना ,लिखना ,सीना बुनना और पिरोना, पाक कला औ -
अतिथि स्वागत , खेल खेल में  पढ़ गये जीवन के  ये पाठ  सुहाने |
संवेदनाएं जीवनकी ,समरसता में जीना क्या है?
साथ निभाना संकल्पित होना ,बाधाओं में डट कर टिकना ,
खेलों में हमने सीखा ,हार जीत पे संतुलित होना 

सबको साथ  लेके चलना ,प्रीत  प्यार  से हिलमिल  रहना |
समय  घड़ी  की  रेत रिस  रही  , समय लगा के पंख उस चला ,
पर  आज  उलट  इस  समय  घड़ी  को ,मैं  फिर  बचपन में घूमी , 
ख़्वाबों  के  जंगल  में  बचपन संग , फिर से सारे खेली खेल
बचपन की गलबहियां डाले  -अपने -पाले  तेरे पाले 

कविता  के  दर्पण  में  आज   हुआ  फिर , बचपन  से  मेल |
अब बचपन पूरा बदल गया है ,बच्चों को तो बैट बॉल चाहिए ,
बैड -मिन्टन ,फुटबॉल ,बेस और बास्केट बाल चाहिए ,
मोबाइल ,और लैपटॉप ,साथ में कम्पयूटर गेम्स चाहियें ,
रफ़्तार यदि सीखनी हो तो ,सायकिल-स्कूटर बाइक चाहिए .
और भागने दौड़ने को ,ट्रेड -मिल या रन फार एनी कॉज चाहिए ,
यह सब मिल जाने पर भी ,अब बचपन उतना शांत नहीं है .
भोला और निष्पाप नहीं है ,सुविधाओं में गुम गया कहीं है
अपने को साबित करने के बोझ तले , गुम गया आज  बचपन कहीं पे |
बचपन को फिर से गढ़ना  ,संवेदनशील बनाना  ,
बचपन को बचपन देना  ,भोला और सरल बनाना
खोगया कहीं जो हाई -टेक होकर ,,मोबाइल गेम्स से वापस लाकर ,
प्रकृति से मिलवाना  , क्या हो  सकता  है  ये  फिर  से ?

