''बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जित: ।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत ॥ ''
जीवात्मा आप ही आप का शत्रु है और आप ही आपका मित्र। और कोई हमारा शत्रु या मित्र हो ही नही सकता। इन्द्रियां अपने काबू में हैं तो आप आपने मित्र और नही तो शत्रु।
---शुभ धनतेरस में गीता का श्लोक क्यूँ !
जी --दीवाली का समय कचर-बचर खा लिया और शरीर ने विद्रोह कर दिया ,पर जीभ न मानी ; यानी इन्द्रियों से कंट्रोल गया और फिर थोड़ा और स्वाद --अब एसिड --नींद नही ,हलक में ऊँगली डाल के सारा खट्टा पानी बाहर निकालने की नौबत और फिर क्या कहते हैं वो --कचर-बचर की धमकी तो थी ही ''दांत खट्टे कर दूंगा '' पर हम भी डटे थे मैदान में अबके आईयो बट्टा मारूँ वाली मुद्रा में --भई त्यौहारी सीजन है - खाएंगे भी नही ,पर जब पंसेरी लगी तो चारों खाने चित --अब दांत खट्टे ,कुछ खाने लायक नही-- --जी ! तभी गीता का उपर्युक्त श्लोक उतर आया मन के एक कोने में और मुस्कुराने लगा --बिटिया '' हैका पढाई बल गीता अर अफ्फु चली रीत्ता ''--लालच बुरी बला है --बन गयी न अपनी शत्रु खुद ही --गीता पढ़ती है तो हर वक्त अमल कर तभी फायदा है --वरना तो उन्नीस का पहाड़ा है जब जरूरत हो गुणा किया ( किताब खोली ) और श्लोक हाजिर।
गीता जीवन के हर पल के लिये सूत्र देती है ,पर कहाँ समझ पाते हैं हम ,इंसान हैं न अर्जुन की तरह अपने को भूले हुए --
कचर-बचर खाना है तो खाओ ,अपने शत्रु अपने आप होना क्या होता है मालूम चल जाएगा ----
शुभधनतेरस --धन को भी बर्बाद मत करना ,अपनी कमाई है बाजार को मत सौंपो ,वक्त बेवक्त काम आएगी।
पिछले वर्ष की लड़ियाँ लगा लो इस वर्ष तो मिटटी के दियों की रोशनी ही ---
कुछ दिए उन शहीदों के नाम भी जिनके घर अमावस गहरा गयी है।
सभी को धनतेरस की शुभकामनायें।।आभा।।
No comments:
Post a Comment