करवाचौथ की शुभकामनायें -==========
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करवा चौथ पे थोड़ा सा चन्दा की बातें ----
शरद पूर्णिमा को चाँद पृथ्वी के सबसे निकट होता है -और चौथ तक आते आते वो बहुत सुंदर दीखता है। एक चाँद ही सोलह कलाओं से युक्त है --पन्द्रह कलाएं हम शुक्ल और कृष्ण पक्ष में देखते हैं पर सोलहवीं कौन सी ----
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय ---जीव बार-बार जन्म लेता है मरता है फिर फिर जन्म मरण ---- हम उसका क्षय देखने के बाद उसी जीव का वापिस आना नही देख सकते पर चन्द्रमा को हम अपने ही जीवन में सहस्त्रों बार क्षय होते और वृद्धि करते देख रहे हैं ---
''चन्द्रमा इव भूतानां पुनस्तत्र सहस्रशः।
लीयतेअप्रतिबुद्धत्वादेवमेष ह्यबुद्धिमान्।।''
चन्द्रमा की पन्द्रह कलाओं के सामान जीव भी इन पन्द्रह दिनों में ही जन्मता मरता है। इसके आगे एक सोलहवीं कला भी है वही नित्य है --''अमा'' नाम है उसका। यही जीव की भी सूक्ष्म कला है ,यही जीव की मूल प्रकृति है जिसे जीव न देख पाता है न जान पाता है। इसी कला को जानने समझने के लिए जीव आवागमन के कुचक्र में फंसा है --जिस पल बोध हो गया मोक्ष मिलेगा उसी पल।
---चन्दा की संगति इसी सोलहवीं कला को जानने के लिये --और करवाचौथ ,छन्नी से दोनों एक दूसरे के सोलह कला युक्त रूप को अंतर्भुक्त करें और संग-संग मोक्ष लें ,इसी विश्वास का प्रतीक।जीव वह महान आत्मा है जिसका पिता सूर्य है , जो चन्द्रमा की कलाओं से चल के हम तक पहुंची है --पवित्र शुद्ध ,निर्गुण ,जिसका सगुण रूप है पतिपत्नी --जो निर्माण करते हैं सृष्टि का --प्रकृति सा सजने संवरने का दिन। चन्द्रमा की कलाओं से सोलह श्रृंगार उधार लेके , क्षर अक्षर की नियति लिए हुए ,पाणिग्रहण से अंतिम सांस तक --खट्टा मीठा कडुवा हर अनुभव लिए जिंदगी का हर अक्षर क्षर हो रहा है पर हमारी आत्मा चन्द्रमा की पन्द्रह कलाओं की भांति हर दिन भौतिक रूप से क्षय होती हुई भी संग संग -- सोलहवीं कला को प्राप्त हो ---
मेरे लिए यही था करवाचौथ --न किसी जाती का न किसी जगह का ,मैंने अपनाया था इसी विश्वास के साथ और आज भी सोलहवीं कला की प्रतीक्षा में हूँ ,जहां हम मिलेंगे हमेशा के लिए --
त्रिगुणात्मिका प्रकृति से सम्बन्ध --निर्गुण भी त्रिगुणमय --
चाँद जो रात्रि में सूरज की रोशनी ले अमृत की वर्षा करता है प्रकृति पे ---यदि ऐसा न हो तो प्रकृति नष्ट हो जाए। ---- स्त्री की सोच === मेरा चाँद भी इस चाँद की भांति अमर हो ,शीतल हो ,घर,परिवार समाज के लिए अमृत स्वरूप हो , जो मैं छलनी से इसे देखूं तो मेरे सोलह श्रृंगार की सकारात्मक ऊर्जा मेरे चाँद के व्यक्तित्व में झिलमिलाये --
पुरुष की सोच=== --इस छलनी के उस ओर जो पन्द्रह कलाओं से युक्त चांदनी है वो अंतिम सांस तक यूँ ही अमृत बरसाती रहे - हम दोनों ''अमा '' चाँद की सोलहवीं कला को यानी मोक्ष को प्राप्त होंवें।
छलनी ==--चाँद के सहस्त्रों बार क्षय और वृद्धि प्राप्त करने के प्रतीक स्वरूप --उसके कई बिम्बों का दर्शन --
ये मैंने गुरु वशिष्ठ और युधिष्ठिर संवाद के कुछ अंशों का विश्लेषण किया ----
शरशैय्या पे लेटे भीष्म से युधिष्ठिर ने भी जब भीष्म से सुंदर रूप और सौभाग्य की प्राप्ति का सरल उपाय पूछा तो भीष्म ने चन्द्रसम्बन्धी व्रत करने की ही सलाह दी -----
ऐसा करने से --
''जायते परिपूर्णाङ्ग: पौर्णमास्येव चन्द्रमा:॥ ''