यक्ष प्रश्न  ये  पर !
कुछ तो जुगत भिडाना होगा ,बचपन को बचपन से मिलवाना होगा
तब ही शायद लौटेगा  सच्चा  बचपन भोला बचपन-|||आभा||------------------टिप्पणी----बचपन के खेल भूले नही जाते ,समय की रेत पे निशां वो भी पक्के वाले छोड़ जाते हैं ,जरासा पन्ना पलटो जीवंत हो उठती हैं स्मृतियाँ-----
                                            ''स्वयंसिद्धा ''
                                             ===========
==='' प्रेम '' !  प्रेम का बिरवा  धरती ,खाद ,पानी ,सही मौसम  की प्रतीक्षा  कहाँ करता है ; प्रेम! कुदरत का उपहार ; आज  उस प्रेम  की बतकही जो हर तरह के प्रेम का मूल  है -मनु और शतरूपा का प्रेम ,आदम और हव्वा का प्रेम ।  प्रेम ! सरल और सहज भावना किसी को देख  जोर से  दिल धड़का -और-''गिरा अनयन नयन  बिनु बानी '' वाला समा हो गया , उसे बार-बार देखने का मन होने लगा ,'''सिय मुख ससि भये नयन चकोरा ''और'' भये बिलोचन चारु अचंचल '' वाली स्थिति  हो गयी  ।  पास जाने की  , बात करने की  तीव्र इच्छा पर सामना होते ही होठों पे टेप लग गया हो ज्यूँ ; चमकीला वाला लाल टेप ,इतना चमकीला और लाल कि  उसकी रश्मियों से वो भी समझ गया तुम कुछ कहना चाहते हो पर कह नही पा रहे।  आँखों -आँखों में हो गयी बात ,तुम उससे प्रेम में हो उसे मालूम  हो गया और आश्चर्य तुम्हें भी अहसास हो गया ''दोनों ओर प्रेम पलता है ''।
=== बचपन से साथ पले ,बढ़े ,खेले कूदे। धौल -धप्पा ,किंगोड़ ,हिंसर बेडू ,तोड़ते ,कच्चे अखरोट के छिलके से साफ़  करे दांत और लाल  होंठों पे ताली पीटते ,मालू के पत्तों के दोनों में ढेर से जंगली गुलाब  ले  गंगा  में बहाते -बहाते न जाने  कब अनु मुझसे कतराने  लगी  पता ही न चला । अभी कुछ दिन ही तो हुये जब मैंने अनु के कानों के छेदों में जंगली गुलाब  के  गुच्छे  पहनाये थे ,उसके लिए गजरा बनाया था, कितनी सुंदर लग रही थी अनु पहन के। पर अचानक ये क्या हो गया , वो शर्माने लगी , कौन सा अहसास  है ; क्या प्रेम का अंकुर पनप रहा है ? पर अब तक कहाँ था ये निगोड़ा प्रेम ? हम बड़े ही क्यूँ हुए ! तब हर पल का साथ था और अब देखने के लिये भी समय चुराना पड़ता है। बस कनखियों में ही बात हो पाती है।
=== अनुभा साधारण से संस्कारी घर की इकलौती लाड़ली बिटिया। धूप सी सफेद -हाथ लगाओ  तो मैली हो जाये ,छुई-मुई सी नाजुक  ,निगाहें मिलीं कि सिमट गयी।  किशोर वय का खुमार -अनूप के चेतन -अवचेतन में हर पल अनु ही घूमने लगी। ये लडकियाँ किशोर अवस्था आते ही अपने में क्यूँ सिमट जाती हैं। क्यूँ मिलने पे पलकें झुका लेती है। वो  कनखियों से मुझे देखती है ,क्यूँ मेरे पास मंडराती  है  पर कुछ  कहूँ तो भाग जाती है।
=== अनूप अनु से बात करने को बेताब था। उसके पिता का स्थानान्तरण हो गया था। एक सप्ताह  में  ही उन्हें चले  जाना था। सब लोग बड़े खुश थे ,गाँव से बड़े शहर जा रहे थे ,अनूप का सपना था वकालत पढने का वो भी पूरा हो जाएगा। पर न जाने क्यूँ अनूप बहुत उदास था ,वो नही जाना चाहता था गाँव छोड़ के ;  पर क्यूँ ? शायद अनु के कारण ! अनु से बिछड़ने की कल्पना से ही उसका मुहं हलक पे आ गया था।  एक बार कैसे भी मिल ले और देखा अनु गंगाजी में पानी  भरने जा रही है।  सारे काम छोड़ अनूप दौड़ा और सुनसान देख अनु का हाथ पकड़  उसे खींच लिया , कस के हाथ पकड़ अनूप ने हौले से अनु के कान में कहा - ''मैं तुमसे प्यार करने लगा हूँ '' । अनु तो सफेद ही पड़ गयी , जिन शब्दों की ,जिस अहसास  की  कल्पना भी उसे रोमांचित करती थी आज वही सुनने पे उसका दिल जोर जोर से धड़कने लगा ,पहाड़ के उस छोटे से कस्बाई गाँव की छोरी ,डाल में लगे पीपल के पत्ते की तरह कांपने लगी ,पूरा शरीर लरजने लगा ,आँखों से आंसू झरने लगे ,रंग पीला पड़ गया ,मन कर रहा था ये लम्हा कभी खत्म न हो पर शर्म से हाथ छुड़ा के भाग गयी। अनूप  को होश आया तो उसे लगा वो लज्जा से गड़ ही जायेगा , ये उसने क्या कर दिया ,गर अनु ने किसी से कह दिया तो ,ये कैसी चाहत -छूने  की चाहत को कहीं प्यार कहते हैं --पर प्यार ? वो क्या करे प्यार तो वो करता है अनु से ,अनूप को लगा उसका प्रेम परवान चढ़ने से पहले ही मर गया। हताश निराश  वो चल दिया जीवन की राह  पे।
=== और अनु ---वो तो मीरा सी बावरी होली , राधा सी दीवानी  होली। हर पल आँखों के आगे वही दृश्य , अनूप मेरा है ,उसने मेरा हाथ पकड़ा ,प्यार करता हूँ बोला ,दौड़ के कमरे में जाती और बार-बार आरसी में स्वयं को निहारती -''आपु आपु ही आरसी लखि रीझत रिझवारी ''अपने पे ही रीझ रही है और सोच रही है 
''-है स्पर्श मलय के झिलमिल सा संज्ञा को सुलाता है। 
 पुलकित हो आँखें बंद किये तंद्रा को पास बुलाता है। 
मादक भाव सामने ,सुंदर एक चित्र सा कौन यहाँ। 
जिसे देखने को ये जीवन मर मर कर सौ बार जिए। ''
===  समय चक्र तेजी से घूमता है।   अनूप वकालत करके अधिवक्ता बन गया। वकालत चल निकली। शहर के गिने चुने लोगों में नाम हो गया। पिता ने एक बड़े घर में रिश्ता तय  कर दिया। दोनों घरों में विवाह  की खुशियाँ , मांगल और नियत समय पे लगन। कुसुम --हाँ कुसुम कली सी ही है नई दुल्हन।  अभिजात्य वर्ग की ठसक लिए ,नाजुक भी और सुंदर भी ,पर लोच और नजाकत गायब  ,मानो जंगली गुलाब के बीच -ट्यूब रोज का गुच्छा  -मासूमियत भी कुछ  अलग तरह की। पहली छुवन  में  भी  वो  लरजना  नही --क्या चाहता  है अनूप ? सोच रहा है -प्रथम मिलन में अनु क्यूँ  आ रही है मेरी  पुतलियों में।वो तो रोते  हुए भाग गई  थी  मेरे छूने  पे ,फिर अब तक उसका भी विवाह  हो  गया होगा ,झटक देना चाहता है अनु को पर -पर -पर वो तो छायावाद की कविता  की भांति समां चुकी है अस्तित्व में --''एक वीणा की मृदु झंकार ,कहाँ  है सुंदरता का पार ,
तुम्हें किस दर्पण में सुकुमारि ,दिखाऊं मैं साकार ,
तुम्हारे छूने में था प्राण संग में पावन गंगा स्नान ,
तुम्हारी  वाणी  में कल्याणि-त्रिवेणी की लहरों का गान। ''
आज अनूप निशब्द है ,प्रेम  को ढूंढ रहा है। मन में ग्लानि  भी  है प्रथम मिलन  में पूर्णसमर्पण न होने की ';  क्या वो पत्नी को छल  रहा  है।  ऐसे ही  गृहस्थी की गाड़ी चल निकली। यदि घर में साथ  रहने को ,सड़कों में हाथ पकड़ के घूमने को ,बच्चे पैदा करने और पालने को प्यार कहते हैं तो हाँ ! पति -पत्नी में प्यार था बहुत प्यार पर जब भी अनूप बालकनी में अकेला होता या रात में किसी लैम्पपोस्ट के नीचे होता घूमता हुआ ,कुदरत जैसे लम्बी लम्बी छायाओं  में  अनु के चित्र बनाने  लगती।
=== और अनु ,वो अनु जो अनूप  की  हो  चुकी  है ,दीवानी  मीरा  की  तरह बचपन की स्कूल की तस्वीर  को पर्स  में  रखे हुए  है , इसे देखकर ही  उसके दिन का प्रारम्भ होता है , इस तस्वीर में अनु को केवल अनूप ही दिखाई देता है और कोई नहीं। उसे ही सीने से लगाती है ,बलाएँ लेती है। क्या हुआ जो मीरा ने कन्हैया को नहीं देखा ,क्या हुआ जो कान्हा राधा को छोड़ गए --राधा तो आज  भी कान्हा की ही है न !
अनु ने हिंदी साहित्य से स्नातकोत्तर  किया  और  फिर  ''भक्ति काल  में कान्हा राधा के  प्रेम की सत्यता '' पे शोध भी किया। ये सब करके वो विदुषी सुंदर बाला  अपने ही गाँव में आ बसी ,वहां छोटी सी पाठशाला में बच्चों को पढ़ाने  लगी। शीघ्र  ही उसने गाँव  का कायाकल्प कर दिया ,छोटा सा सजा -संवरा स्वच्छ -आधुनिक गाँव। वो बच्चों की प्रिय दीदी और गाँव की लाड़ली बेटी बन गई। माता -पिता को अनु के विवाह  की चिंता  खाये जा रही  थी। अनु अप्रतिम सुंदरी थी ,जंगली गुलाब  सी नाजुक गुलाबी रंगत  लिए  साथ में विदुषी  और व्यवहार कुशल ,प्यार तो  उसके रूप से ही  बरसता था। एक से एक रिश्ते आये पर अनु टालती गई ,जब माँ की ओर  से अधिक दबाव बना तो एक दिन उसने माँ को अपने प्यार की दास्ताँ सुना ही दी कि , वो तो बचपन में ही अनूप का हाथ थाम चुकी थी। माँ सर पकड़ के बैठ गई ऐसा भी कहीं होता है ,ये क्या बचपना है ,अनु तुम कलयुग में हो द्वापर में नहीं जो राधा बनी घूमो -पर माँ मीरा  तो कलयुग में ही थी न --और माँ निरुत्तर। अनु कैसे काटेगी बिटिया पहाड़ सी जिंदगी , एक तो तेरा ये अप्रतिम रूप  ऊपर से विरहिणी -बिटिया तू और भी सुंदर हो गई है ,कैसे बचेगी समाज की नजरों से ? मेरी मान शादी कर ले घर -बच्चों में सब भूल जायेगी। अनूप बहुत  बड़ा वकील हो गया है ,उसकी तस्वीर देखी है मैंने अखबार में ,उसकी एक बेटी भी है ,बिटिया वो तुझे भूल चूका है !
नहीं माँ  ये बात नहीं है ,मैंने  ही कहां  कहा था उसे रुकने को वो तो आया था न ,खुश है वो यही काफी है ,मैंने प्रेम में कोई शर्त तो नहीं लगाई  थी न !ये गाँव के बच्चे हैं न मेरे अपने ,एक पल को अनूप से जो प्यार मिला वही  उलीच दूंगी जग में तू चिंता मत कर।प्रेम क्या पाना ही होता है ? मैं प्रेम करती हूँ माँ ! गंगा की तरह निर्मल और पवित्र ,शिव पार्वती को छोड़ समाधि में बैठ गए तो क्या ? इस जन्म में नहीं तो किसी और जन्म में ,ये तो जन्मों का बंधन है राधा भी मैं ही मीरा  भी मैं !
=== समय न किसी की प्रतीक्षा करता है ,न किसी के लिए रुकता है। एक ही बिटिया वो भी अप्रतिम रूप की स्वामिनी ,धूप में खड़ी हो तो दिखाई न दे इतनी फुसरी  ,पान खाये तो गले में उतरता दिखे ऐसी कांच सी रंगत ,विदुषी ,सरलमना पर समर्पण ऐसे व्यक्ति के प्रति जो ये जानता  भी नहीं ,माँ-पिता चिंता में बूढ़े होके असमय ब्रह्मलीन  हो गए ,पर जाते-जाते इस अनोखे प्यार और समर्पण की गाथा सरपंच काका  को बता गये। अनेकों आशीष अनेकों दुवाएं  अनु गाँव भर की लाड़ली है अब ,गाँव की लड़कियां उसकी सर परस्ती में अपने को  महफूज मानती हैं ।
=== उधर अनूप के घर में नए मेहमान के आने की आहट है। घर भर में खुशियां हैं , समय भी आ गया पर  नियति को कुछ और ही मंजूर था अनूप के माँ पिताजी और कुसुम की हस्पताल जाते  हुए दुर्घटना में मौत हो गई। जिस घर में खुशियां दस्तक देने वाली थीं ,वहां अब मातमी चहल -पहल थी। अनूप बिखर गया था। कैसे सम्भाले अपने को -किसी तरह  बेटी के सहारे   अपने को संयत किया हुआ था उसने । इस नन्ही सी जान का क्या दोष।इसके लिए ही जियूँगा मैं।
==== ये खबर अखबार में छपी। पढ़के अनु को लगा उसके शरीर से प्राण निकल रहे हो मानो ,वो तो सोचती थी कभी अनूप  के जीवन  में झाँकूँगी  भी नहीं ,उसे मालूम भी न चले इस प्रेम का पर ये क्या ? आज वो बेहाल है अनूप से मिलने के लिए ,झट से निर्णय लिया ,हाँ मैं मिलूंगी ,समाज कुछ भी कहे ,मैंने प्रेम के आगे समाज  की परवाह कब की ,सरपंच काका से पता मंगवाया अनूप का और चल दी अपने गंतव्य की ओर। मूसलाधार बारिश और बिजली की कड़क ,मानो कोई संदेश हो ,न जाने कैसा निमंत्रण था इस तड़ित में ,पानी  के बुलबुले धरती पे बन रहे थे ,फूट रहे थे मानो सदियों से प्यासी  धरा सारा पानी  सोख लेगी ---
''बुलबुलों का व्यापक संसार
बन-बिखर रहा न जाने क्यों
न जाने आज फिर क्यूँ  छूने की अभिलाषा
खद्योत बन कौन सा पथ दिखलाती है ''
==== घर का दरवाजा खुला था ,मानो स्वागत हेतु ही खोला गया हो ,सीधे भीतर चली आई ,पहचानूंगी  कैसे बचपन की तस्वीर को ? पर ये क्या अनूप तो बदला ही नहीं ,बस गमगीन है नियति की मार से। झट से अनूप का हाथ पकड़ लिया ,एक बार पुन: वही घटना घटी ,बाहर बिजली कड़की -H2 +O2 = H2O--और दोनों की आँखें झरने लगीं ,बरसों का रुका सैलाब बाँध तोड़ बह  निकला --अनूप ---मैं अनु !  आश्चर्य विस्मित  अनूप --तुम रोती हुई क्यूँ  भागी थीं -पगले वही  तो प्यार था -तुम समझ नहीं पाये ,आज भी न आती पर बिटिया को मेरी जरूरत है। हाथ पकड़ अनु ने कहा  चलो गाँव चलें अनूप ,बिटिया को माँ की तो गाँव को तुम्हारी जरूरत है ,दोस्त की तरह रहेंगे ,हाँ अगले जन्म में मिलने का वादा अवश्य करना इतनी सी विनती है ,प्रेम किया है तुमसे तो इतना माँगूँ ये तो हक है न मेरा --अँधेरा लीलने चला था सबकुछ पर समर्पित प्रेम रूपी स्वयंसिद्धा बिजली बन रोशनी करने आ गई --यही  तो है प्रेम - वासना-विमुक्त समर्पण है जहां ॥ आभा ॥ 


          स्नेहिल  मित्रों ,ये मेरी पहली कहानी है ,मैंने लेख, संस्मरण ,आप बीती ,जग बीती ,कविता ,व्यंग -सभी लिखे पर खालिस कहानी कभी नहीं लिखी। इस मंच पे ये विधा भी सीखूं  यही प्रयास रहेगा ,बोर भी हों पर पढियेगा अवश्य , मुझे पता है कहानी की शुरुआत लम्बी हो गई है और अंत समेटना पड़ा  है -पर आगे से ध्यान रखूंगी।  शुभकामनायें सभी साहित्य प्रेमियों को ,और विशेष धन्यवाद प्रतिबिम्ब को , कहानी  लिखने का माहौल  देने के लिए --









Tuesday, 25 October 2016


--कहानी ,मिथक ,जीवन दर्शन ---
पिछले वर्ष का दिमागी फितूर आज पुनर्जीवित हुआ , पर  पहले मैंने मित्रों  का आह्वान किया था विचार ,सलाह ,सुझाव व् परामर्श के लिए --वो वाक्य हटा दिया ---- आज कल मैं व्यस्त- पस्त हूँ सो मित्रों और बहनों की पोस्ट पे कम जा  पाती हूँ --और ये फेसबुक गिव एंड टेक का व्यापार है --- अतः मित्रों बहनों ने भी मेरी और से नजरें फेर ली हैं इसका अहसास है मुझे --सो लिखने या लाइक करने की कोई मजबूरी नही --यदि कुछ लिखने की इच्छा हो तो स्वागत ,अभिनन्दन ---
---- इस विषय में इस वर्ष मेरे ज्ञान में वृद्धि हुई ---एक बार विष्णु  थकान से अपनी धनुष की प्रत्यंचा पे ही सर टिका के बैठ गए --थके थे तो नींद आ गयी।  इधर देवताओं को किसी दैत्य ने बहुत परेशान किया ,वो ब्रह्मा के पास गए मदद के लिए। ब्रह्मा ने उन्हें विष्णु के पास भेजा।  पर विष्णु गहरी निद्रा में थे। अब सारे जगत का राजा यदि गहरी निद्रा में हो तो उसे जगा के कोप का भाजन कौन बनेगा ! सो एक ऋषि ने दीमक बनाई।  दीमक को कार्य दिया तू जा और धनुष की लकड़ी को खोखली कर दे ताकि प्रत्यंचा खुल जाये और विष्णु जग जाएँ।  दीमक बोली इससे मुझे क्या मिलेगा ,आगे से मेरे जीने के लिये साधन क्या होगा।  तो ब्रह्माजी ने हवन ,पूजन ,यजन --और गृहस्थी के शेष --[ ऐसे हिस्से जिनपे ध्यान न दिया जाता हो ] भाग में दीमक का शेयर [भाग ] नियत कर दिया। आगे की कहानी है ----दीमक ने धनुष की लकड़ी को खोखला किया तो अनायास प्रत्यंचा टूट के विष्णु के गले पे लग गयी और विष्णु का सर धड़ से अलग हो दूर जा गिरा  --हाहाकार मच गया ,जगत खत्म होने की और बढ़ चला --तभी देवी ने आके घोड़े के सर को विष्णु के सर पे प्रत्यारोपित किया --विष्णु के इस अवतार को हयग्रीव अवतार कहा गया ----अब इस कथा में दीमक को पैदा करना --यज्ञ [जीवन जीना ही यज्ञ है ] के शेष भाग और अनदेखे पडी  वस्तुओं में दीमक का अधिकार --एक सोच है --यज्ञ को विस्तार देने की सभी प्राणियों को उनका हक देने की ,अनदेखी करने पे घर में पड़ी वस्तुओं के दीमक बन जाने की --और विष्णु के सर कटने की घटना --किसी भी कार्य को हर पहलू से सोच समझ के करने की सीख --अंग भंग होने पे शल्य क्रिया शीघ्र हो ताकि प्रत्यारोपण सफल हो और देवी द्वारा प्रत्यारोपण अर्थात स्त्रियां शिक्षित और विदुषी थी ,प्रत्येक क्षेत्र में उनका वर्चस्व था ---मैंने इस कथा को विस्तार से पढा पर कौन से ग्रन्थ में ये भूल गयी --शायद ,महाभारत में या देवी भागवत में देखना पड़ेगा --किसी को याद आये तो लिखे ----तो दीमक ऋषि के शरीर पे लगी --क्यूंकि यज्ञ से बचे भाग पे उसका अधिकार है ,अनदेखी और बहुत समय तक सफाई न की गयी जगह पे इसका अधिकार है --पर ये बात तो मेरी प्रत्यक्ष अनुभव की हुई है जहां हलचल होती रहती है वहां दीमक नही लगती --अतः ऋषि की तपस्या का अंदाजा हम लगा सकते  हैं ----एक पुरानी पोस्ट कुछ नई पढ़ाई के साथ -- :)