-बहुत से लोग इस व्रत को बाजार वाद से ,सिनेमा से ,दिखावे से प्रेरित मान रहे हैं --खूब से जोक बन रहे हैं। मैंने महसूस किया है-- अधिकतर पुरुषों को शिकायत है इस त्यौहार सेऔर शायद वो भी उन्हें अधिक शिकायत है जो ,करवाचौथ के दिन पत्नी की मदद के लिए भीगी बिल्ली बने छुट्टी लेके बैठे हैं। कुछ नारी मुक्ति प्रवर्तक महिलायें इसे स्त्री जाती की गुलामी का प्रतीक भी कह रही हैं उन्हें शायद पैर छूने से परहेज है --तो मेरा कहना है ये सबकी अपनी पसंद और आस्था है एक दिनी आस्था पे किसी को ऐतराज करने का कोई अधिकार नही । साल भर पड़ा है स्त्री विमर्श पे काम करने के लिये। मैं विश्लेषण करने बैठी ,बाजार वाद ,सिनेमा ,ग्लैमर सब कुछ ठीक है। कुछ लोग इसे पंजाबी संस्कृति से प्रेरित बताते हैं। पंजाबी स्वभाव से ही खिलंदड़े होते है --खूब काम करो ,खूब मस्ती करो --विश्व की हर जाति का रहन-सहन ,प्राकृतिक और भौगोलिक संसाधनों के अनुसार ही ढला ,उसी के अनुसार तीज त्यौहार बने, आज विश्वगाँव की अवधारणा सच हो रही है ,अतः त्यौहार भी जाति तक सीमित न रह के विस्तारित हो रहे है ,यही इंसान के जीवित और चेतन होने का सबसे बड़ा लक्षण है ,नफरतों के इस समय में सभी का सभी के त्यौहार अपना लेना --बशर्ते इसमें हिंसा न हो --इससे सुंदर और क्या ?
मैंने तो अपनी माँ के द्वारा मनाये जाने वाले वटसावित्री --जिसे मेरे ससुराल में बड़मावस कहते हैं और व्रत नही रखते --को व्रत करके ही मनाया , और बायना भी निकाला हड़तालिका भी रखी तो कजरी भी मनाई --और करवाचौथ वो तो खूब सजधज के साथ मनाई -व्रत की जहां तक बात तो आधा महीना मेरा व्रतों में ही निकलता था --[अब छोड़ चुकी हूँ अधिकतर ,स्वास्थ्य नरम गरम रहने लगा ] मन की ख़ुशी है --खुशियों का त्यौहार है खूब सजधज के साथ मनाइये ,बजट बिगड़े तो साल भर पड़ा है भरपाई के लिये --सभी को करवाचौथ की खूब-खूब शुभकामनायें।---आभा --
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शरद पूर्णिमा को चाँद पृथ्वी के सबसे निकट होता है -और चौथ तक आते आते वो बहुत सुंदर दीखता है। एक चाँद ही सोलह कलाओं से युक्त है --पन्द्रह कलाएं हम शुक्ल और कृष्ण पक्ष में देखते हैं पर सोलहवीं कौन सी ----
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय ---जीव बार-बार जन्म लेता है मरता है फिर फिर जन्म मरण ---- हम उसका क्षय देखने के बाद उसी जीव का वापिस आना नही देख सकते पर चन्द्रमा को हम अपने ही जीवन में सहस्त्रों बार क्षय होते और वृद्धि करते देख रहे हैं ---
''चन्द्रमा इव भूतानां पुनस्तत्र सहस्रशः।
लीयतेअप्रतिबुद्धत्वादेवमेष ह्यबुद्धिमान्।।''
चन्द्रमा की पन्द्रह कलाओं के सामान जीव भी इन पन्द्रह दिनों में ही जन्मता मरता है। इसके आगे एक सोलहवीं कला भी है वही नित्य है --''अमा'' नाम है उसका। यही जीव की भी सूक्ष्म कला है ,यही जीव की मूल प्रकृति है जिसे जीव न देख पाता है न जान पाता है। इसी कला को जानने समझने के लिए जीव आवागमन के कुचक्र में फंसा है --जिस पल बोध हो गया मोक्ष मिलेगा उसी पल।
---चन्दा की संगति इसी सोलहवीं कला को जानने के लिये --और करवाचौथ ,छन्नी से दोनों एक दूसरे के सोलह कला युक्त रूप को अंतर्भुक्त करें और संग-संग मोक्ष लें ,इसी विश्वास का प्रतीक।जीव वह महान आत्मा है जिसका पिता सूर्य है , जो चन्द्रमा की कलाओं से चल के हम तक पहुंची है --पवित्र शुद्ध ,निर्गुण ,जिसका सगुण रूप है पतिपत्नी --जो निर्माण करते हैं सृष्टि का --प्रकृति सा सजने संवरने का दिन। चन्द्रमा की कलाओं से सोलह श्रृंगार उधार लेके , क्षर अक्षर की नियति लिए हुए ,पाणिग्रहण से अंतिम सांस तक --खट्टा मीठा कडुवा हर अनुभव लिए जिंदगी का हर अक्षर क्षर हो रहा है पर हमारी आत्मा चन्द्रमा की पन्द्रह कलाओं की भांति हर दिन भौतिक रूप से क्षय होती हुई भी संग संग -- सोलहवीं कला को प्राप्त हो ---