पौराणिक साहित्य को क्या हम डिकोड कर सकते हैं -- ----'''मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः। यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधि काममोहितम्।।''--------
ऋषि वाल्मीकि ---की कहानियाँ ---प्रचेताओं में से एक ,नगा जाति में जन्मे , वरुण के पुत्र ,भृगु ऋषि के भाई --पर सभी जगह एक ही बात जब उन्होंने तपस्या की तो दीमकों ने बाम्बी बनाली उनके ऊपर --और इसीलिये वो वाल्मीकि कहलाये ---
अब दीमक के विषय में ----दीमक अपनी बस्ती बना के रहती है ,ये शर्मीली होती हैं ,नम और अँधेरी जगहें उसे प्रिय हैं और जहां आवाजाही हो या इंसान की गंध हो वहां नहीं रहती ---अक्सर हम देखते हैं जो कोना कईदिनों से बिना देखभाल के पड़ा रहता है या मिट्टीवाला होता है उसी पे दीमक आती हैं ,यदि ऐसा न होता और चींटियों की तरह कहीं भी घूमती फिरती दीमक तो इंसान के रहने की जगह नहीं होती। --
''दीमक आपस में संवाद दोलन या थरथराहट, गंध, और शारीरिक संपर्क द्वारा करते हैं | सतर्क होने पर दीमक अपना सर फर्श पर पटक पटक कर, कंपन और जर्क करके, टेढ़े मेढे दौड़कर, एक दूसरे से टकराकर खतरे का संकेत देते हैं |इंसान या जानवर के चलने फिरने से फर्श पे , सतह के नीचे जो कंपन होती है वह दीमक के पैरों में पाए जाने वाले कंपन संवेदक पहचान जाते हैं | जर्क करके, टेढ़े मेढे दौड़कर, एक दूसरे से टकराकर – ये जो खतरे का संकेत दूसरे दीमक को देते हैं उससे आगे वाले दीमक भी सतर्क हो जाते हैं और खतरे के समय भागने के दौरान दीमक एक खास किस्म की गंध रास्ते में छोड़ते जाते हैं जो कि वास्तव में फेरोमोन्स होते हैं | वह वर्कर और सैनिक दीमकों को गडबड़ी वाले जगह की दिशा और स्तिथि बताकर भेजतें हैं | वैसे सामान्य स्तिथि में चारा ढूंढने के लिए भी कुछ ऐसी ही फेरोमोन्स का इस्तेमाल किया जाता है |''
अब मेरी क्षुद्र बुद्धि में रह -रह के घूमने वाला प्रश्न ---वाल्मीकि ऋषि जीवित थे , सांसले रहे थे ---तो दीमक उनपे कैसे लग गयीं ?
अब च्यवन ऋषि की कहानी ---वो भी यही है -च्यवन ऋषि तपस्या में लीन थे तो उनके शरीर पे दीमकों ने बांबी बना ली , एक दिन राजकुमारी सुकन्या खेलते खेलते वहां पे आई। राजकुमारी सुकन्या ने मिट्टी के टीले में दो चमकदार मणियां देखीं। कुतूहलवश सुकन्या उस मणि के निकट आई। नजदीक देखने पर भी वह चमकती वस्तु को समझ न पाई। तब उसने सूखी लकड़ी की सहायता से दोनों चमकदार मणियों को निकालने का यत्न किया लेकिन मणि निकली नहीं, अपितु वहां से खून बहने लगा।
अब क्या च्यवन ऋषि आँखें खोल के तपस्या कर रहे थे ,तो उन्होंने अपने शरीर को दीमक से अपवित्र क्यूँ होने दिया क्यूंकि दीमक तो अपवित्र जीव है ये विद्व्त ऋषि को मालूम ही होगा--यथा --
''दीमक एक सहजीवी फफूंद (टर्मिटोमाइसेस) को विकसित करने के लिए जाने जाते हैं | वो एक स्पंज के जैसा दिखने वाला फंगस गार्डन या छत्ता होता है जो की उनकी विष्ठा से बनता है और कार्बोहाइड्रेट से परिपूर्ण होता है | उसके बाद फफूंद उन छत्तों पर विकसित होता है और बाद में दीमक उन फफूंद और छत्तों को खा जाते हैं | ये फफूंद उन विष्ठा पदार्थों से बने छत्तों को प्रोसेस करके ऐसे पदार्थों में तब्दील करती है जोकि दीमक द्वारा फिर से उपयोंग किया जा सके | इसके लिए नाइट्रोजन चाहिए होता है और वह नाइट्रोजन या तो फफूंद से मिलता है अथवा स्वजातिभक्रण (cannibalism) से | दीमक अपने झडे हुए खाल की कोशिकाएं, मरे हुए, घायल हुए, अथवा जरूरत से ज्यादा समाज के भाई बंधुओं को खा जाते हैं |----और अगर आँखें बंद थीं तो चमकने वाली वस्तु क्या थी ?
---क्या ये सब कहानियाँ हैं जो लोक साहित्य का हिस्सा रहीं ,आसपास के परिवेश को देखते हुए गढ़ी गयीं और कालांतर में ऋषिमुनियों से जुड़ती गयीं अपने पुराने स्वरूप को भूल नव कलेवर में।
जब भी कोई व्यासपीठ पे बैठता होगा तो कुछ कहानियाँ अपने शब्दों में सुनाता होगा ,जो अनेकों कानों और मुहों से चलके नया स्वरूप लेती गयीं तथा लिपि के आविष्कार के बाद कमोबेश पुराणों में इस स्वरूप में अंकित हो गयी।
नन्हीलाल चुन्नी,लिटिल रेड राइडिंग हुड ,सिंड्रेला ,ढ़ड्ढ़ो बुढ़िया की कहानी ---ये सब भी देश काल और परिवेश के अनुसार ही रची गयीं ,पर इन पे रिसर्च हुई और उनलोगों ने अपनी कहानियों को डिकोड किया। हमारे यहां भी पुराणो की कथाओं को डिकोड करने की आवश्यकता है ,हम जड़मति होके कथा बांच नहीं सकते। क्यूँ ? क्यूँकि आजकी पीढ़ी अंधविश्वास में नहीं जीती ,वो मुखर है ,हमारी तरह कहानी सुनके सोने वाली पीढ़ी नहीं है --गोकि उसके पास तो कहानी सुनने का समय भी नहीं है।
और कुछ नहीं तो हम ,इन कथाओं का आध्यात्मिक ,दार्शनिक ,सामाजिक और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण तो कर ही सकते हैं। राजनीति से इतर कुछ सार्थक।---विद्वान मनीषियों को ऊपर जाने से पहले कुछ कहानियों का तो विश्लेषण करना ही चाहिये --ये भी एक पितृ ऋण चुकाने जैसा ही होगा -।

Monday, 24 October 2016

''हवन प्राण से  प्राणों का ''
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ऊपर वाले; तेरी ,छतरी के नीचे ,
क्यूँ जन्मों के -
प्रणय-प्यार के बन्धन टूटे ?
जन्मों से जन्मों तक कसमे
सूखी आँखें सागर महसूसें
अधरों पे अहसास प्रणय का
जीवन अमावसों की गठरी
सच सपने मन की बाहों में
प्राण मुखर, हाँ ना की दुविधा
कर्म भाग्य की परिधि सीमित
बरखा बून्दें   लड़ियां  साँसें
टूट -टूट धरा पे बिखरें
सागर की लहरों सी मचलें।
वो लज्जा वो संकोच पलों का
मिलन !या - मिलने की चाहत ?
कभी तीर  पे वो होता
या ;  खड़ी तीरे  ''मैं'' नापूं दूरी
गूँगे पल , प्राण  पियासा 
आतुर चाह समर्पण चाहे
मृग छौनों सा चंचल  मन
बादल सजल भावों  के लेकर
रिमझिम -रिमझिम बरस- बरस के
तन- मन- प्राण भिगोता क्यूँ है ?
मन  अंगारों की फुलझड़ियों से
एकाकीपन क्यूँ अभिसारित ?
प्राणों का  ही हवन प्राण में
मौन समर्पण, कम्पित तन मन
साँसों में साँसों  का गोपन
फिर भी --
ऊपर वाले तेरी छतरी के नीचे --
प्रणय -प्यार के बन्धन टूटे --क्यूँ टूटे ? ॥ आभा ॥





Wednesday, 19 October 2016

करवाचौथ की शुभकामनायें -==========
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करवा चौथ पे थोड़ा सा चन्दा की बातें ----
शरद पूर्णिमा को चाँद पृथ्वी के सबसे निकट होता है -और चौथ तक आते आते वो बहुत सुंदर दीखता है। एक चाँद ही सोलह कलाओं से युक्त है --पन्द्रह कलाएं हम शुक्ल और कृष्ण पक्ष में देखते हैं पर सोलहवीं कौन सी ----
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय ---जीव बार-बार जन्म लेता है मरता है फिर फिर जन्म मरण ---- हम उसका क्षय देखने के बाद उसी जीव का वापिस आना नही देख सकते पर चन्द्रमा को हम अपने ही जीवन में सहस्त्रों बार क्षय होते और वृद्धि करते देख रहे हैं ---
''चन्द्रमा इव भूतानां पुनस्तत्र सहस्रशः।
लीयतेअप्रतिबुद्धत्वादेवमेष ह्यबुद्धिमान्।।''
चन्द्रमा की पन्द्रह कलाओं के सामान जीव भी इन पन्द्रह दिनों में ही जन्मता मरता है। इसके आगे  एक सोलहवीं कला भी है वही नित्य है --''अमा'' नाम है उसका। यही जीव की भी सूक्ष्म कला है ,यही जीव की मूल प्रकृति है जिसे जीव न देख पाता है न जान पाता है।  इसी कला को जानने समझने के लिए जीव आवागमन के कुचक्र में फंसा  है --जिस पल  बोध हो गया मोक्ष मिलेगा उसी पल।
---चन्दा की संगति इसी सोलहवीं कला को जानने के लिये --और करवाचौथ ,छन्नी से दोनों एक दूसरे के सोलह कला युक्त रूप को अंतर्भुक्त करें और संग-संग मोक्ष लें ,इसी विश्वास  का प्रतीक।जीव वह  महान आत्मा है जिसका पिता सूर्य है , जो चन्द्रमा की कलाओं से चल के हम तक पहुंची है --पवित्र शुद्ध ,निर्गुण ,जिसका सगुण रूप है पतिपत्नी --जो निर्माण करते हैं सृष्टि का --प्रकृति सा  सजने संवरने  का दिन। चन्द्रमा  की कलाओं से सोलह श्रृंगार उधार लेके , क्षर अक्षर की नियति लिए हुए ,पाणिग्रहण से अंतिम सांस तक --खट्टा मीठा कडुवा हर अनुभव लिए जिंदगी का हर अक्षर क्षर हो रहा है पर हमारी आत्मा चन्द्रमा की पन्द्रह कलाओं की भांति हर दिन भौतिक रूप से क्षय होती हुई  भी संग संग -- सोलहवीं कला को प्राप्त हो ---
मेरे लिए यही था करवाचौथ --न किसी जाती का न किसी जगह का ,मैंने अपनाया था इसी विश्वास के साथ और आज भी सोलहवीं कला की प्रतीक्षा में हूँ ,जहां हम मिलेंगे हमेशा के लिए --
त्रिगुणात्मिका प्रकृति से सम्बन्ध --निर्गुण भी त्रिगुणमय --
चाँद जो रात्रि में सूरज की रोशनी ले अमृत की वर्षा करता है प्रकृति पे ---यदि ऐसा न हो तो प्रकृति नष्ट हो जाए। ---- स्त्री की सोच === मेरा चाँद भी इस चाँद की भांति अमर  हो ,शीतल हो ,घर,परिवार समाज के लिए अमृत स्वरूप हो , जो मैं छलनी से इसे देखूं तो मेरे सोलह श्रृंगार की सकारात्मक ऊर्जा मेरे चाँद के व्यक्तित्व में झिलमिलाये --
 पुरुष की सोच=== --इस छलनी के उस ओर जो पन्द्रह कलाओं से युक्त चांदनी है वो अंतिम सांस तक यूँ ही अमृत बरसाती रहे - हम दोनों ''अमा ''  चाँद की सोलहवीं कला  को यानी मोक्ष को प्राप्त होंवें।
छलनी ==--चाँद के सहस्त्रों बार क्षय और वृद्धि प्राप्त करने के प्रतीक स्वरूप --उसके कई बिम्बों का दर्शन --
ये मैंने गुरु वशिष्ठ और युधिष्ठिर संवाद के कुछ अंशों का विश्लेषण किया ----
शरशैय्या पे लेटे  भीष्म से युधिष्ठिर ने भी जब भीष्म से सुंदर रूप और सौभाग्य की प्राप्ति का सरल उपाय पूछा तो  भीष्म ने चन्द्रसम्बन्धी व्रत करने की ही सलाह दी -----
ऐसा करने से --
''जायते परिपूर्णाङ्ग: पौर्णमास्येव चन्द्रमा:॥ ''
 -बहुत से लोग इस व्रत को बाजार वाद से ,सिनेमा से ,दिखावे से प्रेरित मान रहे हैं --खूब से जोक बन रहे हैं। मैंने महसूस किया है-- अधिकतर पुरुषों को शिकायत है इस त्यौहार सेऔर शायद  वो भी उन्हें  अधिक शिकायत है जो ,करवाचौथ के दिन पत्नी की मदद के लिए भीगी बिल्ली बने छुट्टी लेके बैठे हैं।  कुछ नारी मुक्ति प्रवर्तक महिलायें  इसे स्त्री जाती की गुलामी का प्रतीक भी कह रही हैं उन्हें शायद पैर  छूने से परहेज है --तो मेरा कहना है ये सबकी अपनी पसंद और आस्था  है एक दिनी आस्था पे  किसी को ऐतराज करने का कोई अधिकार नही । साल भर पड़ा है स्त्री विमर्श पे काम करने के लिये। मैं विश्लेषण करने बैठी ,बाजार वाद ,सिनेमा ,ग्लैमर सब कुछ ठीक है।  कुछ लोग इसे पंजाबी संस्कृति से प्रेरित बताते हैं।  पंजाबी स्वभाव से ही खिलंदड़े होते है --खूब काम करो ,खूब मस्ती करो --विश्व की  हर जाति का  रहन-सहन ,प्राकृतिक और भौगोलिक संसाधनों के अनुसार ही ढला ,उसी के अनुसार तीज त्यौहार बने, आज विश्वगाँव की अवधारणा सच हो रही है ,अतः त्यौहार भी जाति तक सीमित न रह के विस्तारित हो रहे है ,यही इंसान के जीवित और चेतन होने का सबसे बड़ा लक्षण है ,नफरतों के इस समय में सभी का सभी के त्यौहार अपना लेना --बशर्ते इसमें हिंसा  न हो --इससे सुंदर और क्या ?
मैंने तो अपनी माँ के द्वारा मनाये जाने वाले वटसावित्री --जिसे मेरे ससुराल में बड़मावस कहते हैं और व्रत नही रखते --को व्रत करके ही मनाया , और बायना भी निकाला हड़तालिका भी रखी तो कजरी भी मनाई --और करवाचौथ  वो तो खूब सजधज के साथ मनाई -व्रत की जहां तक बात तो आधा महीना मेरा व्रतों में ही निकलता था --[अब छोड़ चुकी हूँ अधिकतर ,स्वास्थ्य नरम गरम रहने लगा  ] मन की ख़ुशी है --खुशियों का त्यौहार है खूब सजधज के साथ मनाइये ,बजट बिगड़े तो साल भर पड़ा है भरपाई के लिये --सभी को करवाचौथ की खूब-खूब शुभकामनायें।---आभा --

Tuesday, 18 October 2016

कविता साकी बन जाती
दुःख चिंता बन जाते हाला
शौक साधना बन कर आता 

हाथ लिए जग का प्याला
चित्रपटी मेरा ये मन
कलम बनी है मधुशाला -

Sunday, 16 October 2016

तुलसी बाबा का भी कोई जवाब नहीं --कह रहे  हैं ---
'' अमिअ गारि गारेउ गरल गारी कीन्ह करतार।
प्रेम बैर की जननी जुग जानहिं  बुध न गंवार।।''
 ब्रह्माजी ने अमृत और विष को निचोड़ के उनका सार निकाला और उसे गाली का नाम दिया ,इसलिये  गाली प्रेम और बैर दोनों की जननी है , बुद्धिमान लोग गाली को गाली लेते हैं पर गंवार नही --यदाकदा अपने प्रिय को या बच्चों को हम गाली से नवाजते हैं ,गाँवों में तो ये बहुत प्रचलित है --शादी के समय दी जाने वाली गाली प्रेम बढाती  है पर द्वेष में बोली जाने वाली वैमनस्य बढाती है।
 तो मित्रों गाली अमृतविष की बेटी है इसे जो समझ के ग्रहण  करोगे ये वैसी ही बन जायेगी ---
आजकल सोसियल मीडिया  में गरियाने  की परम्परा  है इसलिए लिखदिया  --जिसे गाली देते हो  उसे जरा-जरा सा अमृत भी दे रहे हो ध्यान रखें --- 

Saturday, 15 October 2016

ट्रिपिल तलाक और यूनिफार्म सिविल कोड पे कठमुल्ले साबित करने की भरसक कोशिस करते हुए की हम नही बदलेंगे --हर चैनल पे एक ही बात ,पर इस्लामिक स्कालरों को  भी उन्ही की बीन पे नाचते देखना क्षुब्ध कर देता है।  हम संविधान को नही मानते ,एक आध ने तो छाती ठोक के कहा हम मुसलमान पहले हैं फिर इंडियन।
इतिहास गवाह  है ,हिंदुस्तान में लगभग -लगभग सभी मुसलमान [ अपवाद भी कुछ  होंगे ] कन्वर्टेड हैं ,कुछ  हिन्दू  मुस्लिम आक्रांताओं के डर से कन्वर्ट हुए कुछ  लालच के कारण। तो  क्या संविधान के पालन के लिए इनके ऊपर फिर वही नीति नही अपनानी चाहिये , बीन के आगे सभी नाचेंगे  ---कड़ाई करने का मौसम आ  गया  है  शायद  --गीदड़  भभकियों  से  डरने से  समय  की  ही  बर्बादी  होगी।  तुलसी बाबा के शब्दों में ----
''फुलहिं - फरहिं न बेंत जदपि सुधा बरसहिं जलद ''------