मेरे लिए यही था करवाचौथ --न किसी जाती का न किसी जगह का ,मैंने अपनाया था इसी विश्वास के साथ और आज भी सोलहवीं कला की प्रतीक्षा में हूँ ,जहां हम मिलेंगे हमेशा के लिए --
त्रिगुणात्मिका प्रकृति से सम्बन्ध --निर्गुण भी त्रिगुणमय --
चाँद जो रात्रि में सूरज की रोशनी ले अमृत की वर्षा करता है प्रकृति पे ---यदि ऐसा न हो तो प्रकृति नष्ट हो जाए। ---- स्त्री की सोच === मेरा चाँद भी इस चाँद की भांति अमर हो ,शीतल हो ,घर,परिवार समाज के लिए अमृत स्वरूप हो , जो मैं छलनी से इसे देखूं तो मेरे सोलह श्रृंगार की सकारात्मक ऊर्जा मेरे चाँद के व्यक्तित्व में झिलमिलाये --
पुरुष की सोच=== --इस छलनी के उस ओर जो पन्द्रह कलाओं से युक्त चांदनी है वो अंतिम सांस तक यूँ ही अमृत बरसाती रहे - हम दोनों ''अमा '' चाँद की सोलहवीं कला को यानी मोक्ष को प्राप्त होंवें।
छलनी ==--चाँद के सहस्त्रों बार क्षय और वृद्धि प्राप्त करने के प्रतीक स्वरूप --उसके कई बिम्बों का दर्शन --
ये मैंने गुरु वशिष्ठ और युधिष्ठिर संवाद के कुछ अंशों का विश्लेषण किया ----
शरशैय्या पे लेटे भीष्म से युधिष्ठिर ने भी जब भीष्म से सुंदर रूप और सौभाग्य की प्राप्ति का सरल उपाय पूछा तो भीष्म ने चन्द्रसम्बन्धी व्रत करने की ही सलाह दी -----
ऐसा करने से --
''जायते परिपूर्णाङ्ग: पौर्णमास्येव चन्द्रमा:॥ ''
-बहुत से लोग इस व्रत को बाजार वाद से ,सिनेमा से ,दिखावे से प्रेरित मान रहे हैं --खूब से जोक बन रहे हैं। मैंने महसूस किया है-- अधिकतर पुरुषों को शिकायत है इस त्यौहार सेऔर शायद वो भी उन्हें अधिक शिकायत है जो ,करवाचौथ के दिन पत्नी की मदद के लिए भीगी बिल्ली बने छुट्टी लेके बैठे हैं। कुछ नारी मुक्ति प्रवर्तक महिलायें इसे स्त्री जाती की गुलामी का प्रतीक भी कह रही हैं उन्हें शायद पैर छूने से परहेज है --तो मेरा कहना है ये सबकी अपनी पसंद और आस्था है एक दिनी आस्था पे किसी को ऐतराज करने का कोई अधिकार नही । साल भर पड़ा है स्त्री विमर्श पे काम करने के लिये। मैं विश्लेषण करने बैठी ,बाजार वाद ,सिनेमा ,ग्लैमर सब कुछ ठीक है। कुछ लोग इसे पंजाबी संस्कृति से प्रेरित बताते हैं। पंजाबी स्वभाव से ही खिलंदड़े होते है --खूब काम करो ,खूब मस्ती करो --विश्व की हर जाति का रहन-सहन ,प्राकृतिक और भौगोलिक संसाधनों के अनुसार ही ढला ,उसी के अनुसार तीज त्यौहार बने, आज विश्वगाँव की अवधारणा सच हो रही है ,अतः त्यौहार भी जाति तक सीमित न रह के विस्तारित हो रहे है ,यही इंसान के जीवित और चेतन होने का सबसे बड़ा लक्षण है ,नफरतों के इस समय में सभी का सभी के त्यौहार अपना लेना --बशर्ते इसमें हिंसा न हो --इससे सुंदर और क्या ?
मैंने तो अपनी माँ के द्वारा मनाये जाने वाले वटसावित्री --जिसे मेरे ससुराल में बड़मावस कहते हैं और व्रत नही रखते --को व्रत करके ही मनाया , और बायना भी निकाला हड़तालिका भी रखी तो कजरी भी मनाई --और करवाचौथ वो तो खूब सजधज के साथ मनाई -व्रत की जहां तक बात तो आधा महीना मेरा व्रतों में ही निकलता था --[अब छोड़ चुकी हूँ अधिकतर ,स्वास्थ्य नरम गरम रहने लगा ] मन की ख़ुशी है --खुशियों का त्यौहार है खूब सजधज के साथ मनाइये ,बजट बिगड़े तो साल भर पड़ा है भरपाई के लिये --सभी को करवाचौथ की खूब-खूब शुभकामनायें।---आभा --
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