Thursday, 13 October 2016

''नवरात्रि के बाद --- बैठे-ठाले --बेमतलब का बुद्धि-विलास ''
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'मोह न नारि -नारि के रूपा ,पन्नगारि यह रीति अनूपा।।'' ----
यह विलक्षण रीति है की स्त्री स्त्री के रूप पे मोहित नहीं होती।
.... आज बाबा तुलसी की इस चौपाई का विश्लेषण करने लगी ,
''जसु कछु बुद्धि विवेक बल मोरे ,तस कहिये हिय हरि के प्रेरे।।'' --
हरि की प्रेरणा स्वरूप ही------रामायण की इस चौपाई के कई विश्लेषण ,कई अर्थ अपने -अपने अनुसार ,नारी 'नारी' को ईर्ष्या से देखती है ,एक नारी दूसरी को पसंद नहीं करती या सहन नहीं कर सकती ,हर नारी अपने को सर्वश्रेष्ठ मानती है।
शायद शाब्दिक अर्थ यही निकले ,पर ऐसा है नही।
उत्तरकाण्ड अंत में ये चौपाई नारी शक्ति होने का ही एक प्रमाण है ,एवं तुलसी के मानस में स्त्री को अबला कहने वालों के लिये एक उदाहरण।
'' मोह न नारि नारि के रूपा '', अब क्यूँ लिख गए गोस्वामीजी जबकि सीतास्वयंबर के स्थल में वो स्वयं लिख चुके है --
''रंग भूमि जब सिय पगु धारी ,देखि रूप मोहे नर नारि ''----
---नारी भी मोहित हैं जानकी के रूप में।
और एक उदाहरण ---सीयस्वयंबर को देखने देवों की स्त्रियां सामान्य स्त्रियों का रूप बना के शामिल हो गयीं ,उन्हें देख के,महल की स्त्रियोंने बहुत सुख माना --
''नारि वेष जे सुरवर -वामा सकल सुभाय सुंदरी श्यामा '' ।
ऐसे ही कई उदाहरण है जब गोस्वामीजी ,स्त्री की स्त्री से प्रशंसा करवाते हैं ,वन की स्त्रियों से सीता की ,सासुओं से सीता की ,त्रिजटा से सीता की और सीता से त्रिजटा की ,अनसूया की सिया से और सिया की अनसूया से ,और कई अनगिनत उदाहरण हैं ,तो गोस्वामीजी मानस के समापन पे ये क्यों लिख गये। 
-----ये चौपाई गरुड़जी और कागभुशण्डिजी के वैराग्य की चर्चा के प्रसंग में आती है। गरुड़ का प्रश्न ,वैराग्य क्या है ज्ञान या भक्ति ? कागभुशुण्डि कहते हैं ज्ञानभक्ति एक ही है ,अलग नहीं है। जीव में ज्ञान होगा भक्ति होगी तभी वैराग्य होगा और वैराग्य होगा तभी चेतना होगी ,चेतना होगी तभी रामजी मिलेंगे। यहां ये समझना भी अनिवार्य है की वैराग्य का अर्थ सबकुछ छोड़ देना नहीं वरन रामजी पे अटूट अनुराग है ,उनको अपने को समर्पित करके फिर कर्म करना। 
ज्ञान पुरुष और भक्ति नारी पर नारी के दो रूप हैं ,माया और भक्ति।
माया जो विष्णु का ही प्रपंच है ,स्वाभाव से निर्बल है तो अपने अस्तित्व को संजोये रखने के लिये दूसरे का आलंबन लेती है उसे जड़ कर देती है ,वो अहंकार है मैं के होने का। गीता में भी भगवान कह रहे हैं --जड़ कौन है जो अहंकारी है ,जो मैं कर्ता हूँ इस आसक्ति में लिप्त है ---
''प्रकृते: क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वश:। अहंकार विमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।'' --
---- जो जीव प्रकृति के द्वारा गुणों को अपनी क्रिया समझे वही जड़ है। माया का यही गुण हैं वो मनुष्य को जड़वत बना देती है --इसी गुण से लिप्त जीव को ''ढोल गंवार शूद्र पशु नारी '' से परिभाषित किया गया है न की केवल स्त्री को।
भक्ति ''सीता'' हैं ,वो शक्ति जो अपना निर्णय स्वयं लेने में समर्थ है। जो शिव-धनुष को उठा सकती है। जिसे पार्वती के आशीष पे विशवास है। जो वैरागी है ,कर्म करना है यानी स्वयंबर में जाना है ,शेष माँ की इच्छा --पूर्ण समर्पण। जो दशरथ की राज्यसभा में वन जाने के लिये अपना मत सबके आगे रखती है। जो वन में सारी कठिनाइयां सहती हुई भी राम को कहती है ,राम - तुम्हारे बाण से कोई भी निर्दोष राक्षस नहीं मारा जाय ,जो वनवासिनों की माँ बनजाती है ,वनवासिनियों को कुटीर उद्योग के गुर सिखाती है ,राजमहलों की दृढ़ता और संयम सिखाती है ,कृषि को उन्नत कैसे किया जाये ---सिखाती है -- राजमहलों से सुखों को भूल वन के हिंसक पशुओं को भी प्यार से अपना कर लेती है। भक्ति वो सीता है जो अग्नि परीक्षा देके ,राम को ग्लानि से बचाती है और सम्राटों की मर्यादा को अक्षुण रखती है पर दूसरी बार सम्राट का विरोध कर स्वयं की समाधी बना उसमें समा जाने की शक्ति भी रखती है -मोह का कोई बंधन नहीं।
यही है नारी के दो रूप ,माया / भक्ति दोनों में संज्ञा नारी ही है ,या यूँ कहें दोनों नारी संज्ञक हैं,पर भक्ति जगद्जननी जानकी है ,शक्तिस्वरूपा ,भक्ति मीरा है भक्ति राधा है और माया जो कुशल नर्तकी है। जिसके हृदय में भक्ति का वास है ,वहां माया रहने से सकुचाती है।
''निर्गुण फांस लिए कर बैठी ,बोले मधुरी वाणी।
माया महा ठगिनी हम जानी।।''
मैं इस चौपाई का सरल सा यही अर्थ समझ पायी हूँ --सारा संसार जिस पुरुषात्मक शक्ति का गर्व करता है वो पुरुष माया और भक्ति के चारों ओर ही नृत्य कर रहा है ,इस स्त्री शक्ति के बिना वो शक्तिहीन है ,यही नारी उसे जड़ बनाती है माया का रूप लेके और यही चेतन बनाती है भक्ति से ज्ञान और वैराग्य का आलंबन देके।
पर अभी अर्थ कुछ और भी है ,एक शब्द और डाला है चतुर भुशुण्डी ने इसमें --वो है --पन्नगारी --जो उन्होंने गरुड़ के लिये पूरी रामायण में पहली बार कहा। अब पन्नगारी का अर्थ ----साँपों का शत्रु अर्थात गरुड़ , पर कुछ और भी देखिये
पन्न = गिरापड़ा
पन्नग =सर्प
पन्ना =रत्न
पन्ना= पृष्ठ
पन्नी =रंगीन ,चमकीला ,सुनहरा कागज।
और गारी =गाली।
नारी =जो हमारा अरि [शत्रु ]नहीं है अर्थात मित्र है। वो कई रूपों में हमारे सामने आती है पर हम अपने मन की भावना के अनुसार ही उसे महत्व देते है। हम चमकीली पन्नी के मोह में फंसे भ्रम में पड़के ,पन्न गारि --हो जाते हैं -जड़ प्रकृति--और गोस्वामीजी कहते है --
''सो माया बस भयहुँ गुसाईं ,बँधेहुँ कीर मर्कट की नाई। ''
पन्नगारी ==============
'' यज्ञमूर्ति पुराणात्मा साममूर्द्धा च पावन:। 
ऋग्वेदपक्षवान् पक्षी पिंगलो जटिलाकृति:।
ताम्रतुण्ड सोमहर:शक्रजेता महाशिर:। 
पन्नगारि -पद्मनेत्र साक्षाद् विष्णुरिवापर: ॥ ''--गरुड़ के लिए है ये विशेषण
''वेदराशि ,यज्ञमूर्ति ,साममूर्द्धा ,ऋग्वेदपक्षवान् ,साक्षाद् विष्णुरिवापर: ---अति महत्व के विशेषण। गरुड़ को वेद का प्रतीक स्वीकार किया गया है। वेदस्वरूप गरुड़ पे विष्णु रूपी ब्रह्म आरूढ़ हैं। अर्थात ब्रह्मज्ञान होने के लिये ,शरीर रूपी पक्षी भी आवश्यक है।
---''विजयो विक्रमेणेव प्रकाश इव तेजसा। पर्ज्ञोंतकर्ष: श्रुतेनेव --सुपर्णेनायमुह्यते।।''=======विष्णुवाहन गरुड़ (सुपर्ण ),विजय को विक्रम की तरह ,प्रकाश को तेज की तरह ,बुद्धि के निर्माल्य को विद्या की तरह वहन करते हैं।
--- यही वे गरुड़ हैं जिन्हें पन्नगारी कहा गया इस चौपाई में ,अर्थात साक्षात् विष्णु ==विष्णु और विष्णुवाहन को एक ही कहा गया बस स्वरूपत: यौक्तिक भेद --विष्णु को उपेन्द्र और गरुड़ को खगेन्द्र मान के इंद्र विष्णु और गरुड़ में समन्वय स्थापित किया गया।
अब एक और संकेत है यहां पे ----महाभारत काल के आगमन की पूर्व सूचना। ''मोह न नारि नारि के रूपा ''---इस उक्ति के साक्षात दर्शन महाभारत में होते हैं --प्रारम्भ होने पे ही कद्रु और विनीता के वैमनस्य की कहानी ,गरुड़ अरुण और नाग की उतपत्ति और महाभारत काल का पूर्वार्ध। ----पौष्यपर्व और पौलोमपर्व में ही सर्पयज्ञ का प्रारम्भ। दक्ष पुत्रियों ,वनिता-कद्रु का ''मोह न नारी नारी के रूपा '' को चरितार्थ करना और गरुड़ , अरुण का उद्भव। ---------
यूँ ही सोच रही थी , [पाठ के बाद की शान्ति --और शांति में सोच ]रामचरित मानस की एक -एक में चौपाई ,कई सारे अर्थ समाये हुये हैं ,जितनी बार पढ़ो ये नए रूप में सामने आती है ,मंत्र तो हैं ही ये चौपाइयां। इन्हें पढ़ने से ध्वनि तरंगें आसपास एक सकारात्मक आभामंडल बना देती हैं हमारे आसपास और हम चेतन हो जाते हैं ,हनुमानजी की कृपा भी मिलनी प्रारम्भ हो जाती है ----
मुझे ज्ञान है ,ये बुद्धि विलास है [mental luxury ]---और वो भी मेरी --और सभी के लिए बोरियत --पर भक्ति और माया दोनों हैं मुझमे वो मुझे जकड़ ही लेती हैं ----जय सियाराम ---

Tuesday, 11 October 2016

विजयादशमी की शुभकामनायें ----
'' उत्तर का घोड़ा ,दक्षिण का नीर ,पश्चिम का वर्दा ,पूरब का चीर ''
बही में स्वस्तिक और ॐ के अंकन के साथ ही लिखने की शुरुआत उपर्युक्त शब्दों से ,---फिर'' शुभलाभ ''--सभी सदस्यों के हस्ताक्षर  युक्त नामों के साथ --सनद कर  दिया  और व्यापारिक यात्रा शुरू।
-----जहां जो वस्तु प्रचुरता  से  मिलती  है  उसका जिक्र ---
आज डिजिटल समय में जब सारी सूचनाएं एक क्लिक में हैं --इस  तरह के वाक्यों का कोई अर्थ नही ---फिर  भी ये परम्परा  जीवित  रहनी चाहिये ताकि सनद रहे , हमारे पूर्वजों ने कितने कष्ट  सहे थे व्यापार  को  आगे बढाने में ,देश को समृद्ध  बनाने  में और सीमाओं  को  सुरक्षित  करने में ,,आभा ,,

Wednesday, 5 October 2016

अब संजू मियां और सिसोदिया आये हैं सरजी की सर जी कल करने ---जीभ यदि दो मुंही हो तो गर्दन से छोटी करने पे उसका बतकोलापन थोड़े ही जाएगा --कभी किसी ठंडे खून वाले जानवर को जीभ बाहर निकालते हुए देखा है --मैंने देखा है कई बार --ये hibernation {सीतनिद्रा } में भी जाते है समय खून की तासीर पर निर्भर करता है ---टोटल सरीसृप {reptile } हो तो समय चार से छ महीने और मनुष्य का खून मिक्स हो तो कुछ दिन किसी रिसोर्ट ,मेडिटेशन सेंटर में ---

Tuesday, 4 October 2016


दुःख में सुख की चिंगारी --और  मुझे  तो  वो  दुःखी होने  ही  नही  देता ---कहता  है  --दुःख तो  तेरी  निजी वस्तु  है ,उसको मन में ही  रख तू ---कर  प्रणाम ,अभिवादन --अभिनन्दन ,दे आशीष प्यार की सरिता बन ---


हम ! हिन्दू मन सदैव प्रकाशित ,अन्धकार में भी सदा आलोकित रहने वाले , दुःख में भी सुख की छिपी चिंगारी ढूंढने वाले ; अमावस की रात में चाँद तारे नहीं तो क्या , रामजी भी तो वनवास के बाद अमावस में ही लौटे थे  ,वो जान के अन्धकार में लौटे हैं मन को प्रकाशित करेंगे ,करो प्रकाश ! -- 
अन्धकार  में  ही  छिपी  होती  है प्रकाश  की  किरण।  
आज सर्वपितृ अमावस , पितृ -विसर्जन - --पितृ तो भाव हैं ,भाव का कैसा विसर्जन। 
प्रभु के खेल अनोखे , अजय ने अमावस को ही महाप्रयाण किया -तब से अमावस मेरे लिये जीने  का भाव  हो गयी। पर कान्हा ने  आज चुपके  से  कान में कहा --गीता  पढ़ती है न ; तो तुझे पता होना चाहिए --
''सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्। ''
तो  दुःख  क्यों ?आगे  कर्म  खड़े  हैं ,उन्हें कर। 
''कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्। 
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।''--------सारे  ही  कर्म कुछ  न कुछ  दोष  युक्त  हैं।  तेरा कर्म है प्यार  बांटना ,चल उठ --और  मैं अमावस  से  बाहर  निकल आयी ,राम कृष्ण का  जीवन  दुःख में  उल्लसित होना  सिखाता है। मुझे तो दुःख-सुख दोनों साथ  ही  देती  है  जिंदगी। 
आज  सुबह पितृ विसर्जन ---गाय  और  कव्वा  ढूंढते  हुए खूब सैर हुई। 
और अब जन्मदिन का उत्साह ---मेरे घर आने वाली नयी बिटिया --वैधानिक बिटिया [दुल्हिन ] प्रभु ने मिलने का विधान लिखा --तो वैधानिक  ही  हुई --का'' जन्मबार '' ---मुझे मिलने के बाद ये पहला जन्मदिवस ,और वो भी अजय के श्राद्ध के दिन -----तुम्हें दोनों का ही आशीष  मिला बिटिया ---
आओ मेरे अंगना ,
फूलों के झूले में डोलो ,
चम्पा कली सी महको। 
जुगनू सी चमको मेरे आंगन 
खिलखिलाओ ,खुश रहो हमेशा 
प्यार  मिले सबका तुमको। 
स्वागत मेरे  घर में ---जन्मदिन की ढेरों शुभकामनायें  -''-रितिका बिटिया'' , ढेरों आशीष ,प्यार  मिले ,प्यार ही बांटो।
सोच रहे होंगे  सभी के बच्चों की शादी  होती  है  ---नितांत  व्यक्तिगत  मामला  .क्यों लिखा जाए यहाँ पर --लिखना बनता है मेरा --क्यूँ  ?तो देखिये मैंने सभी तरह की ढूंढ -ढांढ से तंग आकर पिछले वर्ष  नवरात्रि  में  यहीं पे माँ से मांगी  थी  मुराद ---आसमानो  से  होके पहुंची माँ के चरणों में  और  इस वर्ष नवरात्रों से  पहले माँ ने पूरी  कर दी ---तो  माँ को  प्रणाम  भी तो  यहीं से  करूंगी  न ---साथ  ही  पुरानी --दिनांक 5 ,नवम्बर 2015 का प्रार्थना पत्र भी संलग्न है ---
''महा लक्ष्मी चल तो दी होगी माँ तू क्षीर सागर से ,विष्णु जी तो निद्रा मग्न हैं ,देवप्रबोधनी को उठेंगे ! माँ तू गणपति संग आती है ,इतनी दूर आते -आते थक जाती होगी। तुझसे क्या मांगें माँ ,सभीने अपनी डिमांड लिस्ट बनाई होगी ,पर तू कौनो सभी की लिस्ट का अवलोकन करेगी। मुझे पता है गणपति महाराज को पास ऑन कर देगी और वो बट्टे खाते में डाल देंगे जहां मूषक महाराज भी होंगे। माँ जो तूने दिया है तेरा प्रसाद समझके भोग रही हूँ ,तुझे पता ही होगा मैं कोई शिकायत भी नहीं करती हूँ पर माँ है मन की बात तो कह ही सकती हूँ। इस बार एक मदद चाहिये माँ ! अब मदद तो करेगी न ,अभी तो प्रभु सोये हैं तो तेरे पास समय भी है और साथ में बप्पा भी हैं --माँ आते आते मेरे लिये एक ''बहू '' लेती आना ढूंढ -ढांड के --ऐसी जो बेटे को भा जाये और जिसे बेटा भा जाये। मैंने तो सारे घोड़े दौड़ा लिए हैं ,पर जिसे तूने मेरे बेटे के लिये चुना होगा वो कहां हैं मिल ही नहीं रही है माँ। अब तेरी मदद की जरूरत आन पड़ी है ,अब तुझे तो मालूम ही है माँ वो कौन है ,बस अपने संग ले आ माँ ,ताकि विष्णुजी के जगने से पहले ,आने वाले साये देख लूँ और दिन नियत करूँ मेरे घर में भी मंगल वाद्य बजें। समय आयेगा तो सब हो जाएगा --पर माँ ''का बरसा जब कृषि सुखाने '' अब समय और जोड़ी दोनों को लाने में मदद कर माँ ---अड्वान्स में कह रही हूँ ,ताकि तू दायें -बायें न करे ,गाँठ बाँध ले ,भूलना मत --देख मैंने कभी कुछ नहीं माँगा ,और आज भी धन-दौलत नहीं मांग रही हूँ ,बस ढूंढने में मदद करने के लिए कह रही हूँ --मान लेना माँ मेरी विनय को --तेरे आगमन की प्रतीक्षा में तेरी पुत्री और एक माँ -----''---धन्यवाद ,धन्यवाद  ,धन्यवाद  माँ  --तुझे  लाखों प्रणाम --
आप  सभी का  आशीष  मिले  मेरी  इस  बिटिया  को  ऐसी  आशा  मेरी  धृष्टता  ही  है  पर  आशा  है  ---



नवरात्रि ---दुर्गासप्तशती आज के सन्दर्भ में
.....''.विष्णुकरणमलोद्भूतौ दानवौ मधुकैटभौ।
......महाबलौ च तौ दैत्यौ विवृध्दौ सागरे जले।।''----------
कान के मैल से पैदा हुए राक्षस। प्रलय  के बाद की शांति में विष्णु की थोड़ी सी लापरवाही ''अभी शांति है ,अराजक तत्व जल मग्न हैं ,ब्रह्मा और शंकर अपना -अपना कार्य निष्ठा  से  कर  रहे  हैं ,तो चलो मैं एक झपकी ले लूँ। '' विष्णु =समस्त सृष्टि का विस्तार --वो जो ब्रह्मांड में व्याप्त  है --''अनेकवक्त्रंयमनेकाद्भुतदर्शनम् ''---गीता ----
''अनेकबाहुदरवक्त्रनेत्रं
पश्यामि त्वां सर्वतोअनन्तरूपम्।
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं
पस्यामि विश्वेष्वर  विश्वरूप। '' ----गीता ---
अनेक हाथ ,अनेक पेट ,मुख नेत्र --अर्थात  जिसका न आदि  है  न अन्त है न ही कोई मध्य है ---ऐसा  है  स्वरूप इस ब्रह्मांड  का  और  वही  विष्णु  है  ---चेतना  का  विस्तार।
यह विष्णु  सो  गया  ---अनन्त महासागर  में  सर्पों की शैया  में  ---. ]जब हम  नींद  में  हैं  तो  जीवन  का  आधार  खो चुके  होते  हैं  , इस  भवसागर  में  केवल अदृश्य शक्ति के सहारे  ही  होते  हैं  ,साथ  ही  शरीर के बढ़ने और हृष्ट-पुष्ट होने की समस्त क्रियाएं  भी  नींद  में  ही  होती  हैं  ]---चेतना लुप्त हो गयी ,शक्ति श्री हीन हुई केवल उसके पैर दबा रही है। उपद्रव तब ही होंगे जब चेतना सो जायेगी वो भी राजकीय चेतना , चेतना सोई तो श्री भी श्रीहीन हो गयी। उपद्रव रूपी राक्षस उत्पन्न  हुए ---- एक कान से दूसरे कान अफवाह फैली --किसी के कामकी तो मीठी यानी  --''मधु ''  ,किसी के लिए परेशानी का सबब यानी ''कैटभ ''।
इन दोनों असुरों ने सोचा --हम ही हम हैं जहां देखो। कान ही कान और मैल ही मैल ,  मस्तिष्क में व्याप्त द्रव्य - में तैरते हुए -हम आये कहाँ से ,किसने हमें पैदा किया --चलो पता लगाते हैं , अकारण तो कुछ  भी  नही  होता --
''नाकारणं भवेत्कार्यं सर्वत्रैषा परम्परा ''
... ''आधेयं तु  विनाधारम् न तिष्ठति कथञ्चन। ''----श्रीमद्देवीभागवत --
बिना आधार  के  आधेय  की  कोई  सत्ता  नही  होती  ,तो मधु कैटभ दोनों भाई अपने पैदा  करने वाले   को  ढूंढने लगे।
जब उन्हें कोई भी नही मिला ,[अब थे तो मस्तिष्क की ही उपज (चाहे कर्ण छिद्रों से मैल  बन के बहे  या --बाहर  से  कोई अफवाह  कान  में  डाउनलोड  हो ) '']---तो  उन्होंने विचार किया ,हम दोनों का आधार  अवश्य  कोई  अचल महाबली शक्ति है ,उसकी कृपा से ही हम इस महासागर में बढ़ रहे हैं एवं  बलवान भी होते जा  रहे  हैं ---चलो उसी का ध्यान करते  हैं और अपने को जानते है ----
दोनों असुरों ने ध्यान लगाया , तभी आकाश  में बिजुली कड़की और उन्हें उसमें  ऐं शब्द सुनाई दिया  --उन्होंने सोचा यही शक्ति है यही मन्त्र है ---
''ताभ्यां विचारितं तत्र मंत्रोअयं नात्र संशय '' ---श्रीमद्देवीभागवद --
बस उस बिजुली और ऐं  का ध्यान पूजा-  समाधिस्थ भाव  से  करने  लगे।  ऐसे ही जैसे सत्य को क्षीण करने के लिये असत्य अपनी पूरी ताकत झोंक देता है --
 शक्ति प्रसन्न  हुई --शक्ति अर्थात कार्य क्षमता ,लगन ,कर्मठता और समर्पण ---कर्मण्येवाधिकारस्ते ---काम करने  के  प्रति समर्पण की हद तक लगन ---फल  निश्चित  होता  है  --कर्म  चाहे  सुर  करे या  असुर ---
''यं यं  चिन्तयते कामम् तं तं प्राप्नोति निश्चितं ''----- दुर्गासप्तशती --
-शक्ति प्रसन्न  हुई  और  आशीष  मिला। इच्छा मृत्यु का ---
''वाञ्छितं मरणं दैत्यो भवेद्वां मत प्रसादतः । ''-----श्रीमद्देविभागवद --
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मधु-कैटभ का ब्रह्मा  को देख, उनसे  उनका  कमलासन  माँगना  और  न देने   पे  उन्हें  युद्ध  करने  की  चुनौती  देना ,ब्रह्मा  का सोचना  मैं तो तपस्वी  हूँ इन दैत्यों से न जीत  पाऊंगा फिर क्या करूँ ?उन्होंने ध्यान लगाया --देखा विष्णु तो सो रहे हैं ,अब क्या होगा , इन दैत्यों को कौन मारेगा ? ब्रह्मा ने विष्णु की अनेकों प्रकार से स्तुति की ,पर विष्णु नही जगे ,तब ब्रह्मा जी ने विचार किया अवश्य ही विष्णु शक्ति  योगनिद्रा के वश में हो गये हैं ---फिर वो उस शक्ति योगनिद्रा की स्तुति करने लगे। वो शक्ति जिसने महाशक्तिशाली विष्णु को भी अचेतन कर दिया --वो  ही  इन कर्ण दैत्यों से संसार  को बचा  सकती  है  ----
जी  यही  सत्य  है , विलुप्त चेतना पे जब कानाफूसी  सवार हो जाये  ,अफवाहों के बवंडर उठें , सत्य को नकारने  के  लिये --मधुकैटभ --सहस्त्रों कर्णों में मैल बन शक्तिशाली  असुर बन जायें --तो सत्य  हारने  की  कगार  पे  पहुंच  जाता  है  ,निष्प्रभ व श्री हीन हो जाता  है  --असुरों में  एकता और बल  कई गुना  होते हैं ---ऐसे में  सदाचारी  महाशक्ति  ही  एक मात्र  सहारा  होती  है  --शक्ति का स्तवन ही  उपद्रवों को समाप्त करता है।
-----इस  शक्ति  की  उपासना  का  पर्व  ही  है दुर्गापूजा ,नवरात्रि --विष्णु को जगाने  का पर्व  ,विश्व चेतना जागे , मधुकैटभ जो  हवाओं  से तिरते हुए  मस्तिष्क रूपी ब्रह्मांड  के  जल में फल-फूल रहे हैं , उनके निस्तारण का ''पर्व , अपनी शक्ति  को  पहचानने  का पर्व ---
''उत्तिष्ठ देवि कुरु रूपमिहाद्भुतं त्वं
मां वा त्विमौ जहि यथेच्छासि  बाललीले।
नोचेत्प्रबोधय हरिं निहनेदिमौ य -
सत्वत्साध्यमेतदखिलं किल कार्यजातम् ॥ ''.....
-------हे देवी अब आप उठिये और अपना अद्भुत रूप धारण कीजिये ,हे बाललीलाकारिणी ! अपनी इच्छानुसार चाहे मुझे मार दें अथवा इन दोनों दैत्यों को मार दें या तो भगवान विष्णु को जगा दें ,ये काम करने में आप ही  सक्षम हैं। -------------
चंडी पाठ का प्रथम अध्याय  ही  शक्तिस्तवन से प्रारम्भ होता  है  ---निद्रा  आवश्यक  है  शरीर  के  लिये पर चेतन निद्रा -- अफवाहों   ,अफवाह  फैलाने  वालों    , आसुरी  प्रवृतियों ,और देशद्रोही ,समाजद्रोही प्रवृतियों के प्रति लापरवाही, सर्पों की शैया  में ली जाने वाली निद्रा  ही  होती  है  --जो  मधुकैटभ को पनपने का अवसर देती है --  बस  यूँ  ही  मेरी  सोच  ---नवरात्रि  के  उपलक्ष  में  --
--- नवरात्रि  की  मंगलकामनायें ---आभा --
















Monday, 3 October 2016



''एकैवाहं जगत्यत्र द्वितीया का ममापरा। ''---
दुर्गासप्तशती , स्त्रियों को जागृत करने की पुस्तक है , अपनी शक्तियों की पहचान करने की पुस्तक ,सभी कन्यायें --छोटी बड़ी ,बालिका ,युवा ,अधेड़ ,बूढी --इस पुस्तक को पढ़ें और अपने स्वरूप को पहचानें --ये केवल धार्मिक पुस्तक नही --स्त्री जागरण हेतु एक अनूठा अभियान है ---नवरात्रि की मंगलकामनायें --लुटती पिटती नारी जाती के त्राहिमाम स्वर के साथ।